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ईश्वर एक भी है और अनेक भी । संसार से जो व्यक्ति कर्मों का क्षय करके मुक्ति में जाते हैं वह व्यक्ति रूप जाने से ईश्वर अनेक है जब संसार से मुक्त होने पर वे सभी आत्मायें स्वरूप से एक हो जाती हैं तो उस दृष्टि से ईश्वर एक है । ईश्वर का स्वरूप जान लेने से स्पष्ट है कि ईश्वर पुनः संसार में जन्म नहीं लेते क्योंकि उनके सारे कर्म छूट जाते हैं जब सब कर्म छूट जाते हैं तभी यह आत्मा ईश्वर बनती है, ईश्वर की कोई इच्छा नहीं होती, जब इच्छा नहीं होती तो किसी कार्य में प्रवृत्ति भी नहीं हो सकती। इसलिए जैन धर्म के सिद्धान्त के अनुसार ईश्वर किसी चीज को बनाते नहीं किसी को सुख-दुख नहीं देते । संसार के जीव जो सुख दुख भोग रहे हैं। वे अपने कर्मों के अनुसार भोगते हैं।
यद्यपि ईश्वर की किसी काम में प्रवृत्ति नहीं होती फिर भी उसके उपसिना करना परम आवश्यक है । उपासना उसकी करना चाहिए जो इस संसार से मुक्त हो गया हो, फल प्राप्ति का आधार देना लेना नहीं हैं, जिसे सरह दान देने वाला जिसे दान देता है उससे फल नहीं पाता, किन्तु दान देने के समय उसकी सद्भावना ही फल होती है, उसी तरह ईश्वर की उपासना करने, के समय जो हमारा अन्त करण शुद्ध होता है, वही उत्तम फल है, इसलिए, ईश्वर की उपासना करना चाहिए । ईश्वर का स्वरूप बताने के बाद सूरिजी ने "गुरू" का स्वरूप इस प्रकार बताया
"गुरू वे ही होते हैं जो पांच महाव्रतों-हिंसा, सत्य, अस्तया ब्रह्मच्य और अपरिग्रह का पालन करते हैं, भिक्षावृत्ति से अपना जीवन निर्वाह करते हैं, जो स्वभाव रूप सामायिक में हमेशा स्थिर रहते हैं और जो लोगों को धर्म का उपदेश देते हैं गुरू के इन संक्षिप्त लक्षणों का जितना विस्तृत अर्थ करना हो, हो सकता है अर्थात् साधू के आचार्य, विचारों और व्यवहारों का समावेश उपर्युक्त पांच बातों में हो जाता है । गुरू में दो बातें जो सबसे बड़ी हैं-तो होनी ही चाहिए
1-स्त्री संसर्ग का अभाव । 2-मूर्छा का त्याग।
जिसमें ये दो बातें न हो वह गुरू होने या मानने योग्य नहीं होता। इन बातों की रक्षा करते हुए गुरू को अपने भाचार व्यवहार पालने चाहिए गुरू लिए और भी बातें कही गई है वह अच्छे स्वादु और गरिष्ठ भोजन का बार-बा उपयोग न करें, दुस्सह कष्ट को भी शान्ति के साथ सहे, इबका गाड़ी, घोड़ा, ऊ
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