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________________ ( 67 ) को गुण बताते हो ? बीरबल ने कहा ज्ञान को तो मैं गुण ही मानता हूं। तो रिजी ने कहा जब तुम ज्ञान को गुण मानते हो तो तुम्हारी मान्यतानुसार ही यह शुद्ध हो जाता है कि ईश्वर "सगुण" है। w o mastamaARAMAIHDINA A samme . anSANDARADAINNERISTIANSam a kosinterest जगद्गुरू श्री मद्विजय हीरसूरिजी महाराज ने अकबर के अत्याग्रह से सम्वत 1640 (सन 1583) का चातुर्मास फतेहपुर सीकरी में ही किया। बर्मापदेश द्वारा जनता को सर्चत किया। सारजी के उपका में प र भर बादशाह ने सारे राज्य में अहिंसा पलाने की घोषणा कर दी दस से जैन धर्म की करुणा का प्रवाह सब दिशाओं में फैल गया। चातुर्मास के बाद अकबर के आग्रह से उपाध्याय शान्तिचन्द्र जी को वहीं छोड़कर सूरिजी बिहार करके आगरा होते हुए मथुरा के प्राचीन जन स्तूपों की यात्रा करते हुए ग्वालियर पहुंचे । नाथूराम प्रेमी ने हीरविजय सूरिजी के बारे में लिखा है कि "मुगल बादशाह अकबर के समय हीरविजयसूरि नाम के एक सुप्रसिद्ध श्वेताम्बराचार्य हुए हैं। अकबर उन्हें गुरूवत् मानता था । सस्कृत और गुजराती में उनके सम्बन्ध में बीसों ग्रन्थ लिखे गये हैं इन ग्रन्थों में लिखा है कि हीरविजयजी ने मथुरा से लौटते हुए गोपाचल (ग्वालियर) की बावनगजी भव्याकृति मूर्ति के दर्शन किये।" और यह मूर्ति दिगम्बर सम्प्रदाय की है, इसमें कोई सन्देह नहीं। इससे मालूम होता है कि बादशाह अकबर के समय तक भी दोनों सम्प्रदायों में मूर्ति सम्बन्धी विरोध जीव नहीं था। उस समय श्वेताम्बर सम्प्रदाय के आचार्य तक नग्न मूर्तियों के दर्शन किया करते थे। mammicromaNaIMIRMAawanSHARRAININisa k sehimmatwwinninia'. बरवाNLY सम्वत् 1641 (सन् 1584) का चातुर्मास अभिरामाबाद करने के बाद भव्य जीवा को प्रतिबोध देते हुए गांव-गांव घूमते हुए सूरिजी पुनः आगरा आये । श्री संघ के आग्रह पर सम्बत् 1642 सन 185) का चातुर्मास आगरा में ही किया । बादशाह आगरी में जगद्गुरू के दर्शन करने गया वहां जनता की बढ़ती हुई सद्भावना देखकर अत्यन्त हर्षित हुआ । इसी समय सूरिजी ने बादशाह से "जजिया" कर बन्द करने का अनुरोध किया । यद्यपि अकबर ने गद्दी पर बैठने के नौ वर्ष बाद ही अपने राज्य में "जजिया" कर लेना बन्द कर दिया था लेकिन अभी गुजरात में यह कर लिया जाता था क्योंकि गुजरात उस समय अकबर के अधिकार में नहीं था रिमाक अनुरोध करने पर बादशाह ने इस कर को उसी समयः बन्द कर दिया। हीरसौभाग्यकाव्य की टीका से भी यह बात सिद्ध होती है । इसी पुस्तक के 14 वें सर्ग के 271 वें श्लोक की टीका में लिखा है कि AyrapaHARKHER: ___1. जैन साहित्य और इतिहास-नाथूराम प्रेमी पृष्ठ 246 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003201
Book TitleMugal Samrato ki Dharmik Niti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNina Jain
PublisherKashiram Saraf Shivpuri
Publication Year1991
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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