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बाड़ दिया था जहांगीर स्वयं दूसरों के धर्म में दखलंदाजी अच्छी नहीं मानता था लिया उसने धर्म परिवर्तन कराने के खिलाफ फरमान जारी किया था फिर भी वह स्वयं एक सच्चा मुसलमान रहना चाहता था | वह इस्लाम की विनम्रता का पक्षधर था । अतः धार्मिक श्रेष्ठता के बल पर अपने को बहुत ऊंचा बतलाने वाले काजी मुल्लाओं को दण्डित करने में नहीं हिंच
किचाता था ।
राज्य पर आसीन होने के प्रारम्भिक दिनों में जहाँगीर ने अकबर के काल से चली आ रही इबादतखाना में धार्मिक चर्चा की प्रथा को कायम रखा। इसमें हिन्दू, ईसाई, जैन तथा मुस्लिम सभी आमन्त्रित रहते थे । किन्तु जैसा कि वर्णन में मिलता है जहांगीर के अतिरिक्त कई मुसलमान इस चर्चा में भाग नहीं लेता था । तुजुक ए-जहांगीरी के अनुसार उसने गुजरात के सूबेदार को पत्र लिखकर वाजिदुद्दीन के पुत्र से खुदा के नामों की सूची मंगवाई थी जिनकी वह जांच कर सके:
मथुरा में जहांगीर ने वैष्णव महन्त जदरूप से भेंटकर वेदान्त का परिचय प्राप्त किया तथा उसे सूफी विचारों के अनुसार ही माना। इस सम्बन्ध में जहांगीर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है - "इस समय गोसाई जदरूप ने मथुरा में निवास स्थान बनाया था हम उसके सत्संग के महत्व को समझते थे इसलिए उससे मिलने गये और बहुत देर तक उसके सत्संग का लाभ उठाया सत्यतः उसका अस्तित्व हमारे लिए बड़े लाभ का हैं : *
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सम्राट किसी भी धार्मिक सम्प्रदाय को कमजोर नहीं देखना चाहता था । वाचार्य हीरविजयसूरिजी के पश्चात् उनके प्रधान शिष्य मुनिविजयसेन सुरिजी ने आचार्य पद प्राप्त किया तथा उनके पश्चात् मुनिविजयदेवजी ने । किन्तु मुनिविजयदेवजी की धामिक मान्यतायें आचार्य श्रीहीरविजयजी से कुछ भिन्न थी अतः सम्प्रदाय के अन्य मुनियों ने आचार्य मानना स्वीकार न करते हुए मुनिविजय तिलकजी को आचार्य बना दिया । सम्प्रदाय के अनुयायियों के इस प्रकार दो भागों मे बंट जाने पर धर्म प्रचार को आघात् लगाना स्वाभाविक था । जब बादशाह को
1. द रिलिजीमय पोलिसी ऑफ द मुगल एम्पायर - एस. आर. शर्मा पृष्ठ 62
2. वही पृष्ठ 62
3. तुजुक -ए-जहांगीरी - अनुवाद डॉ. बेनीप्रसाद पृष्ठ 243
4. जांगीरनामा - अनुवादक ब्रजरत्नदास पृष्ठ 615
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