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को आते देखकर बादशाह ने विनयपूर्वक सामने जाकर कुशल क्षेम पूछने के साथ ही सूरिजी को नमस्कार किया। सूरिजी ने "धर्मलाभ"1 देकर राजा को संतुष्ट किया।
बादशाह को उपदेश देकर सूरिजी ने लोककल्याण तथा जीवदया के जो कार्य करवाये उनका विस्तृत विवरण आगे के लिए छोड़कर यहां केवल इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि उनके लोकोपकारी कार्य केवल इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि उनके लोकोपकारी कार्य केवल जैनों के लिए ही नहीं अपितु सम्पूर्ण देश की प्रजा के हितार्थ थे।
सूरिजी में विनय, विवेक, समभाव और क्षमा जैसे उच्चतम गुणों का भंडार था । गुजरात जैसे परम श्रत्रालु प्रदेश को छोड़ना, अनेक प्रकार के कष्ट उठाते हुए फतेहपुर सीकरी तक जाना, चार वर्ष तक वहां रहना अकबर जैसे बादशाह को अपना भक्त बनाना और सारे साम्राज्य में छः महीने तक जीव-हिसा बन्द करवाना उनके जीवन की सार्थकता दर्शाते हैं।
सूरिजी में जैसी ग्रण ग्राहकता थी वैसी ही लघुता भी थी यद्यपि अकबर ने जीव दया से सम्बन्ध रखने वाले और इसी तरह के जो काम किये थे, उन सबका श्रेय हीरविजयसूरिजी को ही है फिर भी वे हमेशा यही समझते थे कि मैंने जो कुछ किया हैं या करता हूं, यह तो मेरा कर्तव्य है। एक बार एक श्रावक ने अकबर को अभक्ष्य छुड़ाने में उनकी प्रशंसा की तो सूरिजी ने कहा कि "जगत के सब जीवों को सन्मार्ग पर लाना ही तो हमारा धर्म है, हम तो केवल उपदेश देने के अधिकारी है। हजारों को उपदेश देने पर भी लाभ तो बहुत ही कम मनुष्यों को होता है । अकबर ने जो काम किये है इसका कारण तो उसका स्वच्छ अन्तःकरण ही है । श्रेष्ठ कार्य में याचना करने वाले की अपेक्षा दान देने वाले की कीति विशेष होती है मैंने तो मांगकर अपना कर्तव्य पूरा किया और बादशाह ने देकर उदारता दिखाई, कार्य करने की अपेक्षा उदारता दिखाना अधिक श्रेष्ठ हैं।" सूरिजी के इस कथन से स्पष्ट होता है कि उनमें कितनी लधुता थी, वे निरभिमानी थे।
सूरिजी ने जैसे उपदेशादि बाह्य प्रवृत्तियों से अपने जीवन को सार्थक किया था वैसे ही बाह्य प्रवृत्ति की पूर्ण सहायक-कारण आध्यात्मिक प्रवृत्ति को भी
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1. जैन साधू जब किसी को आर्शीवाद देते हैं तो यही शब्द "धर्मलाभः"
कहते हैं।
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