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2. आचार्य होरविजयसूरि
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हीरविजयसूरिजी का जन्म मगशर सूदी नवमी 1583 (सन् 1526) को पालनपुर के ओसवाल परिवार में हुआ। इनके पिता कराशाह तथा माता नाथीबाई ने इनका नाम "हीरजी" रखा। 13 वर्ष की उम्र में कार्तिक वजी दून सम्वत 1596 (सन 1539) को पाटन से आपने आचार्य विजयदानसरि से दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा नाम "हीरहर्ष" रखा गया। दीक्षा के बाद सूरिजी का मन में आपको "न्यायशास्त्र" में पारंगत करने की भावना आई, गुरु की आज्ञा से धर्मसागरजी और राजविमलजी को साथ लेकर हीरहर" मनि देवगिरी (दौलताबाद) न्यायशास्त्र का अध्ययन करने गये और न्यायशास्त्र के कठिन से कठिन अन्यों का अध्ययन किया. अध्ययनपूर्ण हो जाने पर जब वापिस गुरु के पास आये तो गुरु ने हीरहर्ष की योग्यता देखकर सम्बत् 1607 (सन् 1550) में नारदपुरी (नाडलाई) मारवाड़ में पण्डित पद दिया और उसी गांव में अगले वर्ष उपाध्याय पद प्रदान किया। पौष सुदी पंचमी सम्वत 1610 (सन 1553) को सिरोही (मारवाड़) में आचार्य पद से विभूषित कर इनका नाम हीरविजयसूरि रखा (जैन साधुओं की ऐसी परम्परा है कि आचार्य पदवी मिलने के बाद नाम बदल दिया जाता।
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अब हीरविजयसूरिजी ने अपने गुरु के साथ पाटन की तरफ बिहार किया। पाटन पहुंचने पर आचार्य विजयदानसूरि ने हीरविजयसूरि को अपना पट्टधर घोषित किया। इस अवसर पर वहां के सूबेदार शेरखान के मन्त्रि भंसाली समरष ने अतुल धन खर्च किया। सम्वत् 1622 (सन् 1565) में गुरुजी के काल कर जाने, से आप गच्छाधिपति बन गये मीर सारे देश में विचरण करने लगे,
जिस समय बादशाह अकबर ने हीरविजयसूरिजी को अपने दरबार में आमं वित किया उस समय वे गुजरात के गंधार प्रान्त में थे। बादशाह का निमंत्रण मिलने पर उन्होंने आस-पास के शहरों के जैन संघ के प्रमुख श्रावकों से परामर्श किया और श्रीसंघ की इच्छानुसार फतेहपुर सीकरी के लिए बिहार किया। विभिन्न स्थानों पर धर्मोपदेश देते हुए उन्हें महाराणा प्रताप का भी निमंत्रण मिला था कि मेवाड़ में पधारकर धर्मोपदेश देने की कृपा करें पत्र के लिए परिशिष्ट नम्बर । देखें
जिस समय सूरिजी बादशाह के दरबार में पहुंचे उस समय उनके साथ बान्तिक शिरोमणि उपाध्याय श्री विमलमर्षगणि शतावधानी, श्रीशान्तिचन्द्रगणि, पं.सहजसागरगणि, पं. सिंहविमलगणि, पं. हेमविजयगणि, व्याकरण चूड़ामणि प.लाभविजयगणि आदि तेरह साधू थे। अपनी विद्वद मंडली के साथ सूरिजी
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