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________________ ( 2 ) यानि संवत 1562 (सन् 1505) में आनन्दविमलसूरिजी से दीक्षा ग्रहण की। उस समय साधू समाज में बहुत शिथिलाचार प्रवेश कर गया था। जिस समय आनन्दविमलसूरिजी ने विजयदानसूरिजी को अपना पट्टधर घोषित किया तो विजयदानसूरिजी ने सर्वप्रथम साधु समुदाय को जैन साधुओं के नियमानुसार चलने के लिए एवं साधू समाज को संगठित करने के लिए अधिक परिश्रम किया। न केवल साधू समाज अपितु उस समय देश की हालत भी बहुत ही सोचनीय थी। राजा महाराजा आपस में लड़-लड़कर अपनी शक्ति को क्षीण कर रहे थे । उसी का लाभ उठाकर मुगल साम्राज्यं भारत में अपनी शक्ति बढ़ाने और पूरे भारत को अपने कब्जे में करने की कोशिश में लगा हुआ था । ऐसी परिस्थिति में जैन मंदिर और जैन पुस्तकों, भण्डारों को भी बहुत क्षति होने का डर था, जिनको सुरक्षित कराने में जैन समाज को भी उन्होंने संगठित किया और उनके संरक्षण की व्यवस्था कराई। इस तरह सूरिजी इस भू-मण्डल में अनेक जीवों को शुद्ध मार्ग को दिखाते हुए विचरते रहे । बिहार करते हुए एक समय सूरिजी अजमेरू दुर्ग पहुंचे, तो वहां के "लुका-मत" नामक कुमति के रागी लोगों ने उन्हें भूतपिशाच वाला मकान ठहरने के लिए दिखाया । सूरिजी ने अपने शिष्यों के साथ उसी में निवास किया। उस मकान में रहने वाले दुष्ट देवों ने अनेक प्रकार के वीभत्स रूपों को धारण करके साधुओं को डराना शुरू किया जब सूरिजी को यह बात पता चली तो एक रात वे निद्रा न लेकर सूरि मंत्र का ध्यान लगाकर बैठ गये उनके सामने देवता लोग आकर अनेक प्रकार की चेष्टायें करने लगे लेकिन सूरिजी अपने ध्यान से किंचित मात्र भी विचलित नहीं हुए। उन देवों को सारी चेष्टायें सरिजी के सामने व्यर्थ हो गई । जब नगरवासियों को यह विश्वास हुमा कि सूरिजी के प्रभाव से व्यंतरों का सर्वदा के लिए विघ्न दूर हो गया तो वे मुक्त कंठ से सूरिजी की प्रशंसा करने लगे। इस तरह जैन शासन को उन्नति के शिखर पर छोड़कर वैशाख सुदी बाइस संवत 1622 (सन् 1565) को बंडावली (पाटन के पास) गांव में वे स्वर्ग चले गये। आचार्य विजयदानसूरिजी की समाज को महाम वेन आचार्य हीरविजयसूरिजी जैसे रत्न को देना है जिन्होंने मुगलकाल में जैनों के लिए ही नहीं अपितु सम्पूर्ण आर्य प्रजा की रक्षा के लिए महान कार्य किये। 1. यह मत जिनप्रतिमा का शत्रु था । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003201
Book TitleMugal Samrato ki Dharmik Niti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNina Jain
PublisherKashiram Saraf Shivpuri
Publication Year1991
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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