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________________ । 79 ) 7 ज्ञान उसे श्वेताम्बर जैन साधू से ही प्राप्त हुआ है । उपर्युक्त प्रमाण के अनुसार ये जैन साधू भानुचन्द्र उपाध्याय ही सम्भव है । यह भी एक आश्चर्य का विषय है । कि अबुल फजल ने जैन धर्म पर एक आध स्थल को छोड़कर इतने सुन्दर हुग से लिखा है कि विरले ही लेखक इस प्रकार लिखने में सफल हो सकते हैं। एक बार बादशाह के सिर में असहनीय दर्द उठा । वैयों को इलाज व अन्य सभी प्रकार के प्रयत्न करने के बावजूद भी ठीक न हुआ। उसने भानु चन्द्र जी को बुलाकर उनका हाथ अपने सिर पर रखा। भानुचन्द्र जी के “पार्श्व मन्त्र' सुनाने से बादशाह को बड़ा आराम मिला। बादशाह को तो पहले ही भानुचन्द्र जी पर विश्वास था लेकिन इस घटना से उनका विश्वास अल हो गया। बादशाह के स्वस्थ होने की खुशी में उमरावों ने 500 गायें खुदा को भेंट चढ़ाने के लिए एकत्रित की । जब बादशाह को इस बात का पता चला तो उसने उसी समय गायों को मुक्त करने का आदेश दिया जिससे भानुचन्द्र जी को अत्यन्त प्रसन्नता हुई । स्वस्थ होने की खुशी में बादशाह ने भानुचन्द्र से कुछ भी मांगने को कहा तो भानुचन्द्र जी ने निवेदन किया कि "अजिया" कर हटा दिया जाये और गाय, बैल, भैस सब जीवों की रक्षा की जाये । बादशाह ने उसी समय ऐसा फरमान लिख दिया। इस घटना का विवरण हीरविजयसूरिरास और भानुचन्द्रगणिचरित में मिलता है । भानुचन्द्र जी को "उपाध्याय" पद अकबर के प्राग्रह से दिया गया था। अकबर ने एक बार भानुचन्द्र जी के वार्तालाप से प्रसन्न होकर यह पूछा कि जैन समाज में सबसे बड़ा पद कौन सा है ? भानुचन्द्र जी ने उत्तर दिया--कि सबसे बड़ा पद आचामं है और उससे छोटा उपाध्याय है। अकबर ने उन्हें आचार्य पद से विभूषित करना चाहा पर भानुचन्द्र जी ने कहा कि इस पद के मैं अभी योग्य नहीं हूँ। वर्तमान समय में इस पद के योग्य आचार्य श्री हीरविजयसूरि हैं । अबुल फजल के परामर्श पर अकबर ने उन्हें "उपाध्याय पद्र देना चाहा तो जैन समाज के किसी प्रमुख व्यक्ति ने उन्हें सुझाया कि इसके लिए हमारे समाज के आचार्य की अनुमति आवश्यक है, आप वह हीरविजयसूरिजी मंगा लें। अबुलफजल ने एक पत्र द्वारा हीरविजयसूरिजी से अनुमति मंगवाई। हारविजयसूरिजी ने अनुमति के साथ वासक्षेप भी भेजा इस प्रकार भानुचन्द्र उपाध्याय पद से विभूषित किये गये ।। 1. आइने अकबरी एच. एस. जैरेट द्वारा अनुदित भाग 3 पृष्ठ 210 2. हीरविजयसूरीरास पेज 180-81, भानुचन्द्रगणि धरित पेज 59-60 3. भानुचन्द्रगणिचरित द्वितीय श्लोक 169-186 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003201
Book TitleMugal Samrato ki Dharmik Niti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNina Jain
PublisherKashiram Saraf Shivpuri
Publication Year1991
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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