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होने लगती थी। ऐसे संकटमय समय में अपने पूर्वजों के गौरव की रक्षा करना दूर रहा बहिक जीवन निर्वाह करना भी आर्य प्रजा के लिए दुष्वार हो गया था । अपने-अपने धन, कुटुम्ब और धर्म की रक्षा में ही जब वे समर्थ न हो सके तब पारस्परिक प्रेम, संगठन शिक्षा आदि बातों का हास होना स्वाभाविक है । बाल-विवाह, पर्दे की प्रथा आदि कतिपय घातक कुरीतियाँ भी इसी समय में प्रचलित हुई ।
करता था --
इस संकटावस्था में वास्तविक धार्मिकता मुरझा गई थी। इन कष्टों को सहन करते समय आध्यात्मिक तत्व चिन्तन का उन्हें समय ही नहीं मिलता था । इस समय तो सारा हिन्दू समाज एक स्वर से अपने-अपने इष्ट देवों से यही बिनय - "प्रभो इन दुख के दिनों को दूर करो। इस भयंकर अत्याचार को भारत से उठा लो हमारे आर्यत्व की रक्षा करो देश में शान्ति का राज्य स्थापन करो हम अन्तःकरणपूर्वक चाहते हैं कि वीर प्रसू भारत माता की कूख से, फिर से तत्काल ही एक ऐसा महानवीर पुरुष उत्पन्न हो जो देश में शीघ्रता से शान्ति का राज्य स्थापन करे और हमारे ऊपर होने वाले इस जुल्म को जड़ से खोद 1 भारत माता ! क्या तू ऐसा समय न लायेगी, कि जिसमें हम अपने दख के आंसू पोंछ डालें।
और फिर जैसा कि प्रकृति का नियम है कि अवनति के पश्चात् उन्नति का होना इसी अटल नियम के अनुसार समय-समय पर विकृत परिस्थितियों को सुधारने के लिए महापुरुषों का जन्म हुआ करता है जैसे देशहित का आधार देश का राजा होता है वैसे ही सत्चरित्र विद्वान महात्मा भी हैं। विद्वान साधु महात्मा जैसे प्रजा हित के लिए उसको अनीति से दूर रखकर सन्मार्ग पर 'चलाने के प्रयत्न करते हैं। वैसे ही राजाओं को भी निर्भीकता पूर्वक उनके धर्म समझाते हैं । घनिष्ठ सम्बन्धियों और खुशामदियों का जितना प्रभाव राजा पर नहीं होता, उतना प्रभाष शुद्ध चरित्र वाले मुनियों के एक शब्द का होता है 1
इतिहास देखने पर हमें इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि राजाओं को प्रतिबोध देने में जो सफल हुए वे धर्म गुरू ही थे जैसे सम्प्रति राजा को प्रतिबोध करने का सम्मान आर्य सुहरित ने आमराजा को प्रतिबोध करने का सम्मान, बप्पभट्टी ने कुमारपाल को प्रतिबोध करने का सम्मान हेमचन्द्राचार्य ने प्राप्त किया । इसी तरह जिस युग की हम बात कर रहे हैं उस युग में भी हिन्दूओं की सामाजिक स्थिति सुधारने के लिए एक सुयोग्य सम्राट के साथ-साथ महात्मा पुरुषों के अवतार की भी आवश्यकता थी ।
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शास्त्रों में कहा है कि जगत में जब-जब धर्म की कोई विशेष हानि होने
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