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________________ ( 14 ) इसी तरह यदि हम भारत के प्राचीन इतिहास पर दृष्टि डालें, तो पता चलता है कि हमारा प्राचीन इतिहास कितना गौरवमय और उज्जवल है धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक सभी क्षेत्रों में इस देश का अतीत गौरव सर्वोपरि है। भारत का सामाजिक उत्कर्षण किसी भी प्रकार न्यून नहीं था सामाजिक संगठन बहुत ही सुव्यवस्थित बा । आचार-विचारों की पवित्रता आ!ि भारत की सामाजिक उन्नति का उज्जवल अतीत गौरव इतिहास के पष्ठों स्वर्णाक्षरों में अंकित है। किसी के सब दिन एक जैसे नहीं होते । भारत भी इसका शिकार हुआ कालचक्र के प्रबल झकोरों में पारस्परिक फूट आदि दुर्गुण पैदाकर इस देश के उन्नति को दिनों-दिन हीनयान करना प्रारम्भ किया और क्रमशः देश की शरि इतनी क्षीण हो गई कि पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु के पश्चात् भारत की जनत निरन्तर विदेशी आक्रमणकारियों से त्रस्त होती रही । इस तरह की अनेक विपत्तियां झेलते हुए भारत ने सोलहवीं शताब्दी पदार्पण किया। अब हम देखेंगे कि इस समय हिन्दुओं की दशा कैसी थी? मुसलमान बादशाहों ने अपनी कठोर राजनीति और असहिष्णु वृत्ति भारतवासी लोगों को असह्य यन्त्रणायें देना प्रारम्भ कर ही दिया था। इस्ल धर्म की एक मात्र वृद्धि के अभिलाषी, अत्याचारी, मलेच्छों ने इस अन्याय प्रव को चरम सीमा तक पहुंचा दिया । भिन्न-भिन्न प्रान्तों के सूबेदार अपनी-अ। प्रजा को बहुत सताते थे। इस्लाम धर्म अस्वीकार करने वाले आर्यों पर न प्रकार के कर लगा दिये थे, जिनमें तीर्थ-यात्री कर और वार्षिक "जजिया" को बरबाद करने के लिए पंग-पग पर अपना भयंकर रूप धारण किये हुए थे । सामान्य अपराधियों के भी हाथ पैर काट डालने की, प्राण ले लेने की । इसी प्रकार की क्रूर सजायें दी जाती थी। जजिया भी कोई असाधारण का था नहीं। आठवी शताब्दी में मुसलमान बादशाह कासिम ने भारतीय प्रजा यह कर लगाया था पहले तो उसने आर्य प्रजा को इस्लाम स्वीकार करने विवश किया आयं प्रजा ने अटूट धन दौलत देकर अपने आर्य धर्म की रक्षा फिर हर साल ही वह प्रजा से रुपया वसूल करने लगा। प्रतिवर्ष जो धन । होता था वह जजिया था। फरिश्ता ने तो इस कर को "मृत्यु तुल्य दण्ड" की दी थी । ऐसा दण्ड लेकर भी आर्य प्रजा ने अपने धर्म की रक्षा की थी। यही सोलहवीं शताब्दी में भी मौजूद था। इस कर को न देने वाली आर्य प्रजा के प्राप ले लिए जाते थे । यद्यपि ऐसा नहीं था कि कर की रकम बहुत ज्यादा थी, यह कर केवल हिन्दुओं पर लगता था इसलिये उन्हें अपनी स्थिति मुसलमान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003201
Book TitleMugal Samrato ki Dharmik Niti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNina Jain
PublisherKashiram Saraf Shivpuri
Publication Year1991
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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