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पास दीक्षा ग्रहण कर "महिमराज" नाम पाया । निर्मल वरि
होने के कारण सूरिजी ने इन्हें जैसलमेर में माघ शुक्ला पंचमी सम्वत् 1640 (सन् 1583) को वाचक पद से अलंकृत किया। जिनचन्द्रसूरि ने अकबर के "दरबार में जाने से पहले महिमराज जी को भेजा था । सम्वत् 1649 (सन् 1592 ) को लाहौर में इन्हें आचार्य पद देकर "जिनसिंहसूरि" नाम रखा गया। इस अवसर पर अकबर के कर्मचन्द्र ने करोड़ों रुपया व्यय कर उत्सव मनाया। अनेकों शिलालेखों और ग्रन्थ प्रशस्तियों में इनका नाम मिलता है ।
मन्त्रि
सम्वत् 1670 ( सन् 1613) को बेनातट चातुर्मास में गुरू ने इन्हें गच्छनायक पद प्रदान किया। गांव-गांव में विचरण करते व जीवों को भी उपदेश देते हुए पौष सुदी तेरस सम्वत् 1674 (सन् 1617) को मेडता में सूरिजी का स्वर्गवास हो गया ।
4. आचार्य श्री जिनराजसूरि
छत्रयोग, श्रवण नक्षत्र में वैशाख सुदी सप्तमी सम्वत् 1647 ( सन् 1590) को बोहित्थरा गोत्रीय परिवार में इनका जन्म हुआ । माता धारलदेवी और पिता शाह धर्मसी ने इनका नाम खेतसी रखा । मार्गशीर्ष शुक्ला तेरस सम्वत् 1656 (सन् 1599 ) को आचार्य जिनसिंहसूर के पास दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा का नाम "राजसिंह" रखा । आचार्य जिनचन्द्रसूरि ने बड़ी दीक्षा देकर "राजसमुद्र” नाम रखा उन्होंने ही सम्वत् 1668 (सन् 1611) में आसाउल में उपाध्याय पद दया। मेडता में आचार्य जिनसिंह सूरि का स्वर्गवास हो जाने के कारण फागुन सप्तमी सम्वत् 1674 (सन् 1617 ) में इन्हें आचार्य पद देकर गच्छ का लायक बनाया गया इन्होंने अनेक मन्दिरों की प्रतिष्ठा करवाई। मार्गशीर्ष वदी र सम्वत् 1686 (सन् 1629 ) को सूरिजी आगरा में सम्राट शाहजहां से कमले । ये न्याय, सिद्धान्त, और साहित्य के बड़े भारी विद्वान थे । पाटण में षाढ़ शुक्ला नवमी सम्वत् 1699 ( सम्वत् 1642 ) को इनका स्वर्गवास हो
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(स) तत्कालीन हिन्दू समाज की स्थिति
संसार परिवर्तनशील है । क्षण-क्षण में परिवर्तन प्रकृति का नियम है । ई वस्तु ऐसी नहीं जो हर परिस्थिति में विद्यमान रहे। जिस सूर्य को हम ही अपनी प्रखर प्रतापी किरणें फैलाते हुए उदयाचल के सिंहासन पर आरूढ़ देखते हैं, वही सन्ध्या के समय निस्तेज हो, क्रोध से लाल बन अस्ताचल की गुफा में छिपता हुआ दृष्टिगोचर होता है । संसार की परिवर्तनशीलता उदय अस्त और अस्त के बाद उदय, सुख के बाद दुख और दुख के बाद सुख तरह से यह संसार अनादि काल से चला आ रहा है ।
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