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सम्वत 1612 (सन् 1555) में गुरू का स्वर्गवास हो जाने से " सुमति धीर" जैसलमेर आये। सूरिजी के साथ 24 शिष्य थे संयोगवश वे किसी को पट्टधर न HT सके । श्रीसंघ ने "सुमतिधीर" को ही इस पद के योग्य समझकर बेगडगच्छ के आचार्य श्री पूज्य गुणप्रभसूरिजी के हाथों भावों सुदी नवमी सम्बत 1612 ( सन् 1555) को आचार्य पदवी प्रदान कराई। आचार्य पद प्राप्त करने के बाद " सुमतिधीर" जिनचन्द्रसूरि के पद से प्रसिद्ध हुए ।
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अब सूरिजी ने निरन्तर सर्वत्र बिहार कर जीवों को प्रतिबोध देना प्रारम्भ किया | सम्वत 1624 (सन् 1567) नाडलाई के चतुर्मास की घटना विशेष उल्लेखनीय है कि मुगल सेनानाडलोई के बहुत ही निकट आ गई थी लूटपाट और मारकाट के भय से व्याकुल होकर जनता इधर-उधर भागने लगी । श्रीसंघ ने सूरि महाराज से भी बच निकलने के लिए कहा। सारा नगर खाली हो गया । किन्तु सूरिजी उपाश्रय में ही ध्यान लगाकर बैठे रहे उनके ध्यान बल से मुगल सेना मार्ग भूलकर अन्यत्र चली गई । सब लोग प्रसन्नता पूर्वक अपने-अपने घर आए और सूरिजी के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उनकी प्रशंसा करने लगे ।
इस तरह सूरिजी ने हजारों श्रावकों पर अपने व्यक्तित्व का प्रभाव डाला । जैन दर्शन का सद्द्बोध देकर धर्म में दृढ़ किया । अनेक स्थानों में जिनालय व fafaम्बों की प्रतिष्ठायें, उपधान, व्रत, ग्रहण आदि धार्मिक कृत्य करवाये । परपक्षियों के आक्षेपों का उत्तर देने में और विद्याभिमामी पंडितों को निरुत्तर करने में सूरिजी की प्रतिभा बहुत बढ़ी चढ़ी थी ।
इस तरह सूरिजी की कीर्ति सर्वत्र फैलते फैलते सम्राट अकबर के वैरबार तक भी जा पहुंची। सम्राट की इच्छा सूरिजी के दर्शनों की हुई इसलिए उसमें सूरिजी को अपने दरबार में आमन्त्रित किया । अकबर और जहांगीर के दरबार में इन्होंने अच्छी ख्याति पाई । (बादशाहों के दरबार में जाकर सूरिजी ने जो सत्कार्य किये उनका वर्णन आगे यथास्थान किया जायेगा ।
66 वर्षो के परिश्रम से जैन शासन का सुदृढ़ प्रचार करके आश्विन वदी दूँज सम्वत् 1670 ( सन् 1613) को सूरिजी का स्वर्गवास हो गया ।
3. आचार्य श्रीजिनसिंह सूरि
खेतासर ग्राम में माघ सुदी पूनम सम्वत् 1615 (सन् 1558) को माता चाम्पल (चतुरंग देवी) और पिता शाहचापसी के गोत्रीय परिवार में इनका जन्म हुआ। माता पिता ने मानसिंह नाम दिया । सम्वत् 1623 ( सन् 1566) में आचार्य जिनचन्द्रसूरि के उपदेशों से प्रभावित होकर 8 वर्ष की उम्र में हीं उनके
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