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________________ ( 10 ) शास्त्रविशारद, जगत्पूज्यपाद, जैन धर्माचार्य श्रीमद्विजय धर्मसूरीश्वरजी, आचार्य श्री विजयेन्द्रसूरीजी तथा पंजाब केसरी युगहष्टा जैनाचार्य श्रीमद विजयवल्लभसूरी श्वरजी महाराज ने किया। आचार्य श्री विजयधर्मसूरीजी ने यूरोप, अमेरिका, जर्मनी आदि देशों में जैन साहित्य का प्रचार किया और जर्मनी के कई विश्वविद्यालयों में भारतीय भाषाओं (संस्कृत, हिन्दी, गुजराती) का प्रवेश करवाया। राज्याश्रय का प्रभाव होने का फायदा एक ही दृष्दांत से समझा जा सकता है-आबू के प्रसिद्ध जैन मन्दिरों में अंग्रेज लोग जूते पहनकर अन्दर तक चले जाते थे, जैन समाज इस कुप्रथा को वर्षों से बन्द कराने का प्रयत्न कर रहा था, लेकिन उसे सफलता नहीं मिली। आचार्य श्री विजयधर्मसूरीजी ने लन्दन के एफ. डब्ल्यू. थामस जो कि उनका मित्र था, को पत्र लिखा कि इस कुप्रथा से हम बहुत दुखी हैं, क्या आप इसे समाप्त कराने में हमारी मदद कर सकते हैं ? थामस ने अपने पत्र के साथ सूरीजी का पत्र लगाकर ब्रिटिश सरकार के सेक्रेटरी ऑफ इण्डिया ऑफिस को भेजा और छ: माह के अन्दर पॉलिटिकल ऐजेन्ट को आदेश आ गया कि आबू के जैन मन्दिरों में कोई भी जूता पहनकर प्रवेश न करे। मुझे इस विषय पर शोध करने की प्रेरणा आदरणीय श्री काशीनाथ जी सराक से जिनके संरक्षण में अब आचार्य श्री विजयेन्द्रसूरीजी का सारा भण्डार मौजूद है, मिली। इस समस्त कार्य की पूर्ति का श्रेय उन्हीं को है। उन्होंने न केवल मुझे सहायता ही दी अपितु समय-समय पर नैराशय से परिपूर्ण हृदय को नवीन आशा की किरणों से परिपूरित किया। स्वर्गीय डा0 सीतारामजी दांतरे अध्यक्ष संस्कृत विभाग आट्स एण्ड कॉमर्स कॉलेज इन्दौर का आभार व्यक्त करने की न तो मुझमें सामथ्यं है और न ही मेरे शब्दों में जिन्होंने इस पुस्तक को आद्योपांत लिखने में पूर्ण सहयोग दिया। डा० एस० आर० वर्मा अध्यक्ष इतिहास विभाम म० ल0 बा० जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर का भी उपकार नहीं चुकाया जा सकता जिन्होंने समयसमय पर अपना अमूल्य समय देकर मुझे शीध्र अतिशीघ्र इस कार्य को पूर्ण करने के लिए प्रेरित किया तथा फरमानों का हिन्दी अनुवाद, जो कि मेरे लिए असम्भव था, करने में मेरी पूर्णतया मदद की। ___डा० (श्रीमती) विजया केशव सिन्हा रीडर जीवाजी विश्व विद्यालय ग्वालियर की मुझ पर बड़ी अनुकम्पा रही जिन्होंने पुस्तक को पूर्ण करने में हृदय से मेरी मदद की। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003201
Book TitleMugal Samrato ki Dharmik Niti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNina Jain
PublisherKashiram Saraf Shivpuri
Publication Year1991
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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