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श्री श्री वल्लभ पाठकेन कविवर व्यावणितं सर्वत
श्रोतृ श्रोत सुखप्रदम सुविशदं सत्योक्तित सर्वदा:1
किसी जैन मुनि के सत्य प्रतिज्ञा के साथ लिखित वचनों की प्रामाणिकता सन्देह से परे ही समझनी चाहिये ।
जैन साहित्य का भण्डार बहुत विशाल हैं और बहुत से ग्रन्थ आज भी अप्रकाशित है। मुझे इस शोध प्रबन्ध के लिए उसी में से तीन महत्वपूर्ण ग्रन्थ मिले हैं :
1. लाभोदयरास 2. विजवल्लीरास-ये दोनों तो आचार्य श्री हीरविजय सूखे एवं श्री विजयसेनसूरी के जीवन चरित्र से सम्बन्धित हैं ।
3. सूर्यस्तोत्र - जिसका बादशाह अकबर रोज पाठ सुना करता था, जिसके रचयिता गणि श्री हेमविजयजी हैं ।
मेरे. लिए इस पुस्तक को इतने कम समय में पूरा करना इसलिए सम्भव हुआ कि मुझे आचार्य श्रीविजयधर्म सूरीजी महाराज की छत्रछाया में उन्हीं के पट्टधर आचार्य श्री विजयेन्द्रसूरीजी महाराज के साहित्य संग्रह का जो विशाल भण्डार मौजूद है, शोध प्रबन्ध के लिए सारी सामग्री उसी संग्रह से प्राप्त हुई, जिसमें मुगल सम्राटों द्वारा प्रदत्त फरमानों की मूल प्रतियां भी शामिल हैं।
प्रस्तुत विषय पर शोध करते हुए मेरे मन पर जो प्रभाव पड़ा उसे व्यक्त करना भी मैं उचित समझती हूं। शोध प्रबन्ध के नायक तो आचार्य श्री हीरविजय सूरीजी व बादशाह अकबर हैं। किन्तु 10वीं शताब्दी में इसी तरह के एक और जैनाचार्य श्री हेमचन्द्राचार्यजी व चालुक्यवंशीय राजा कुमारपाल का प्रसंग भी जैन धर्मोन्नति में रहा। समय समय पर समाज में ऐसे ही महापुरुष अवतरित होते हैं । जिनके कारण भारतीय संस्कृति और धर्म आज तक अक्षुण्ण रूप में चला आ रहा है। हीरविजयसूरीजी के बाद 17वीं शताब्दी में यशोविजय उपाध्यायजी जैन साहित्य के उद्धार में प्रसिद्ध हुए हैं उन्होंने किसी भी विषय को अछूता नहीं छोड़ा स्वयं रचनायें लिखने के साथ साथ टीकायें भी की। उनके बाद 19वीं शताब्दी में जैन समाज जो बिल्कुल शिथिल अवस्था में आ गया था उसे जाग्रत करने का काम शासनोद्योत कारक, नवयुग प्रवर्तक न्यायम्भोनिधी जैनाचार्य श्रीमद् विजयानन्दसूरीश्वरजी (आत्मारामजी), धर्मधुरन्धर शिरोमणी, विश्वबिन्दा
1. श्री विजयदेव माहात्म्यम् सर्ग 17 श्लोक 56
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