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के कथनों से पक्की होती है। जैन लेखकों ने बादशाह के छः महीने तक मांसहार त्याग की और छ। महीने छः दिन तक समस्त देश में जीव-हिंसा निषेध के जो दिन गिनाये हैं। लगभगं वे ही दिन अबुलफजल और बदायूनी ने भी गिनाये हैं।
आइने अकबरी के भाषान्तरकार पण्डित रामलाल पाण्डेय ने अपने लेख - "अकबर की धार्मिक नीति" में लिखा है कि "सम्राट ने पशुओं और पक्षियों कों बन्दि से मुक्त कर दिया था। सम्राट की नीति में अहिंसा और दया का जो पुट है उसका विशेष श्रेय इन्हीं जैन महात्माओं को है:1
जैन सस्तों के प्रभाव से अकबर ने वर्ष में छ: महीने छः दिन तक जीव हिंसा का निषेध ही नहीं किया था बल्कि जीव-हिंसा करने वाले को दण्ड देने का भी विधान था। इस बात को तो बदायूनी ने भी स्वीकार किया है। (जैसा कि हम पहले कह चुके हैं) और रामलाल पाण्डेय ने भी अपने लेख में लिखा है कि
"गौ-वध तो बराबर बन्द रहता था ही पर उसके बधिक के लिए प्राण दण्ड तक की सजा थी।" यह राजाज्ञा शब्दों तक ही सीमित नहीं थी, वरन उसे कार्य रूप में परिणित करके दिखलाया गया। "महाभारत" के भाषान्तरकार शेख सुल्तान थानेसुरी ने जब गौ हत्या की तो थानेश्वर के हिन्दुओं की शिकायत पर उसे देश-निर्वासन दण्ड दिया गया था उसकी महान विद्यता और प्रभाव उसे: इस दण्ड से न बचा सके:
बादशाह पर जैन सन्तों के प्रभाव के बारे में ए. एल. श्रीवास्तव लिखते हैं किः"जैन मुनियों के उपदेशों को अकबर के जीवन पर बहुत प्रभाव पड़ा। उसने शिकार खेलना जिसका कि वह बेहद शौकीन रहा था। बन्द कर दिया
और मांस खाना भी लगभग बन्द कर दिया। साल के आधे दिनों में तो उसने जानवरों और पक्षियों की हत्या करना तो बिल्कुल बन्द करवा दिया। निषेध दिनों पर पशु-पक्षियों को मारने काटने पर मौत की सजा देने का विधान था। इन आज्ञाओं का कठोरतापूर्वक पालन करने के लिए सभी प्रान्तों, गवर्नरों और स्थानीय अधिकारियों के नाम "फरमान" जारी कर दिये गये थे।
प्रोफेसर ईश्वरीप्रसाद का कहना है "वे जैन गरू जिनके विषय में किम्वदन्त
1. विश्ववाणी 1942 नवम्बर दिसम्बर संयुक्त अंक पृष्ठ 346 2. वही पृष्ठ 349 3. द मुगल एम्पायर-आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव पृष्ठ 171
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