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न्म हुआ था) और हिन्दूओं को प्रसन्न करने के लिए और भी कई दिनों प्राणी व का निषेध किया था । यह हुक्म सारे राज्य में जारी किया गया था इस हुक्म क विरुद्ध चलने वाले को सजा दी जाती थी । इससे अनेक कुटुम्ब बर्बाद हो गये थे और उनकी मिल्कियतें जब्त कर ली गई थीं। इन उपवासों के दिनों मैं बादशाह ने धार्मिक तपश्चरण की भांति मांसाहार का सर्वथा त्याग किया था । :- शनैः वर्ष में छः महीने और उससे भी ज्यादा दिन तक उपवास करने का अभ्यास वह इसलिए करता गया कि अन्त मांसाहार का वह सर्वथा त्याग कर सके 2
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एक अन्य स्थान पर बदायूनी ने यह भी लिखा हैं कि "यदि कोई कसाई के साथ बैठकर खाता था तो उसका हाथ काट लिया जाता था और यदि कोई कसाई के साथ सम्बन्ध रखता था तो उसकी केवल छोटी ऊँगली काटी जाती थी: "
जैन श्रमणों (साधुओं) के महत्व को बदायूनी ने इस प्रकार भी स्वीकार किया है कि "सम्राट अन्य सम्प्रदायों की अपेक्षा श्रमणों और ब्राह्मणों से एकान्त में विशेष रूप से मिलता था। से नैतिक शारीरिक धार्मिक और आध्यात्मिक शास्त्रों में, धर्मोन्नति की प्रगति में और मनुष्य जीवन की सम्पूर्णता प्राप्त करने में दूसरे (समस्त सम्प्रदायों) विद्वानों और पण्डित पुरुषों की अपेक्षा हर हरह से उन्नत थे । वे अपने मत की सत्यता और हमारे (मुसलमान) धर्म के दोष बताने के लिए बुद्धिपूर्वक परम्परागत प्रमाण देते थे वे ऐसी दृढ़ता और युक्ति से अपने
का समर्थन करते थे कि उनका कल्पना तुल्य मत स्वतः सिद्ध प्रतीत ाता था । उसकी सत्यता के विरुद्ध नास्तिक भी कोई शंका नहीं उठा
कता था
. इस तरह जैन लेखकों के कथन की सत्यता : अबुलफजल और बदायूनी
1. बदायूनी ने जो हिन्दू शब्द का उपयोग किया है उसे जैन ही समझना • चाहिये क्योंकि बादशाह को उपदेश देकर पशु-वध निषेध, मांसाहार, त्याग और जीव दया सम्बन्धित कार्य करवाने में यदि कोई प्रयत्नशील हुए तो वे जैन साधु ही है ।
2. अलबदायूनी - डब्ल्यू. एच. लाँ द्वारा अनुदित भाग 2 पृष्ठ 331 3. वही पृष्ठ 388
4. वही पृष्ठ 264
'श्रमणों' शब्द के पूर्ण विवरण के लिए देखिये परिशिष्ट नं. 4
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