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सप्तम अध्याय
"उपसहार" 1. जैन साधुओं का राजनीति को प्रभावित करने का उद्देश्य
जैन धर्म साधु का पर्याय हैं अर्थात् जैन वही है । जिसने अपनी इन्द्रियों को वश में कर मन का दमन कर लिया है । और सांसारिकता से विरक्त तथा परमार्थ में आसक्त है । ऐसा व्यक्ति रात दिन मानव कल्याण में रत रहकर आत्म कल्याण के साथ-साथ लोक कल्याणकारी कार्यों में प्रवृत रहता है।
जैन धर्म की विचार धारा धर्म विशेष से ही सम्बन्धित नहीं, अपितु वह मानव मत्र के कल्याणार्थ विकसित हुई विचार धारा है जिसका अनुयायी कोई भी हो सकता है जिसके व्रत, नियम एवं उपासना पद्धति के द्वारा अपना आत्मकल्याण कर सकता है।
जैन धर्म में दीक्षित साधुओं की परम्परा साधना, त्याग; अन्य साधु परम्पराओं से भिन्न है। इस परम्परा के साधुओं के प्रधान लक्ष्य जीव कल्याण है जैन साधुओं की तपश्चर्या एवं उपासना, उपदेश आदि का प्रमुख आधार स्वान्तः सुखाय नहीं अपितु बहुजनहिताय एवं बहुजन सुखाय था। उनका कार्य क्षेत्र वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना से परिपूरित था तथा इसका निर्वाह आज भी यथा सम्भव किया जा रहा हैं और इस पथ के अनुयायी अपनी अथक साधना में अनवरत अग्रसर हो रहे हैं।
साधु को धर्म का आधार माना जाता है और धर्म राजनीतिक को इसी भावना से अभिप्रेरित होकर जैन साधुओं ने मुगल बादशाहों के दरबारों में पहुंच. कर उन्हें अपने उपदेशों से प्रभावित कर उनसे लोक कल्याणकारी कार्य करवाये ऐसे कार्य जिन कार्यों को लोक में शरीर बल, सैन्यबल एवं धनबल के प्रयोग से नहीं करवाया जा सकता था । इन सब कार्यो के पीछे साधुओं का उद्देश्य थामानव मात्र के प्रति शासकवर्ग के मन में कल्याण की भावना जागृत करना । आचार्य हीरविजयसूरिजी से लेकर मुगलकाल में होने वाले सभी आचार्यों एवं
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