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5. आचार्य विजयसेन सूरि
हम पहले कह आये हैं कि अकबर ने इबादतखाने में अपभी सभी सदस्यों को पांच भागों में विभक्त किया था । पांचवे वर्ग के 139 वें स्थान प विजयसेन नाम अकित है । ये विजयसेन को ही विजयसेनसूरि के नाम से जाना जाता है ।
जिस समय हीरविजयसूरिजी ने फतेहपुर सीकरी से बिहार किया था तो बादशाह के अनुरोध पर सूरिजी ने यह वचन दिया था कि वे विजयसेन (अपन प्रधान शिष्य) को अवश्य भेजेगें । हीरविजयसूरिजी के बिहार के बाद शान्तिचन्द्रजी भानुचन्द्रजी और सिद्धिचन्द्रजी बादशाह के पास रहे । भानुचन्द्रजी और सिद्धिच जी प्रायः विजसेनसूरि की तारीफ किया करते थे इसके अलावा बादशाह को भी हीरविजयसूरिजी का दिया हुआ वचन याद था । अतः संवत् 1649 (सन् 1595 में जब हीरविजयसूरि राधनपुर में थे तो बादशाह ने विजयसेनसूरि को बुलाने के लिए एक पत्र भेजा जिसका वर्णन कवि ऋषभदास ने इस प्रकार किया है
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" यद्यपि आप विरागी हैं, परन्तु मैं रागी हूं। आपने संसार के सारे पदार्था का मोह मोड़ छोड़ दिया है इसलिए सम्भव है कि आपने मेरा मोह भी छोड़ दिया हो, परन्तु महाराज मैं आपको नहीं भूला । समय-समय पर आप मुझे कोई सेवा कार्य अवश्य बताते रहे, इससे मैं समझू गा कि मुझ पर गुरुजी की कृपा, अब भा वैसी ही है और यह समझ मुझे बहुत आनन्ददायक होगी। आपको स्मरण होगा कि रवाना होते समय आपने मुझे विजयसेन सूरि को यहां भेजने का वचन दिया था, आशा है कि आप उन्हें यहां भेजकर मुझे विशेष उपकृत करेंगे:
यद्यपि अपनी वृद्धावस्था के कारण सूरिजी की इच्छा विजयसेनसूरि अपने पास से अलग करने की नहीं थी लेकिन बादशाह को दिये वचन के अनु उन्होंने अपने शिष्य को आज्ञा दी जिसे शिरोधार्य कर विजयसेन सूरि सम्वत् 16 मगसर सुदी तीज (सन् 1592) के दिन बिहार कर सम्वत् 1650 ज्येष्ठ बारस (सन् 1593) के दिन लाहौर पहुंचे ।
विजयसेनसूरि ने अकबर के दरबार में आते ही अपनी प्रखर प्रतिभा पांडित्य से अनेक पण्डितों को शास्त्रार्थ में हराया जिससे ब्राह्मण पण्डितों को हुई तो उन्होंने अकबर के कान भरना शुरू कर दिये । पण्डितों ने आरोप रु कि जैन लोग ईश्वर को नहीं मानते फिर भी आप इन्हें (विजयसेनसूरि को)
1. आइने अकबरी एच. ब्लॉचमैन द्वारा अनुदित पृष्ठ 617 2. हीरविजयसूरिशस - पण्डित ऋषभदास 989, टाल 22, 23, 24
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