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________________ ( 83 ) म्मान देते हो । जैन अनिश्वरवादी हैं और ऐसे अनिश्वरवादी लोगों के सिद्धान्तों र चलना आप जैसे सम्राटों को शोभा नहीं देता । इस प्रकार की बातों से कुपित कर लेकिन क्रोध को छिपाकर बादशाह ने सूरिजी से कहा कि आप इन पंण्डितों तर्कों का खण्डन कर ऐसे सिद्धान्त प्रतिपादित करें जिससे इनका गर्ने चूर्ण हो सके। इस पर सूरिजी ने कहा - " हे शहंशाह | अठारह दूषणों से रहित देव को हम मानते हैं अठारह दूषण ये हैं- दानान्तराय, लाभान्तराय, वीर्यान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगांतराय, हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा, काम, मिथ्यात्व, अज्ञान, निद्रा, अविरति, राग और द्व ेष इन अठारह दूषणों का ईश्वर में अभाव है' सूरिजी ने कहा जो तीनों काल का प्रकशिक है, उसके प्रकाश के सामने सूर्य भी फीका पड़ जाता है । जो जन्म मरण आदि से रहित है, ऐसे परमेश्वर को हम लोग मन, वचन, कार्यों से मानते हैं अब आप स्वयं ही aris कि हम अनिश्वरवादी कैसे हैं ? इसकी पुष्टि में सूरिजी ने अपना प्रमाण प्रस्तुत किया "परमात्मा को शैव लोग "शिव" कह करके उपासना करते लोग "ब्रह्मा" शब्द से । जैन शासन में रत जैन लोग "अंहनं" ताकि लोग "र्ता" शब्द से व्यवहार करते हैं वही त्रैलोक्य परमात्मा तुम लोगों को वांछित फल देने वाला है ।' 1"2 सचमुच कहा जाये तो इस प्रमाण से स्पष्ट प्रतीत होता है कि जैन ईश्वर को मानते ही हैं । जब ब्राह्मण पण्डित इस तर्क से पराजित हुए तो उन्होंने दूसरा आरोप लगाया कि जैन सूर्य एवं गंगा को नहीं मानते । इन आरोपों का खण्डन हैं । वेदान्ती शब्द से तथा का स्वामी 1. अन्तराया दान- लाभ-वीर्य-भोगोपभोगगाः । हासो रत्यरति भीतिजु गुप्सा - शोक एव च ॥ कामो मिथ्यात्वज्ञानं निद्राच विरतिस्तथा । रागो द्वेषश्च नो दोपास्तेषामष्टादशप्यमी । विजयप्रशस्तिसार - मुनिराज विद्याविजयजी पेज 54 2. ये शैवाः समुपासते शिव इति ब्रह्मति वेदान्तिनो । atar: बुद्ध इति प्रणाम पटवः कर्मेति मिमांसकाः ॥ अर्हन्नित्यथ जैन शासनरताः कर्तेति नैयायिकाः । सोवोविद्धाछित फलं त्रैलोक्य नाथो हरिः ॥ विजय प्रशारित काव्य पण्डित हेमविजयगणि सगं 12, श्लोक 178 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003201
Book TitleMugal Samrato ki Dharmik Niti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNina Jain
PublisherKashiram Saraf Shivpuri
Publication Year1991
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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