SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 82
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( 1 ) पूरिजी, विमल हर्ष उपाध्याय और अन्य प्रधान मुनिः विचार विमर्श के लिए इकट्ठे हुए । अहमदाबाद के श्रीसंघ ने बादशाह का पत्र जो साहबखों के नाम भाया था, और आगरे के जैन श्रीसंघ का पत्र सरिजी को दिया एवं सभी समाचारों से अवगत कराया। सभी एकत्रित श्रावक, आचार्य एवं मुनियों के बीच बादशाह के द्वारा भेजे प्रये हीरविजयसूरिजी के आमन्त्रण, पर विचार-विमर्श प्रारम्भ हुआ कि सूरिजी को बादशाह के निमन्त्रण पर फतेहपुर सीकरी स्वयं जाना उचित है या बादशाह को धर्मोपदेश लाभ के लिए स्वयं यहीं आना , चाहिये । किसी भी विषय पर सभी की सम्मति एक हो, यह बात त आज तक हुई है, न होती है और न ही होगी। यही समस्या इस समय भी खड़ी थी सभी ने अपने-अपने मत दिये विभिन्न मतभेद होने पर सूरिजी ने अपना निर्णायक मत इस प्रकार दिया ... “महानुभावों मैंने अब तक आप सबके विचार सुने । जहां तक मैं समझता हैं, अपने विचार प्रकट करने में किसी का आशय खराब नहीं है। सबने लाभ ध्येय को सामने रखकर ही अपने विचार प्रकट किये हैं अब मैं अपना विचार प्रकट करता हूं। अपने पूर्वाचार्यों ने मान अपमान की कुछ भी परवाह न कर राज दरबार में अपना पर जमाया था और राजाश्चों को प्रतिबोध दिया था, इतना ही क्यों ? उनसे शासन हित के बड़े बड़े कार्य भी करवाये थे। इस बात को हरेक जानता है कि आर्य महागिरी,ने सम्प्रति राजा को, बप्पभट्टी ने आमराजा को, सिद्धसेन दिवाकर ने विक्रमादित्य राजा को और कलिकाल सर्वज्ञ प्रभु श्री हेमचन्द्राचार्य ने कुमारपाल राजा को, इस तरह अनेक पूर्वाचार्यों ने अनेक राजाओं को प्रतिबोध किया था। उसी का परिणाम है कि इस समय भी हम जैन धर्म की जाहोजलाली देखते हैं भाईयों, यद्यपि मुझमें उन महान आचार्यों के समान शक्ति नहीं है मैं तो केवल उन पूज्य पुरुषों की पदधूलि के समान हूं तथापि उन पूज्य पुरुषों के पुण्य प्रताप से "यावद बुद्धि बलोदयं" इस नियम के अनुसार शासन सेवा के लिए जितना हो सके उतना प्रयत्न करने को मैं अपना कर्तव्य समझता हूं अपने पूज्य पुरुषों को तो राज्य दरबार में प्रवेश करने में तो बहुत सी कठिनाईयां झेलनी पड़ी थीं लेकिन हमें तो. सम्राट स्वयं बुला रहा है। इसलिए उसके आमंत्रणे को अस्वीकार करना मुझे अनुचित जान पड़ता है। तुम इस बात को भली प्रकार समझते हो कि हजारों बल्कि लाखों मनुष्यों को उपदेश देने में जो लाभ होता हैं । उसकी अपेक्षा कई गुना ज्यादा लाभ एक राजा को, सम्राट को उपदेश देने में है कारण गुरु की कृपा से सम्राट के हृदय में यदि एक बात भी बैठ जाती है तो हजारों ही नहीं बल्कि लाखों मनुष्य उसका अनसरण करने लग जाते हैं। यह ख्याल भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003201
Book TitleMugal Samrato ki Dharmik Niti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNina Jain
PublisherKashiram Saraf Shivpuri
Publication Year1991
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy