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सुरिजी मे एक श्रावक के यहां से स्वर्णथाल मंगवाकर उसे आकाश में उड़ा दिया। सूरिजी के प्रताप से वह थाल पूर्णिमा के चन्द्रमा की भांति सर्वत्र प्रकाश करने लगा। सम्राट ने इसकी जांच करने के लिए बारह-बारह कोस तक घुड़ सवार भेजें । किन्तु सब जगह प्रकाश हुआ । सुनकर सम्राट आश्चर्य चकित रह गया। 7. श्री जिनसिंह सरि
अकबर के आमन्त्रण को स्वीकार कर जिनचन्द्रसूरिजी ने जिन महिमराज को गणिसमय सुन्दर आदि छः साधुओं के साथ अपने से पूर्व ही लाहौर भेजा था । ये महिमराज मानसिंह ही जिनसिंह सूरि के नाम से विख्यात हुए। सम्वत् 1649 (सन् 1593) में अपने कामीर प्रवास में भी धर्म गोष्ठि, धर्म चर्चा होती रहे, दया धर्म का प्रचार हो इसलिए मन्त्रि कर्मचन्द्र से मानसिंहजी को साथ ले जाने की इच्छा व्यक्त की । यद्यपि उस अनायं देश में मानसिंह जी को आहार पानी की असुविधा थी फिर भी उस देश में बिहार करने से दया धर्म के प्रचार का महान लाभ और जैन धर्म की प्रभावना का विचार कर उन्होंने जाना स्वीकार कर लिया। रास्ते में समय-समय पर धर्मगोष्ठि कर बादशाह ने मानसिंह जी के उपदेश से कई जगह तालाबों के जल-चर जीवों की हिंसा बन्द कराई । महिमरामजी की अभिलाषानुसार गजनी, गोलकुण्डा और काबुल तक अमारि उद्घोषणा बनाई।
मानसिंहजी के कहने से बादशाह जब काश्मीर विजय कर वापिस आया तो आठ दिन तक अमारि उद्घोषणा की।
मानसिंहजी के चारित्रिक गुणों से प्रभावित होकर सम्राट अकबर ने आचार्य श्री को निवेदन कर बड़े ही उत्सव के साथ सम्वत् 1649 फाल्गुन कृष्णा दशमी (सन 1592, 16 फरवरी) के दिन आचार्य श्री के . ही कर कमलों से आचार्य पद प्रदान करवाकर जिनसिंह सूरि नाम रखवाया श्रीमोहनलाल देसाई ने यह तिथि फाल्गुन शुक्ला 2 सम्वत 1649 (23 फरवरी 1593) मानी है।
विद्याविजयजी लिखते हैं "मानसिंह को आचार्य पदवी दी इसकी खुशी में बादशाह ने खम्भात के बन्दरों में जो हिंसा होती थी उसको बन्द कराई थी। लाहौर में भी कोई एक दिन के लिए जीव हिंसा न करे इस बात का प्रबन्ध
1. युग प्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि--अगरचन्द्र भंवरलाल नाहटा पेज 195 2. युग प्रधान गुर्वावलि-खरतरगच्छ का इतिहास पेज 195 3. वही फेज 195
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