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उनकी स्थिति तो इस तरह की है जैसे कोई पुस कोयल जंगल में आम के पेड़ पा धार्मिक तपस्या कर रही हो इसलिए उसने सिद्धिचन्द्रजी से कहा कि आप तो अभी युवा हो और राजा बनने के योग्य हो तब तुम अपने को तपस्या रूपी रेगिस्तान क्यों बर्बाद कर रहे हो ?
इस पर सिद्धिचन्द्रजी ने जबाव दिया कि अमृत पीने में बुद्धिमान कभी दे नहीं करते, कौनसी उम्र तपस्या के लिए होती है जवानी अथवा बुढ़ापा ? मस के लिए तो जवान अथवा वद्ध एक समान हैं। ओ राजा। वृद्धावस्था में त इतनी शक्ति नहीं होती इसलिए तपस्या कैसे पूरी होगी ? धर्मरूपी तपस्या त सारे शत्रुओं का नाश कर देती है, पूर्वजन्म के अनगिनत दुष्कर्मों के साथ-सा! वर्तमान जीवन के दुष्कर्मो का भी नाश हो जाता हैं । बादशाह ने पूछा तुम अप दिमाग को इस उम्र में कैसे स्थिर रख लेते हो जबकि इस उम्र में तो गस्सा बह जल्दी आ जाता है ? सिद्धिचन्द्र ने जबाव दिया-"ज्ञान के साधनों द्वारा"। ज्ञा आता है धार्मिक चिन्तन द्वारा आदमी को स्वयं की प्रकृति समझना सिखाता है इससे दिमाग ऐसे नियन्त्रित हो जाता है जैसे हाथी को हक (चाबुक) से नियन्त्रि किया जाता है।
सिद्धिचन्द्र जी का इस तरह जबाव सुनकर बादशाह ने क्रोधित होकर का कि ज्ञान के बिना जो कुछ आप कह रहे हैं मैं इसे कैसे समझ सकता हूं। सिद्धि चन्द्र जी ने कहा इसे समझने के लिए ज्ञान की जरूरत नहीं जैसे आपको जि चीज में आनन्द मिलता है एक ब्राह्मण को उसमें नहीं मिल सकता उसी तर हमारा दिमाग सांसारिक खुशियों की ओर नहीं झुकता क्योंकि हमने कभी उन स्वाद नहीं लिया । लोग जानते हैं कि एक औरत जो अपने मृत पति की चिर में गिरने के लिए उसका पीछा करती है, अन्य सारे रिश्तों से और समस सांसारिक वस्तुओं से मुक्त होती है उसी तरह एक तपस्वी जो तपस्या का अभ्या करता है सांसारिक खुशियों से अप्रभावित रहता है.तपस्वी हमेशा आत्मिक विचा की उन्नति में डूबे रहते हैं । राजा भी उन्हें भयभीत नहीं कर सकते वे तो.इ तरह आजाद और प्रसन्न रहते हैं जैसे मछलियां समुद्र में । सत्कार्यों में लगे रह हैं अधिकारों के लालच के दास नहीं होते। नियमों के पालन के साहसी होते हैं और सदा स्वतन्त्र होते हैं।
बादशाह ने सिद्धिचन्द्र के विद्वतापूर्ण तों से प्रभावित होकर उन "नादिरा जमां" (युग के बेजोड़, अद्वितीय) और "जहांगीर पसन्द" उपाधियों विभूषित किया:
1. भानुचन्द्र गणिचरित-भूमिका अमरचन्द भंवरलाल नाहटा पृष्ठ 65
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