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इस तरह जहाँगीर के कहने पर भानुचन्द्र जी शहरयार को नियमित रूप से बढाने लगे।
बादशाह ने भानुचन्द्र जी से पूछा कि मेरे लायक कोई सेवा हो तो बतायें। इस पर भानुचन्द्र जी से कहा-"आपके पिताजी के पास हीरविजयसूरि आये थे सन्हें "जगद्गुरू" की पदवी से विभूषित किया था, उनके पीछे विजयसेनसूरि आये सन्होंने मोहवश विजय देवसूरि को आचार्य पद दे दिया वे गुरू वचन को खोकर सागर शाखा में मिल गये, वे बहुत क्लेश कर रहे हैं, गुरू के वचनों को नहीं मानते
और मनमानी करते हैं, इसलिए हमने उनको छोड़कर दूसरा आचार्य बना लिया हि किन्तु वे पूर्वाचार्यो की निन्दा न करें आप ऐसा प्रयत्न करें।"1 बादशाह ने शिश्वासन देकर अहमदाबाद, सूरत, बड़ौदा. आदि सभी स्थानों पर साधुओं को समझाकर पत्र लिखे बादशाह के प्रभाव से सब ठीक हो गया । जहांगीर के शासन काल में भी भानुचन्द्रजी ने वैसी ही प्रतिष्ठा पाई जैसी कि अकबर के शासनकाल इम पाई थी। १. उपाध्याय सिद्धिचन्द्रजी
भानुचन्द्रजी के साथ सिद्धिचन्द्रजी भी 23 वर्ष तक के लम्बे समय तक शाही दरबार में रहे। विजयसेनरिजी के सम्मान में सिद्धिचन्द्रजी अहमदाबाद से खंभात माये फिर सूरिजी के आदेश से वापिस अहमदाबाद चातुर्मास करने गये वहां उपाश्रम में गवर्नर विक्रमर्क ने सिद्धिचन्द्रजी के साथ बड़े जोर शोर से भगवान
पूजा की और सम्पूर्ण राज्य में पशु-वध निषेध का फरमान निकाला । अहमदादि चातुर्मास के बाद सिद्धिचन्द्रजी पाटन आये जब जहांगीर को सिद्धिचन्द्रजी
पाटन पहुंचने का समाचार मिला जो उसकी इच्छा सिद्धिचन्द्रजी को आगरा लाने की हुई इसलिए वहां के गवर्नर ने अपने अंगरक्षक माधवदास को शाही माचार के साथ सिद्धिचन्द्रजी के पास भेजा। सिद्धिचन्द्रजी ने अपनी लम्बी त्रा की और रास्ते में धर्मोपदेश देते हुए शाही दरबार में पहुंचे। जहांगीर ने का यथोचित सत्कार किया और उनके तेजस्वी चेहरे से प्रभावित होकर प्रतिन कुछ समय के लिए दरबार में आने को कहा बादशाह की प्रार्थनानुसार सिद्धिदजी प्रतिदिन दरबार में आने लगे जिससे बादशाह उनके उपदेश सुनकर बहुत मावित हुआ। इस तरह सिद्धिचन्द्रजी के लगातार बादशाह से मिलते रहने के रण उनका यश चारों ओर फैल गया। एक दिन बादशाह ने सिद्धिचन्द्रजी की सुन्दरता पर मुग्ध होकर सोचा कि
1. एतिहासिक रास संग्रह पृष्ठ 74
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