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आगे राजाओं का वास्तविक धर्म बताते हुए सिद्धिचन्द्रजी ने बादशाह से कहा कि राजन । राजा-महाराजाओं के ऊपर प्रजा के रक्षण का उत्तरदायित्व हाता है उनमें कितनी दयालुता, न्यायप्रियता और उदारता होनी चाहिए सहज म ही समझा जा सकता है । यदि राजा लोग शिकार आदि व्यर्थ के कामों में समय नष्ट करे तो वे प्रजा का रक्षण क्या करेंगे। मनुस्मृति में राजाओं के धर्म का वर्णन करते हुए कहा गया है कि
__ "राजा अपनी इन्द्रियों को बस में रखे, जिस राजा का अपनी इन्द्रियों पर नियन्त्रण होगा, वही अपनी प्रजा को नियन्त्रण में रख पायेगा राजा को काम से उत्पन्न होने वाले 10 और क्रोध से उत्पन्न होने वाले 8 व्यसनों को यत्नपूर्ण छोड़ देना चाहिए।
काम जन्य व्यसनों में आसक्त रहने वाला राजा धर्म और अर्थ से हीन होता है, और क्रोध जन्य व्यसनों से जीवन का भी नाश हो जाता है ।
काम जन्य दस व्यसन इस प्रकार गिनाये हैं -शिकार करना, जुआ खेलना, दिन में सोना, दूसरे का अवगुण देखना, स्त्रियों में आसक्त रहना, नशा करना, बजाना, नाचना, गाना और आकरणं घूमते रहना।
क्रोध से उत्पन्न आठ व्यसन इस प्रकार हैं-चुगली, दुःसाहस, द्रोह, ईर्ष्या, दूसरे के गुणों में दोष निकालना, दूसरे के द्रव्यं छीन लेना, कटु वचन बोलना, निर्दोष व्यक्तियों को प्रताड़ित करना:
1. भानुचन्द्र गणिचरित-भूमिका अगरचन्द्र भंवरलाल नाहटा पृष्ठ 65 2. इन्द्रियाणां जये योगं समाजिष्ठेदिवा निशम् ।
जितेन्द्रियों हि शन्कैति वशे स्थापयित प्रजाः ।। दश कामसमुत्थानि तथाष्टी क्रोधजानि च । व्यसनानि दुरन्तानि प्रयत्नेन विवर्जयेत् ।। कामजेषु प्रसक्तो हिव्यसनेषु महीपतिः। वियुज्यतेऽर्थधर्माभ्यां क्रोधजेष्वात्मनैव तु ।। मृगयाक्षो दिवास्वप्नः परिवादः स्त्रियों मदः । तौर्यत्रिकं वृथाटया च कामजो दशको गणः ।। पैशुन्यं साहसं द्रोह ईर्ष्यासूयार्थदूषणम् । वाग्दण्डजं च पारूष्यं कोधजोऽपि गणोऽष्टकः ।। मनुस्मृति अध्याय 7, श्लोक 44, 45, 46, 47, 48
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