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कुमारपाल को राजाज्ञा, निकालकर राज्य में इनका निषेध करने की प्रेरणा दी। जयसिंह रचित कुमारपाल चरित के पांच से लेकर दस सर्गो में उन परिस्थितियों का वर्णन किया गया है, जिनके कारण कुमारपाल जैन धर्म में दीक्षित और जैन धर्म के प्रसार-प्रचार में प्रवृत्त हो गया। आचार्य हेमचन्द्र के कहने पर उसने सर्वप्रथम अपने राज्य में मांस तथा मदिरा का त्याग किया वैसे तो प्रबन्धगत प्रमाणों से प्रतीत होता हैं कि कुमारपाल जैन धर्मानुयायी होने से पहले मांसाहार तो करता था, लेकिन मद्यपान की तरफ से उसे हमेशा घृणा रही है । अमेरिका जैसे भौतिक संस्कृति के उपासक राष्ट्र ने भी इस बीसवीं सदी में इस उन्मादक मद्यपान को रोकने के लिए राजज्ञा का उपयोग किया है।
कुमारपाल ने हेमचन्द्र से श्राद्ध धर्म स्वीकार कर राज्य में पशु-हत्या पर प्रतिबन्ध लगाया था रत्नापुरी नगर के शिलालेख से पता चलता है कि विशेष तिथियों में पशु-वध निषेध की आज्ञा थी। यह आज्ञा केवल कागजों तक ही सीमित न थी वरन् इसका इतनी कठोरता से पालन होता था कि “सपादलक्ष के एक व्यापारी ने राक्षस के समान रक्त चूसने वाले एक कीड़े की हत्या कर दी तो उसे पकड़ लिया गया और यूक बिहार के शिलांयास के लिए समस्त सम्पत्ति त्याग देने के लिए बाध्य होना पड़ा। इस तरह राज्य परिवार का व्यक्ति आर्थिक दण्ड देकर तथा साधारण व्यक्ति प्राण दण्ड के लिए प्रस्तुत होकर ही निषेधाज्ञा के दिन किसी पशु की हत्या कर सकता था नवरात्रि में बकरियों का वध रोक दिया गया । और पशु-हिंसा रोकने के लिए अपने मंत्रियों को काशी भेजा। हेमचन्द्राचार्य ने अपने "महावीर चरित्र" नामक पुराण ग्रन्थ में भगवान महावीर के मुख से भविष्य कथन रूप में ये शब्द कहे हैं- "भविष्य में कुमारपाल राजा होने वाला हैं, उसकी आज्ञा से सब मनुष्य मृगया का त्याग करेंगे जिस मृगया का पांडु के सदृश्य मिष्ठ राजा भी त्याग न कर सके और न करवा सके । हिंसा का निषेध करने बाले इस राजा के समय में शिकार की बात तो दूर रही खटमल और जू जैसे जीवों को अन्त्यज जन भी दुख नहीं पहुंचा सकेंगे । इस प्रकार मृगया के विषय में निषेधाज्ञा होने पर मृग आदि पशु निर्भय होकर बाड़े में गायों की तरह चरने लगेंगे । इस प्रकार जलचर प्राणियों, पशुओं और पक्षियों के लिए वह सदा अमारि रखेगा और उसकी ऐसी आज्ञा से आजन्म मांसाहारी भी दुस्वप्न की तरह मांस को भूल जायेंगे।
1. जयसिंह रचित कुमारपाल चरित पृष्ठ 588 2. कुमारपाल चरित्र संग्रह-जिनविजयमुनि पृष्ठ 29
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