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अन्त में राजा के कर्तव्य बताते हुए सूरिजी ने बादशाह को कहा कि गजनीति में प्रजा पर वात्सल्य रखना और उसे सुख शान्ति से रहने देना ही लापालक का धर्म कहा गया है। मनुष्य तो क्या पशु-पक्षी भी जो अपने राज्य में हते हैं, वे भी प्रजा ही है उन्हें प्राण रहित करना राजनीति कदापि नहीं हो किती। अतः उन्हें भी निर्भीक रहने देना चाहिए धर्म के साथ आत्मा का पूर्ण सम्बन्ध है किसी को अपने धर्म से छुड़ाना और धर्म पालन में बाधा देकर धार्मिक आघात पहुंचाना भी प्रजा को विद्रोह बनाना है अतः शासक को सहिष्णुता का गुण अवश्य धारण करना चाहिये । शासक का प्रजावात्सल्य ही एक मात्र प्रजा के हृदय सम्राट बनने का हेतु है । अतएव सर्वदा उदार वृत्ति और हृदय निर्मल पवित्र रखना चाहिए हृदय निर्मल रखने के लिए सात व्यसनों का अवश्य त्याग करना चाहिए । जैसे जुआ, मांस भक्षण, मदिरापान, शिकार, प्राणी, हिंसा, चोरी करना और परस्त्री गमन इन्हें त्यागने वालों की सदा जय होती हैं और कीति फैलती है अहिंसा रूपी सद्गुण धारण करने से सतत् श्रीवृद्धि होती है, लाखों प्राणियों का आशीर्वाद मिलता है।
सूरिजी के अमृतमय उपदेश सुनकर सम्राट के हृदय में अत्यन्त प्रभाव पड़ा और करुणा का बीज परिपुष्ट हुआ। सूरिजी के उपदेश से बादशाह ने जीव दया के अनेक कार्य किये।
एक दिन सूरिजी ने सुना कि नौरंगखान के द्वारिका के निकट जैन मन्दिरों को नष्ट कर दिया है । सूरिजी ने जैन मन्दिरों की रक्षा के लिए सम्राट से कहा । सम्राट ने उसी समय शत्रुन्जय और अन्य जैन मन्दिरों की रक्षा के लिए फरमान लिखकर मन्त्रि कर्मचन्द्र को दे दिया। इसी तरह एक फरमान लिखकर शाही मोहर लगाकर आजम खान, खाने आजम और मिर्जा अजीज कोका को भेजा गया
जब बादशाह काश्मीर विजय करने गया तब जाने से पहले उसने सूरिजी के दर्शन किये क्योंकि उसे सूरिजी पर अपार श्रद्धा थी। उस समय सूरिजी ने बादशाह को जो अहिंसात्मक उपदेश दिये उसे सुनकर बादशाह ने अषाढ़ शुक्ला नवमी से पूर्णिमा तक 12 मूबों में समस्त जीवों को अभयदान देने के लिए
1. युग प्रधान श्री जिनचन्द्र सूरि पृष्ठ 80 2. भानुचन्द्र गणिचरित~भूमिका लेखक अगरचन्द्र भंवरलाल नाहटा
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