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उसका सम्बन्ध काम, क्रोध, मोह, अज्ञान आदि से हो जाता है तो उसके साथ कर्मो के कारण ही कभी मनुष्य बनता है तो कभी पशु-पक्षी आदि। अपने कि पुण्य पाप के कारण ही कभी राजा बनता है तो कभी रक ।
सार रूप में मनुष्य अपने कर्मों के कारण ही सूख दुख का अनुभव करता है। कर्मों का विनाश हो जाने से आत्मा का शुद्ध स्वभाव प्रकट हो जाता है आत्मा की अवस्था को ही जैन दर्शन में परमात्मा या ईश्वर कहते हैं । प्रत्येक प्राणो का कर्तव्य है कि वह परमात्मा बनने के कारणों को समझकर उनके अनुकूल बर्ताव करें । सूरिजी ने आत्मा के बारे में ओबाची प्राणी द्वारा प्रभावशाली शब्दों में बादशाह को जो उपदेश दिया उनका सार इस प्रकार है-- "मात्मा न पुरुष है न स्त्री, न निर्बल है न सबल, न धनी है न रंक क्योंकि ये सब अवस्थायें तो कर्मजनित हैं । आत्मा तो शुद्ध सच्चिदानन्द है सभी आत्मायें सत्ता, द्रव्य, गुण और शक्ति की अपेक्षा से समान हैं इसलिए सभी जीव प्रेम के पात्र हैं। जैसे अपने को जीवन प्यारा है। वैसे सभी जीवों को अपना जीवन प्यारा है । और मरण भयावह है । अतः उन सबको सुख पूर्वक जीने देना आत्मा का प्रथम कर्तव्य है।
आगे अहिंसा क अर्थ बताते हुए सूरिजी ने कहा "अहिंसा सकलो धर्मों" अर्थात् अहिंसा ही पूर्ण धर्म है। जैसे हमको सुख प्रिय है और हम जीना चाहते हैं उसी प्रकार जगत के समस्त जीव सुख चाहते हैं, और जीना चाहते हैं । कहा भी गया है "सब्बे जीवा वि इच्छंति जोविंड, न मरिज्जड" सब जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहते । सारे जगत का कल्याण हो, सुखी हो, कोई भी दुखी न रहे इस प्रकार से सबका हित चाहने की इच्छा वृत्ति को ही हिंसा कहते हैं । जिस व्यक्ति में यह भावना आ जाती है उसमें कई गुण स्वतः ही आ जाते हैं। किसी प्राणी का अहित सोचना ही जन दर्शन में "हिंसा" नाम से सम्बन्धित किया गया है । संसार में जहां हिंसा की भावना होती है वहां अशांति और कलह अपना डेरा डाले रहते हैं । झूठ, चोरी आदि विकृति भाव छाये रहते हैं किन्तु जहां अहिंसा रूपी सद्गुण का निवास होता है, वहां ये दुर्गुण फटकने भी नहीं पाते । जब एक सत्ता प्राप्त प्राणी एक निर्बल और क्षुद्र जीव को सताता है तब वह अपने आप ही दूसरे को, अपने को सताने के लिए माह्वान करता हैं उसके मन की कठोर वृत्तियां उसे पाप कर्म की ओर झुकाती है। दूसरे को सताकर कोई सुखी नहीं रह सकता इसलिए मनुष्य को विश्व प्रेम द्वारा सब जीवों के कल्याण का ध्यान रखना चाहिए।
1. विचक्षण वाणी-प्रवचनकार श्री विचक्षण श्री जी पृष्ठ 99.100
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