SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 119
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( 86 } बादशाह द्वारा सूरिजी के उपदेश से किये गए जीव दया के कार्यों विवरण विजयप्रशस्ति काव्य में भी मिलता है' 6. श्री जिनचन्द्रसूरि अभी तक हमने जिन साधुओं का उल्लेख किया है वे जैन श्वेताम्ब तपागच्छ से सम्बन्धित है, अब हम जैन श्वेताम्बर खरतरगच्छ के प्रसिद्ध आचा जिनचन्द्रसूरिजी का वर्णन करेंगे। पहले हम यह देखेंगे कि अकबर सूरि जी सम्पर्क में कैसे आया ? सं. 1648 (सन् 1591) में लाहौर में अकबर ने जिनचन्द्र सूरिजी की बड़ी प्रशंसा पुनी । उसने अपने मन्त्रि कर्मचन्द्र जो कि खरतरगच्छ से सम्बन्धित था, से सूरिजी के बारे में सारी जानकारी प्राप्त की और शीघ्र ही दरबार में बुलाने के लिए कहा लेकिन ग्रीष्म ऋतु में सूरिजी की वृद्धावस्था के कारण खम्भात से शीघ्र बिहोस् करना मुश्किल था । अतः सम्राट ने उनके शिष्यों को बुलाने की इच्छा प्रकट की । तब तक मन्त्रि कर्मचन्द्र ने मानसिंह (महिमराज) को बुलाने के लिए सूरिजी क विनति पत्र लिखकर शाही दूत को भेजा विनति पत्र को पढ़ते ही सूरिजी न महिमराज को गणिसमय सुन्दर आदि छः साधुओं के साथ बादशाह के पास भेजा । बादशाह उनके दर्शन से इतना प्रभावित हुआ कि सूरिजी से मिलने की उत्कण्ठा और भी तीव्र हो गई लेकिन चातुर्मास निकट आ रहा था और चातुर्मास में सूरिजी का बिहार हो नहीं सकता था । इधर बादशाह की तीव्र इच्छा को देखकर और सूरिजी के आने से जैन धर्म की उन्नति का विचार कर कर्मचन्द्र ने सूरिजी को आग्रह पूर्वक विनति पत्र लिखकर लाहौर आने के लिए शीघ्रगामी मेवड़ा दूतों के साथ खम्भात भेज दिया । पत्र पढ़कर सूरिजी के मन में जो विचार आये उन्हें अगरचन्द्र, भंवरलाल नाहटा ने इस प्रकार लिखा है- "मुझे अवश्य लाहौर जाना चाहिए, क्योंकि सम्राट अकबर धर्म जिज्ञासु है, यदि वह जैन धर्म का अनुकरण करने लग जायेगा तो “यथा राजा तथा प्रजा" के नियमानुसार जैन धर्म की 1. विजयप्रशस्ति काव्य -- - हेमविजयगणि सर्ग 12 श्लोक 227-228 2. चातुर्मास में निष्प्रयोजन साधुओं को बिहार न करके एक ही स्थान पर रहने की जिनाशा है लेकिन विशेष धर्म प्रभावना और अनिष्टकारक संयोग होने से आवायं, गीतार्थादि महानुभावों को देश-काल भाव विचार कर बिहार करने की भी अपवाद मार्ग से जिनाज्ञा है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003201
Book TitleMugal Samrato ki Dharmik Niti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNina Jain
PublisherKashiram Saraf Shivpuri
Publication Year1991
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy