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इस प्रकार कहा है कि "कपड़े पर खून का दाग पड़ने से शरीर अपवित्र माना ला है तो यही खून पेट में जाने से चित्त निर्मल कैसे हो सकता है।" बाहर “अपवित्रता, खून का दाग तो पानी से भी दूर हो सकता है, परन्तु हृदय की वित्रता पानी से दूर नहीं हो सकती । अतः आत्मकल्याण चाहने बालों को तो साहार से सर्वथा दूर ही रहना चाहिए।
यह कथन न केवल हिन्दुओं अथवा मुसलमानों के लिए अपितु समस्त मांसा. रयों के लिए हैं क्योंकि प्रायः सभी धर्म वाले अपने-अपने शास्त्रों में दिखलायी धर्मक्रिया करते ही हैं। मुसलमान नमाज पढ़ने के समय कपड़े शुद्ध रखते हैं, पर धोते हैं इस प्रकार बाहर की शुद्धि तो हो जाती है, किन्तु मांस के आहार अन्तःकरण की शुद्धि कैसे हो? जरा इस पर भी विचार करके देखें। __ इस तरह सूरिजी ने अहिंसा के बारे में विस्तार से वर्णन किया तथा अकबर कई जगह अपनी शंकाओं का समाधान भी किया । अन्त में अहिंसा का सार जाते हुए सूरिजी ने बताया कि अहिंसा सब प्राणियों का हित करने वाली माता समान है और अहिंसा ही सार रूप मरू देश में अमृत की नाली के तुल्य है ा दुख रूप दावानल को शान्त करने के लिए वर्षाकाल की मेघ पंक्ति के समान और भव भ्रमण रूप महारोग से दुखी जीवों के लिए परम औषधि की तरह है हसा समस्त व्रतों में भी मुकुट के समान हैं।
अहिंसा के फल का वर्णन करने में जुबां तो समर्थ हो ही नहीं सकती। भारत में भी कहा है--"हे कुरुपुंगव ! अहिंसा के फल का कहां-तक वर्णन 4. यदि कोई मनुष्य सौ वर्ष तक उसका वर्णन करे तो भी सम्पूर्ण रीति से वह न के लिए समर्थ नहीं हो सकता।
आगे जैन धर्म में क्या के महत्व को बताते हुए सूरिजी ने बताया कि स्त जननी क्या"धर्म की माता दया हैं । सूरिजी ने अहिंसा और दया में अन्तर करते हुए बादशाह को कहा कि "किसी को तकलीफ नहीं देवा, मारना मताना नहीं, उसके दिल में चोट पहुंचाया नहीं, यह अहिंसा है लेकिन इस
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1. जे रत्त लग्गे कपड़े, जामा होय पलीत्त
जो रत्त पीवें मानसा, तिन किमो मिर्मल चित्त
गुरु मेन्थ साहब-पृष्ठ 140 2. एतत् फलमूहिसाया भूयञ्च कुरुपुगव
न ही क्या गुणा वक्त मपि वर्षशतैरपि। महाभारत-भाग 6 अनुशासन पर्व पृष्ठ 5862
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