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( 62 ) इन विचारों की पुष्टि महाभारत से भी होती है "जैसे अपने मांस काटना अपने लिए पीडाजनक होता है, उसी तरह दूसरे का मांस काटने पर ज भी पीड़ा होती है । यह प्रत्येक विज्ञपुरुष को समझना चाहिए"1
वैसे भी देखा जाये तो जितने मांसाहारी प्राणी हैं उन सभी के स्वभाव ओं मनुष्य जाति के स्वभाव में बहुत अन्तर है। सिंह, बाघ, कुत्त आदि मांसाहा प्राणी हैं ये अब जीभ द्वारा पानी पीते हैं, क्या मनुष्य भी इस प्रकार पानी पीना हैं ? नहीं। मांसाहारी प्राणियों के दांत स्वाभाविक ही टेढ़े वक्र के होते हैं जबकि मनुष्य के दांत वैसे नहीं होते। मांसाहारी प्राणियों की जठराग्नि इतनी ते होती है कि उनको मांस का पाचन हो जाता है, मनुष्यों की जठाराग्नि वैसी नह होती। सच बात तो यह है कि मांस खाने वाले मनुष्यों का पेट, पेट नहीं है किन्त एक प्रकार का कब्रिस्तान है । मरे हुए जीवों को पेट में डालना इसका नाम कत्रि स्तान नहीं तो और क्या है ? ।
आइये, जरा एक नजर इस पर भी डालें कि क्या इस तरह के मांसाहारी धर्म क्रिया करने के योग्य हो सकते हैं ?
तात्विक दृष्टि से देखा जाये, तो मांसाहार करने वाला मनुष्य इतना अपवित्र होता है कि वह किसी प्रकार की धर्मक्रिया करने के योग्य हो ही नहीं सकता क्योंकि सभी दर्शनकारों का धर्मानुयायिओं का यह नियम हैं कि जब तक शरीर में अपवित्रता हो तब तक उससे किसी प्रकार की धमकिया नहीं हो सकती पातक विचार जो कि सब धर्म वालों को मान्य है उसका यह नियम है कि यदि धर्म स्थान के नजदीक किसी जानवर का कलेवर पड़ा हो तो उस धर्म स्थान में भी तब तक धर्म क्रिया नहीं हो सकती जब तक उस सृत कलेवर को वहां से न हटाया जाये । ऐसी स्थिति में यह विचारणीय है कि जो मनुष्य मांस भक्षण करते हैं वे प्रभु भक्ति या अन्य किसी प्रकार की धर्म क्रिया करने का अधिकार कैसे रख सकते हैं शास्त्रकारों का तो कथन है कि-"मृत स्प्रशेत् स्नानमाचरेत् ।" मुर्दे को छुओ तो स्नान करो । अब जो मनुष्य मांस खाता है वह मुर्दे को ही पे में डालता है, तब फिर वह स्नान कैसे करेगा? और स्नान करने से उसकी शुनि भी कैसे होगी ? यदि पवित्रता न होगी तो ईश्वर भक्ति, संध्या, जप, अर्था धार्मिक क्रियायें कैसे करेगा ? इस बात को गुरुनानक साहब ने भी 'गुरु ग्रंथ साहब
1. संछेदन स्वामांसस्य यथा संजनयेद् रूजम । तव परमांसेऽपि वेदतिव्यं विजानता ।। महाभारत भाग 6 अनुशासन पर्व पुष्ठ 5990
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