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"क्योंकि जो पुरुष अपने सुख की इच्छा से अहिंसक प्राणियों को मारता है जीता हुआ और मरा हुआ कहीं भी सुख नहीं पाता है ।""
" महाभारत के अनुशासन पर्व में शंकरजी पार्वती की शंका का समाधान ते हुए कहते है" कि "जो पराये मांस से अपने मांस को बढ़ाना चाहता है वह कहीं भी जन्म लेता है वहीं उद्वेग में पड़ा रहता है ।"
मनुष्य विविध प्राणों की हिंसा में अपना अनिष्ट देख सकने में समर्थ है र उसका त्याग करने में समर्थ है । जो मनुष्य अपने दुख को जानता है वह हर के दुख को भी जानता है, जो बाहर का दुख जानता है वह अपने दुख को जानता है । शांति प्राप्त संयमी असंयमी जीवन की इच्छा नहीं करते। वे तो किा विचार कर पाप को दूर से ही इस तरह छोड़ देते हैं जिस तरह मृगादि बी में विचरने वाले जीव सिंह से सदा भयभीत रहते हुए एकान्त में चरते हैं । त के हर प्राणी को अपने समान ही समझना चाहिए। आचारांग सूत्र में भी है - हे पुरुष । जिसे तू मारने की इच्छा करता है वह तेरे ही जैसा सुख-दुख अनुभव करने वाला प्राणी है जिस पर हुकुमत करने की इच्छा करता है, वार कर वह तेरे जैसा ही प्राणी है, जिसे दुख देने का विचार करता है, वार कर वह तेरे जैसा ही प्राणी है, जिसके प्राण लेने की वारकर, वह तेरे जैसा ही प्राणी है ।
इच्छा करता है,
सत्पुरुष इसी तरह विवेक रखता हुआ, जीवन बिताता है, न किसी को रता है और न किसी का घात करता है।
जो हिंसा करता है, उसका फल वैसा ही पीछे भोगना पड़ता है, अतः वह सी भी प्राणी की हिंसा करने की कामना न करे" 8
1. यो हिसकानि भूतानि हिनस्त्यात्मसुसे च्छ्षा
स जीवश्च मृतश्चैव न क्वचित्सुखमेधते ॥ मनुस्मृति पण्डित रामेश्वर भट्ट उपाध्याय 5 श्लोक 45
2. स्वमांस परमांसेन, यो वर्ध यतुमिच्छति,
उद्विग्नवांस लभते लभते यत्र यत्रोपजायते
महाभारत- - भाग 6 अनुशासन पर्व पृष्ठ 5990
3. तुमंस नाम तचेव, जं हतध्वंति मनसि । तुमसि नाम तं चेत जाँ अज्जावेव्वति मन्नसि । तुमंसि नामत चेव, जं परितावेयव्वंति मनसि । तुमंसि नाम तंचैव जं परिधेतव्यंति मन्नसि । एवं तुमंस नाम तंचेव, ज उद्दवेति मनसि । अंजू' चेयपडिबुद्धजीवी तम्हा हंता, विधाए, अणुसंवेयण - मप्पाणेणं, जं जंतन्वं णाभिपत्थए । आचारांग सूत्रम् श्रुतस्कंध प्रथम पृष्ठ 84 पर
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