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कुरान शरीफ में तो यहां तक कहा गया है कि मक्का शरीफ की यात्रा को जब से जाओ तब से जब तक वापिस न लौटो तब तक रोजा रखो । जानवरों को मारो मत और धर्म के जो खास-खास दिन गिनाये गये हैं उन दिनों मांस मत खाओ। यदि जीवों का संहार करने में धर्म होता तो धर्म ग्रन्थ कुर्बानी करने की क्यों मनाही करते ?
कुरान शरीफ में स्पष्ट लिखा है कि "खुदा तक न गोश्त पहुंचता है और न खून बल्कि उस समय तक कुम्हारी परहेजगारी पहुंचती है। कुरान के सूरए-अनआम में लिखा है कि "जमीन में जो चलने फिरने वाला (हैवान) या दो पैरों से उड़ने वाला जानवर है। उनकी भी तुम लोगों की तरह जमायतें हैं।"
शान्तिचन्द्र जी ने बताया कि अन्जाने में किसी जीव की हिंसा हो जाये तो ईश्वर माफ कर देगा लेकिन जानबूझ कर गलत काम करने वालों को कभी माफ नहीं किया जाता जैसा कि कुरान में भी लिखा है "खुदा उन्हीं लोगों की तौबा कबूल फरमाता है । जो नादानी से बुरी हरकत कर बैठते हैं फिर जल्द तौबा कर लेते हैं ऐसे लोगों पर खुदा मेहरबानी करता है। वह सब कुछ जानता है और हिकमत वाला है । ऐसे लोगों की तौबा कबूल नहीं होती । जो (सारी उम्र) बुरे काम करते है यहां तक कि जब उनमें से किसी की मौत आ मौजूद हो तो उस वक्त कहने लगे कि अब मैं तौबा कबूल करता हैं।
ये प्रमाण हमें यही दिखला रहे हैं कि सब जीवों पर रहम दृष्टि रखो। किंवदन्ती है कि एक समय काबुल के अमीर हिन्दुस्तान की यात्रा को आये । उस समय "ईद" का त्यौहार मनाने वे देहली पधारे। वहां के मुसलमानों ने उनके हाथ से कुर्बानी कराने के लिए कई गायें इकट्ठी की। मुसलमान समझते थे कि अमीर साहब हम पर प्रसन्न होंगे किन्तु अमीर साहब ने मुसलमानों की इस तैयारी को देखकर कहा कि कुरान में तो गायों की कुर्बानी की आज्ञा है ही नहीं। गौ-वध इस ख्याल से भी नहीं करना चाहिए क्योंकि हिन्दू हमारे पड़ोसी हैं और गौ-वध से उनके दिल में दुख होगा जबकि कुरान में स्पष्ट फर्मान है कि अपने पड़ोसियों के साथ हिल मिल कर रहो फिर मैं गौ-वध करके कुरान की आज्ञा का उल्लंघन क्यों करूं।
1. कुरान-शरीफ-सूर-ए-अल-हज्ज आयत 37 2. वही सूर-ए-अनआम आयत 38 3. करान-शरीफ-सूर-ए-निशा आयत 17-18
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