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ल कराकर प्रचार करने को कहाः "
जब सम्राट ने जिनचन्द्रसूरिजी को "युग प्रधान" की उपाधि दी तब इन्हें ध्याय पद दिया गया. अगरचन्द्र भी लिखते हैं कि इन्हें लेबेरे में उपाध्याय पर
गया
जय सोम
ये भी खरतरगच्छ के थे। इन्होंने अकबर के दरबार में एक बार वादमें विजय पाई । जिस दिन अकबर ने जिनचन्द्रसूरिजी को "युग-प्रधान" पदवी और मानसिह को आचार्य पदवी दी उसी दिन जबसोम को भी यानि वत् 1649 फागुन सुदी दूज (23 फरवरी 1593) के दिन पाठक पदवी दी । ये पदवी दिये जाने का उल्लेख "श्री जैन सत्यप्रकाश एव युग प्रधान "श्री चन्द्रसूरि में भी हैं: *
महोपाध्याय साधुकीर्ति -
ये भी अकबर की राजसभा में गये । एक बार अकबर के दरबार में लोगों की उपस्थिति में पोषध के विषय पर वाद-विवाद हुआ जिसमें साधुति ने भाग लेकर विजय पाई | इससे प्रसन्न होकर सम्राट ने इन्हें "वादीन्द्र " उपाधि प्रदान की: *
कर्ष
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जैन साधुओं ने बादशाह पर प्रभाव डालकर जन कल्याग व धर्म रक्षा आदि क कार्य करवाये । तीर्थों की रक्षा, गुजरात से जजिया उठवाना युद्धे बन्दी, और पिंजड़े में बन्द पक्षियों को छुड़ाना आदि बादशाह के जीव दया के की प्रेरणा में जैन मुनियों के उपदेश ही हेतु रहे हैं। जैन साधुओं बादशाह पर जो प्रभाव पड़ा। उसके विषय में प्राचीन ग्रन्थों के कुछ मत यहाँ घृत हैं ।
बादशाह ने प्रजी को अनुचित करों से मुक्त किया और प्रजाहित के लिए सुकृत किये उनके बारे में कृपारस कोष" के रचयिता लिखते हैं कि
1. युग प्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि -- अगरखन्द्र, भंवरलाल नाहटा पृष्ठ 96 2. श्री जैन सत्यप्रकाश वर्ष 10, अंक 12, पृष्ठ 284
3. युग प्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि - अगरचन्द, भंवरलाल नाहटा पृष्ठ 176 4. श्री जैन सत्य प्रकाश वर्ष 10 अंक 12, पृष्ठ 284, और बुग प्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि पृष्ठ 198
5. श्री जैन सत्य प्रकाश वर्ष 10, अंक 12 पृष्ठ 284
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