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यदि चींटी की योनि में आती है तो सकोच स्वभाव से उसके शरीर में पूरी पूरी समा जाती है उसका कोई अंश की नहीं रह जाता। इसी प्रकार मच चींटी की आत्मा हाथी का भव धारण करती है तो उसकी आत्मा हाथी के शरीर मैं पूरी तरह व्याप्त हो जाती है । शरीर कहीं खासी नहीं रहता।
प्रत्येक आत्मा कृत कर्मों का नाश कर परमात्मा बन सकती है। समस्त आत्मायें अपने आप में स्वतन्त्र हैं वे किसी अखण्ड सत्ता की अंश रूप नहीं है। जन्म मरण शील संसार के उस पार पहुंचना उसका ध्येय है । यह शरीर एक नाव है, जीव नाविक और संसार समुद्र । इसी संसार समुद्र को महर्षिजन पार करते हैं।
बादशाह के पूछने पर कि कर्म मुक्त आत्मा कैसे संस्थान करती है ? सूरिजी ने कहा जब आत्मा कर्मों का क्षय कर सर्वथा मल रहित होकर सिद्धि को पा लेती है तब लोक के अंग्रभाग पर स्थित होकर वह शाश्वत सिद्ध हो जाती है । जैनागमों में कहा गया हैं "जो आत्मा है वही विज्ञाता है, वही आत्मा है जो इसे स्वीकार करता है वह पण्डित है, वह आत्मवादी है।"
बादशाह ने पूछा कि सुख दुख क्यों होते हैं ? सूरिजी ने बताया सप्रयुक्त और दुष्प्रयुक्त आत्मा अपने आप ही सुख दुख का कर्ता और विकर्ता है, और अपने आप ही मित्र और अपने आप ही अमित्र है। अयत्नपूर्वक बोलता हुआ जीव प्राणी और भूतों की हिंसा करता है और पाप कर्म बांधता है उसका फल उसे कटु मिलता है।
आत्मा, जीव, चेतन सब एक ही शब्द हैं। आत्मा का मूल स्वरूप सच्चिदानन्दमय हैं । आत्मा ईश्वर की तरह अरूपी है लेकिन ईश्वर और आत्मा में इतना ही फर्क है कि ईश्वर निरावरण है और आत्मा आवरण सहित । इन मावरणों को जैन शास्त्र में कर्म कहते हैं । आत्मा के ऊपर कर्म चिपके होने से यह आत्मा नीचे रहती है। जैसे तुबे का स्वभाव तो पानी में तैरने का है यदि उसके ऊपर मिट्टी और कपड़े का लेप कर उसे खूब वजनदार बना दिया जाये तो वही तुबा पानी में तैरने के बजाय डूब जायेगा, ठीक यही दशा इस . आत्मा की है।
आत्मा के साथ कर्मों का बन्धन होने से ही आत्मा को परिभ्रमण करना 1. ऐ आया से विनाया । जे विनाया से आया। जेण विजाणति से आया तंपडुच्च परिसंखायए एस आयावादी समियाए परियाए वियाहितेत्तिबेमि आचारांग सत्रम श्रुतस्कन्ध प्रथम पृष्ठ 84-85
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