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या सभी को संरक्षण प्रदान किया । वह भी समय समय पर धर्म गुरूओं से म्पर्क करता रहता था । वह अपने दृष्टिकोण में मम से अकबर से भी अधिक मिक था। आध्यात्मिक शक्तियों पर विश्वास करता था। सभी धर्म गुरूओं । प्रसन्न रखने का भरपूर प्रयास करता था । उसने अपनी सत्ता को सुरक्षित बने के लिए धर्म गुरूओं को आश्रय दिया। अकबर की इबादतखाने की धमें र्चा को यथावत् कायम रेखा तथा जद्रूप से वैदान्त का ज्ञान प्राप्त किया। ल्मीकी रामायण का अनुवाद "राम नाम' शीर्षक से फारसी में कराया। रसागर के पदों के संकलन के लिए एक पद के लिए एक स्वर्ण मुद्रा पुरस्कार दम देने की घोषणा की।
आचार्य जिनचन्द्र सूरिजी ने जहांगीर से ऐसे फरमानों को रद करवाया जिन्हें उसे अपने नशे की मदहोशी में जारी किया था । तथा वे जनता के लिए ही नहीं अपितु उसके हित में भी घातक थे । यह सब साधुओं के राजकीय संरक्षण का परिणाम था, जिससे वह बादशाह की हर अच्छी-बुरी गतिविधि पर ध्यान रखा करते थे। तथा उसे समय-समय पर प्रतिबोध देकर उन गल्तियों से होने वाले परिणामों से अवगत करा दिया करते थे। सभी कार्यो में हम देखते है कि उन्हें उचित मार्ग दर्शन धर्म गुरूओं से ही प्राप्त होता था । जो उनकी राजकीय संरक्षण की नीति की परिणाम था।
3. जैन साधुओं का सामाजिक योगदान का स्वरूप
जैन साधओं की अपरिग्रहि प्रवृत्ति होने के कारण उनका समाज एवं राज्य में श्रेष्ठ स्थान रहा है । उन्होने संग्रही प्रवृत्ति को महत्व नहीं दिया तथा अहिंसा पर आधारित सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया । साधू प्रचारक एवं समाज सुधारक दोनों का कार्य करता है, साधू का स्वभाव ही ऐसा होता है। कि वह विगत मान-अपमान छोड़कर सुख दुख, सम-भाच, पूर्ण विचारों से समाज को सद्उपदेशों से प्रतिबोध देता है । और सभी को समान रूप में देखता हुआ एकांकी रूप में विचरण करता है जैन साधुओं ने समाज को संगठित करने का प्रयास किया और केवल सम्प्रदाय विशेष को ही नहीं अपितु सर्व धर्म समन्वय की भावना से। उनके अन्दर था धार्मिक संकीर्णता नहीं, अपितु धर्म व्यापकता थी और इसी गुण से मुसलमानी शासक उनके द्वारा प्रभावित हुए और उन्हें विनती पत्र लिखकर अपने दरबारों में आमन्त्रित किया उनका सामाजिक संगठन सकारात्मक वृत्ति को जन्म देता है। उनका लक्ष्य था, धार्मिक एकता एवं समानता के साथ राष्ट्रीय एकता की स्थापना, क्योंकि उनका प्रमुख उपदेश था "आत्मः प्रतिकूलानि परेषां समाचरेत्"।
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