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अर्थात् जो अपनी आत्मा के विपरीत है वह व्यवहार दुसरों के साथ मत करो यानि जियो और जीने दो। यह उपदेश समाजवादी सिद्धान्त और राष्ट्रीय एक का द्योतक है, जिसे हम राजनीति में नेहरूजी के पंचशील की समानता में सकते हैं तथा इन्हीं जैन आदर्शों के आधार पर यदि हम आज के परिपेक्ष्य में है तो विश्व शान्ति के सपने को साकार कर सकते हैं तथा सारे विश्व को निरसः करण की विचारधारा से प्रेरित कर सकते हैं, इन्हीं सिद्धान्तों का प्रतिपादन अ इन्हीं सिद्धान्तों से निर्मित समाज को साकार रूप में देखने का लक्ष्य जैन साधु का था । उनको उपदेश देने की भावना के पीछे सामाजिक एव ता एवं राष्ट्रीय की प्रेरणा थी वे धर्म को राष्ट्र एवं राजनीति से जोड़ना चाहते थे और वह उन धम था-मानव धर्म।
सर्व धर्म समन्वय से जन साधुओं में समत्व की भावना थी, जिसे हम हिन्दू धर्म ग्रन्थों में योग की संज्ञा दी गई है । "समत्व योग उच्चते"। जहां य होता है वहां वियोग को स्थान नहीं, जहां वियोग नहीं वहां भेद नहीं, जहां नहीं वहां विग्रह नहीं। ऐसे विग्रह हीनसमाज की स्थापना करना चाहते थे साधू अपने धर्म मय उपदेशों के द्वारा।
देश के उत्थान के लिए अच्छे समाज का होना आवश्यक होता है। 3 अच्छे समाज के लिए श्रेष्ठ नागरिकों का, क्योंकि व्यक्तियों से समाज का निम होता है और व्यक्ति का निर्माण सद्गुणों से । हमारे धर्म ग्रन्थों में वर्णित कि मानव जन्म से शूद पैदा होता है सस्कार ही उसे श्रेष्ठ बनाते हैं इन संस्क को देने का दायित्व हमारे जैन समाज ने अपने ऊपर लिया और अपनी पद य वृत्त को धारण करते हुए समाज को संस्कारित कर श्रेष्ठ समाज की स्थापन सहयोग दिया।
जैन साधु देश सेवा में अग्रणी रहे इस बात का निवेदन मैंने पूर्व के अध्य में भली भांति किया है तथा उन्होंने हर सम्भव प्रयत्न के द्वारा परोक्ष रूप में सेवा में अपना जीवन लगाया। उन्होंने अपने चरित्र बल, तपशक्ति के प्रभाव मगल बादशाहों को प्रभावित किया, प्रजा कल्याण के कार्य करवाये, वे कार्य के के लिए ही नहीं अपितु सभी जैनेतर समाज के लिए थे।
4. राजनीतिक आदर्श की स्थापना
प्रकृति का यह नियम है, कि समाज में श्रेष्ठ लोग जैसे आचरण करते समाज उन्हीं का अनुसरण करता है सामाजिक इकाईयों से राज्य का निम होता है और राज्य शासन व्यवस्था की प्रक्रिया को राजनीति कहा जाता
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