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________________ ( 33 ) , पारस्परिक विरूदोक्ति और मुकाविला करने की रण भूमि में अपनी जीभ रूपी सलवार का उपयोग करते थे । पक्ष समर्थनकारों में इतना वितण्डावाद खड़ा हो खाता था कि एक पक्ष वाला दूसरे पक्ष वाले को बेवकूफ और ढोंगी बताने लग जाता था इन वाद-विवाद और धार्मिक चर्चाओं के दौरान इन विद्वानों की सकीर्णता, अभद्रता तथा अंहकार का नग्न नृत्य प्रारम्भ हुआ । एक विद्वान किसी बात को हलाल कहता था तो दूसरा उसी को हराम प्रमाणित कर देता था । वे स्वयं अकबर की उपस्थिति में ही आपे से बाहर हो जाते थे और परस्पर एक दूसरे को काफिर बतलाते थे । अबुल फजल और फंजी भी आ गये थे तथा दरबार में उनके भी पक्षपाती उत्पन्न हो गये थे । ये लोग एक-दूसरे के कार्यो की पोल खोलते थे । बेइमानियों के अनेक किस्से सुनाते थे- जैसे दीन दुखियों और विद्वानों को दान में दी गई रकम के विषय में मखदूम उल मुल्क की बेईमानी, अब्दुन्नबी पर हत्या करने का आरोप आदि । प्रत्येक विद्वान की यही इच्छा थी कि जो कुछ मैं कहूं उसी को सब ब्रह्म वाक्य मानें। जो जरा भी चीं चपड़ करता था उसी के लिए काफिर होने का फतवा रखा हुआ था । कुरान की आयतें और कहावतें सबके तर्क का आधार थीं। पुराने विद्वानों के दिये हुए फतवे जो अपने मतलब के होते थे, उन्हें भी ने कुरान की आयतों के समान ही प्रमाणिक बतलाते थे ।" "विद्वानों की यह दशा थी कि जवानों की तलवारें खींच कर पिल पड़ते थे, कर मरते थे और आपस में तर्क-वितर्क तथा वाद-विवाद करके एक-दूसरे को पूरी तरह से दबाने का ही प्रयत्न करते थे । और शेख सदर मखदूम-उल-मुल्क की तो यह दशा थी कि आपस में गुत्थमगुत्था तक कर बैठते थे " " । बदायूँनी ने भी लिखा है कि वाद-विवाद के समय “एक रात उस समय उमाओं की गर्दनों की नसें फूल गयीं और एक भयानक शोरगुल और कोलाहल मच गया । सम्राट अकबर इनके अशिष्ट व्यवहार पर बड़ा ही क्रोधित हुआ ।" इन नेताओं के ऐसे संकीर्ण, कट्टरपन, स्वार्थ और पतित चरित्र से अकबर को अत्यधिक क्षोभ हुआ । उसने समझ लिया कि सत्य की खोज उनके बस की बात नहीं । धर्म की ही नींव खोदने वाले ऐसे मुल्लाओं से उसे स्वभावतः चिढ़ होने बगी और वह शिया-सुन्नी, हनफी शफी के झगड़ों से मुक्त धर्म को स्थापित करने को आतुर हो उठा ' 1. अलबदायूंनी डब्ल्यू. एच. लॉ द्वारा अनुदित भाग 2 पृष्ठ 262 2. अकबरी दरबार हिन्दी अनुवाद रामचन्द्र वर्मा 1 भाग पृष्ठ 75-76 3. अलबदायूंनी डब्ल्यू एच. लॉ द्वारा अनुदित भाग 2 पृष्ठ 205 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003201
Book TitleMugal Samrato ki Dharmik Niti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNina Jain
PublisherKashiram Saraf Shivpuri
Publication Year1991
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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