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( 125 ) इस कठोर आज्ञा को सुनकर दर्शनी लोग इधर उधर भागने लगे, कुछ तलहरों में छिप गये यानि जैसी जिसे सुविधा मिली उसने वैसा ही कर लिया। जिन्हें कोई ठिकाना न मिला उन्हें यवनों ने पकड़कर काल कोठरी में बन्द कर दिया यहां उन्हें अन्न जल भी नहीं मिलता था। इस घटना का विस्तृत विवरण युग धान निर्वाण रास में मिलता है:1
जिस समय बादशाह ने इस प्रकार की अन्यायपूर्ण आज्ञा निकाली उस समय पानि सन 1611 में सूरिजी का चातुर्मास पाटण में था। इस प्रकार की विकट रिस्थितियों में आगरा श्रीसंघ ने सूरिजी को. विज्ञप्ति पत्र लिखकर संकट निवा. रण की विनती की। चातुर्मास पूर्ण होते ही सूरिजी ने आगरा की ओर बिहार कर दिया। शीघ्र ही बिहार करते हुए अपनी शिष्य मण्डली के साथ सम्वत् 1669 (सन् 1612) में आगरा पहुचे । सूरिजी के दर्शन मात्र से ही बादशाह का क्रोध शान्त हो गया । उसने सूरिजी से पाटण से अचानक ही आने का कारण पूछा, इस पर सूरिजी जिस समस्या को सुलझाने आये थे, बादशाह को बताकर साधू. बिहार को मुक्त करने के लिए कहा । बादशाह का कहना था कि भुक्त भोगी होकर साधू बनना निरापद होता है । इस पर सूरिजी ने बड़े ही सुन्दर शब्दों में बादशाह को सम्बोधित कर कहा
ब्रह्मचर्य को जैन दर्शन में बहुत ही ऊंचा स्थान दिया गया है, उसके पालन गर रक्षा के हेतु नौ कड़ी आज्ञायें शास्त्रकारों ने बतला दी हैं जिनसे सुखपूर्वक विधनतया ब्रह्मचर्य व्रत स्थिर रह सके वे इस प्रकार हैं
(1) जहाँ स्त्री-पुरुष, पशु और नपुंसक निवास करते हों, उस स्थान में
नहीं रहना। विषय विकारों को जागृति और अभिवृद्धि करने वाली वार्ताएं न
करना और न सुनना। (3) जहां स्त्री बैठी हो उस स्थान वे उस आसन पर दो घड़ी तकन
बैठना। (4) दीवाल की ओट में भी जहां स्त्री-पुरुष काम-क्रीड़ा और प्रेम वार्ता
करते हों वहां न ठहरना और न उसे सुनना । (5) पूर्वावस्था के मुक्त भोगों को स्मरण तक न करना ।
1. एतिहासिक जैन काव्य संग्रह-युग प्रधान निर्वाण रास-अगरचन्द नाहटा
पृष्ठ 81-82
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