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________________ ( 9 ) अकबरपुर में जहां सूरिजी का अग्नि संस्कार हुआ वहां उनका स्तूप बनाने के लिए बादशाह ने 10 बीघा जमीन जैन श्रीसंघ को दे दी वहां खम्बात के निवासी शाहजगसी के पुत्र सोम जी शाह ने सूरिजी का स्तूप बनवाया। 4-आचार्य श्री विजयदेवसूरिजी पौष वदी तेरस संवत 1634 (सन् 1577) को (गुजरात) में माता रूपा और पिता श्रेष्ठ के घर में एक बालक का जन्म हुआ। जब बालक गर्भ में आया तो माता ने स्वप्न में सिंह देखा । समय पूरा होने पर रोहिणी योग, वुश लग्न जैसे उत्तम नक्षत्र में बालक ने जन्म लिया। बालक का नाम वासकुमार रखा गया। यही बालक आगे चलकर आचार्य विजयदेवसूरि के नाम से विख्यात हुआ। वासकुमार ने खम्भात में संवत 1643 (सन् 1586) में आचार्य विजयसेनसूरि के पास दीक्षा ग्रहण की और विद्याविजय नाम पाया । संवत 1655 (सन् 1598) में विजयसेनसूरि ने इन्हें अपना पट्टधर घोषित किया। विजयदेवसूरि ने मालवा, राजपूताना, मेवाड़, दक्षिण, पूर्व देश, पंजाब, काश्मीर आदि प्रदेशों में खूब धर्म प्रभावना की और पूर्व देश के तीर्थों का उद्धार किया । पाटन के सूबेदार को उपदेश देकर श्रीहीरविजयसरिजी के स्मारक का निर्माण कराया उसके रक्षण के लिए सूबेदार ने 100 बीघा जमीन दी वर्तमान समय में भी यह स्मारक "दादावाड़ी" के नाम से प्रसिद्ध है। बादशाह अकबर की तरह बादशाह जहांगीर भी अक्सर जैन विद्वानों के साथ "जैन दर्शन" पर वाद-विवाद किया करता था । जब जहांगीर मांडू में था, तब उसने आचार्य विजयदेवसूरि के बारे में सुना तो जैन धर्मोपदेश सुनने के लिए उन्हें आमन्त्रित किया। बादशाह का निमन्त्रण मिला सूरिजी उस समय खम्भात में थे खम्भात से बिहार कर के आश्विन शुक्ला तेरस संवत 1673 (सन् 1616) को मांडू पहुंचे । बादशाह इनके व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुआ । सूरिजी ने 'बादशाह को उपदेश देकर जीव दया के अनेक कार्य करवाये । 1. सोमजी शाह ने जो स्तूप बनवाया उसमें का अकबरपुर में कुछ भी नहीं है, लेकिन खम्भात के भोयरावाडे में शांतिनाथ का मन्दिर हैं। उसके मूल गभारे में-जहां प्रतिमा स्थापित होती है, उस स्थान में-बायें हाथ की तरफ एक पादुका वाला पत्थर हैं, उसके लेख से ज्ञात होता है कि यह वही पादुका है जो सोमजी शाह ने विजयसेनसूरिजी के स्तूप पर स्थापित की थी, शायद काल के प्रभाव से अकबरपुर की स्थिति खराब हो जाने पर यह पादुका वाला पत्थर यहां लाया गया होगा। पत्थर के पूर्ण लेख के लिए देखें परिशिष्ट नं. 2। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003201
Book TitleMugal Samrato ki Dharmik Niti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNina Jain
PublisherKashiram Saraf Shivpuri
Publication Year1991
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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