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शंकर व्यास लिखते हैं-"महर्षि हेमचन्द्र के काल में गुजरात में जैन धर्म की स्थिति अत्यधिक सुदृढ़ ही न हुई अपितु कुछ समय के लिए यह राजधर्म भी बन गया। सल्तनत युग
यदि हम सल्तनतकालीन इतिहास पर एक दृष्टि डालें, तो पता चलता है कि तत्कालीन सुल्तानों पर भी जैनाचार्यों ने प्रभाव डाला इन सुल्तानों में मुहम्मद तुगलक, फिरोज तुगलक और अलाउद्दीन खिलजी के नाम प्रमुख हैं, और आचार्यों में जिनप्रभ सूरि, जिनदेवजिसूरि और रत्नेश्वर आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं जिस तरह ईसा की 16 वीं शताब्दी में मुगल सम्राट अकबर के दरबार में जैन जगदगुरु हीरविजयसूरि ने शाही सम्मान प्राप्त किया था उसी तरह जिनविजयसूरि ने भी 14 वीं शताब्दी में तुगलक सुल्तान मुहम्मदशाह के दरबार में बड़ा गौरव प्राप्त किया था। भारत के मुसलमान बादशाहों के दरबार में जैन धर्म का महत्व बतलाने वाले और उसका महत्व बढ़ाने वाले शायद पहले ये ही आचार्य हुए।
कहा जाता हैं कि सन् 1329 में बादशाह मुहम्मद तुगलक ने अपनी सभा में पूछा कि वर्तमान समय में विशिष्ट पंडित कौन है ? जोषी धराधर द्वारा जिनप्रभसूरि का नाम बताये जाने पर बादशाह ने उन्हें सम्मानपूर्वक आमन्त्रित किया । सूरिजी के आने पर बादशाह ने उनसे एकान्त में धार्मिक चर्चायें की। बादशाह सूरिजी के तत्व ज्ञान से बहुत प्रभावित हुआ और पूछा कि मेरे लिए कोई सेवा हो तो बतायें उस समय जैन तीर्थों की जो दुर्दशा हो रही थी सूरिजी ने उनकी रक्षा के लिए कहा बादशाह ने उसी समय शत्रुन्जय, गिरनार, फ्लौधी आदि तीर्थ रक्षा का फरमान लिख दिया ।
तुगलकाबाद में राजमहल के आगे भगवान महावीर की प्रतिमा उल्टी रखी हुई थी, सूरिजी के मांगने पर बादशाह ने सभासदों के सामने सूरिजी को प्रतिमा सौंप दी तथा सूरिजी ने उसे श्रावकों को समर्पित कर दिया।
सूरिजी ने विभिन्न तीर्थो का उद्धार कर जैन शासन की प्रभावना की। मथुरा को मुक्त कराया । ब्राह्मणों, गरीबों को दान देकर सन्तुष्ट किया* :
बादशाह के दरबार में सूरिजी का विशेष प्रभाव देखकर कुछ पंडितों को सूरिजी से ईर्ष्या होने लगी एक किंवन्दन्ती है कि राधव नामक एक पंडित ने सूरिजी
1. चौलुक्य कुमारपाल-श्रीलक्ष्मीशंकर व्यास पृष्ठ 216 2. विविध तीर्थकला-जिनप्रभसूरि पृष्ठ 46 3. खरतरगच्छ बृहद गुर्वावलि-श्रीजिनविजयजी पृष्ठ 96 4. खरतरगच्छ बृहद गुर्वावलि-श्रीजिनविजयजी पृष्ठ 95
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