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यान 1562 में, तो प्रजा की असली हालत जानने के लिए उसने फकीरों और साधू सन्तों का सहवास शुरू किया। यह ठीक भी है क्योंकि साधू सन्तों या कहें कि निष्पक्ष त्यागी, फकीरों के जरिये प्रजा की असली हालत ज्यादा अच्छी तरह मालूम हो सकती है । साधुओं से मिलने में अकबर को एक और फायदा या कि वह अपनी आत्मा की उन्नति के साधनों का भी अन्वेषण करने लगा। बस वहीं से उनकी उदार नीति की शुरूआत होती है ।
चौदहवीं और पन्द्रहवीं शताब्दी में जहां धर्म के नाम पर अनेक अमानुषिक अत्याचार हुए वहीं अकबर ने पूर्ववर्ती सुल्तानों की संकीर्ण कट्टर धार्मिक नीति का परित्याग करके सुलह-ए-कुल की नीति अपनाई अपूर्व धार्मिक सहिष्णुता स्थापित की। सभी धर्मावलम्बियों को समान माना तथा उनके साथ निष्पक्ष व्यवहार किया । उसकी धारणा थी कि इस्लाम के सिद्धान्त संकीर्ण, एकांगी और पाषाण के समान निर्जीव नहीं अपितु व्यापक, गतिशील और जाग्रत संस्था के रूप में है जो देशकाल और परिस्थितियों के अनुसार संशोधित और परिवर्तित किये जा सकते हैं । अकबर के इस व्यापक दृष्टिकोण से मुगल राजसत्ता का स्वरूप ही बदल गया । उसने धर्म, सम्प्रदाय, नस्ल या अन्य किसी आधार पर मनुष्यों में भेद-भाव करना मानवता और नैसर्गिक सत्य धर्म के विरुद्ध समझा । उसने विधिविधानों को जो या तो साम्प्रदायिक तथा अन्य असहिष्णुता पूर्ण भेद-भावों के आधार थे, अथवा हिन्दू मुस्लिम मतभेदों को समर्थन देते थे, स्थगित कर दिया और हिन्दुओं को भी शासन के उच्च पदों पर नियुक्त किया । जब टोडरमल की पदोन्नति हुई तब मुसलमान अमीरों और पदाधिकारियों ने ईर्ष्या-द्वेष से इस निर्णय का विरोध किया और अकबर से प्रार्थना की कि टोडरमल को उसके पद से पृथक कर दिया जाये इस पर अकबर ने रुष्ट होकर कहा कि "तुम में से प्रत्येक ने अपने निवास गृह में हिन्दुओं को नियुक्त कर रखा है तो फिर मैंने एक हिन्दू को रखने में क्या गल्ती की है ।"
यद्यपि प्रारम्भ में तो अकबर इतना उदार और सहिष्णु इस्लाम में अत्यधिक आस्था थी किन्तु विभिन्न परिस्थितियों और उसकी धार्मिक नीति, विचार और दृष्टिकोण में परिवर्तन हुआ । परिस्थितिओं का वर्णन करेंगे जिन्होंने अकबर की धार्मिक नीति को प्रभावित किया है
अब हम उन
1. अलबदायूनी - डब्ल्यू. एच. लों द्वारा अनुदित भाग 2 पृ.65
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नहीं था, उसे घटनाओं से
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