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6. विजयप्रभसूरि
ये श्री विजयदेवसूरिजी के पट्टधर थे तथा श्री मेंघविजय उपाध्याय ने इनको प्रशस्ति में दिग्विजय महाकाव्यः की रचना की है जैसा कि इस महाकाव्य शीर्षक से स्पष्ट है । इन आचार्यजी ने भारत में चतुर्दिक बिहार करके जैन धर्म क प्रचार किया था। सर्वत्र संघ के अनुयायियों ने इनका अत्यधिक सम्मान किय तथा इनके उपदेश से मन्दिर आबि बनवाये । विभिन्न स्थानों पर राजाओं ने इन उपदेश से पशु-वध निषेध करवाया । उदयपुर बुरहानपुर, ईडर तथा बीजापुर इनका बिहार इस दृष्टि से अधिक सफल रहा अन्तिम दिनों में ये आगरा जहांग से भेंट करने भी गये थे. 7. अन्य आचार्य
सम्राट अकबर तथा सम्राट जहांगीर का जैन धर्म की दोनों प्रसिद्ध गच्च तपागच्छ एवं खरतरगच्छ के आचार्यों से घनिष्ठ सम्पर्क रहा था। किन्तु कुर प्रमुख आचार्यो के उल्लेख ही बादशाहों से सम्पर्क का मिलता है। जब मुनि हीरविजयजी आगरा से वापिस गुजरात से चले गये थे तब अकबर की प्रार्थन पर उन्होंने मुनि भानुचन्द्र जी को उनके पास भेज दिया था। मुनि भानुचन्द्रज के साथ सिद्धिचन्द्रजी भी आ गये थे। किन्तु ये जब वापिस गये तो अपने स्था पर किसी जैन मुनि को बादशाह के सम्पर्क में रहने को न छोड़ गये हों य सम्भव नहीं । आचार्य हीरविजयजी ने अकबर के बुलाने पर आना इसी विचा से स्वीकार किया था। कि बादशाह के सम्पर्क में रहने से- जैन धर्म के लि. शासकीय संरक्षण प्राप्त हो सकेगा। यह सत्य सम्भावना अन्य आचार्यों के मन भी रही होगी।
कर्मचन्द्र जैसे कर्मठ मन्त्रि सम्राट अकबर तथा जहांगीर दोनों दरबार में रहे। ये खरतरगच्छ सम्प्रदाय के थे । इनके कारण इस सम्प्रदाय आचार्यों मुनि जिनचन्द्र तथा मुनि जिनसिंह को भी अकबर से सम्मान प्राप हुआ था।
इन दोनों ही सम्प्रदायों की शिष्य परम्परा में जिन प्रसिद्ध आचार्यों । उल्लेख मिलता है उनका अवश्य ही सम्राट अकबर तथा जहांगीर से सम्पर्क रह होगा। ये आचार्य हैं-~-मुनिविजयराज, मुनिधर्मविजय, मनिसोमविजय, मुर्मा नेमीसागर, भानुचन्द्र के शिष्य उदयचन्द्र, सिद्धिचन्द्र के अग्रज भावचन्द्र, मू
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1. भारतीय विद्या भवन द्वारा 1945 में प्रकाशित 2. दिग्विजय महाकाव्य सर्ग 10
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