SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्येष्ठ सुदी म्यारस सम्वत् 1613 (सन् 1556) मैं सूरत में माता के साथ विजयदानसूरिजी के पास दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा का नाम "मुनिजयविमल" रखा गया। विजयदानसूरिजी ने दीक्षा देकर आपको हारविजयसूरिजी का शिष्य सोषित कर दिया। हीरविजयसरिजी के पास रहकर आपने न्याय, व्याकरण आदि बन्धों का अभ्यास किया। सम्वत् 1626 (सन् 1569) में खम्भात में आपको पडित पद दिया गया। खम्भात से गुरु के साथ बिहार कर अहमदाबाद आकर चतुर्मास किया । यहां पर फागुन सुदी सात सम्बत् 1628 (सन् 1571) को उपाध्याय एवं आचार्य पद से विभूषित कर 'आचार्य विजयसेनसूरि" नाम रखा गया। इस अवसर पर मूला सेठ और वीपापारिख ने महोत्सव किया। इसी समय एक और अभूतपूर्व बात देखने में आई कि मेघजी नामक एक विद्वान जो कि लुकामत का अधिकारी था, स्वयं शास्त्र और जिन प्रतिमा को देखकर उसके हृदय में लुकामत को दूर करने की इच्छा हुई। दोनों सूरीश्वरों के सामने मेघजी ऋषि ने अपने सत्ताइस पंडितों के साथ लुकामत को त्याग कर सूरीश्वर के सत्योपदेश को ग्रहण कर लिया। आचार्य पदवी के बाद हीरविजयसरि ने सारी व्यवस्था की देखभाल विजयसेनसूरि को सौंपकर स्वतन्त्र विहार करने की आज्ञा दे दी। वे जाव में विचरण कर धर्मोपदेश देने लगे । अनेक जगह प्रतिष्ठायें करवाई । ज्येष्ठ शुक्ला दशमी सम्वत् 1643 (सन् 1586) के दिन गंधार बंदर में “इन्द्रजी" सेठ घर में भगवान महावीर स्वामी की प्रतिमा की प्रतिष्ठा करवाई । दुसरी प्रतिष्ठा ज्येष्ठ वदी ग्यारस के दिन "धनाई" नाम की श्राविका के मन्दिर में रवाई । गधार में ही ज्येष्ठ शुक्ला बारस सम्वत् 1645 (सन् 1588) का मन्दिर में चिन्तामणि पार्श्वनाथ तथा महावीर स्वामी की प्रतिमा की प्रतिष्ठा रवाई। गधार से बिहार कर अपने गुरु हीरविजयसरि के पास राधनपुर आये। बत् 1649 (सन् 1592) का चातुर्मास दोनों आचायों ने यहीं किया वहीं पर रविजयसूरिजी को बादशाह अकबर का पत्र मिला जिसमें विजयसेनसूरि को हौर भेजने के लिए लिखा हुभा था। सुरू की आज्ञानुसार मार्म सुदी तीज सम्वत् 1649 (सन् 1592) को जायसेनसूरि वे लाहौर के लिए बिहार कर दिया । मार्ग में पाटण, देलवाड़ा, निहरों के दर्शन करते हुए अपनी जन्म भूमि "नारदपुरी" पधारे यहां से मेडता, me महिमनगर होते हुए लाहौर से छः कोस दूर लुधियाना आये । यहां कजल का भाई फैजी और अनेक लोग सूरिजी के दर्शनार्थ गये । इसी दुरिजी के शिष्य नदिविजवजी ने सब लोगों के सामने अष्टावधान साधा खकर सभी आश्चर्यचकित रह गये और जाफर बादशाह से चमत्कार की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003201
Book TitleMugal Samrato ki Dharmik Niti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNina Jain
PublisherKashiram Saraf Shivpuri
Publication Year1991
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy