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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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मध्यकालीन हिन्दी जैन काव्य में
रहस्य-भावना
(नागपुर विश्वविद्यालय बारा पी-एच्. सी. उपाधि
के लिए स्वीकृत गोष- प्रबन्ध, 1975)
ग. श्रीमती पुष्पलतान एम. ए. (हिन्दी, भाषापिन), पी-एच्. डी. (हिन्दी, भाषाविज्ञान) प्राध्यापिका, हिन्दी विभाग, एस. एफ. एस. कासेज, नागपुर (महाराष्ट्र)
सन्मति विद्यापीठ मा.वि.जैन महासमा
नागपुर प्रकासन विभाग
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लकलाक
प्रकाशन मन्त्री,FETRA TIMEति विद्यापीठ बी मा.दि.न महासभा,
म्यू एक्सटेंशन एरिया,
सदर, नागपुर *440001
. .श्रीमती पुष्पलता जैन प्रथम संस्करण-मार्च, 1984
Price-Rs. 100.00
(i) श्री मा.वि. महाला
केनीय प्रन्यागार .. कोठारी भवन, 30-31, नई पान मण्डी, फोटा, राजस्थान
(i) सम्मति विद्यापीठ न्यू एक्सटेंशन एरिया,
सदर, नागपुर-440001
tiii) मोतीलाल बनारसीरास
बेंगलो रोड़, जवाहर नवर, नई दिल्ली-110007
(iv) भवरल वेन एवं संतति
466/2/21, दरियागंज, दिल्ली-110006
(v) सुमति साहित्य सदन
944, नई बस्ती
दिल्ली-110008
क-के. एस. कम्पोजिम सेन्टर, मनोहारों का रास्ता बयपुर, 302003,
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परम पूज्या श्वव श्रीमती तुलसा देवी धर्मपत्नी, स्व० श्री गोरे लाल जैन
के कर कमलों में सादर समर्पित,
जिन्होंने अध्ययन के लिए
अपेक्षित मातृवत् स्नेहिल
वातावरण प्रदान
किया ।
(htt
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(V)
प्रकाशकीय
अखिल भारतवर्षीय दि. जैन महासभा के अध्यक्ष श्री निर्मलकुमार सेठी (जन्म 4 जुलाई, 1938) निनसुखिया के सुप्रसिद्ध व्यवसायी स्व. श्री हरकचन्द सेठी के ज्येष्ठ पुत्र हैं । मापने इतने ही अल्पकाल में जैन समाज के शीर्षस्थ कर्मठ नेता और उदारता के रूप में प्रतिष्ठा पजित कर ली है।
भारत के हर कोने में पाप के ध्यापारिक प्रतिष्ठान हैं। प्रादेशिक पौर राष्ट्रीय स्तर के अनेक प्रतिष्ठानों के भाप अध्यक्ष प्रादि रह चुके हैं। अनेक सरकारी डेलिगेसनों में पापने विदेश यात्राएं भी की
H-Mam
हैं । प्रापके अध्यक्ष बनते ही महासभा को एक संजीवनी बूटी उपलम्म हो गई है।
दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्रों के जीणोबार व विकास के लिए भी पापने प्रशंसनीय कार्य किया है। अपनी नई आकर्षक योजनाओं के साथ माप जैन समाज के विकास में जुटे हुए हैं। माप मृदुभाषी, सरल स्वभावी भोर महंभाव से शून्य व्यक्तित्व के धनी है । मापसे समाज को बड़ी माशाएं हैं।
साहित्य के प्रचार-प्रसार में भी प्रापकी अभिरुचि बढ़ी है। प्रा.ग. श्रीमती मलता जैन हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में लम्प प्रतिक्षित विदुषी हैं। उनके Php. शोध-प्रबन्ध "मध्यकालीन.हिन्यो अनकाम में रहस्मभावना' के प्रकाशक में कापने भाषिक सहयोग किया है। हम इसके लिए आपके पामारी है।
राबाजार सेठी मंत्री, साहित्य प्रकासन विभाग
बीमा.लि.न पहलमा
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प्राककपन
भाव के वैज्ञानिक युग में भौतिकवादी दौड़-धूप करने के बावजूद व्यक्ति शान्त और सुखी नहीं है क्योंकि उसने पात्मस्वभाव में स्थित न रहकर वैभाविक क्षेत्र में विचरण करना शुरू कर दिया है। उसने अहं को शिर पर रखकर स्वयं को सबसे बड़ा विवेकी मोर खोजी समझ लिया है । इसी भूल और भ्रान्ति ने उसे माकुलमाकुल, व्यग्र तथा प्रशान्त बना दिया है। इसी से वह अपने मूल स्वभाव को भूलकर स्वयं में छिपे परमात्मा को बाहर खोज रहा है। तब वह मिले कैसे ? परमात्मपद की प्राप्ति तो संयम, तप, इन्द्रियनिग्रह, यम, नियम, विवेक आदि के माध्यम से ही हो सकती है। ऐसे साधन भी हर युग में होते रहे जो भीतर से जुड़कर अपने को दुनते रहे, गुनते रहे।
भीतर की यह बुनावट किंवा खुलावट मास्म-साक्षात्कार की प्रक्रिया का परिणाम है । इसको पानन्द इन्द्रियातीत है। स्वाधीन पोर पव्यागाध है । भक्त मोर साधक कषियों ने इस अनुभूत मानन्द को नानाविध रूपों में अभिव्यक्त करने का प्रयत्न किया है । साहित्य में यह प्रवृति 'रहस्यवाद' नाम से अभिहित की गयी है।
सामान्यतः रहस्यवाद की सृष्टि के लिए जीव धोर ब्रह्मा का भिन्न-भिन्न होना मावश्यक माना गया है। जीव ब्रह्म से मिलने के लिए न केवल माकुल-व्याकुल रहता है, प्रणय निवेदन करता है, वरन् नानाविध बापामों को जय करने में भी अपने पुरुषार्थ-पराक्रम का उपयोग करता है। रहस्यवादी कषियों में जीव और ब्रह्म के पारस्परिक मिलन और उसकी मानन्दानुभूति का विभिन्न प्रतीकों, रूपकों, उलटवासियों मादि के रूप में प्रभावकारी वर्णन किया है पर जैन साधना में जीव और ब्रह्म के मिलन की नहीं, वरन् जीव के ही ब्रह्म हो जाने की स्थिति स्वीकार की गयी है। दूसरे शब्दों में जीव अपने विकारों पर विजय प्राप्त कर, समस्त कर्म पुदगलों की रज हटाकर अपनी प्रात्मा-पेतमा को इतना विशुद्ध पोर निर्मल बना लेता है
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(VI)
कि वह स्वयं परमात्मा बन जाता है। तब जीव और ब्रह्म में किषित भी अन्तर नहीं रहता । इस दृष्टि से जितने भी
जीव का बम हो जाना संभाग है। शर्त है केवल अपने को निर्मल, विधुर पार निर्विकार-वीतराग बनाना।
जैन दर्शन के श्वर विषयक इस भिन्न दृष्टिकोण कारण मालोचकों में बन रहस्यवाद को लेकर मत-वभिन्य रहा है और उसे शंका की दृष्टि से देखा है। पर मुझे यह कहते हुए मस्यन्त प्रसन्नता है कि डा. बीमती पुष्पलता जैन ने इस खतरे को उठाकर अपने इस शोष-प्रबन्ध 'मध्यकालीन हिन्दी बैन काम में रहस्य. भावना' में विभिन्न शंकाओं का सुकर समाधान प्रस्तुत किया है दानिक स्तर पर भी और साहित्यिक स्तर पर भी ।
श्रीमती पुष्पलता जैन का अध्ययन विस्तृत पौर बहरा है। उन्होंने व्यापक फलक पर रहस्य-चिन्तन पोर रहस्म-भावना का विवेचन-विश्लेषण किया है। पाठ परिवों में विभाजित अपने भोप-प्रबध में जहां एक मोर उन्होंने हिन्दी साहित्य के काल-विभाजन, उसकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, मादिकालीन एवं मध्यकालीन जैन काव्य प्रवृत्तियों पर प्रकाश डाला है वहीं दूसरी पोर रहस्यभावना के स्वस्म, उसके बाधक एवं साधक तत्वों का विवेचन करते हुए जैन रहस्यभावना का सगुण, निर्गुण, सूफी व माधुनिक रहस्यभावना के साथ तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है। उनका अध्ययन पालोचना एवं गवेषणा से संयुक्त है। शताधिक जैन-नेतर कवियों की रचनामों का पालोड़न-विलोड़नकर उन्होंने अपने जो निष्कर्ष दिये है ये प्रमाणपुरस्सर होने के साथ-साथ नवीन दृष्टि और चिन्तन लिये हुए हैं।
मुझे पूरा विश्वास है कि यह कृति हिन्दी काव्य की रहस्यधारा को समय रूप से समझने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभायेगी।
23 अप्रैल, 1984
डॉ. नरेन्द्र मानावत एसोसियेट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, राजस्थान विश्वविदालय, जयपुर
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विषयानुक्रम
___59-89
उपस्थापना :
1.16 1. प्रथम परिवर्तकाल विभाजन एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि- 1-19
काल विभाजन, सांस्कृतिक-राजनीतिक-धार्मिक पृष्ठभूमि,
वैतिक-अनलोड धर्म, सामाजिक पृष्ठभूमि. 2. द्वितीय पत्थित-पादि कालीन हिन्दी न काव्य प्रवृत्तियां- 20-33 3. तृतीय परिवर्त-मध्यकालीन हिन्दी जैन काव्य प्रवृत्तियां- 34-58
प्रबन्ध-पौराणिक-चरित-रासा-रूपक-अध्यात्म-भक्ति मूलक-चूनही
फागू-लिफा-बारहमासा विवाहलो संख्यात्मक-गीति-प्रकीर्णक काव्य. 4. चतुर्ष परिवर्त-रहस्य भावनाः एक विश्लेषण
रहस्यः अर्थ और परिभाषा, प्रमुख तत्त्व, साध्य-साधन और साधक, अध्यात्मवाद और दर्शन, रहस्यवाद और अध्यात्मवाद, प्रकार, परम्परा, जैन और जैनेतर रहस्य भावना. पञ्नम परिवर्त-रहस्य भावना के बाधक तत्व
90-129 विषय वासना, शारीरिक ममत्व, कर्मजाल, मिथ्यात्व, कषाय, मोह, बाह्याडम्बर, मन की चंचलता. षष्ठ परिवर्त-रहस्य भावना के साधक तत्त्व
130-166 सद्गुरु, नरभवदुर्लभता, प्रात्मसबोधन, प्रात्मचिंतन, मात्मा-परमात्मा, मात्मा और पुद्गल, चित्तशुद्धि, भेदविज्ञान, रत्नत्रय. सप्तम परिवर्त-रहस्य भावनात्मक प्रवृत्तियाँ-
167-209 प्रपत्त भावना, नवधा भक्ति, सहजयोग साधना और समरसता, भावमूलकरहस्य भावना, प्राध्यात्मिक प्रेम और विवाह, माध्यात्मिक होली. पष्टम परिवर्त-रहस्य भावनात्मक प्रवृत्तियों का तुलनात्मक अध्ययन
210-288 बाधक तत्त्व, साधक तत्त्व, भावमूलक रहस्य भावना, अनुभव, निगुण-सगुण रहस्य भावना सौर जैन रहस्य भावना, मध्यकालीन जैन रहस्य-भावना और माधुनिक रहस्यवाद. परिशिष्ट-(i) कविवर पानतराय,
289-320 (ii) अध्ययनगत मध्यकालीन कतिपय न कवि, (iii) सहायक ग्रन्य-सूची
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उपस्थापना
man
व्यक्ति पोर सृष्टि के सर्जक तत्वों की गवेषणा एक रहस्यवादी तत्व है पौर संभवतः इसीलिये चिन्तकों और शोधकों में यह विषय विवादास्पद बनारहा है अनुभव के माध्यम से किमी सत्य और परम माराध्य को खोजना इसकी मूलप्रकृति रही है। इस मूलप्रवृत्ति की परिपूर्ति मे साधक की जिज्ञासा और तर्कप्रधान बुद्धि विशेष योगदान देती है। यहीं से दर्शन का जन्म होता है।
- इसमे साधक स्वय के मूल रूप में केन्द्रित साध्य की प्राप्ति का सुनिश्चित लक्ष्य निर्मित कर लेता है । साध्य की प्राप्ति काल में व्यक्तित्व का निर्माण होता है और इस व्यक्तित्व की सजना में अध्यात्म चेतना का प्रमुख हाथ रहता है ।।
मानव स्वभावतया सृष्टि के रहस्य को जानने का तीव्र इच्छुक रहता है। उसके मन में सदैव यह जिज्ञासा बनी रहती हैं कि इस सृस्टि का रचयिता कौन है ? शरीर का निर्माण कैसे होता है ? शरीर के अन्दर वह कौन सी शक्ति है, जिसके अस्तित्व से उसमें स्पंदन होता है और जिसके प्रभाव में उस स्पंदन का लोप हो जाता है ? यदि इस शक्ति को प्रात्मा या ब्रह्म कहा जाय तो वह नित्य है प्रवा अनित्य ? उसके नित्यत्व अथवा पनित्यत्व की स्थिति में कमीका का समाप है और कमों से मुक्ति पाने पर उस शक्ति का क्या स्वरूप एनीवाल के ये प्रास्तविल्ह है और इन प्रश्न चिन्हो कासमाधान जन-सिद्धान्त में माता सुमारे और सरल, रंग से अनेकान्तवाद का प्राश्रय लेकर किया गया है। . .. ..
___ इस रहस्यवाद की र मन्वेषण में हर देश का प्रयल किये गये है पोर उन प्रयत्नों का एक विशेष इतिहास बना हुआ है। हमारी बात बताए पर वैदिक काल से लेकर आधुनिक काल तक दार्शनिकों ने न मानों पर तिनमनन किया है और उसनिकर्ष ग्रन्थों के पृष्ठों पर भाकित । उपनिषद काल में इस रहस्यवाद पर से विचार प्रारम्भ हुमा और उसकी परिति तत्कालीन अन्य भारतीय दर्शनों में जागृत हुई। यद्यपि इसका इतिहास मिल
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में प्राप्त योगी की मूर्तियों में भी देखा जा सकता है, परन्तु जब तक उसकी लिपि का परिझान नहीं होता, इस सन्दर्भ में निश्चित नहीं का जा सकता । मुंडकोपनिषद् के ये शब्द चिंतन की भूमिका पर बार-बार उतरते हैं जहां पर कहा गया है कि ब्रह्म न नेत्रों से, न वचनों से, न तप से और न कर्म से गृहीत होता है। विशुद्ध प्राणी उस ब्रह्म को ज्ञान-प्रसाद से साक्षात्कार करते हैं
न चक्ष षा गृह्मते, नापि वाचा नान्यदैवस्तपसा कर्मणा वा ।
ज्ञान-प्रसादेन विशुद्ध सत्वस्ततस्तु तं पश्यते निष्कले ध्यायमानः ।
रहस्यवाद का यह सूत्र पालि-त्रिपिटक और प्राचीन जैनागमों में भी उपलब्ध होता है । मज्झिमनिकाय का वह सन्दर्भ जैन-रहस्यवाद की प्राचीनता की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है, जिसमें कहा गया है कि निगण्ठ अपने पूर्व कर्मों की निर्जरा तप के माध्यम से कर रहे हैं। इस सन्दर्भ से स्पष्ट है कि जैन सिद्धांत मे प्रात्मा के विशुद्ध रूप को प्राप्त करने का अथक प्रयत्न किया जाता था । ब्रह्म जालसुत में अपरान्सदिट्ठि के प्रसंग में भगवान बुद्ध ने मात्मा को प्ररूपी पौर नित्य स्वीकार किये जाने के सिद्धांत का उल्लेख किया है। इसी सुत्त में जैन-सिद्धांत की दृष्टि में रहस्य वाद व अनेकान्तवाद का भी पता चलता है।
___ रहस्यवाद के इस स्वरूप को किसी ने गुह्य माना और किसी ने स्वसंवेद्य स्वीकार किया। जैन संस्कृति में मूलतः इसका "स्वसंवेद्य" रूप मिलता है जब कि जैनेतर संस्कृति में गुह्य रूप का प्राचुर्य देखा जाता है। जैन सिद्धांत का हर कोना स्वयं की अनुभूति से भरा है उसका हर पृष्ठ निजानुभव और चिदानन्द चतन्यमय रस से प्राप्लावित है। अनुभूति के बाद तर्क का भी अपलाप नहीं किया गया बल्कि उसे एक विशुद्ध चिंतन के धरातल पर खड़ा कर दिया गया । भारतीय दर्शन के लिए तर्क का यह विशिष्ट स्थान-निर्धारण गैन संस्कृति का अनन्य योगदान है।
रहस्य भावना का क्षेत्र प्रसीम है। उस अनन्तशक्ति के स्रोत को खोजना ससीम शक्ति के सामर्थ्य के बाहर है। प्रतः प्रसीमता पौर परम विशुद्धता तक पहुंच जाना तथा चिदानन्द-चंतन्यरस का पान करना साधक का मूल उद्देश्य रहता है । इसलिए रहस्यवाद किंवा दर्शन का प्रस्थान बिन्दु संसार है जहां प्रात्यक्षिक और अप्रात्यक्षिक सुख-दुःख का अनुभव होता है और साधक चरम लक्ष्य रूप परम विशुद्ध प्रवस्था को प्राप्त करता है। वहां पहुंचकर वह कृतकृत्य हो जाता है और अपना भवषक समाप्त कर लेता है। इस अवस्था की प्राप्ति का मार्ग ही रहस्य बना हुमा है।
उक्त रहस्य को समझने मोर अनुभूति में लाने के लिए निम्नलिखित प्रमुख तत्वों को प्राधार बनाया जा सकता है :
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1. जिज्ञासा या प्रोत्सुक्य, 2. संसारचक में भ्रमण करनेवाले प्रात्मा का स्वरूप, 3. संसार का स्वरूप, 4. संसार से मुक्त होने के उपाय और 5. मुक्त-अवस्था की परिकल्पना ।
पादिकाल से ही रहस्यवाद प्रगम्य, मगोबर मूह मार दुबोध्य माना जाता रहा है । वेद, उपनिषद्, जैन और बौद्ध साहित्य में इसी रहस्यात्मक प्रतियों का विवेचन उपलब्ध होता है यह बात पलग है कि ग्राम का रहस्यबाद गाय उस समय तक प्रचलित न रहा हो। 'रहस्य' सर्वसाधारण विषय है । स्वकीयामापति उसमें संगठित है । अनुभूतियों की विविधता मत वैभिन्य को जन्म देती है। प्रत्येक मनुमति वाद-विवाद का विषय बना है । शायद इसीलिए एक ही सत्य को पृथक पृषारूप में उसी प्रकार अभिव्यंजित किया गया जिस प्रकार छह भावों के झरा हाथी के ओ. पांगों की विवेचना कवियों ने इस तथ्य को सरल और सरस भाषा में प्रस्तुत किया. है। उन्होंने परमात्मा के प्रति प्रेम और उसकी अनुभूति को "गे कासा-गुड़" बताया है
'अकथ कहानी प्रेम की कन कही न जाय ।
गू गे केरि सरकरा, बैठा मुसकाई।" जैन रहस्यवाद परिभाषा और विकास
रहस्यवाद शब्द मग्रेजी "Mysticism" का अनुवाद है, जिसे प्रथमत : सन् 1920 में श्री मुकुटधर पांडेय ने छायावाद विषयक लेख में प्रयुक्त किया था। प्राचीन काल में इस सन्दर्भ में प्रात्मवाद अथवा अध्यात्मवाद शब्द का प्रयोग होता रहा है । यहां साधक प्रात्मा परमात्मा. स्वर्ग, नरक, राग-दक यादि के विषय में चिन्तन करता था । धीरे-धीरे प्राचार और विचार का समन्वय हुमा पार दार्शनिक चिन्तन भागे बढ़ने लगा । कालान्तर में दिव्य शक्ति की प्राप्ति के लिए परमात्मा के द्वारा निर्दिष्ट मार्ग का अनुकरण और अनुसरण होने लगा । उस 'परम' व्यक्तित्व के प्रति भाव उमड़ने लगे और उसका साक्षात्कार करने के लिए विभिन्न बागों का प्रावरण किया जाने लगा । जैनदर्शन की रहस्यभाषना किंवा रहस्यबाद भी इसी पृष्ठभूमि में दृष्टव्य है।
रहस्यवाद की परिभाषा समय, परिस्थिति और चिन्तन के अनुसार परिवर्तित होती रही है । प्रायः प्रत्येक दार्शनिक ने स्वयं से सम्बन्धित दर्शन पनुसार पृक्त रूप से चिंतन और पाराधन किया है और उसी साधना के बल पर अपने परम लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयत्न किया है। इस दृष्टि से रहस्यवाद की परिभाषाएं भी उनके प्राने ढंग से अभिव्यजित हुई हैं। पाश्चात्य , विद्वानों ने भी रहस्यवाद की
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परिभाषा पर विचार किया है । बट्रन्डरसेल का कहना है कि रहस्यवाद ईश्वर को समने का प्रमुख साधन है। इसे हम स्वसंवेद्य ज्ञान कह सकते हैं जो तर्क पौर विश्लेषण से भिन्न होता है ।" फ्लीडर रहस्यवाद को भारमा मौर परमात्मा के एकत्व की प्रतीति मानते हैं। प्रिंगिल पेटीशन के अनुसार रहस्यवाद की प्रतीति परम सत्य के ग्रहण करने के प्रयत्न में होती है। इससे प्रानन्द की उपलब्धि होती है 1 बुद्धि द्वारा परम सत्य को ग्रहण करना उसका दार्शनिक पक्ष है और ईश्वर के साथ मिलन का प्रानन्द-उपभोग करना उसका धार्मिक पक्ष है ईश्वर एक स्थूल पदार्थ न रहकर एक अनुभव हो जाता है । यहां रहस्यवाद अनुभूति के ज्ञान की उच्चतम serer मानी गयी है । प्राधुनिक भारतीय विद्वानों ने भी रहस्यवाद की परिभाषा पर मंथन किया है। रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में 'ज्ञान के क्षेत्र में जिसे भद्रं त-वाद कहते हैं भावना के क्षेत्र में वही रहस्यवाद कहलाता है। डॉ. रामकुमार वर्मा ने रहस्यवाद की परिभाषा की है- "रहस्यवाद जीवात्मा की उस श्रन्तर्हित प्रवृत्ति का प्रकाशन है जिसमें वह दिव्य और अलौकिक शक्ति से अपना शांत मौर निश्छल सम्बम जोड़ना चाहती है । यह सम्बन्ध यहां तक बढ़ जाता है कि दोनों में कुछ भी अन्तर नहीं रह जाता । "4
और भी अन्य माधुनिक विद्वानों ने रहस्यवाद की परिभाषाएं की है। उन परिभाषाओं के माधार पर रहस्यवाद की सामान्य विशेषताएं इस प्रकार कही जा सकती हैं-
1. धात्मा और परमात्मा में ऐक्य की अनुभूति ।
2. तादात्म्य |
3. विरह - भावना ।
4. भक्ति, ज्ञान मीर योग की समन्वित साधना ।
5. सद्गुरु श्रौर उनका सत्संग |
प्रायः ये सभी विशेषताएं वैदिक संस्कृति भौर साहित्य में अधिक मिलती हैं । जैन रहस्यवाद मूलतः इन विशेषताओं से कुछ थोड़ा भिन्न या । उक्त परिभाषाओं में साधक ईश्वर के प्रति प्रात्मसमर्पित हो जाता है। पर जैन धर्म ने ईश्वर का
Mysticism and Logic, Page 6-17
Mysticism in Religion, P 25
भक्तिकाव्य में रहस्ववाद डॉ. रामनारायण पाण्डेय, पू.
6
1.
2.
3.
4. कबीर का रहस्यवाद, पृ. 9
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वर्तनी
स्वरूप उस रूप में नहीं माना, जो रूप वैदिक संस्कृति में प्राप्त होता है। यह हमारी सृष्टि का कर्ता हर्ता और बर्ता नहीं है। इसी frer के कारण चीन परम्परा में जैन दर्शन को नास्तिक कह दिया गया था । वहां नास्तिका या वेद-निक | परन्तु यह वर्गीकरण नितान्त बाधार हीन था । इसमें को अं श्रीर बौद्धों के प्रतिरिक्त वैदिक शाखा के ही मीमांसा और नास्तिक की परिभाषा की सीमा में था जायेंगे। प्रसता का विद्वान 'नास्तिक' की इस परिभाषा को स्वीकार नहीं करते जिसके मत में पुण्य और पाप का कोई महत्व न हो। तक दर्शन है । उसमें स्वर्ग, नरक, मोक्ष प्रादि की व्यवस्था स्वयं के कर्मों पर प्राषारित है । उसमें ईश्वर अथवा परमात्मा साधक के लिए दीपक का काम अवश्य करता है, परन्तु वह किसी पर कृपा नहीं करता, इसलिए कि वह
विष
।
नास्तिक वही है,
जनदर्शन इस दृष्टि से शाहि
वीतरागी हैं।
जैन दर्शन की उक्त विशेषता के माधार पर रहस्यवाद की प्राधुनिक परि भाषा को हमें परिवर्तित करना पड़ेगा। जंन चिंतन सुभोपयोग को शुद्धोपयोग की प्राप्ति मे सहायक कारण मानता श्रवश्य है पर शुद्धोपयोग की प्राप्ति हो जाने पर अथवा उसकी प्राप्ति के पथ में पारमार्थिक दृष्टि से उसका कोई उपयोग नहीं ।"इस पृष्ठभूमि पर हम रहस्यवाद को परिभाषा इस प्रकार कर सकते हैं ।
" अध्यात्म की चरम सीमा की प्रभुभूति रहस्यवाद है। यह वह स्थिति है, जहां प्रारमा विशुद्ध परमात्मा बन जाता है मोर वीतरागी होकर चिदानन्द रस का पान करता है ।"
रहस्यवाद की यह परिभाषा जैन साधना की दृष्टि से प्रस्तुत की गयी है । जैन साधना का विकास यथासमय होता रहा है। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है यह fare तत्कालीन प्रचलित जनेतर साधनाथों से प्रभावित भी रहा है। इस प्राचार पर हम जैन रहस्यवाद के विकास को निम्न भागों में विभाजित कर सकते हैं-
(1) प्रादिकाल प्रारम्भ से लेकर ई. प्रथम शती तक
(2) मध्यकाल - प्रथम द्वितीय शती से 7-8 वीं शती तक । (3) उत्तरकाल -- 8 वीं 9 वीं शती से प्राधुनिक काल तक ।
1. आदिकाल - वेद और उपनिषद् में ब्रह्म का साक्षाकार करना मुख्य लक्ष्य माना जाता था । जैन रहस्यबाद, जैसा हम ऊपर कह चुके है, बाबा ईश्वर को ईश्वर के रूप में स्वीकार नहीं करता। यहां जैन दर्शन अपने तीर्थंकर को परमात्मा मानता है और उसके द्वारा निर्दिष्ट मार्ग पर चलकर साधक स्वयं को उसी के समकक्ष बनाने का प्रयत्न करता है ! वृषभदेव, महावीर आदि तीर्थकर ऐसे ही रहस्यदर्शी महापुरुषों में प्रमुख हैं ।
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हम इस काल को सामान्यतः जैन धर्म के प्राविर्भाव से लेकर प्रथम शती तक निश्चित कर सकते हैं। जैन परम्परा के अनुसार तीर्थकर मादिनाप ने हमें सापना पति का स्वरूप दिया । उसी के आधार पर उत्तर कालीन तीर्थकर और भाचार्यों मे अपनी साधना की । इस सन्दर्भ में हमारे सामने दो प्रकार की रहस्य-साधनाएं साहित्य में उपलब्ध होती हैं -1. पार्श्वनाथ परम्परा की रहस्य साधना, पौर 2. निर्गठ मातपुत्त परम्परा की रहस्य साधना ।
भगवान पार्श्वनाथ जैन परम्परा के 23 वे तीर्थकर कहे जाते हैं। उनसे भगवान महावीर, जिन्हें पालि साहित्य में निगण्ठनातपुत्त के नाम से स्मरण किया गया है, लगभग 250 वर्ष पूर्व प्रवतरित हुए थे। त्रिपिटक में उनके साधनात्मक रहस्यवाद को चातुर्याम संवर के नाम से अभिहित किया गया है । ये चार संवर इस प्रकार पहिसा, सत्य, प्रचौर्य पौर अपरिग्रह हैं उत्तराध्ययन भादि ग्रन्थों में भी इनका विवरण मिलता है । पार्श्वनाथ के इन व्रतों में से चतुर्थ व्रत में ब्रह्मचर्य व्रत अन्तर्भूत था। पाश्र्वनाथ के परिनिर्वाण के बाद इन व्रतों के प्राचरण में शैथिल्य पाया और फलतः समाज ब्रह्मचर्य व्रत से पतित होने लगा । पार्श्वनाथ की इस परम्परा को जैन परम्परा में 'पार्श्वस्थ' अथवा 'पासत्य' कहा गया है ।
निगण्ठनाथपुत्त अथवा महावीर के माने पर इस प्राचारशैथिल्य को परखा गया । उसे दूर करने के लिए महावीर ने अपरिग्रह का विभाजन कर निम्नांकित पंच व्रतों को स्वीकार किया-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । महावीर के इन पंचवतों का उल्लेख जैन मागम साहित्य मे तो प्राता ही है पर उनकी साधना के जो उल्लेख पालि साहित्य मे मिलते हैं । वे ऐतिहासिक दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण है। इस संवर्म में यह उल्लेखनीय है कि श्री पं. पदमचंद शास्त्री ने भागमों के ही माधार पर यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि पार्श्वनाथ के पंच महाव्रत थे, चातुर्याम नहीं (भनेकान्त, जून 1977) । इस पर प्रभी मथन होना शेष है।
महावीर की रहस्यवादी परम्परा अपने मूलरूप मे लगभग प्रथम सदी तक बसती रही। उसमें कुछ विकास अवश्य हुप्रा. पर वह बहुत अधिक नहीं। यहां तक माते-पाते प्रात्मा के तीन स्वरूप हो गये । अन्तरात्मा, बहिरात्मा और परमात्मा । साधक बहिरात्मा को छोड़कर अन्तरात्मा के माध्यम से परमात्मपद को प्राप्त करता है। दूसरे शब्दों में प्रात्मा और परमात्मा में एकाकारता हो जाती है
1. विशेष देखिये-डॉ. भागचन्द जैन भास्कर का ग्रन्थ 'जैनिज्म इन बुद्धिस्ट
लिटरेचर, तृतीय अध्याय-जैन इथिक्स
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तिपयारो सो अप्पा परयंतरवाहिरी देहाएं।
तथ्य परो भाइज्जइ, अंतोषाएग पएहि पहिरप्पा ।। जैन रहस्यवाद के इतिहास के मूल-सर्जक और प्रस्थापक प्राचार्य न्दकुन्द, जिनके ग्रंप भास्मा के मूल स्वरूप को प्राप्त करने का रहस्य प्रस्तुत की है। जैन-दर्शन में हर प्रात्मा में परमात्मा बनने की शक्ति निहित है इस दृष्टि से बहा भारमा के तीन भेद बतलाये हैं-अन्तरारमा, बहिरात्मा और परमात्मा । पचन्द्रियों से परे मन के द्वारा देखा जाने वाला "मैं हूँ" इस स्वसंवेदन स्वरूप मन्तरात्मा होता है । इन्द्रियों के स्पर्शनादि द्वारा पदार्थशान कराने वाला बहिरात्मा है और शामावरणादिक द्रव्य कर्म, रागद्वेषादिक भावकर्म, शरीरादिक नोकर्म रहित अनन्तज्ञानादिक गुण सहित परमात्मा होता है। मन्तरात्मा के उपाय से बहिरात्मा का परित्याग करके परमात्मा का ध्यान किया जाता है। यह परमात्मा परमनद स्थित, सर्व कर्म विमुक्त, शाश्वत और सिद्ध है
"तिपयरो सो अप्पा परमंतरवाहिरो हु बहीणं । तत्थ परो भाइज्जइ अंतोवारण चयहि वहिरप्पा ॥ "अक्खाणि बहिरप्पा अन्तर प्रप्पाहु अत्थसंकल्पो।
कम्मकलंक विमुक्को परमप्पा भण्णए देवो । इस दृष्टि से कुन्दकुन्दाचार्य निस्संदेह प्रथम रहस्यवादी कवि कहे जा सकते है । उन्होंने समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, नियमसार मादि ग्रन्थों में इसका सुन्दर विश्लेषण किया है । ये अन्य प्राचीन जैन मंग साहित्य पर प्राधारित रहे हैं जहां प्राध्यात्मिक चेतना को जाग्रत करने का स्वर गुजित होता है । प्राचारांग मूल प्राचीनतम अंग प्रन्थ है। यहां जैन धर्म मानव धर्म के रूप में अधिक मुखर हमा है। वहां 'पारिएहिं" शब्द से प्राचीन परम्परा का उल्लेख करते हुए समता को ही धर्म कहा है-समियाए धम्मे पारिएहिं पवेदिते ।
पाचारांग का प्रारम्भ वस्तुतः "इय मेगेसिंगो सण्णा भवर" (इस संसार में किन्हीं जीवों को ज्ञान नहीं होता) सूत्र से होता है इस सूत्र में प्रात्मा का स्वरूप तवा संसार मे उसके भटकने के कारणों की पोर इंमित हुमा है। 'वंशा' (वेतन) बन्द अनुभव और ज्ञान को समाहित किये हुये हैं। अनुभव मुख्यतः सोसह प्रकार के होते है-पाहार, भय. मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, शोक, मोह, सुख, दु:ख,
1. मोक्सपाहुड़कुन्दकुन्दाचार्य 4
भ. पार्थ के पंच महावत-बनेकांत, वर्ष 30, किरण 1, पृ. 23-27.बून मार्च 1977 2. मोक्सपाहर
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मोह विचिकित्सा, मोक और धर्म । ज्ञान के पांच भेद है-मति, अत, अवषि, मनः पर्यय और केवलज्ञान। इस सूत्र में विशिष्ट ज्ञान के प्रभाव की ही बात की गई है। इसका स्पष्ट तात्पर्य यह है कि व्यक्ति संसार में मोहादिक कमों के कारण भटकता रहता है। जो साधक यह जान लेता है वही व्यक्ति पात्मज होता है। उसी को मेधावी भौर कुशल कहा गया है। ऐसा साधक कर्मों से बंधा नहीं रहता । वह दो प्रममादी बनकर विकल्प जाल से मुक्त हो जाता है। यहां अहिंसा, सत्य भादि का विवेचन मिलता है पर उसका वर्गीकरण नहीं दिखाई देता। उसी तरह की मौर उनके प्रभावों का वर्णन तो है पर उसके भेद-प्रभेदों का वर्णन दिखाई नहीं देवा । कुन्दकुन्दाचार्य तक पाते-माते इन धर्मों का कुछ विकास हुआ जो उनके ग्रंथों में प्रतिविम्बित होता है।
कुन्दकुन्दाचार्य के बाद उनके ही पद चिन्हों पर प्राचार्य उमास्वाति, समन्तभद्र, सिबसेन दिवाकर, मुनि कार्तिकेय, मकलक, विद्यानन्द, अनन्तवीर्य, प्रभाचन्द्र, मुनि योगेन्दु मादि भाचार्यों ने रहस्यवाद का अपनी सामयिक परिस्थितियों के अनु. सार विश्लेषण किया। यह दार्शनिक युग था । उमास्वाति ने इसका सूत्रपात किया था और माणिक्यनन्दी ने उसे चरम विकास पर पहुंचाया था। इस बीच जैन रहस्य वाव दार्शनिक सीमा मे बद्ध हो गया। इसे हम जैन दार्शनिक रहस्यवाद भी कह सकते हैं। दार्शनिक सिद्धान्तो के अन्य विकास के साथ एक उल्लेखनीय विकास यह था कि मादिकाल में जिस मात्मिक प्रत्यक्ष को प्रत्यक्ष कहा गया था और इन्द्रिय प्रत्यक्ष को परोक्ष कहा गया था, उस पर इस काल मे प्रश्न-प्रतिप्रश्न खड़े हुए। उन्हें सुलझाने की दृष्टि से प्रत्यक्ष के दो भेद किये गये- सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष और पारमार्थिक प्रत्यक्ष । यहा निश्चय नय और व्यवहार नय की दृष्टि से विश्लेषण किया गया । साधना के स्वरूप में भी कुछ परिवर्तन हुआ ।
इस काल मे वस्तुतः साधना का क्षेत्र विस्तृत हुमा । प्रारमा के स्वरूप की खूब मीमांसा हुई उपयोगात्मकता पर अधिक जोर दिया गया, कर्मों के भेद-प्रभेद पर मंथन हुमा और ज्ञान-प्रमाण को भी चर्चा का विषय बनाया गया । दर्शन के सभी प्रगों पर तर्कनिष्ठ प्रस्थो की भी रचना हुई। पर इस युग मे साधना का बह रूप नहीं दिखाई देता जो प्रारम्भिक काल मे था । साधना का तर्क के साथ उतना सामम्जस्य बैठता भी नहीं है । इसके बावजूद दर्शन के साथ साधना और भक्ति का निर्भर सूख नहीं पाया बल्कि सुधारात्मक तत्वों के साथ वह भक्ति मान्दोलन का रूप ग्रहण करता गया। इस काल में दार्शनिक उथल-पुथल बहुत हुई और क्रिया काम की भोर प्रतियां बढ़ने लगी। "मप्पा सो परमप्पा" प्रयवा" सम्बे सुबह
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सुद्ध गया" जैसे वाक्यों को ऐकान्तिक दृष्टि की और बीचा 'जाने लगा । निश्चय ar or der के सामान्यस्थ की और ध्यान देकर किसी एक पक्ष की धोर काव अधिक हो गया। इस संदर्भ में गृहास्वयम् स्तोत्र में स्वामी समन्तभद्र का न दुष्टष्य है जहाँ वे कहते हैं कि हे भवन् ! यापकी हमारी पूजा से कोई प्रीजन नहीं है क्योंकि माप वीतराग है और न को निन्दा से कोई प्रयोजन है, क्योंकि आपने denre को समूल नष्ट कर दिया है, फिर भी हम बात पूर्वक जो भी आपके गुणों का स्मरण करते हैं वह इसलिए कि ऐसा करने से पाप aretter और मोह राग द्वेषादि भावों से मलिन मन तत्काल पवित्र हो जाता है। न पूजयायंस्त्वयि वीतरागे, न निवया नाथ विवांतवरे । तथापि ते पुण्य गुरण स्मृतिनः पुनाति वित्तं दुरिता जनेभ्यः ॥
इस युग में मुनि योगेन्दु का भी योगदान उल्लेखनीय है । इनका समय यद्यपि facierस्पद है फिर भी हम उसे लगभग 8 वी 9 वीं शताब्दी तक निश्चित कर सकते हैं । इनके दो महत्वपूर्ण ग्रंथ निर्विवाद रूप से हमारे सामने हैं-- (1) परमात्मसार ीर ( 2 ) योगसार। इन ग्रंथो में कवि ने निरंजन यदि कुछ ऐसे शब्द दिये है जो उत्तरकालीन रहस्यवाद के अभिव्यंजक कहे जा सकते हैं। इन ग्रन्थो में अनुभूति का प्राधान्य है इसलिए कहा गया है कि परमेश्वर से मन का मिलन होने पर पूजा आदि क्रियाकर्म निरर्थक हो जाते हैं, क्योंकि दोनों एकाकार होकर समरस हो जाते है ।
मणु मिलियउ परमेसरहं, परमेसर विमरणस्य ।
बीहिवि समरसि हवाहं पुज्ज चडाउ कस्स | योगसार, 12
3. उत्तरकाल
उत्तरकाल मे रहस्यवाद की श्राचारगत शाखा में समयानुकूल परिवर्तन हुआ । इस समय तक जैन संस्कृति पर वैदिक साधकों, राजाओ और मुसलमान भाक्रमणकारियो द्वारा घनघोर विपदाओं के बादल छा गये थे। उनसे बचने के fire भाचार्य जिनसे ने मनुस्मृति के प्राचार को जैनीकृत कर दिया, जिसका विरोध दसवी शताब्दी के प्राचार्य सोमदेव ने अपने यशस्तिलकचम्पू में मन्दस्वर में ही किया। इससे लगता है, तत्कालीन समाज उस व्यवस्था को स्वीकार कर चुकी थी । जंन रहस्मवाद की यह एक मोर सीढ़ी थी, जिसने उसे वैदिक संस्कृति के नजदीक ला दिया ।
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इ
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freeन भर सोमदेव के बाद रहस्यवादी कवियों में मुनि रामसिंह का नाम विशेष रूप से लिया जा सकता है। उनका 'पाहुड़ दोहा' रहस्यवाद की परिभाषाओं से भरा पड़ा है । शिव-शक्ति का मिलन होने पर भई समाव की स्थिति मा जाती है और मोह विलीन हो जाता है ।
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सिव विशु सक्ति व पावह सिल पुणु सत्ति विहीणु ।
बोहि मि जाणहि सबहु-जाग दुरझाइ मोह विलीणु,बही 55॥ मुनि रामसिंह के बाद रहस्यात्मक प्रवृत्तियों का बल और विकास होता गया । इस विकास का मूल कारण भक्ति का उकया। इस भक्ति का परम उत्कर्ष महाकवि बनारसीदास जैसे हिन्दी गैस कवियों में देखा जा सकता है। नाटक समयसार, मोहविक-युट, (बनारसीदास) पापियों में उन्होंने भक्ति, प्रेम पौर प्रया के जिस समन्वित रूप को प्रस्तुत किया है वह देखते ही बनता है । 'सुमति' को पत्नी और बेतन को पति बनाकर जिस माध्यामिक बिरह को उकेरा है, वह सहणीय है। प्रात्मा रूपी पनि प्रौर परमात्मा पी पति के वियोग का भी वर्णन प्रत्यन्त मार्मिक बन पड़ा है। अन्त में प्रात्मा को उसका पति उसके घर मन्तरात्मा में ही मिल जाता है । इस एकत्व की अनुभूति को महाकवि बनारसीदास ने इस प्रकार परिणत किया है
पिय मोरे घट मैं पिय माहि । जल तरंग ज्यों दुविधा नाहिं ।। पिय मो करता में करसूति । पिय ज्ञानी में ज्ञान विभूति ।। पिय सुख सागर में सुख-सींव । पिय सुख-मंदिर में शिव-नींव ।। पिय ब्रह्म मैं सरस्वति नाम । पिय माधव मो कमला नाम ।
पिय शंकर मैं देवि भवानि । पिय जिनवर मैं केवल बानि ॥1
ब्रह्म-साक्षात्कार रहस्यवादात्मक प्रवृत्तियों में अन्यतम है। जैन साधना में परमात्मा को ब्रह्म कह दिया गया है । बनारसीदास ने तादात्म्य अनुभूति के सन्दर्भ मे अपने भावों को निम्न प्रकार से व्यक्त किया है
"बालक तुहं तन चितवन गागरि कूटि, मंचरा गो फहराय सरम गै छुटि, बालम |||| पिग सुधि पावत वन मे पैसिउ पेलि,
छाड़त राज हगरिया भयउ प्रकेलि, बालम ।।"2112
रहस्य भावनात्मक इम प्रवृत्तियों के प्रतिरिक्त समग्र जैन साहित्य में, विशेषरूप से हिन्दी जैन साहित्य में और भी प्रवृत्तियां सहज रूप में देखी जा सकती है। वहां भावनात्मक मोर साधनात्मक दोनों प्रकार के रहस्यवाय उपलब्ध होते हैं। मोह· राग द्वेष मादि को दूर करने के लिए सत्गुरू पौर सत्संग की पावश्यकता तथा मुक्ति प्राप्त करने के लिए सम्यक् दर्शन-ज्ञान और चरित्र को समम्वित साधना की अभिव्यक्ति हिन्दी गैन रहस्यबादी कवियों की लेखनी से बड़ी ही सुन्दर, सरल
1. बनारसीविलास, पृ. 161. 2. वही, पृ. 228.
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भाषा में प्रस्फुटित हुई है। इस दृष्टि से सकलकीति का प्राराधना प्रतिबोषसार, जिनदास का चेतनगीत, जगतराम का भागमविलास, भवानीवास का तिन सुमति सम्झाय' भगवतीदास का योगीरासा, रूपचंद का परमार्षगीत' यानतराब का चानतविलास. मानन्दमन का मानदधन बहोसरी, घरदास का भूगरगिलास मावि अंध विशेष उल्लेखनीय है।
माध्यात्मिक साधना की परम परिणति रहस्य की उपलब्धि है। इस उपलब्धि के मागों में साधक एक मत नहीं। इसकी प्राप्ति में सापकों में शुभ-अशुभ अथवा कुशल-प्रकुमाल कर्मों का विवेक खो दिया। बोव-धर्म के सहजयान, मंगवान, तंत्रयान वजयान प्रादि इसी साधना के वीभत्स रूप हैं। वैदिक साधनाची में भी इस रूप के दर्शन स्पष्ट दिखाई देते हैं । यद्यपि जैन धर्म भी इससे अछूता नहीं रहा परन्तु यह सौभाग्य की बात है कि उसमें श्रद्धा और भक्ति का प्रतिरेक हो अवश्य हुषा, विभिन्न मंत्रों और सिवियों का माविष्कार भी हुमा किन्तु उन मंत्रों और सिद्धियों की परिणति वैदिक अथवा बौद्ध सस्कृतियों में प्राप्त उस वीभत्स रूप जैसी नहीं हुई । यही कारण है कि जैन संस्कृति के मूल स्वरूप प्रक्ष पण तो नहीं रहा पर गहित स्थिति में भी नहीं पहुंचा।
जैन रहस्य भावना के उक्त विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि जैन रहस्यवादी सापना का विकास उत्तरोत्तर होता गया है, पर वह विकास अपनी मूल साधना के स्वरूप से उतना दूर नहीं हुमा जितना बौद्ध साधना का स्वरूप अपने मूल स्वरूप से उत्तरकाल में दूर हो गया । यही कारण है कि जैन रहस्यवाद ने जनेतर साधना मों को पर्याप्त रूप से प्रबल स्वरूप में प्रभावित किया ।
प्रस्तुत प्रबन्ध को पाठ परिवों में विभक्त किया गया है। प्रथम परिवर्त में मध्यकाल की सांस्कृतिक पृष्ठ भूमि का प्रबलोकन है । सामान्यतः भारतीय इतिहास का मध्यकाल सप्तम शती से माना जाता है परन्तु जहां तक हिन्दी साहित्य के मध्य काल की बात है उसका काल कब से कब तक माना जाये, यह एक विचारणीय प्रश्न है । हमने इस काल की सीमा का निर्धारण वि. सं. 1400 से वि. सं. 1900 तक स्थापित किया है । वि. सं. 1400 के बाद कवियों को प्रेरित करने वाले सांस्तिक पाधार में भिन्य दिखाई पड़ता है । फलस्वरूप जनता की वित्तात्ति और हथि में परिवर्तन होना स्वाभाविक है । परिस्थितियों के परिणाम स्वस्थ बनताकी कवि जीवन से उदासीन मोर भगवत् भक्ति में लीन होकर मात्म कल्याण करने की भोर उन्मुख थी इसलिए कविगण इस विवेच्य काल में भक्ति और अध्यात्म सम्बन्धी रचनायें करते दिखाई देते हैं। जैन कवियों की इस प्रकार की रचनायें लगभम बि. सं. 1900 तक मिलती है अतः इस सम्पूर्ण काल को मध्यकाल नाम देना ही मनकूल प्रतीत होता है । इसके पश्चात् हमने मध्यकाल की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को लिप्त
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रूपरेखा प्रस्तुत की है । जिसके अन्तर्गत राजनीतिक धार्मिक और सामाजिक पृष्ठ भूमि को स्पष्ट किया है। इसी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में हिन्दी जैन साहित्य का निर्माण हुमा है।
द्वितीय परिवर्त में हिम्दी जैन साहित्य के प्रादिकाल की चर्चा की गई है। इस संदर्भ में हमने अपभ्रंश भाषा और साहित्य को भी प्रवृत्तियों की वृष्टि से समाहित किया है। यह काल दो भागों में विभक्त किश है - साहित्यिक प्रपभ्रंश और अपभ्रंश परवर्ती लोक भाषा या प्रारम्भिक हिन्दी रचनाएं प्रथम वर्ग के स्वयंभूदेव, पुष्पदंत भादि कवि हैं और द्वितीय वर्ग में शालिभद्र सूरि जिन पद्मसूरि मादि विद्वान उल्लेखनीय है । भाषागत विशेषताओ का भी संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया है ।
are भाषा और साहित्य ने हिन्दी के श्रादिकाल और मध्यकालको बहुत प्रभावित किया है। उनकी सहज-सरल भाषा, स्ववाभाविक वर्णन और सांस्कृतिक धरातल पर व्याख्यायित दार्शनिक सिद्धांतों ने हिन्दी जैन साहित्य की समग्र कृतियों पर अमिट छाप छोड़ी है । भाषिक परिवर्तन भी इन ग्रन्थो में सहजता पूर्वक देखा जा सकता है । हिन्दी के विकास की यह प्राद्य कड़ी है। इसलिए अपभ्रंश की कतिपय मुख्य विशेषताओ की प्रोर दृष्टिपात करना आवश्यक हो जाता है ।
तृतीय परिवर्त में मध्यकालीन हिन्दी काव्य की प्रवृत्तियों पर विचार किया गया है । इतिहासकारों ने हिन्दी साहित्य के मध्यकाल को पूर्व- मध्यकाल (भक्तिकाल ) और उत्तरमध्यकाल ( रीतिकाल ) के रूप में वर्गीकृत करने का प्रयत्न किया है। चूकि भक्तिकाल मे निर्गुण और सगुण विचारधाराये समानान्तर रूप प्रवाहित होती रही है तथा रीतिकाल में भी भक्ति सम्बन्धी रचनायें उपलब्ध होती है | अतः हमने इसका धारागत विभाजन न करके काव्य प्रवृत्यात्मक वर्गीकरण करना कि सार्थक माना । जैन साहित्य का उपर्युक्त विभाजन मौर भी संभव नही क्योकि वहां भक्ति से सम्बद्ध अनेक धारायें मध्यकाल के प्रारम्भ से लेकर अन्त तक निर्वाध रूप से प्रवाहित होती रही हैं। इतना ही नहीं, भक्ति का काव्य स्रोत जैन श्राचार्यो और कवियों की लेखनी से हिन्दी के भाविकाल मे भी प्रवाहित हुमा है । अतः हिन्दी के मध्ययुगीन जैन काव्यो का वर्गीकरण काव्यात्मक न करके प्रवृत्या त्मक करना अधिक उपयुक्त समझा। इस वर्गीकरण में प्रधान और गीरण दोनों प्रकार की प्रवृत्तियो का प्राकलन हो जाता है ।
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जैन कवियो और प्राचार्यों ने मध्यकाल की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में पेठकर ute साहित्यिक विधामो को प्रस्फुटित किया है । उनकी इस अभिव्यक्ति को हमने निम्नांकित काव्य रूपों में वर्गीकृत किया है
A
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- 1. ध काय-हाकाव्य, सहकाव्य, पौराणिक काय, कमा काव्य
चरित काम्य, रासा साहित्य प्रादि। '2. रूपक काव्य-होली, विवाहली, चेतनकर्म चरित प्रादि 3. अध्यात्म और भक्तिमूलक काव्य-स्तवन, पूजा, चौपाई, अपमाला,
चांचर, फागु,चूनड़ी, वेलि,संख्यात्मक,
बारहमासा आदि। 4. गीति काव्य-विविध प्रसंगों और फुटकर विषयों पर निर्मित गीत 5, प्रकीर्णक काय लाक्षसिक, कोश, गुर्वावली, प्रात्मकाथा पादि।
उपयुक्त प्रवृत्तियों को समीक्षात्मक दृष्टिकोण से देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि ये सभी प्रवृसियो मूलत आध्यात्मिक उद्देश्य को लेकर प्रस्फुटित हुई हैं । इन रचनाओं में प्राध्यात्मिक उद्देश्य प्रधान है जिससे कवि की भाषा प्रालंका. रिक न होकर स्वाभाविक और सात्विक दिखती है। उसका मूल उत्स रहस्यात्मक अनुभव और भक्ति रहा है।
चतुर्थ परिवर्त रहस्यभावना के विश्लेषण से सम्बद्ध है। इसमें हमने रहस्य भावना और रहस्यवाद का मतर स्पष्ट करते हुए रहस्यवाद की विविध परिभाषानों का समीक्षण किया है और उसकी परिभाषा को एकागिता के संकीर्ण दायरे से हटाकर सर्वागीण बनाने का प्रयत्न किया है। हमारी रहस्यवाद की परिभाषा इस प्रकार है--"रहस्यभावना एक ऐसा प्राध्यात्मिक साधन है जिसके माध्यम से सापक स्वानुभूनि पूर्वक प्रारम तत्व से परम तत्व में लीन हो जाता है। यही रहस्यभावना अभिव्यक्ति के क्षेत्र में आकर रहस्यवाद कही जा सकती है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते है कि मध्यात्म की चरमोत्कर्ष प्रवस्था को अभिव्यक्ति का नाम रहस्यवाद है। यहीं हमने जैन रहस्य साधकों की प्राचीन परम्परा को प्रस्तुत करते हुए रहस्यवाद मौर अध्यात्मवाद के विभिन्न मायामो पर भी विचार किया है। इसी सन्दर्भ में जैन कोर जनेतर रहस्यभावना में निहित अन्तर को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है।
यहां यह भी उल्लेख्य है कि जन रहस्य साधना में प्रात्मा की तीन अवस्थायें मानी गयी है-बहिरात्मा, अन्तरात्मा बहिरात्मा में जीव जन्म-मरण के कारण स्वरूर भौतिक सुख के चक्कर में भटकता रहता है। द्वितीयावस्था :पन्तरात्मा) में पहुंचने पर संसार के कारणों पर मम्भीरता पूर्वक चिन्तन करने से भात्मा पन्तरात्मा की मोर उन्मुख हो जाता है । फा. वह भौतिक सुखों को क्षणिक भोर त्याज्य सम झने लगता है। तृतीयावस्था (परमात्मा, ब्रह्मसाक्षात्कार) की प्राप्ति के लिए साधना स्मक मोर मावतारमा प्रयत्न करता है। इन्हीं तीनों प्रस्थानों पर पागे के तीन मध्यायों में क्रमश: प्रकाश गला है।
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पंचम परिवर्स में सम्मभावना के बाधक तत्वों की स्पष्ट किया गया है । रहस्यसाधना का चरमोत्कर्ष ब्रह्मसाक्षात्कार है । साहित्य में इसको प्रात्म-साक्षात्कार परमात्मपद, परम सत्य, अजर-अमर पद, परमार्थ प्राप्ति मादि नामों से उल्लिखित किया गया है। अतः हमने इस अध्याय में प्रात्म चिन्तन को रहस्यभावना का केन्द्र बिन्दु माना है । पात्मा ही साधना के माध्यम से स्वानुभूति पूर्वक अपने मूल रूप परमात्मा का साक्षात्कार करता है। इस स्थिति तक पहुंचने के लिए साधक को एक लम्बी यात्रा करनी पड़ती है। हमने यहाँ रहस्यभावना के मार्ग के बाधक तत्वों को जैन सिद्धांतों के सन्दर्भ में प्रस्तुत किया है। उनमें सांसारिक विषय-वासना शरीर से ममत्व, कर्माल, माया-मोह, मिथ्यात्व, बाबाडम्बर और मन की चंचलता पर विचार किया है। इन कारणों से साधक बहिरात्म अवस्था में ही पड़ा रहता है।
षष्ठ परिवर्त रहस्यभावना के सापक तत्वों का विश्लेषण करता है। इस परिवर्त में सद्गुरु की प्रेरणा, नरभव दुर्लभता, पात्म- संबोधन, प्रात्मचिन्तन, चित्त शुद्धि, भेदविज्ञान और रत्नत्रय जैसे रहस्यभावना के साधक तत्वों पर मध्यकालीन हिन्दी जैन काम्य के प्राधार पर विचार किया गया है । यहां तक पाते-पाते साधक अन्तरारमा की अवस्था को प्राप्त कर लेता है।
___सप्तम परिवतं रहस्यभावनात्मक प्रवृत्तियों को प्रस्तुत करता है । इस परिवर्त में अन्तरामावस्था प्राप्त करने के बाद तथा परमात्मावस्था प्राप्त करने के पूर्व उत्पन्न होने वाले स्वाभाविक भावों की अभिव्यक्ति को ही रहस्यभावनात्मक प्रवृत्तियों का नाम दिया गया है। मात्मा की तृतीयावस्था प्राप्त करने के लिए साधक दो प्रकार के मार्गों का अवलम्बन लेता है-साधनात्मक और भावनात्मक । इन प्रकारों के अन्तर्गत हममे क्रमशः सहज साधना, योग साधना, समरसता प्रपत्ति-भक्ति, माध्यात्मिक प्रेम, माध्यात्मिक होली, अनिर्वचनीयता प्रादि से सम्बद्ध भायों और विचारों को चित्रित किया है।
प्रष्टम परिवर्त में मध्यकालीन हिन्दी जैन एवं जनेतर रहस्यवादी कवियों का संक्षिप्त तुलनात्मक अध्ययन किया गया है। इस सन्दर्भ में मध्यकालीन सगुण. निर्गुण और सूफी रहस्यबाद की जैन रहस्यभावनाके साथ तुलना भी की गई है। इस सन्दर्भ में स्वानुभूति, प्रात्मा और ब्रह्म, सद्गुरु, माया, प्रात्मा ब्रह्म का सम्बन्ध, विरहा नुभूति, योग साधना, भक्ति, प्रनिर्वचनीयता प्रादि विषयों पर सांगोपांग रूप से विचार किया गया है।
प्रस्तुत प्रबन्ध में मध्यकाल की सांस्कृतिक पृष्ठ भूमि को हमने बहुत संक्षेप में ही उपस्थित किया है और काल विभाजन के विवाद एवं नामकरण में भी हम नहीं उलझे । विस्तार और पुनरुक्ति के भय से हमने मावि कालीन और मध्य
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कालीन हिन्दी जैन साहित्य को उनकी सामान्य प्रवृत्तियों में ही विभाजित करना उचित समझा । यह मात्र सूची सी मवश्य दिखाई देती है पर उसका अपना महत्व है । यहां हमारा उद्देश्य हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखने वाले विद्वानों को प्रत्येक प्रवृ तिगत महत्वपूर्ण काव्यों की गणना से शापित कराना मान रहा है कि अभी तक हिन्दी साहित्य के इतिहास में किन्हीं कारणों बस उल्लेख नहीं हो पाया । उन प्रतियों के विस्तार में हम नहीं जा सके। जाना सम्भव भी नहीं था क्योंकि उसकी एक-एक प्रवृत्ति पृथक् पृथक् शोध प्रबन्ध की मांग करती प्रतीत होती है । तुलनात्मक अध्ययन को भी हमने संक्षिप्त किया है अन्यथा वह भी एक अलग प्रबन्ध-सा हो जाता । प्रस्तुत अध्ययन के बाद विश्वास है, रहस्यवाद के क्षेत्र में एक नया मानदण्ड प्रस्थापित हो सकेगा
प्रायः हर जैन मंदिर में हस्तलिखित ग्रंथों का भण्डार है । परन्तु वे बड़ी वेरहमी से अव्यवस्थित पड़े हुए हैं । प्राश्चर्य की बात यह है कि यदि शोधक उन्हें देखना चाहे तो उसे पूरी सुविधायें नहीं मिल पातीं। हमने अपने अध्ययन के लिए जिन-जिन शास्त्र मंडारों को देखा, सरलता कहीं नहीं हुई। जो भी अनुभव हुए, उनसे यह अवश्य कहा जा सकता है कि शोधक के लिए इस क्षेत्र में कार्य करने के लिए प्रभूत सामग्री है पर उसे साहसी और सहिष्णु होना भावश्यक है ।
अन्त में यहां पर लिखना चाहूंगी कि पृ. 243 (285) पर जो यह लिखा गया है कि न कोई निरंजन सम्प्रदाय या मौर न कोई हरीदास नाम का उसका संस्थापक ही था, गलत हो गया है। तथ्य यह है कि हरीदास (सं. 1512-95) इसके प्रवर्तक थे जिनका मुख्य कार्य क्षेत्र डीडवाना (नागौर) था ऐसा डॉ० भानावत ने लिखा है ।
इस प्रबन्ध लेखन में हमें मान्यवर प्रोफेसर व्ही. पी. श्रीवास्तव, भूतपूर्व अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, हिस्लाप कालेज, नागपुर का मार्गदर्शन मिला है । कृतज्ञ हैं । इसी तरह हिन्दी जैन साहित्य के लब्धप्रतिष्ठित विद्वान डॉ. नरेन्द्र भानावत, रीडर हिन्दी विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर के भी हम बाभारी हैं जिन्होंने बड़े स्नेहिल हृदय से प्राक्कथन लिखने का हमारा प्राग्रह स्वीकार किया ।
इसके बाद हम सर्वाधिक ऋणी हैं अपनी मातेश्वरी श्वव जी श्रीमती तुलसा देवी जैन के जिन्होंने हमेशा पारिवारिक प्रथवा गार्हस्थिक उत्तरदायित्वों से मुके युक्त-सा रखा । उनका पुनीत स्नेह हमारा प्रेरणा स्रोत रहा है। साहित्य के क्षेत्र में जो कुछ कर सकी हैं, उनके प्राशीर्वाद का फल है। उनके चरणों में नतमस्तक हूँ । उन्हीं को यह कृति समर्पित है। उनके साथ ही में प्रपने जीवन साथी डॉ. भागचन्द जैन भास्कर भूतपूर्व मध्यक्ष पालि-प्राकृत विभाग, नागपुर विश्व विद्यालय तथा
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वर्तमान में प्रोफेसर एवं निवेशक, जैन सुशीलन केन्द्र, राजस्थान विश्वविद्यालय की भी चिरी हूं जिनसे जैन धर्म और दर्शन को समझने में सुविधा हुई है।
प्रस्तुत अध्ययन में जिन लेखक और विद्वानों का प्रत्यक्ष-मंत्रत्यक्ष रूप से सहयोग मिला, उन सभी के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करती हूँ । विशेष रूप से सर्व श्री डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी, भागरचंद नाहटा परमानन्द शास्त्री, डॉ. कस्तुरचंद कास लीबाल, डॉ. प्रेमसागर, डॉ. वासुदेव सिंह, डॉ गोविन्द त्रिगुणायन, डॉ. रामनारायण पांडे, डॉ नरेन्द्र भानावत प्रभूति के प्रति प्राभार व्यक्त करना चाहती हूं जिनके श्रम और शोध विगरण ने हमारे काम को कुछ हल्का कर दिया ।
प्रस्तुत शोध प्रबन्ध सन् 1975 में नागपुर विश्वविद्यालय द्वारा पी. एच. डी. की उपाधि के लिए स्वीकृत हुआ था । लगभग आठ वर्षों बाद अब यह प्रकाश में भा रहा है। श्री दिगम्बर जैन महासभा तथा सन्मति विद्यापीठ के अध्यक्ष और निदेशक की भी मैं ऋणी हूँ जिन्होंने इसको प्रकाशित कर साहित्य सेवा की। इस प्रसंग में विद्वान पाठकों से क्षमा भी मांगना चाहूगी जिन्हें मुद्रण की अशुद्धियां पायस मे केकरण का अनुभव दे रही हैं । तुलसा भवन
श्री मती पुष्पलता जैन
न्यू एक्सटेंशन एरिया, सदर, नागपुर - 440001 fa. 16-4-84
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प्रथम परिवर्त
काल- विभाजन एवं सास्कृतिक पृष्ठभूमि
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सामान्यतः भारतीय इतिहास का मध्यकाल सप्तम शदी से माना जाता है । परन्तु जहां तक हिन्दी साहित्य के मध्यकाल की बात है, उसका काल कब से कब तक माना जाय, यह एक विचारणीय प्रश्न है । था. रामचन्द्र शुक्ल ने कालविभाजन का आधार जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन को बताया है। उनका विचार है "जबकि प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृति का संचित प्रतिबिम्ब होता है तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में परिवर्तन होता चला जाता है ।"1 रुचि विशेष में परिवर्तन के समय को निश्चितकर एवं उस साहित्य में निहित प्रभावशाली प्रवृत्ति विशेष को ध्यान में रखकर ही काल-निरिण करना आवश्यक है । प्रायः इन विचारों को दृष्टि में रखकर हिन्दी साहित्य के प्राचीन इतिहासकारों ने एक निश्चत समय में मिली कृतियों धौर उनमें निहित प्रवृत्तियों के आधार पर ही उसका नामकरण और काल विभाजन किया है।
इसके बावजूद हिन्दी साहित्य के काल विभाजन का प्रश्न अभी तक विवादास्पद बना हुआ है । डॉ० गियर्सन, मिश्र बन्धु, शिवसिंह संगर, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, राहुल सांकृत्यायन, डॉ० रामकुमार वर्मा प्रादि विद्वानों ने हिन्दी साहित्य के प्रादिकाल का प्रारंभ वि सं. 7वीं शती से 14वीं शती तक स्वीकार किया है। दूसरी प्रोर रामचन्द्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, विश्वनाथप्रसाद मिश्र भादि विद्वान् उसका प्रारंभ 10वीं शताब्दी से 14वीं शताब्दी तक मानते हैं। इन विद्वानों में कुछ विद्वान आदि कालीन प्रपत्र श भाषा में लिखे साहित्य को पुरानी हिन्दी का रूप मानते हैं और कुछ हिन्दी साहित्य के विकास में उनका उल्लेख करते हैं ।
1.
हिन्दी साहित्य का इतिहास, प्रथम संस्करण, सं. 2048, काल विभाग, प्र. 3
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मा० रामचन्द्र शुक्ल के समय अपभ्रंश और विशेष रूप से हिन्दी जैन साहित्य का प्रकाशन नहीं हुआ था। जो कुछ भी हिन्दी जैन ग्रंथ उपलब्ध थे उन्हीं के
आधार पर उन्होंने समूचे हिन्दी जन साहित्य को अपने हिन्दी साहित्य के इतिहास में नितान्त धार्मिक, साम्प्रदायिक मौर शुष्क ठहरा दिया। उन्हीं का अनुकरण करते हुए प्राचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने लिखा है "जो हिन्दी के पाठकों को यह समझाते फिरते हैं कि उसकी भूमिका जनों और बौद्धों की साम्प्रदायिक सर्जना में है वे स्वयं भ्रम में हैं और उन्हें भी इस इहलाम से भ्रमित करना चाहते हैं। हिन्दी के शुद्ध साहित्य की भूमिका संस्कृत और प्राकृत की सर्जना में तो दी जा सकती है, पर अपभ्रंश की साम्प्रदायिक अर्चना में नहीं। अपभ्रश के नसर्गिक साहित्य-प्रवाह से भी उसका संबंध जोड़ा जा सकता है, पर जैनों के साम्प्रदायिक संवाह से नहीं।"
परन्तु प्राचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी इस सिद्धान्त से सहमत नहीं। उनके अनुसार " धार्मिक साहित्य होने मात्र से कोई रचना साहित्यिक कोटि से अलग नहीं की जा सकती। यदि ऐसा समझा जाने लगे तो तुलसीदास का रामचरितमानस भी साहित्य क्षेत्र में अविवेच्य हो जायेगा और जायसी का पद्मावत भी साहित्य सीमा के भीतर नहीं घुस सकेगा।" डा. भोलाशंकर व्यास ने भी इसका समर्थन करते हुए लिखा कि धार्मिक प्रेरणा या प्राध्यात्मिक उपदेश होना काव्यत्व का बाधक नहीं समझा जाना चाहिए । लगभग दसवीं शती के पूर्व की भाषा में अपभ्रंश के तत्व अधिक मिलते हैं । यह स्वाभाविक भी है। इसे चन्द्रधर शर्मा गुलेरी ने पुरानी हिन्दी कहा है। राहुल सांकृत्यायन ने भी अपभ्रंश को पुरानी हिन्दी माना है और हिन्दी काव्य धारा में लिखा है--"जनों ने अपभ्रंश साहित्य की रचना और उसकी सुरक्षा में सबसे अधिक काम किया। वह ब्राह्मणों की तरह संस्कृत के अध भक्त भी नहीं थे । प्रतएव जैनों ने देश भाषा में कथा साहित्य की सृष्टि की, जिसके कारण स्वयंभू और पुष्पदन्त जैसे अनमोल अद्वितीय कविरत्न हमें मिले । “स्वयंभू हमारे इसी युग में नहीं, हिन्दी कविता के पांचों युगों 1. सिद्ध सामन्त युग, 2. सूफी युग, 3. भक्ति युग, 4. दरबारी युग, 5. नवजागरण युग, के जितने कवियों को हमने यहां संग्रहीत
1. हिन्दी साहित्य का प्रतीत, भाग 2, अनुवचन, पृष्ठ 5, 2. हिन्दी साहित्य का आदिकाल, बिहार राष्ट्रभाषा-परिषद्, पटना, पृ. 11. 3. हिन्दी साहित्य का बृहत् इतिहास, प्र. भा., काशी पृ. 347. 4. "कविता की प्रायः भाषा सब जगह एक सी ही थी। जैसे नानक से लेकर
दक्षिण के हरिदासों तक की कविता की बजभाषा थी, वैसे ही अपभ्रंश को भी "पुरानी हिन्दी कहना अनुचित्त नहीं, चाहे कवि के देश-काल के अनुसार उसमे कुछ रचना प्रादेशिक हो।" ।
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किया है, उसमें यह नि:संकोच कहा जा सकता है कि स्वयं सबसे बड़ा कवि स्वयं के रामायण और महाभारत दोनों ही विशाल कामी है ।'
यह बड़ा विवादास्पद प्रश्न है कि अपभ्रंश भाषा के ग्रन्थों में आये हुए वेशज raat wear on साहित्य की कतिपय प्रवृत्तियों को "पुरानी हिन्दी" का रूप स्वीकार किया जाय या नहीं। डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी जैसे विद्वान प्रपत्र' भाषा मौर साहित्य का मूल्यांकन करते हुए भी उसे "पुरानी हिन्दी" का रूप स्वीकार करने में हिचकिचाते हैं । उन्होंने लिखा है- "यह विचार भाषाशास्त्रीय और वैज्ञानिक नहीं है । भाषाशास्त्र के अर्थ में जिसे हम हिन्दी (खड़ी बोली, ब्रजभाषा,
प्रादि) कहते हैं, वह इस साहित्यिक पभ्रंश से सीधे विकसित नहीं हुई है । व्यवहार में पंजाब से लेकर बिहार तक बोली जाने वाली सभी उपभाषाधों को हिन्दी कहते हैं । इसका मुख्य कारण इस विस्तृत भूभाग के निवासियों की साहि fore भाषा की केन्द्राभिमुखी प्रवृत्ति है। गुलेरी जी इस व्यावहारिक प्रर्थ पर जीर देते हैं । " द्विवेदी जी कहते हैं-जहाँ तक नाम का प्रश्न है, गुलेरी जी का सुझाव पडितों को मान्य नहीं हुआ है। अपभ्रंश को अब कोई पुरानी हिन्दी नहीं कहता ।" परन्तु जहां तक परम्परा का प्रश्न है, निःसन्देह हिन्दी का परवर्ती साहित्य अपभ्रंश साहित्य से क्रमश: विकसित हुआ है ।" डा० प्रेमसागर ने भी लगभग इसी मत को स्वीकार किया है ।"
परन्तु हमारा मत है, हिन्दी साहित्य के श्रादिकाल की सीमा लगभग सप्तम शती से प्रारंभ मानी जानी चाहिए। प्रपभ्रंश भाषा के साहित्य को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि उस समय प्रपभ्रंश के साथ ही देशी भाषा का भी प्रयोग होता था । यह भाषावैज्ञानिक तथ्य है कि जब कोई बोली साहित्य के क्षेत्र में भा जाती है तो वह भाषा बन जाती है धीर उसका स्थान उसी की नई बोली ग्रहण कर लेती है। इसी को देशी भाषा कहा जा सकता है। इस भाषा के शब्द अपभ्रंश भाषा के साहित्य में यत्र तत्र बिखरे पड़े हुए हैं। उन्हीं को हम "पुरानी हिन्दी" कह सकते हैं । राहुल सांकृत्यायन की हिन्दी काव्यधारा इस तथ्य का प्रमाण है कि हिन्दी के प्रादि-काल में किस प्रकार प्रपंभ्रंश और देशी भाषा का प्रयोग होता था । यहां हमने अपभ्रंश और पुरानी हिन्दी के विवाद में अधिक न जाकर हिन्दी के विकास में अपभ्रंश और देशी भाषा के महत्व को विशेष रूप से स्वीकार किया है
1.
हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तियां, पू, 36; हिन्दी काव्यधारा, पृ, 38, 50
2. हिन्दी साहित्य का उद्भव और विकास, 1953, पृ, 16-17
3.
हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि, परिशिष्ट 1, 2, 499
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और इसलिए पादिकाल की सीमा को लगभग सप्तम शती से 14 वीं शती तक स्थापित करने का दुस्साहस किया है । इस काल के साहित्य में भाषा और प्रवृत्तियों का वैविध्य दिखाई देता है। धर्म, नीति, शृंगार, वीर, नीतिकाव्य मादि जैसी प्रवृत्तियां उल्लेखनीय हैं । चरित, कथा, रासा आदि उपलब्ध साहित्य इन्हीं प्रवृत्तियों के अन्तर्गत पा जाता है । धार्मिक और लौकिक दोनों प्रवृत्तियों का भी यहां समन्वय देखा जा सकता है। इन सभी प्रवृत्तियों को एक शब्द में समाहित करने के लिए 'पादिकाल' जैसे निष्पक्ष शब्द का प्रयोग अधिक उपयुक्त लगता है। डॉ. देवेन्द्र कुमार जैन ने इसे अपभ्रंश काल कहकर उसका मूल्यांकन किया है ।1
इसे चाहे अपभ्रंश काल कहा जाय या चारणकाल या संधिकाल, पर इतना निश्चित है कि इस काल में अपभ्रंश का परिनिष्ठित रूप साहित्यिक हो गया था
और उसका देशज रूप पुरानी हिन्दी को स्थापित करने लगा था। अपभ्रंश के साथ ही पुरानी हिन्दी का रूप स्वयंभू, हेमचन्द्र जैसे प्राचार्यों के ग्रन्थों में भलीभांति प्रतिबिम्बित हुआ है । इसलिए इसका नाम अपभ्रंश की अपेक्षा प्रादिकाल अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है । डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इस नामकरण को तो स्वीकृत किया है पर वे काल-सोमा को स्वीकार नहीं कर सके। नामकरण के पीछे प्रवृत्ति, जाति, भाषा, व्यक्ति, संप्रदाय, विशिष्ट रचना शैली, प्राचीनता-अर्वाचीनता, रचना-स्तर, राजनीतिक घटनाएँ आदि अनेक प्राधारों को प्रस्थापित किया गया पर वे कोई भी अपने को निर्दोष सिद्ध नहीं कर सके। उनमें सर्वाधिक निर्दोषता आदिकाल के साथ ही जुटी हुई है जहां सब कुछ अन्तर्मुक्त हो जाता है । अतः यहां राहुल साकृत्यायन तथा डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी के विचारों का समन्वय कर हिन्दी के उस काल-खण्ड का नाम निर्धारण 'पादिकाल' अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है।
जैसा पीछे लिखा जा चुका है, हमने मादिकाल की सीमा का निर्धारण लगभग सप्तम शताब्दी से चौदहवीं शताब्दी तक किया है। इसे दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-पहला अपभ्रंश बहुल हिन्दी काल और दूसरा प्रारंभिक हिन्दी काल । प्रथम काल में भाषा साहित्यिक पपा से विकसित होकर देशी भाषा की भोर बढने लगी थी। स्वयंभू के पूर्ववर्ती कवियों ने जिसे अपभ्रंश कहा, स्वयंभू ने उसे "देसी भासा उभय-तडुज्जल" कहकर 'देसी भासा' संज्ञा देना अधिक उचित समझा । उत्तरकालीन कवि लक्ष्मणदेव ने णेमिणाहचरिउ में 'गम सकाउ पाउम देस भास' कहकर इसी का समर्थन किया है संभव है। अपभ्रंश की लोक
1. हिन्दी साहित्य का मादिकाल एवं मूल्यांकन-अनेकान्त, 34 किरण, 4. विस.
1981, पृ, 6-8
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veer at at deer उसके विकसित स्वरूप को विद्यापति ने अब और देसिन aunt (देशी वचन) कहा है। प्राकृत के विकसित रूप को ही वस्तुतः अपभ्रंश कहा गया है । जैसे पातंजलि 1150 ई. पू.) ने महाभाष्य में सर्वप्रथम अपभ्रंश शब्द का प्रयोग किया पर वह प्रयोग प्रपाणिनीय शब्दों के लिए हुआ है । भामह और दण्डी (7 वीं शती) तक आते-प्राते वह ग्राभीर किंवा प्रशिष्ट समाज की बोली के रूप में स्वीकार की जाने लगी। उद्योतन ( 8वीं पाती) और स्वयंभू के काल तक अपक्ष ने एक काव्य शैली और भाषा के रूप में अपना स्थान बना लिया ।
आठवीं शती के बाद तो अपभ्रंश भाषा के भेदों में गिनी जाने लगी । रुद्रट, राजशेखर जैसे कवियों ने उसका साहित्यिक समादर किया । पुरुषोत्तम (11 वीं शती) के काल तक पहुंचते-पहुंचते उसका प्रयोग शिष्ट प्रयोग माना जाने लगा । हेमचन्द ने तो अपभ्रंश की साहित्य समृद्धि को देखकर उसका परिनिष्ठित व्याकरण ही लिख डाला । अपभ्रंश अथवा देशी भाषा की लोकप्रियता का यह सर्वोत्कृष्ट उदाहरण माना जा सकता है ।
वि. स. 1400 के बाद कवियों को प्रेरित करने वाले सांस्कृतिक आधार में भिन्न्य दिखाई पड़ता है । फलस्वरूप जनता की मनोवृत्ति और रूचि में परिवर्तन होना स्वाभाविक है । परिस्थितियों के परिणामस्वरूप जनता की रुचि जीवन से उदासीन और भगवद्भक्ति में लीन होकर भ्रात्म कल्याण करने की घोर उन्मुख थी । इसलिए इस विवेच्य काल में कवि भक्ति और अध्यात्म संबंधी रचनायें करते दिखाई देते हैं । जैन कवियों की इस प्रकार की रचनायें लगभग वि.सं. 1900 तक मिलती हैं । अत: इस समूचे काल को मध्यकाल नाम देना ही अनुकुल प्रतीत होता है । प्रा० शुक्ल ने भी प्रादिकाल (वीरगाथाकाल), पूर्वमध्यकाल (भक्तिकाल ), उत्तरमध्यकाल ( रीतिकाल ) और प्राधुनिककाल नाम रखे हैं । प्रा० शुक्ल ने जैन कवियों की भक्ति और अध्यात्म संबंधी रचनाओं को नहीं टटोला या उन्हें देखने नहीं मिली । अतः मात्र जैनेतर हिन्दी कवियों की श्रृंगारिक और रीतिबद्ध रचनायें देखकर ही मध्यकाल के उपर्युक्त दो भाग किये । चूंकि जैन कवियों द्वारा रचित जैन काव्य की भक्ति रूपी जारा वि. सं. 1900 तक बहती है । प्रत: हमने इस सम्पूर्णकाल को मध्यकाल के नाम से प्रभिहित किया है । यद्यपि इस काल में जैन कवियों ने रीति संबंधी (लक्षण ग्रंथ अंगर परक चित्रण, नायक-नायिका भेद भादि) ग्रंथ भी रखे हैं परन्तु इसकी संख्या तुलनात्मक दृष्टि से नगण्य ही है। प्रस्तुत प्रबन्ध में हमने मध्यकाल की इसी सीमा को स्वीकार किया है।
सांस्कृतिक पृष्ठभूमि
सम् उपसर्ग पूर्वक 'कृ' धातु के संयोग से बने संस्कृति शब्द का अर्थ है, सम्यक प्रकार से निर्माण अथवा परिष्करण की क्रिया । संस्कार, वातावरण और
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सभ्यता का संदर्भ भी इस शब्द के साथ जुड़ा हुआ है । इसलिए संस्कृति के क्षेत्र में धर्म, दर्शन, इतिहास, काल, साहित्य प्रादि सब कुछ प्रन्तर्भुक्त हो जाता है ।
संस्कृति का अंग्रेजी अनुवाद साधारणतः Culture शब्द से किया जाता हैं जिसका सर्वप्रथम प्रयोग 1420 ई. में कृषि और पशुपालन के अर्थ में किया गया था । लेटिन Colere शब्द से भी इसकी निरुक्ति बतायी जाती है । वह भी कृषि से संबद्ध है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि कृषि का सम्बन्ध मानव की परंपरा से रहा है । कृषि के कारण ही भ्रमरणशील प्रवृत्ति, विविध वस्तुनों का उपयोग, सामूहिक उपयम यादि वृत्तियां जागरित हुई हैं। इन सभी वृत्तियों को जागरित करने के लिए जिस प्रक्रिया का उपयोग किया जाता है वह संस्कृति कहलाती है । इतिहास के साथ ही इसका सम्बन्ध समाजशास्त्र से भी है जिसके अनुसार व्यक्ति अपने वंशानुक्रम (heriditory ) धौर परिवेश ( envirnoment ) की प्रतिकृति मात्र है ।
संस्कृति प्रथा Culure शब्द को लेकर देशीय एवं विदेशीय विद्वानों ने बड़ा चिन्तन प्रौर मन्थन किया है। देशीय विद्वानों में डॉ० पी. के. प्राचार्य बलदेव प्रसाद मिश्र, मंगल देल शास्त्री, भगवत शरण उपाध्याय, जयचन्द विद्यालंकार, मोतीलाल शर्मा आदि विद्वान विशेष उल्लेख्य हैं तथा विदेशीय विद्वानों में ए. एल. कोबर ( Krober ), बाउवेनार्क्स (Vavuenargues), वाल्टेयर ( Voltire ), मैथ्यू अर्नाल्ड (matheuce Arnold ), फिलिप बैग्वी (philid Beglu) व्हाइट (leslie A. wnite) प्रादि विद्वानों के नाम लिये जा सकते हैं। ये सभी विद्वान इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि संस्कृति मानव की एक गतिशील प्रवृत्ति है जो व्यक्ति अथवा समाज की अपनी परिस्थिति, परिवेश, संस्कार, मान्यताओं श्रादि की पृष्ठभूमि में परिवर्तित होती चली है ।
भारतीय साहित्य और संस्कृति की भी यही कहानी है अपनी सार्वभौमिक प्राध्यात्मिक साधनों के पुनीत आधार पर वह अनेक भावातों में भी अपना स्तित्व बनाये रखने में सक्षम हुई। अनेकता में एकता उसका मूलमंत्र रहा है । धर्म दर्शन की लोक मांगलिक पृष्ठभूमि मे समाज और साहित्य का निर्माण हुआ है । वैविध्य होते हुए भी जीवन के शाश्वत मूल्य परस्पर गुथे हुये हैं । इसलिए एक धर्म, सम्प्रदाय, साहित्य और संस्कृति दूसरे धर्म, सम्प्रदाय, साहित्य और संस्कृति से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकी । इसी पृष्ठभूमि में हम मध्ययुग के विविध प्रयासों, पर संक्षिप्त विचार करेंगे।
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1. Kroeter A.L and clyde kluckhohn: culture, P. 952
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इतिहास का मध्ययुग साधारणत: सातवीं भाठवीं शती से 17-18 वीं शती तक माना जाता है। भारतीय इतिहासकारों ने इसे पूवर्मध्ययुग (650ई. से 1200 ई. तक) और उत्तर मध्ययुग (1200 ई.से) 1700 ई. तक) के रूप में विभाजित किया है । यह विभाजन राजनीतिक, धार्मिक, प्राधिक, ऐतिहासिक मादि प्रवृत्तियों पर आधारित है। आधुनिक भार्य भाषायें भी इसी काल की देन है। हिन्दी भाषा और साहित्य का काल विभाजन एक वैशिष्ट्य लिये हुए है। उसका मध्ययुग 1350 ई. से 1850 ई तक चलता रहता है। इस समय तक विदेशी मानमरणों के फलस्वरूप तथा ब्रिटिश राज्य के कारण सामाजिक क्रांति सुप्तावस्था में रही । असहायावस्था में ही भक्ति आन्दोलन हुए और रीतिबद्ध तथा रीतिमुक्त साहित्य का सृजन हुआ । जैन अध्यात्मवाद प्रथवा रहस्यवाद की प्रवृत्तियों को जन्म देने और उन्हें विकसित करने में राजनीतिक मध्ययुगीन अवस्था विशिष्ट कारणभूत रही है । इसको हम यहां राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक दृष्टिकोण से समझने का प्रयत्न करेंगे । 1. राजनीतिक पृष्ठभूमि
भारत की राजनीतिक अव्यवस्था और अस्थिरता का युग हर्षवर्धन (606647 ई.) की मृत्यु के साथ ही प्रारंभ हो गया । सामाजिक विश्व खलता और पार्थक्य भावना बलवती हो गई। भारत छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त हो गया । ऐसी परिस्थिति में 8वीं शती पूर्वार्ध में कन्नोज में यशोवर्मा का प्राधिपत्य हुप्रा जो राष्ट्रकूटो की प्रचण्ड शक्ति के कारण छिन्न-भिन्न हो गया। उसके बाद गुर्जर प्रतिहारों ने उस पर लगभग 11वी शती तक राज्य किया। राजा वत्सराज (775800 ई.) जैनधर्म का लोकप्रिय सहायक राजा था। उसी के राज्य में जिनसेन ने हरिवंशपुराण, उद्योतनसूरि ने कुवलयमाला तथा हरिभद्र सूरि ने चितौड़ में मनेक ग्रंथों की रचना की ।
यहां यह उल्लेखनीय है कि ऐसे निवृत्तिपरक साधकों में जैन साधक प्रधान रहे हैं जिनका जमाव पश्चिमोत्तर प्रदेश में कदाचित व्यापारिक वृत्ति के कारण for रहा है । इसलिए प्रारम्भिक हिन्दी जैन साहित्य इसी प्रदेश में सर्वाधिक मिलता है । प्रागे चलकर दिल्ली, मगघ और मध्यप्रदेश भी हिन्दी जैन साहित्य के गढ़ बने । इस साहित्य में तत्कालीन धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण भी परिलक्षित होता है ।
साधारणत: बारहवीं शताब्दी तक राजाओं में परस्पर युद्ध होते रहे और युद्धों का मूल कारण या श्रृंगार- प्रेम परक भावनाओं का उद्वेलन और कन्याओं का हठात् अपहरण । राजा लोग इसी में अपने पुरुषार्थ की सिद्धि मानते थे। उन पर अंकुश रखने के लिए जनता के हाथ में किसी प्रकार का सम्बल नहीं था । उनकी
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राजनीतिक चेतना सुप्तप्राय हो चुकी थी। फलतः जनता में राजामों के प्रति भक्ति सेवा भावना, प्रात्म समर्पण और राजनीतिक जीवन के प्रति उदासीनता छा गयी थी। उसके मन में राष्ट्रीय भावनायें अत्यंत सीमित हो चुकी थी। इन परिस्थितियों ने कवियों को राजामों का मात्र प्रशस्तिकार बना दिया। वे अपने प्राश्रय दातामों के गुणगान में ही अपनी प्रतिभा का उपयोग करने लगे। उन्हें अपने मात्रयदाता के सामन्ती ठाट-बाट और विलासिता के चित्रण में विशेष रुचि थी। लगभग 500 वर्षों के लम्बे काल में कान्यकुब्ज के यशोवर्मन के राजकवि भवभूति ने और प्रति. हार वंश के कुलगुरू राजशेखर ने अपने प्राश्रयदाता को प्रशस्ति का मान न करके रामायण और महाभारत के राजनीतिक आदर्शों को अपने प्रथ महावीर चरित उत्तर रामचरित, बाल भारत और बाल रामायण में स्थापित किया।
अपने आश्रयदाता राजारों की प्रशस्ति का गान करने वाली इस मध्ययुगीन परम्परा का श्रीगणेश बाणभट्ट से हुमा । उनका हर्षचरित राजा हर्ष की प्रशस्ति का ऐसा ही सस्कृत काव्य है । उत्तर कालीन कवियों ने उनका भलीभांति अनुकरण किया । गाउडवहो, नबसाहसांक चरित' कुमारपाल चरित, प्रबन्ध चिन्तामणि, वस्तु. पाल चरित प्रादि सैकड़ों ऐसे ग्रंथ हैं जो मात्र प्राश्रयदातामों की प्रशस्ति में लिखे हुये हैं । इसी परम्परा में हिन्दी कवियों ने रासो साहित्य का निर्माण किया। इस साहित्य के निर्मातामों में जैन कवि विशेष अग्रणी रहे हैं। उन्होंने इसका उपयोग तीर्थकर और जन प्राचार्यों की यशोगाथा में किया है।
13 वी शती से 18 वीं शती तक मध्य एशियाई मुसलमानों के प्राक्रमणों से भारत अत्यंत त्रस्त रहा । धीरे-धीरे राजसत्तायें पराधीनता की श्रृंखला में जकड़ती रही । मुहम्मद गोरी, गजनबी, संपद वश, लोदी वश, मुहम्मद तुगलक प्रादि मुसलमान राजानो के नियमित आक्रमण हुए जिससे सारा भारतीय जन-जीवन अस्त-व्यस्त हो गया। भारतीय राजे-महाराजे स्वार्थता की चपेट में अधिकाधिक संकीर्ण होते गये। उनमें परस्पर विद्वप की अग्नि प्रज्जवलित होती रही । इसी बीच बाबर हुमायू, अकबर, जहांगीर, शाहजहा, मोरंगजेब मादि मुगलों के भी भाक्रमणों और प्रत्याक्रमणों ने भारतीय समाज को नष्ट-भ्रष्ट किया। भारतीय राजामों के बीच पनपी अन्तःकलहने भी युद्धो को एक खेल का रूप दे दिया। वासनावृत्ति ने इसमें भी का काम किया। इससे मुसलिम शासकों का साहस और बढ़ता गया ।
इसके बावजूद मुस्लिम शक्ति को भारतीय राजामों ने सरलतापूर्वक स्त्रीकार नहीं किया। लगभग 12वीं शताब्दी तक उत्तर भारत में उसका घनघोर प्रतिरोष हुमा । परन्तु परिस्थितिवश दिल्ली और कन्नौज के हिन्दू साम्राज्य नष्ट हये और यह प्रतिरोष कम हो गया । इस प्रतिरोध की माग राजस्थान, मध्यभारत,
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गुजरात और उड़ीसा के राजवंशों में फैलती रही और फलस्वस्म के मुखलमानों का तीव्र विरोध अंत तक करते रहे । परन्तु पारस्परिक कूट के कारण ये मुस्लिम मामरणों को पूर्ण रूप से ध्वस्त नहीं कर पाये। इसलिये जनता में कुछ निराका गयी। फिर भी मुसलमानों के साथ संघर्ष बना ही रहा । मेवाड़ के राजा संचामसिंह और विक्रमादित्य हेमचन्द्र के नेतृत्व में मुस्लिम शासकों से संघर्ष होते रहे और पौरंगजेब के समय तक पाते-पाते हिन्दुनों की भक्ति काफी बढ़ गयी । इसे हम राजनीतिक पुनरुत्थान का युग कह सकते हैं। इस समय जाट, सिक्स मराठा, राणाप्रताप, शिवाजी, दुर्गादास, छत्रसाल आदि भारतीय राजाओं ने उनके दांत खट्टटे किये पौर स्वतंत्रता के बीज बोये ।
उपर्युक्त राजनीतिक परिथतियों से यह स्पष्ट है कि इस काल में पानीतिक अस्थिरता के कारण जन-जीवन अस्त-व्यस्त और संत्रस्त था। जीवन की प्रसुरक्षा, राष्ट्रीयता का अपमान, कला-कृतियों का खण्डन, स्वाभिमान का हनन, सम्पत्ति का अपहरण जैसे तत्वों ने हिन्दुप्रों मोर मुसलमानों के बीच मेदभाव और वैमनस्य की जबर्दस्त दीवाल खड़ी कर दी थी। धर्मान्धता और नारी के सतीत्व. हरण के कारण राष्ट्र जीवन में निराशा का वातावरण छा गया था। फलत: उस समय भौतिक सुख की भोर से उदासीनता तथा भगवद्भक्ति की भोर संलग्नता दिखाई देती है।
डॉ. त्रिगुणायत ने इन राजनीतिक परिस्थितियों के फलस्वरूप भारतीय जीवन और समाज पर निम्नलिखित प्रभाव देखे हैं (1) धर्मसुधार की भावना जाप्रत हुई। नाथपन्य, लिंगायत, सिद्धरा मादि पन्थों का उदय इसी धर्म सुधार भावना के कारण हुमा था। इन सबका लक्ष्य हिन्दू धर्म और इस्लाम में सामंजस्य स्थापित करना था, (2) पर्दा प्रथा समाज में दृढ़ हो गई ताकि स्त्रियों को बलात्कार मादि जैसे कुकृत्यो से बचाया जा सके, (3) धर्म सगुणोपासना में असमर्थ होने के कारण निर्गुणोपासना की भोर झुका, तथा (4) ऐकान्तिकता और नित्यात्मकता से प्रेरित होकर साधकों ने निर्गुण ब्रह्मकी उपासना प्रारंभ की।।
2. মানিক ঘূতমুলি
जैसा अभी हम देख चुके हैं, इतिहास के मध्यकाल में भारत का सांस्कृतिक घरातल देशी-विदेशी राजानों के माक्रमणों से विखलित रहा। भारत का जनमानस उन माक्रमणों से त्रस्त हो गया और फलतः अपने धमों में सामयिक परि.
1. कबीर की विचारधारा, पृ. 71-72,
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वर्तन की घोर देखने लगा । इस युग में भक्ति का प्राधान्य रहा। सभी धर्मों में भक्ति के कारण अनेक विकास पथ निर्मित हुए । बाह्याडम्बर के साथ ही प्रचार शैथिल्य बढ़ गया। तात्कालिक साहित्य, धर्म और भक्ति की प्रेरणा से अधिक समृद्ध हुआ । वैदिक, जैन भोर बौद्ध धर्मों के विकास और परिवर्तन के विविध स्वरूप विशेष रूप से लक्षित होते हैं । इसे हम संक्षेप में निम्न प्रकार से देख सकते हैं ।
1. वैदिक धर्म
मध्ययुग में वैदिक धर्म ने विशेष रूप से दार्शनिक क्षेत्र में प्रवेश किया । प्रभाकर और कुमारिल ने मीमांसा के माध्यम से और शंकराचार्य ने वेदान्त के माध्यम से वैदिक दर्शन का पुनरुत्थान किया । शंकराचार्य ने तो बोद्ध धर्म की बहुतसी सामग्री लेकर उसे आत्मसात करने का प्रयत्न किया । इसलिए उन्हें "प्रच्छन्न बौद्ध भी कहा जाता है । इसी युग में पौराणिक और स्मार्त धर्मों का समन्वयात्मक रूप सामने भाया । स्मार्तो ने विष्णु, शिव, दुर्गा, सूर्य श्रीर गणेश इन पंचदेवों की पूजा प्रारंभ कर दी । इन्ही के आधार पर पाच उपनिषद् भी लिखे गये । यह उपनिषद् दर्शन, स्मार्त और वेदान्त दर्शन से एक जुट हो गया । वैष्णव धर्मावलम्बी कवियो ने ऐसे ही धर्म को स्वीकार किया है। भागवत और पांचरात्र सम्प्रदाय भी वैष्णव धर्म के श्रग रहे है । भागवत सम्प्रदाय ने शिव और विष्णु में अभिन्नत्व स्थापित किया । वैदिक पूजा-पद्धति से वे विशेष प्रभावित थे । वैष्णव धर्म भोर साहित्य के देखने से यह स्पष्ट है कि उनमें शाक्त सिद्धान्तों का समावेश हुआ ।
पांचरात्र सम्प्रदाय भी अनेक उपसम्प्रदायों में विभक्त हो गया । वैष्णव, महानुभाव और रामायत उनमे प्रमुख उपसम्प्रदाय थे। वैष्णव पांचरात्र सम्प्रदाय उत्तर से दक्षिण तक फैला था । तमिल प्रदेश में उसका विशेष प्रचार था । उसमें नाथमुनि, पुण्डरीकाक्ष, यमुनाचार्य, रामानुज रामानन्द, तुलसीदास भादि प्रसिद्ध प्राचार्य और सन्त हुए है। रामानुज का विशिष्टाद्वैतवाद विशेष प्रसिद्ध रहा है ।
महानुभाव सम्प्रदाय मात्र कृष्ण का आराधक था और वह मूर्ति के स्थान पर केवल प्रतीक की पूजा करता था। यह सम्प्रदाय स्मार्त के आधार का विरोधी तथा साम्प्रदायिक था । दत्तात्रय इसके प्रस्थापक प्राचार्य माने जाते हैं। महाराष्ट्र और कन्नड प्रदेशों में इसका विशेष प्रचार था । रामायत सम्प्रदाय में राम की कथा को आध्यात्मिक मोड़ मिला । तदनुसार राम माया मनुष्य और सीता मायाच्छादित चिन्छक्ति थी । इस पर अद्वैत वेदान्त भोर शाक्त सम्प्रदायों का प्रभाव था । यह सम्प्रदाय दक्षिण से लेकर उत्तर भारत में लोकप्रिय हुआ ।
पं. बलदेव उपाध्याय ने वैष्णव भक्ति मान्दोलन को तीन भागों में विभाजित किया है- (i) सात्वतयुग ( 1500 ई. पू. से 500 ई. तक ), (ii) भलवार
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युग (109-1400 ई.) और (ii) प्राचार्य सुम (मध्ययुग (1400-1900 ई.)। सात्वत, सम्प्रदाय (पांचरात्र) की, उदयभूमि मथुरा रही है। शुंग और गुप्त राजामों ने इसे अधिक प्रश्रय दिया है। पलवार युग में भक्ति का रूप और गाढ़ हो गया। यह दक्षिण में अधिक प्रचलित रहा । तृतीय युग राम और कृष्णा माखा में विमाजित हो जाता है। उत्तर भारत में इसका काफी विकास हुया है। निगुण सम्प्रदाय इसी पांदोलन से संबद्ध है।
वैष्णव सम्प्रदाय के साथ ही शैव सम्प्रदाय का भी विकास हुमा । इस शैब सम्प्रदाय के दो भेद मिलते हैं-पाशुपत और प्रागमिक । पाशुपत के अन्तर्गत शुद्ध.पाशुपत, लकुलीश पाशुपत, कापालिक और नाथ माते है। मायमिक सम्प्रदाय में संस्कृत मंक तमिल शंव, काश्मीर शैव और बीर घाव को अन्तर्भूत किया गया है । पाशुपत सम्प्रदाय का विशेष जोर उत्तर भारत में रहा है । इसके प्रसिद्ध प्राचार्य नैयायिक उद्योतकर के के प्रशस्तपाद मादि अनेक ग्रंथ उपलब्ध हैं । लकुलीश सम्प्रदाय गुजरात और राजस्थान में अधिक था । लकुलीश की वहाँ मूर्तियाँ भी मिली हैं । कापालिक सम्प्रदाय भी उत्तर भारत में मिलता रहा । पर उसका कोई महत्वपूर्ण साहित्य उपलब्ध नहीं हुमा । उसकी साधना पद्धति बड़ी वीभत्स और प्रश्लील थी। उसमें नरबली, सुरापान, यौन सम्बन्ध, मांस भक्षण जैसे गहित तत्व अधिक प्रचलित थे। शव सम्प्रदाय के विशिष्ट सिद्धान्त थे :-पशुपति शिव मखिल विश्व के स्वामी हैं । मनुष्य पशु है, पर उसका शरीर जड़ और प्रात्मा चेतन है । यह भात्मा पाश से बन्धा हुमा है। पाश तीन प्रकार के हैं प्रारराव (मज्ञान), (2) कर्म, (3) माया । शिव की कृपा से शक्ति प्रकट होती है और पाशों का विनाश होकर मोक्ष प्राप्त होता है जहाँ शिव और मारमा मदत बन जाते हैं । मध्यकालीन शैवाचार्य संबन्दर पौर अप्पर ने जनधर्म को दक्षिण से समाप्त करने का भारी प्रयत्न गिया ।
शंव सम्प्रदाय मोर शाक्त सम्प्रदाय का विशेष संबंध रहा है। शक्ति का संबंध. विशेषतः तंत्र-मंत्र से रहा है। शिव की पत्नी दुर्गा, शक्ति की प्रतीक है। उसी. के माध्यम से संसार की सृष्टि मादि कार्य होते हैं । वाम मार्ग की यौगिक सामनायें भी थाक्त सम्प्रदाय से सम्बद्ध हैं।
शैव सम्प्रदाय का नाथ सम्प्रदाय उत्तरभारत, पंजाब तथा राजस्थान प्रादि । प्रदेशों में विशेष प्रचलित था। पहले उसका सम्बन्ध कापालिकों से था पर बादमें गोरखनाम. ने उसे मुक्त कराया। इस सम्प्रदाय में हल्योग-साधना विशेष रूप से प्रचलित थी। तान्त्रिक वैदिक और बौक सापक नाथ सम्प्रदाय से प्रभावित थे। सोम, सिद्ध, कोल प्रादि सम्प्रदाय भी इसी के अंग हैं।
समास: मध्यकालीनस . मन इतिहास को वैदिक संस्कृति के सन्दर्भ में देखने से यह स्पष्ट झे,जाता है कि सप्तमसष्टम - सी में चमत्कार का प्रभार
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लगभग हर समाज और धर्म पर पड़ रहा था। नवम् शती में चमत्कार के माध्यम से ही तंत्र सम्प्रदाय का जन्म काश्मीर में हुआ। इसकी दो शाखायें हुई स्पन्द, मौर प्रत्यभिज्ञ । स्पन्द शाखा को "शिव-सूत्र " कहा जाने लगा जिसके सिद्धान्तों का प्रतिपादन वसुगुप्त (850-907) ने किया । तदनुसार शिव सृष्टि के कर्ता हूँ । पर उसके भौतिक कारण नहीं । प्रत्यभिज्ञा की स्थापना में सौमानंद (सं. 907) का विशेष हाथ है। उन्होंने इसे ध्वन्यालोक लोचन में अधिक स्पष्ट किया है। तदनुसार संसारी जीव पृथक् होते हुये भी शिव से प्रपृथक् हैं। कालान्तर में शंनमत ने महायान से लाभ उठाया मोर बुद्ध तथा शिव की एक-सा बना दिया । नेपाल में प्राप्त महायानी बौद्ध मूर्तियों तथा योगी शिव मूर्तियों में अंतर करना कठिन हो जाता है । बाद में तान्त्रिक मोर शैव सिद्धान्तों के साथ शक्ति का संबंध जुड़ गया और शाक्त मत प्रारंभ हो गया । यही शक्ति सृष्टि का कारण बनी । शक्ति श्वेत और श्याम वर्ण के रूप में प्रतिष्ठित हुई । श्वेत रूप में उमा और श्याम रूप में काली, चण्डी, चामुण्डा प्रादि भयकारिणी देवियों की स्थापना हुई। इस शाक्त मत में दक्षिणाचार मौर वामाचार भेद हुए। वामाचार की शक्ति साधना मे पंच मकारों का उपयोग किया जाता था उसमें भोग वासना के माध्यम से सिद्धि प्राप्त की जाती थी । पशुबलि भादि भी दी जाती थी। मध्यकाल में ये दोनों प्रवृत्तियाँ हिंसा तथा विलास के रूप में दिखाई देती हैं। उत्तरकाल मे इसी में से अनेक उप-सम्प्रदाओं का जन्म हुमा जिससे हिन्दी साहित्य प्रभावित नहीं रहा ।
विदेशी मामरणों के बावजूद हिन्दी सा० की परम्परा अपने पूर्ववर्ती संस्कृत पालि, प्राकत और अपभ्रंश भाषा और साहित्य के प्राधार पर फलती-फूलती रही । तात्कालिक परिस्थितियों की पृष्ठभूमि मे भक्ति साहित्य का निर्माण हुआ । उसकी भक्ति धारा दक्षिण से उत्तर भारत में पहुची। भक्ति की यह धारा सगुण मार्गी थी। निर्गुण भक्ति का प्रचार मुस्लिम शासन काल में अधिक हुथा क्योंकि इस्लाम का उससे किसी प्रकार का विरोध नही था । ये निर्गुण साधक अपने ब्रह्म को अपने ही भीतर देखते थे । समाज और राष्ट्र से उन्हे कोई मतलब न था । निर्गुणियों से पूर्व नाथ और सिद्धों के विधि विधानपरक कर्मकाण्ड से जनता को कोई प्रेरणा नही मिल रही थी । हठयोगी सन्त भी लोक-संग्रह का मार्ग नहीं दिखा सकते थे । अतः ईशोपनिषद् के समुच्चयवाद का पुनर्संघटन रामानुजाचार्य ने किया । बाद मे उत्तरभारत में रामानंद, नाथ और तुलसी आदि ने इसका प्रचार किया। इस समुच्चय में भक्ति, ज्ञान धौर कर्म तीनों का समन्वय था । इस भक्ति आन्दोलन ने जन समाज को युगवाणी, युग पुरुष और युग धर्म दिया ।
2. जैन धर्म
मध्यकाल तक माते झाते जैन धर्म स्पष्ट रूप से दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परामों में विभक्त हो गया था। दोनों परम्पराधों और उनके प्राचार्यों को अनेक
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राजाओं का area मिला धौर फलत: धार्मिक साहित्य, कला और संस्कृति का fare पर्याप्त मात्रा में हुआ । गुर्जर प्रतिहार राजा वत्सराज के राज्य में उयोतनसूरि ने 178 ई. में कुवलयमाला, जिनसेन ने सं. 783 में हरिवंशपुराण और हरिभद्र सूरि ने लगभग इसी समय समराइच्चकहा आदि ग्रन्थों का निर्माण किया । देवगढ़ खजुराहो प्रादि के अनेक जैन मंदिर इसी के उतरकालीन हैं। प्राचार्य सोमदेव के यशस्तिलम्पू (959 ई.), नीतिवाक्यामृत प्रादि ग्रन्थ भी इसी समय के हैं ।
धारा के परमार वंशीय राजाओं ने जैन कवियों को विशेष राजाश्रय दिया । राजा मुंज, नवसाहसांक, भोज प्रादि राजा जैन धर्मावलम्बी रहे। उन्होंने जैन कवि धनपाल, महासेन, अमितगति, माणिक्यनंदी, प्रभाचन्द, नयनन्दी, धनंजय, प्राशावर प्रादि विद्वानों को समुचित श्राश्रय दिया । मेवाड की राजधानी चित्तोड़ (चित्रकूटपुर ) जैनधर्म का विशिष्ट केन्द्र था । यहीं पर एलाचार्य, वीरसेन, हरिभद्रसूरि आदि faarti ने अपनी साहित्य सर्जना की । चित्तौड़ के प्राचीन महलों के निकट ही राजात्रों ने भव्य जैन मन्दिर बनवाये । हथूडी का राठोर वश जैन धर्म का परम अनुयायी था । वासूदेव सूरि, शान्तिभद्र सूरि प्रादि विद्वान इसी के श्राश्रय में रहे हैं ।
चन्देल वंश में चलवंशीय राजा भी जैनधर्म के परम भक्त थे । खजुराहो के शान्तिनाथ मंदिर में आदिनाथ की विशाल प्रतिमा की प्रतिष्ठा विद्याधर देव के शासनकाल में हुई । देवगढ, महोबा, अजयगढ़, प्रहार, पपोरा, मदनपुरा धादि स्थान जैनधर्म के केन्द्र थे। ग्वालियर के कच्छपघट राजाओं ने भी जैन धर्म को खूब फलने-फूलने दिया ।
कलिंग राज्य प्रारम्भ से ही जैनधर्म का केन्द्र रहा है। जैनाचार्य प्रकलंक का बौद्धाचार्यो के साथ प्रसिद्ध शास्त्रार्थ यहीं हुआ । परन्तु उत्तरकाल में यहां जैनधर्म का ह्रास हो गया । कलचुरीवंश यद्यपि शैव धर्मालम्बी था पर उसने जैनधर्म और कला को पर्याप्त प्रतिष्ठित किया । कुरुपाद, रामगिरि, अचलपुर, जोगीमारा, कुण्डलपुर, कारंजा, एलोरा, धाराशिव, खनुपदमदेव आदि जैन धर्म के केन्द्र थे ।
गुजरात में भी प्रारम्भ से ही जैन धर्म का प्रचार-प्रसार रहा है। मान्यखेट के राष्ट्रकूट राजा जैनधर्म के प्रति अत्यन्त उदार थे । विशेषत: अमोघवर्ष और कर्क "ने यहाँ जैनधर्म को बहुत लोकप्रिय बनाया। गुजरात अन्हिलपाटन का सोलंकी वंश भी जैनधर्म का प्राश्रयदाता रहा। प्राबू का कलानिकेतन इस वंश के भीमदेव प्रथम के मंत्री और सेनानायक विमलशाह ने 1032 ई. में बनवाया। राजा जयसिंह ने महिल- पाटन को ज्ञान केन्द्र बनाकर प्राचार्य हेमचन्द्र को उसका कार्यभार सौंपा। हेमचन्द्र ने द्वाश्रय काव्य, सिद्धम व्याकरण प्रादि बीसों ग्रन्थ तथा बाग्भट्ट ने
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अलंकार ग्रन्थ इसी राजा के शासनकाल में लिखे । कुमारपाल भी इसी वंश का शासक था । वह निर्विवाद रूप से जैनधर्म का अनुयायी था । हेमचन्द्र प्राचार्य उसके गुरु थे घर भी अनेक मन्त्री, सामन्त प्रादि जैन थे । कुमारपाल के मन्त्री वस्तुपाल और तेजपाल का विशेष सम्बन्ध भाबू के जैन मन्दिरों के निर्माण से जुड़ा हुआ है ।
सिन्ध, काश्मीर, नेपाल, बंगाल में पालवंश का साम्राज्य रहा। वह बौद्ध धर्मावलम्बी था । उसके राजा देवपाल ने तो जैन कला केन्द्र भी नष्ट-भ्रष्ट किये । बंगाल में जैन धर्म का अस्तित्व 11-12 वीं शती तक विशेष रहा है ।
दक्षिण में पल्लव और पाल्य राज्य में प्रारम्भ में तो जैन धर्म उत्कर्ष पर रहा परन्तु शव धर्म के प्रभाव से बाद में उनके साहित्य और कला के केन्द्र नष्ट कर दिये गये । चोल राजा ( 985-1016 ई.) के समय यह अत्याचार कम हुआ । बाद में 'चालुक्य वंश ने जंन कला प्रौर साहित्य का प्रचार-प्रसार किया। इसी समय जैन महाकवि जोइन्दू, जटासिंहनन्ति, रविषेण, पद्मनन्दि, धनंजय, प्रार्यनन्दि, प्रभाचन्द्र, परवादिमल्ल प्रनन्तवीर्य, विद्यानन्दि प्रादि प्रसिद्ध जैनाचार्य हुए हैं जिन्होंने तमिल, कन्नड, संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश में जैन साहित्य का निर्माण किया । चामुण्डराय भी इसी समय हुआ जिसने श्रवणबेलगोल में 978 ई. में गोमटेश्वर बाहुबलि की विशाल उत्तुरंग प्रतिमा निर्मित करायी ।
राष्ट्रकूट वंश जैनधर्म का विशेष श्राश्रयदाता रहा है। स्वयं वीरसेन, जिमसेन, गुणभद्र, महावीराचार्य, पाल्यकीर्ति, पुष्पदन्त मादि जैनाचार्यों ने इसी राज्य काल में जैन साहित्य को रचा। कल्पारणी के कल्चुरीकाल में वासव ने जैन धर्म के सिद्धान्त मौर व धर्म की कतिपय परम्पराओं का मिश्रण कर 12वीं शती में लिंगायत धर्म की स्थापना की। उन्होंने जैनों पर कठोर अत्याचार किये। बाद में वैष्णवों ने भी उनके मन्दिर र पुस्तकालय जलाये । फलतः अधिकांश जैन शेव प्रथमा वैष्णव बन गये ।
अरबों, तुर्की धौर मुगलों के भीषण प्राक्रमणों से जैन साहित्य और मन्दिर भी बच नही सके । उन्हें या तो मिट्टी में मिला दिया गया अथवा वे मस्जिदों के रूप में परिणित कर दिये गये । इन्हीं परिस्थितियों के प्रभाव से भट्टारक प्रथा का विशेष प्रभ्युदय हुआ । मूर्ति पूजा का भी विरोध हुआ । लोदी वंश के राज्य काल
तारण स्वामी (1448-1515 ई.) हुए जिन्होंने मूर्तिपूजा का निषेध कर 'तारणतरण' पंथ प्रारम्भ किया। इस समय तक दिल्ली, जयपुर मादि स्थानों पर भटारक गद्दियां स्थापित हो चुकी थीं। सूरत, भडोच, ईडर आदि अनेक स्थानों पर भी इन भट्टारकी गद्दियों का निर्माण हो चुका था । माचार्य सकलकीर्ति, ब्रह्मजयसागर भादि विद्वान इसी समय हुए । इसी काल में प्रबन्धों और चरितों को सरल संस्कृत
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और हिन्दी में लिखकर जैन साहित्यकारों ने साहित्य के क्षेत्र में एक नयी परम्परा का सूत्रपात किया जिसका प्रभाव हिन्दी साहित्य पर काफी पड़ा ।
मुगलों के प्राक्रमणों से यद्यपि जैन साहित्य की बहुत हानि हुई फिर भी प्रकबर (1556-1605 ई.) जैसे महान शासकों ने जैनाचार्यों को सम्मानित किया। मध्यात्म शैली के प्रवर्तक बनारसीदास, पाड़े रूपचन्द, पांडे राममल्ल, ब्रह्मरायमल्ल, कवि परमल्ल प्रादि हिन्दी के जैन विद्वान इसी समय हुए । साहु टोडरमल प्रकवर की टकसाल के अध्यक्ष थे। प्रकवर के राज्य काल में हिन्दी जैन साहित्य की प्रभूत अभिवृद्धि हुई । जहांगीर के समय में भी रायमल्ल, ब्रह्मगुलाल, सुन्दरदास, भगवतीदास आदि अनेक प्रसिद्ध हिन्दी जैन साहित्यकार हए । रीतिकालीन साहित्य परम्परा के विपरीत भया भगवतीदास, मानंदघन, लक्षमीचन्द, जगतराय प्रादि जैन कवियों ने शान्त रस से परिपूर्ण विरागात्मक आध्यात्मिक साहित्य का सृजन किया । एक ओर जहाँ जेनेतर कवि तत्कालीन परिस्थितियों के वश मुगलों और अन्य राजामों को श्रृंगार और प्रेम-वासना के सागर में डबो रहे थे, वहीं दूसरी पोर जैन कवि ऐसे राजाओं की दूषित वृत्तियों को प्रध्यात्म और वैराग्य की ओर मोड़ने का प्रयत्न कर रहे थे। जैन धर्म, साहित्य और संस्कृति की यह अप्रतिम विशेषता थी। शान्तरम उसका अंगी रस था। समूचा साहित्य उससे प्राप्लावित रहा है। 3. बौद्धधर्म
सप्तम शताब्दी के पासनास तक बौद्ध धर्म हीनयान और महायान के रूप में देश-विदेशों में बंट गया था। साधारणत: दक्षिण में हीनयान और उत्तर में महायान का जोर था। भारत में इस समय महायानी परम्परा अधिक फली-फूली। महाराजा हर्षवर्धन संभवत: पहले हीनयानी थे और गद में महायानी बने । हयूनसांग ने इसी के राज्य काल में भारत यात्रा की थी। इस समय बौद्ध धर्म में अवनति के लक्षण दिखाई देने लगे थे। नालन्दा, बलभी आदि स्थान बौद्ध धर्म के केन्द्र बन चुके थे। हर्ष के बाद बौद्ध धर्म का पतन प्रारंभ हो गया।
___ यहाँ तक आते-पाते बुद्ध में लोकोत्तर तत्व निहित हो गये । श्रद्धा और भक्ति का मान्दोलन तीव्रतर हो गया। प्रवदान साहित्य और वैपुल्य सूत्र का निर्माण हो चुका था। सौत्रांतिक और वैभाषिक तया योगाचार-विज्ञानवाद पौर शून्यवाद-माध्यमिक सम्प्रदाय अपने दार्शनिक आयामों के साथ बढ़ रहे थे । प्रसंग, वसुबन्धु, दि नाग, धर्मकीर्ति, प्रज्ञाकर गुप्त, नागार्जुन, प्रार्यदेव, शान्तरक्षित मादि माचार्य अपनी साहित्यिक प्रतिभा का प्रदर्शन कर रहे थे। मात्मवाद मव्याकृत से लेकर अनात्मवाद अथवा निरात्मवाद बन गया । साधक प्रतीत्यसमुत्पाद से स्वभावशून्यता और गुण साधना की पोर बढ़ने लगे। निकायवाद का विकास हो गया । पारमितायें भी यथासमय बनने कमने लगी। 1. विशेष देखिए-अंन दर्शन एवं संस्कृति का इतिहास-डॉ. भागचन्द्र
भास्कर, पृ. 323-337,
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____महायानी सम्प्रदाय में इस प्रकार क्रान्तिकारी परिवर्तन हये । शान्त सम्प्रदाय का उस पर विशेष प्रभाव पड़ा । तदनुसार तंत्र, मंत्र, यंत्र, मुसा, भासन, चक्र, मंडल, स्त्री, मदिरा तथा मांस मादि वाममार्गी पाचरण बौद्ध धर्म में प्रचलित हो गये। शिव की पत्नि शक्ति की तरह प्रत्येकबुद्ध की भी शक्ति म पनि कल्पित हुई। इसकी तांत्रिक साधना में मैथुन को भी अध्यात्म से सम्बद्ध कर दिया गया। बंगाल में इसी को सहजमार्ग कहा जाता था इस तांत्रिक साधना ने बौद्ध धर्म को अप्रिय बना दिया। इसी समय मुसलमानों के प्राक्रमणों से भी बौद्ध धर्म को कठोर पक्का लगा । साथ ही नन्दिवर्धन पल्लवमल्ल के समय शंकराचार्य के प्रभाव से बौद्ध धर्म का निष्कासन हो गया। इन सभी कारणों से बौद्ध धर्म 11वीं, 12वीं शताब्दी तक अपनी जन्मभूमि से समाप्तप्राय हो गया। उत्तरकाल में एक तो वह विदेशों में फूला-फला और दूसरे भारत में उसने रूपान्तरणकर संतों को प्रभावित किया।
मध्यकालीन हिन्दी साहित्य पर बौद्ध धर्म का भी प्रभाव पड़ा है। मध्यकाल तक पाते-पाते यद्यपि बौद्ध धर्म मात्र ग्रन्थों तक सीमित रह गया था, पर बौद्धतर धर्म और साहित्य पर उसके प्रभाव को देखते हुए ऐसा लगता है कि बौद्ध धर्म को पूरी तरह से नष्ट नहीं किया जा सका। महाराष्ट्र के प्राचीन संतों पर और हिन्दी साहित्य की निर्गुणधारा के सन्तों पर इसका प्रभाव स्पष्ट रूप में देखा जा सकता है।
डा. त्रिगुणायत ने मध्यकालीन धार्मिक परिस्थितियों को दो भागों में विभाजित किया है-(1) सामान्य जनता में प्रचलित अनेक नास्तिक और प्रास्तिक पंथ पौर परतियां, (2) वे मास्तिक पद्धतियां जो उच्च वर्ग की जनता में मान्य थीं। इन धर्म पतियों के प्रवर्तक तथा प्रतिपादक अधिकतर शास्त्रज्ञ प्राचार्य लोग थे। मागे वे लिखते हैं, जगद्गुरू शंकराचार्य का उदय भारत के धार्मिक इतिहास में एक अत्यंत महत्वपूर्ण घटना है । उनके प्रभाव से सोया हुमा ब्राह्मण धर्म फिर एक बार जाग उठा । उसे उद्बुद्ध देखकर विलासप्रिय बौद्धधर्म के पैर उखड़ गये । शास्त्रज्ञ विद्वानों में उनका नाम कन्ह हो गया। समाज के नैतिक पतन का कारण बाम. मार्गीय दूषित बौर पद्धतियां ही थीं। मच्छा हुआ कि 11वीं शताब्दी के लगभग यवनों के प्रभाव से इन दूषित धर्मों के प्रति प्रतिक्रिया जाग्रत हो गयी और उत्तर भारत में माचरण प्रवण नाथ पंथ का तथा दक्षिण में वैष्णव और लिंगायत धादि पौ का उदय हो गया, नहीं तो भारत और भी अधिक दीनावस्था को पहंच मया होता । कबीर तथा उनके गुरु रामानन्द ने इस प्रतिक्रिया को और भी अधिक मूर्तरूप दिया। दूसरी पारा शास्त्रज्ञ प्राचार्यों की थी। इन प्राचार्यो का उदय शंकरा. चार्य की विचारधारा की प्रतिक्रिया के रूप में हुमा था। इन परवर्ती प्राचार्यों में रामानुजाचार्य, निम्बार्काचार्य, माध्वाचार्य तथा बल्लभाचार्य प्रमुख हैं । शंकराचार्य
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प्रवैत वैवान्त के प्रधान प्रतिपादक माने जाते हैं। उन्होंने ज्ञान को अधिक महत्व दिया । मध्यकालीन प्रायः सभी सन्त शंकर और रामानुज दोनों से प्रभावित हुए हैं। मध्यकालीन सन्तों पर रामानुज की भक्ति और प्रपत्ति का बहुत अधिक प्रभाव पड़ा है। माध्वाचार्य, निम्बार्काचार्य और वल्लभाचार्य की छाप सगुणोपासक कवियों और भक्तों पर दिखाई पड़ती है। इन प्राचार्यों के क्रमशः द्वैत, द्वैताद्वैत और शुद्धाद्वैत सिद्धान्तों ने हिन्दी साहित्य को काफी प्रभावित किया है।
जैनधर्म भी इन परिस्थितियों में अप्रभावित नहीं रह सका । उसके भक्ति आन्दोलन में और भी तीव्रता माई । निष्कल और सकल रूप, निर्गुण और सगुणधारा समान रूप से प्रवाहित हुई। प्राचीन जैन प्राचार्यों के अनुरूप जैन साधकों ने प्राध्यात्मिक किंवा रहस्य साधना की। उत्तरकाल में ये वैदिक संस्कृति से कुछ रूप लेकर साधना-क्षेत्र में उतरे।
3. सामाजिक पृष्ठभूमि मध्यकाल का समाज वर्ण व्यवस्था की कठोर भित्ति पर खड़ा था। उच्च वर्ण से निम्न वर्ण की पोर जाने की तो व्यवस्था थी पर निम्न वर्ण से उच्च वर्ण की ओर नहीं । शब्द मात्र जाति का सूचक नहीं रहा बल्कि उसे निम्न कोटि के व्यक्ति का प्रतीक माना जाने लगा। इस काल की स्मृतियों में सामाजिक नियमों का विधान किया गया । मुस्लिमों के आक्रमणों के कारण सामाजिक कट्टरता और अधिक बढ़ती गई। इसके बावजूद भारतीयता के नाते किसी में उसका विरोध करने की अमाा नहीं रही । इस्लाम में जातिगत विभिन्नता होते हुए भी सामाजिक व्यवस्था से प्रसन्तुष्ट व्यक्तियों के लिए इस्लाम का सहारा मिल गया।
इस समय धार्मिक स्वतंत्रता पर्याप्त रूप से दिखाई देती है । कोई भी व्यक्ति किसी धर्म को प्रगीकार करने के लिए स्वतन्त्र था। इसके बावजूद स्मृतिगत वर्ण व्यवस्था को अधिक रूप से स्वीकार किया गया। अनुलोम, प्रतिलोम विवाह भी होते थे। सती प्रथा भी उस समय प्रचलित थी। बहपत्नीत्व प्रथा होने से नारी की स्थिति दयनीय थी। उच्च कुलों में परदा प्रथा भी थी। कृषि कर्म प्रमुख व्यवसाय था और विशेषकर शूद्र वर्ग उसे किया करता था। सामाजिक रूढ़ियां विश्रृंखलित हो रही थीं। ज्ञानाश्रयी और प्रेमाश्रयी संतों ने भी सामाजिक बंधन तोड़नेतुड़ाने का साहस किया। इतने पर भी समाज स्मृति वर्णाश्रम व्यवस्था को अधिक उपयुक्त मानता था। इस समय स्वयंवर प्रथा भी प्रचलित थी, विशेषतः क्षत्रियों में 1 गंधर्व तपा राक्षस विवाहों को विहित-सा माना जाने लगा था।
1. कबीर की विचारधारा, पृ. 74-84.
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बैन धर्म मूलतः वर्ण पार जाति पर विश्वास नहीं करता । उसको वृष्टि व्यक्ति के स्वयं के कर्म उसके सुख दुःख के उत्तरदायी होते हैं। ईश्वर जगत का कर्ता, हर्ता, धर्ता, नहीं; वह तो मात्र अधिक से अधिक मार्गदर्शक का काम कर सकता है। इसलिए वैदिक संस्कृति के विपरीत श्रमण संस्कृति में वर्णव्यवस्था "जन्मना" न मानकर 'कर्मणा' मानी गई है । परन्तु नवम् शती में जैनाचायें जिनसेन ने वैदिक व्यवस्था में अन्य सामाजिक किंवा धार्मिक संकल्पों का जैनीकरण करके जैन धर्म और संस्कृति को वैविक धर्म और संस्कृति के साथ लाकर खड़ा कर दिया । तत्कालीन परिस्थितियों के संदर्भ में प्रस्तुत की गई इस व्यवस्था ने काफी लोकप्रियता प्राप्त कर ली। लगभग सौ वर्षों के बाद प्राचार्य सोमवेव ने उसके विरोध करने का साहस किया पर अन्तत: उन्हें जिनसेन के स्वर में ही अपना स्वा मिला देना पड़ा। वाद के जैनचार्यों ने जिनसेन और सोमदेव के द्वारा मान्य वर्णव्यवस्था को सहर्ष स्वीकार कर लिया। भट्टारक सम्प्रदाय में विशेष प्रगति हुई। प्राचार का परिपालन वहां कम होने लगा ओर बाह्य क्रियाकाण्ड बढ़ने लगा।
11-12 वीं शती से वैदिक और जैन समाज व्यवस्था में कोई बहुत अन्तर नहीं रहा । बौद्ध धर्म तो समाप्तप्राय हो गया पर जैन और बनेतर सम्प्रदाय बहलती हवा में फलते-फूलते रहे। अनेक प्रकार के समाज सुधारक अान्दोलन भी हुए। कविबर बनारसीदास की प्रध्यात्मिक शैली को भी हम इसी श्रेणी में रख सकते हैं ।
___इस सामाजिक पृष्ठभूमि में हिन्दी जैन साहित्य का निर्माण हुआ। कविवर बनारसीदास, मैया भगवतीदास. यानतराग जैसे अध्यात्मरसिक कवियों ने साहित्य साधना की। जैन समाज में प्रचलित अन्धविश्वामों और रुढ़ियों को उन्होंने समाप्त करने का प्रयत्म किया। ज्ञान का प्रचार किया और प्राचार से उसका समन्वय किया।
इधर जब वैष्णव सम्प्रदाय सामने पाया तो भक्ति और अहिंसा की पृष्फ. भूमि में उसका आचार-विचार बना। जैन धर्म का यह विशेष प्रभाव था। पूजा स्वाध्याय, योगसाधना मादि नैमित्तिक क्रियायें बनी। जैन-बौद्धों के चौबीस तीर्थंकरों के अनुसरण में उन्होंने चौबीस अवतार माने जिनमें ऋषभदेव और बुद्ध को दी सम्मिलित कर लिया गया । धीरे-धीरे वैष्णवी मूर्तियाँ भी बनने लगीं । वस्त्राभूषहीं से उनकी सज्जा भी होने लगी। भक्ति भाव के कारण भक्त राजे-महाराजों में मूर्तियों और मन्दिरों को सोने चान्दी से ढक दिया । फलतः भाक्रमणकारियों की लोलुपी प्रोखों से वे न बच सके। शंकर के मायावाद, रामानुजाचार्य के विशिष्टाद्वैतवाद, माधवाचार्य के द्वैतवाद और निम्बार्क के देवाद्ववबाद ने वेदान्त की सूत्रावलि से अध्यात्मवाद के बढ़ते हुए स्वर कुछ धीमे पड़ गये। बाद में हिन्दू और मुसलमानों
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में एकता प्रस्थापित करने के लिए अनेक प्रयल प्रारम्भ हुए । मुलुद्दीन पुस्ती धादि कुछ मुसलमान फकीरों में इस्लाम को भारतीयता के कांचे में डालने का प्रबल किया । जायसी से सूफी कवियों ने हिन्दी भाषा मे ग्रंथ लिखे और हिन्दी कवियों ने उर्दू भाषा में । निर्गुण और सगुण भक्ति प्रान्दोलन अधिक विकसित हुए।
पूर्वोत्तर भारत में स्वामी रामानन्द, और सन्त कबीर पंजाब में गुरुनानक, मध्यभारत में सन्त सुन्दरदास, महाराष्ट्र में शानदेव, नामदेव, तुकाराम और अनार थे। बंगाल में चैतन्यदेव, बिहार में विद्यापति ठाकुर, मुजरात में लोकोशाह और बुंदेलखंड में संत साये मीना ने जलन को गति प्रदान की । तत्कालीन परिस्थितियों के अनुसार उन्होंने समाज में व्याप्त भन्ध विश्वासों पोर कुरीतियों को दूर करने का भरपूर प्रयत्न किया । मूर्तिपूना, जाति-पाति और कर्मकान का अपनी-अपनी बोली में विरोध कर निर्गुण भक्ति का प्रचार किया तथा हिन्दू-मुस्लिम के बीच उत्पन्न खाई को पाटकर नया सांस्कृतिक संरचना में सराहनीय योगदान दिया।
मध्यकाल की उपयुक्त सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में जैन साहित्य और संस्कृति का क्षेत्र प्रप्रभावित नहीं रह सका । प्राचार्यों ने समय और प्रांवश्यकता के अनुसार अपनी सीमा के भीतर ही उसमें परिवर्तन-परिवर्धन किये, साहित्य की नयी विषायें प्रारम्भ की और प्राचीन विधाओं को विकसित किया। परमार्थ प्राप्ति के लिए वै सगुरण पोर निर्गुण भक्ति के माध्यम से रहस्य भावना को प्रांचल में बांधकर साहित्य के क्षेत्र में उतरे । जिनोदयसूरि बनारसीदास, मैया भगवतीदास, मानन्दधन, विनोदीलाल, बानतसंच, लक्ष्मीदास, पाण्डे लालचंद, दौलतराम, जिनसमुद्रहरि, जिनहर्ष-श्रादि शताधिक कपि इस क्षेत्र के जावस्यमान नक्षत्र रहे हैं जिन्होंने अपनी चिरन्तन जीवन हतियों में अध्यात्मरस को बड़े प्रभावक ढंग से प्रस्तुत किया है।
प्राधिकाल से मध्यकाल तक की इस यात्रा में हिन्दी जैन साहित्यकारों ने अनेक पड़ाव पायें, उन्हें सब किया पर फिर आगे चल पड़े। उनकी पति कहीं रुकी नहीं । साहित्य सम्पनों की प्रविरल धारा में उनका प्रध्यात्म सीकर सर्वच रहस्वभावना में मालाविस रहा है। इसी बाला में उन्होंने मई-माई मिलानों का सृजन किया, भाषा का विकास किया जिन्हें उत्तरकालीन सत्री ऋषियों ने प्रार स्वीकारा। मह तव्याने कृष्ट होता समा जागिा।
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द्वितीय परिवर्त
प्रादिकालीन हिन्दी जैन काव्य प्रवृत्तियाँ
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मध्यकाल संस्कृत और प्राकृत की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है । गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद बाण और श्रीहर्ष तक कान्यकुब्ज संस्कृत का प्रधान केन्द्र रहा । इसी तरह मान्यखेट, माहिष्मती, पट्टण, धारा, काशी, लक्ष्मणवती आदि नगर भी इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। इस काल में संस्कृत साहित्य पाण्डित्य प्रदर्शन तथा शास्त्रीय वाद-विवाद के पजड़े में पड़ गया। वहां भावपक्ष की अपेक्षा कला पक्ष पर अधिक जोर दिया गया । इसे हासोन्मुख काल की संज्ञा दी जाती है । उत्तरकाल में उसका कोई विकास नहीं हो सका।
इस युग में जिनभद्र, हरिभद्र, शीलांक, अभयदेव, मलयगिरि, हेमचन्द्र आदि का पूर्ण साहित्य, अमृतचन्द, जयसेन, मल्लिषेण, मेघनन्दन, सिद्धसेनसूरि, माघनंदि, जयशेखर, पाशाधर, रत्नमन्दिरगणी आदि का सिद्धान्त साहित्य, हरिभद्र, अंकलंक, विद्यान दि, मारिणक्यन दि, प्रभाचन्द, हेमचन्द, मल्लिषेण, यशोविजय आदि का न्याय साहित्य, अमितगति, सोमदेव, माघन दि, माशापर, वीरन दि, सोमप्रभमूरि, देवेन्द्रसूरि, राजमल्ल प्रादि का प्राचार साहित्य, प्रकलंक, वप्पिभट्टि, धनंजय, विद्यान दि, वादिराज, मानतुग, हेमचन्द, माशापर, पद्मन दि, दिवाकरमुनि मादि का भक्ति परक साहित्य, रविषेरण, जिनसेन, गुणभद्र, श्रीचन्द्र, दामनन्दि, मल्लिषेण, देवप्रमसूरि, हेमचन्द, पाशापर, जिनहर्षगणि, मेरुतुंगसूरि, विनयचन्दसूरि, गुणविजयगणि आदि का पौराणिक और ऐतिहासिक काव्य साहित्य, हरिषेण, प्रभाचन्द, सिर्षि, रस्नप्रभाचार्य, जिनरत्नसूरि, माणिक्यसूरि प्रादि का कथा साहित्य, संस्कृत भाषा में निबद्ध हुए । इसी तरह ललित, ज्योतिष, कोश, व्याकरण, आयुर्वेद, अलंकारशास्त्र आदि क्षेत्रों में जन कवियों ने संस्कृत भाषा के साहित्य भण्डार को भरपूर समृद्ध किया।
इसी युग में प्राकृत भाषा में भागमों पर भाष्य, चूरिण व टीका साहित्य लिखा गया । कर्म साहित्य के क्षेत्र में वीरसेन, जयसेन, नेमिचन्द सिद्धान्त चक्रवर्ती
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वीरवरविजय, चन्दसि महत्तर, गर्मर्षि, जिनबल्लभंगरिण, देवेन्द्रसूरि, हर्षकुलगरिए . शादि भावाय ने, सिद्धान्त के क्षेत्र में हरिभद्रसूरि, कुमार कार्तिकेय, शांतिसूरि, राजशेखरसूरि, जयबल्लभ, गुणरत्नविजय प्रादि भाचायों ने, भाचार व भक्ति के क्षेत्र मैं हरिभद्रसूरि वीरभद्र, देवेन्द्रसूरि वसुनदि, जिनप्रभसूरि, धर्मघोषसूरि श्रादि प्राचार्यो ने, पौराणिक और कथा के क्षेत्र में शीलाचार्य, भद्रेश्वरसूरि, सोमप्रभाचार्य, श्रीचन्दसूरि, लक्ष्मणगरिण, संघदासगरिण, धर्मदासगरिण, जयसिंहसूरि, देवभद्रसूरि, देवेन्द्रगरिण, रत्नशेखरसूरि, उद्योतनसूरि, गुणपालमुनि, देवेन्द्रसूरि प्रादि श्राचार्यों ने प्राकृत भाषा में Warfधक ग्रन्थ लिखे । लाक्षणिक, गणित, ज्योतिष, शिल्प श्रादि क्षेत्रों में भी प्राकृत भाषा को अपनाया गया जिसने हिन्दी के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया ।
प्राकृत के ही उत्तरवर्ती विकसित रूप अपभ्रंश ने तो हिन्दी साहित्य को सर्वाधिक प्रभावित किया है । स्वयंभू (7-8वीं शती) का पउमचरिउ और रिट्ठमिचरिउ, धवल (10-11वीं शती) और यशःकीर्ति ( 15वीं शती) के हरिवंशपुराण, पुष्पदत (10वीं शती) के तिसद्विपुरिसगुणालंकार ( महापुराण), जसहरचरिउ र गायकुमारचरिउ, धनपाल धक्कड़ (10वीं शती) का भविसयत्तकहा, कनकामर, ( 10वीं शती) का करकण्डु चरिउ, घाहिल ( 10वी शती) का पउम सिरिचरिउ, हरिदेव का मयणपराजय, धब्दुल रहमान का सदेसरासक, रामसिंह का पाहुड़दोहा, देवसेन का सावयवम्मदोहा आदि सैकड़ों ग्रन्थ अपभ्रंश में लिखे गये हैं जिन्होंने हिन्दी के प्रादिकाल और मध्यकाल को प्रभावित किया है। उनकी सहज-सरल भाषा स्वाभाविक वर्णन और सांस्कृतिक धरातल पर व्याख्यायित दार्शनिक सिद्धान्तों ने हिन्दी जैन साहित्य की समग्र कृतियों पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है । भाषिक परिवर्तन भी इन ग्रन्थों में सहजता पूर्वक देखा जा सकता है । हिन्दी के विकास की यह प्राथ कड़ी है । इसलिए अपभ्रंश की कतिपय मुख्य विशेषताओं की प्रोर ध्यान देना मावश्यक है ।
अपभ्रंश जिसे प्राभीरोक्ति, भ्रष्ट और देशी भाषा कहा गया है, भाषा होने के कारण उसके बोली रूपों में वैविष्य होना स्वाभाविक था । प्राकृत सर्वस्वकार मार्कण्डेय ने उसके तीन प्रमुख रूपों का उल्लेख किया है-नागर, ब्राचर तथा उपनागर | डॉ. याकोबी ने उसे उसरी, पश्चिमी, पूर्वी तथा दक्षिणी के रूपों में विभाजित किया है । डॉ. तगारे ने इस विभाजन को तीन भेदों में ही समाहितकर निम्न प्रकार से वर्णन किया है
1. पूर्वी अपभ्रंश-सरह तथा कण्ह के दोहाकोश और पर्यापदों की भाषा । इसे arrat ra' भी कहा जाता है, प. बंगला, उड़िया, भोजपुरी, ffeet भावि भाषायें इसी से निकली हैं।
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2. पुष्पदंत कृत, महापुरास, रोमकुमार सर, संतस्त्र एवं नासर के करकंबर की भाषा की सरी भेद इसी में गमित हो जाता है।
3. पश्चिमी प्रपत्र श-कालिदास, जोइन्दु, रामसिंह, धनपाल, हेमचन्द प्रादि की प्रपत्र से भाषा, जिसका रूप विक्रमोर्वशीय, सावयधम्म दोहा, पाहु दोहा, भविसयत्तकहा एवं हेमचन्द द्वारा उदभूत प्रपत्र श दोहीं आदि में उपलब्ध होता है । इसे नागर ने कहा जाता है। यह शौरसेनी प्राकृत संबद्ध भाषा थी । इसे परिनिष्ठित प्रकाश भी कहा जाता है ।
डॉ० भोलाशंकर व्यास ने जैसा कहा है, वस्तुतः लगभग 12वीं शती तक शौरसेनी (नागर) प्रपत्र श में ही साहित्य लिखा जाता रहा है। पुष्पदंत वगैरह कवियों की भाषा भी दक्षिणी न होकर पश्चिमी ही रही है। इसी शौरसेनी से पूर्वी राजस्थान, ब्रज, दिल्ली मेरठ प्रादि की बोलियों का विकास हुम्रा गुर्जर और अवन्ती की बोलियां भी इसी के रूप हैं ।
To व्यास ने शौरसेनी अपभ्रंश (नागर) की विशेषताओं को इस प्रकार से गिनाया है
1. स्वर और ध्वनियाँ :
(i) महाराष्ट्री प्राकृत के समान यहां हस्व ए और हस्व भो ध्वनियां पायी जाती है। जिन संस्कृत शब्दों में ए-ऐ तथा प्रोमो ध्वनियां
और उनके बाद संयुक्त व्यंजन श्रावें वे स्वर क्रमश: ह्रस्व ए (थ) व प्रो (माँ) हो जाते हैं। जैसे- पंक्ख (प्रेक्ष), सॉक्स जॉब्स में प्रथम स्वर हस्व (एकमात्रिक) है ।
=
(ii) ऋ, लृ, ऐ, श्री का प्रभाव है। ऐ, नौ की जगह अह उच्चरित
होने लगा ।
(iii) 'व' श्रुति का प्रयोग प्रपभ्रंश की अन्यतम विशेषता है जैसे -गायकुमार, जुयल । 'व' श्रुति भी जहां कहीं मिल जाती है । जैसे- संवंति, (रुति, सुभग) ।
सुहब,
(iv) अन्त्य स्वर की ह्रस्वीकरण - प्रवृत्ति । जैसे- कोइ, होइ ।
2. व्यंजन व्यनियाँ :
(i) स्वर के मध्य रहने वाले क्, त्, पू, का ग्, दू, बु, हो जाता है तथा खू, थू, फ्, का घ्, घ्, म्, हो जाता है। जैसे - मदकल (मयगल), विप्रियकारक (विपगार), सापराध (सम्वराह) ।
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(ii) पद के मादि में संयुक्त व्यंजन नहीं रखता, मात्र, ह, मह, ल्ह संयुक्त
ध्यनियाँ ही मादि में मा सकती हैं। इसकी प्रति के लिए हेमचन्द ने 'रफ' का मागम माना है। जैसे-व्यास (वासु), दृष्टि (ट्रेटि)। पर
इनका प्रयोग कम मिलता है। (iii) शोर ष का प्रयोग प्रायः समाप्त हो गया। य के स्थान पर 'ज' का
प्रयोग हुप्रा है। (iv ) संयुक्त-व्यंजन की संख्या मात्र 31 रह गई। (v) मध्यवर्ती 'म' का 'व' हो जाता है। प्रायः 'न' तन्सम शब्दों में
सुरक्षित रहता था पर तद्भव रूपों में एक साथ 'म', 'वे' दोनों रूप
मिलते हैं। जैसे-नाम-गांव, सामल-सविल । (vi) अन्त्य स्वर का हस्वीकरण ।
(i) अपभ्रंश में व्यंजनांत (हलन्त) शब्द नहीं मिलते हैं। जैसे मरण
(मनस्), जग (जग), पप्पण (प्रात्मन्) । इसलिए अपभ्रंश के सभी
शब्द स्वरांत होते हैं। (ii) लिंग की कोई विशेष व्यवस्था नहीं रहती, फिर भी साधारणतः
परम्परा का ध्यान रखा जाता रहा है। (iii) वचन दो ही होते हैं। विभक्तियां और शम्ब रूप (i) प्राकृत में चतुर्थी और षष्ठी का प्रभेद स्थापित हुमा था पर अपभ्रश
मे इसके साथ ही द्वितीया पौर चतुर्थी, सप्तमी और तृतीया, पंचमी तथा षष्ठी के एक वचन तथा प्रथमा एवं द्वितीया का भेद समाप्त
हो गया। ( i ) प्रथमा एकवचन मे प्राकृत का 'मो' वाला रूप पुत्सो तथा 'उ' वाले
रूप पुत्त, पुसुन रूप मिलते हैं। कहीं कहीं शूग विभक्ति रूप 'पुस'
भी मिलता है। (ii)प्रथमा तथा द्वितीया एकवचन में 'उ' विभक्ति चिन्ह मिलता है।
कहीं-कहीं 'अ' वाला रूप 'पुत्त' तथा शुख प्रतिपादिक रूप 'पुत' भी
मिल जाता है। (iv) अपमा-दितीया विभक्ति के बहुल्यम बों में 'मा' वाले कप 'पुत्ता'
तथा शून्य रूप 'पुस' भी मिलते हैं। (v ) तृतीया तथा सप्तमी एकवचन के रूप मिश्रित हो गये हैं । इसमें
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प्राकृत 'एण' वाले रूपों के अतिरिक्त 'इ' (पुत्ति), 'ए' (पुत्ते) तथा
'इ' (पुत्तइ) बाले रूप भी मिलते हैं । (vi) चतुर्थी, पंचमी तथा षष्ठी के रूप 'हु' तथा 'हो' चिन्ह वाले 'पुत्तहु',
'पुत्तहो' मिलते हैं । साथ ही 'पुत्तस्स' रूप भी देखा जाता है। (vii) तृतीया तथा सप्तमी बहुवचन में "हिं' वाले रूप अधिक पाये जाते हैं,
'पुत्तहि' (पुत्तहि) । तृतीया में 'एहिं' वाले रूप भी मिलते हैं-'पुलैहि' (viii) पंचमी और षष्ठी बहुवचन में पुतह, पुतहं जैसे रूप मिलते हैं। (ix) नपुसक लिंग के प्रथमा एवं द्वितीया बहुवचन में 'इ-ई' (फलाइ
फलाइ) वाले रूप होते हैं । (x) कारक में केवल तीन समूह शेष रह गये-(a) प्रथमा, द्वितीया, संबोधन,
(b) तृतीया, सप्तमी, और (c) चतुर्थी, पंचमी और षष्ठी। सर्वनाम: 'अस्मत्' शब्द के प्रथमा एकवचन में 'हउ', मइ-मई' और बहुवचन
में अम्हे, अम्हई, द्वितीया । (ii) तृतीया व सप्तमी में मए-मई, पंचमी-षष्ठी में महु-मझु, रूप मिलते
हैं । युष्मत् शब्द के प्रथमा के रूप तुहु-तुहं, द्वितीया-तृतीया के पइ. पई तई; पंचमी-षष्ठी में तुह-सुज्झ-तुज्झु तथा तत्-यत् ; के अपभ्रंश
रूप सो-जो मिलते है। धातु रूप :
(i) अपभ्रंश में प्रात्मने पद का प्रायः लोप हो गया है। (ii) दस गणों का भेद समाप्त हो गया । सभी धातु म्वादिगण के
धातुओं की तरह चलते हैं। (iii) लकारों में भी कमी पाई । भूतकाल के तीनों लकार अदृष्ट हो गये
तथा हेतु-हेतु मद्भूत भी नहीं दिखता। इनके स्थान पर भूतकालिक कृदन्त रूपों का प्रयोग पाया जाता है । मुख्यतः लट्, लोट् और लुट्,
लकार बच गये। (iv ) णिजंत रूप, नाम धातु, वि रूप तथा अनुकरणात्मक क्रिया रूप भी
पाए जाते हैं । धातु रूपों में वर्तमानकाल के उत्तम पुरुष एकवचन में 'उ' वाले रूप करऊ, बहुवचन में 'मो' व 'हुँ' बाले रूप; मध्यम पुरुष के एकवचन बहुवचन में क्रमशः सि.हि तथा हु वाले रूप; प्रत्य पुरुष एकवचन में इ-एइ (करइ-करेइ) और बहुवचन में न्ति-हिं
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(कति-कहि) for fह पाए जाते हैं। प्राशार्थक क्रिया रूपों में उत्तम पुरुष के रूप नहीं मिलते। मध्यम पुरुष एकवचन में विविध रूप पाए जाते हैं-शून्य रूप या धातुरूप (कर) उ, ६, ६, हि वाले रूप (करि, करु, करह, करहि करि हि), बहुवचन में है, हु, हो वाले रूप ( करह, करहु, करहो) पाए जाते हैं । अन्य पुरुष एकवचन में 'उ' चिन्ह ( करउ) पाया जाता है ।
(v) विध्यर्थ में ज्ज का प्रयोग मिलता है-करिज्जज, करिज्जहि, करिज्जहु प्रादि । इसका प्रयोग वर्तमान और भविष्य कालार्थ में भी होता है । (vi) भविष्यकाल के रूप वर्तमान कालिक रूपों पर प्राप्त हैं। इन रूपों के बीच में स, ह का प्रयोग होता है । 'ह' रूपों के साथ वर्तमान nifer firs प्रत्ययों का ही प्रयोग होता है ।
(vii) भूतकाल के लिए निष्ठा प्रत्यय से विकसित कृदन्त रूप कन, हुव प्रादि रूप उपलब्ध होते हैं ।
(viii) कर्मरिण प्रयोगों में इज्ज ( गरिएज्जइ, व्हाइज्जइ ) के साथ मन्य ति प्रत्ययों को जोड़ दिया जाता है ।
परसर्गो का उदय :
कहिम,
(i) अपभ्रंश के प्रमुख परसर्ग हैं--होन्त- होन्त उ-होन्ति, ठिउ, केरन - केर धौर तरण | सप्तमी वाले रूप के साथ 'ठिउ' का प्रयोग होने पर पंचम्यर्थ की प्रतीति होती है । केर या केरन परसर्ग का प्रयोग किसी वस्तु से सम्बद्ध होने के अर्थ मे पाया जाता है । षष्ठी विभक्ति के परसर्ग के रूप में इसका प्रयोग प्रपभ्रंश की ही विशेषता है। करणकारक के लिए सहूं, तरण, सम्प्रदान के लिए केहि, रेसि, अपादान के लिए होन्तउ, होन्त, थिउ, सम्बन्ध के लिए केरउ, केर, कर, की, का और सप्तमी के लिए मझ, महँ प्रादि परसगों का प्रयोग प्रारम्भ हो गया ।
वाक्य रचना :
(i) कारक- व्यत्यय अधिक देखा जाता है । षष्ठी का प्रयोग सभी कारकों के लिए हुआ है। सप्तमी का प्रयोग कर्म तथा करण के लिए पंचमी विभक्ति का प्रयोग करणकारक के लिए तथा द्वितीया का प्रयोग afreरण के लिए देखा जाता है ।
(ii) अपभ्रंश में निविभक्तिक पदों के प्रयोग के कारण वाक्य रचना निश्चित सी हो चली है।
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प्रारम्भिक हिन्दी प्रौर उत्तरकालीन हिन्दी पर इसका बहुत प्रभाव पड़ा हुआ है। हिन्दी का ढांचा अपभ्रंश की देन है। हिन्दी का परसगँ प्रयोग, निर्विभक्तिक रूपों की बहुलता, कर्मवाच्य तथा भाववाच्य प्रणाली के बीज अपभ्रंश में ही देखे जाते हैं । परवर्ती प्रपभ्रंश में स्थानीय भाषिक तत्व बढ़ते गये और लगभग तेरहवीं शती तक भाते भाते पूर्व-पश्चिम देशवर्ती बोलियां स्वतन्त्र रूप से खड़ी हो गई । गुजराती, मराठी, बंगला, राजस्थानी, ब्रज, मैथिली भादि क्षेत्रीय भाषाएँ इसी का परिणाम है। डॉ. नामवरसिंह ने इन भाषाओं के विकास में अपभ्रंश के योगदान 'की' पर्चा की है। उनके अनुसार यह योगदान निम्नलिखित रूप में देखा जा सकता है, विशेषत: मध्यकालीन हिन्दी के क्षेत्र में ।
1.
निविभक्ति पदों का उपयोग ।
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3.
4. हिन्ह विभक्ति का प्रयोग सामान्यतः कर्म, सम्प्रदान, करण, प्रधिकरण प्रो सम्बन्ध कारको में ।
5.
6.
उ विभक्ति का प्रयोग जिसका खड़ी बोली में लोप हो गया ।
करण, अधिकरण के साथ ही कर्म, सम्प्रदान और प्रपादान में भी हि-हि विभक्ति का प्रयोग ।
7.
8.
9.
10.
14.
15.
परसर्गों में सम्बन्ध कारक केरल, केर, कर, का, की, अधिकरण कारक मज्झे, मज्भु, माँझ, सम्प्रदान कारक केहि रेसि, तरण प्रमुख हैं । प्रयत्न लाघव प्रवृत्ति के कारण इन परसर्गों में घिसाव भी हुआ है ।
सार्वनामिक विशेषण -- जइसो, तइसो, कइसो, प्रइसो. एहउ । क्रमवाचक --- पढम, पहिल, बिय, दूज, तीज श्रादि । क्रिया - संहिति से व्यवहिति की प्रोर बढ़ी । तिङन्ततद्भव - पछि, भाछं, अहै-है; हुतो हो, था ।
11.
सामान्य वर्तमान काल --- ऐ (करें), ए (करे), श्रौं (बंदों) रूप । 12. सामान्य भविष्यत काल --- करिसइ, करिसहुँ, करिहर, करिहउँ आदि । वर्तमान प्राशार्थ -- सुमरि, बिलम्बु, करे जैसे रूप ।
13.
कृदन्त-तद्भव - करत, गयउ, कीनो, कियो आदि जैसे रूप | अव्यय - माज, प्रबर्हि, जांब, कहें, जहॅ, नाहि, लौं, जइ भादि ।
सर्वनाम हऊँ पोर हो ( उत्तम पु. एकव . ) हम (उ.पु. बहुव), मो श्रीर मोहि, मुझ-मुज्भु (सम्प्रदान), तुहुँ - तुतं- तू-तू-तई तै, तुम्ह तुम ( उत्तमपु.) तब-तो-तोहि-तोर तुम्भ (सम्बन्ध), मो-प्रो मोहु ( अन्य पु.), अप्पण -प्रापन, ary (fararas), एह-यह-ये- इस-इन ( निकट नि-स.), जो ( सम्बन्ध वाचक), काई - कवरण - कौन ( प्रश्न.), कोउ, कोक, (अति.) ।
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अपभ्रंश भाषा की सरह अपभ्रंश साहित्य ने भी हिन्दी, जैन व जैनेतर साहित्य को कम प्रभावित नहीं किया है। इसे समझने के लिए हमें सक्षप में अपना जन साहित्य पर एक दृष्टिपात करना आवश्यक होगा। यह साहित्य मुख्यतः प्रबन्धकाव्य, खण्डकाव्य और मुक्तककाव्य की प्रवृत्तियों से घुला हमा है। पुराणकाव्य और परितकाव्य संवैतात्मक हैं । यहाँ जैन महापुरुषों के चरित का पाख्यान करते हुए प्राध्यात्मिकता और काव्यस्व का समन्वय किया गया है। समूचे जैन साहित्य में ये दोनों तत्व मापादमग्न हैं।
अपभ्रश का प्रादिकाल भरत के नाट्यशास्त्र से प्रारम्भ होता है यहाँ छन्दःप्रकरण में उकार प्रवृत्ति देखी जाती है (मौरल्लउ, नच्चतंउ) पामे चलकर कालिदास तक आते-पाते इस प्रवृत्ति का और विकास हुआ। उनके विक्रमोर्वशीय में अपभ्रंश की विविध प्रवृत्तियां परिलक्षित होती हैं । संस्कृत-प्राकृत के छन्द तुकान्त नहीं थे। जबकि अपभ्रंस के छन्द तुकान्त मिलने लगे। गाथासे दोहा का विकास हमा । दण्डी के समय तक अपभ्रंश साहित्य अपने पूर्ण विकासकाल में प्रा एका था। साथ ही कुछ ऐसी प्रवृत्तियां भी बढ़ गई थीं जिनका सम्बन्ध हिन्दी के आदिकाल से हो जाता है । सम्भवतः इसी कारण से उद्योतन सूरि ने अपभ्रंश को संस्कृत-प्राकृत के शुद्धा-शुद्ध प्रयोगों से मुक्त माना है । कुवलयमाला से 'देसी भासा' के कुछ उदाहररण दिये भी जाते हैं जो नाटक साहित्य से लिए गए हैं। ताव इमं गीययं गीयं गामनडीए,
जो जसु माणूसु बल्लहउ तंजइ प्रण रमेह ।
जइ सो जाणइ जीव वि तो तहु पाण लएइ ।। नाटकों में भी अपभ्रंश का प्रयोग हुमा है । शूद्रक ने उसका प्रयोग हीन पात्रों के लिए किया है। वहां माथुर की उक्ति में उकार बहुलता दिखाई देती है। स्वयंभू, पुष्पदंत प्रादि की भी अपभ्रंश रचनाएँ हमारे सामने हैं. ही। इन्हीं रखनामों में देशी भाषा के भी कतिपय रूप दिखाई देते हैं । राष्ट्रकूट और पाल राजामों के माश्रय से अपभ्रश का विकास प्राधिक हुआ। इधर मम्मट (11वीं शती), वाग्भट (12वीं शती), अमरचन्द (13वीं शती), भोज, पावन्दवर्धन जैसे.प्रालंकारिकों ने मपभ्रश के दोहों को उदाहरणों के रूप में प्रस्तुत किया जो उस भाषा की महता की मोर स्पष्ट हुमित करते हैं । हेमचन्द (12वीं शती) द्वारा बल्लिखित दोहों को देखकर तो अपच के पारिणनि डॉ. रिचार्ड पोशेल भावविभोर हो गये और उन्हीं के माधार पर उन्होंने उसकी विशेषतामों का प्राकलन कर दिया जो माज भी यथावत है। दो. याकोबी ने भी 'भविसयसकहा' की भूमिका में अपनश साहित्य की विशेषताओं की भीर हमारा ध्यान प्राकर्षित किया है।
इन विदेशी विद्वानों के गहन अध्ययन के कारण हमारे देश के विद्वानों का भी ध्यान अपनी साहित्य की भोर माकर्षित मा चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, रावचंद
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शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, राहुल सांकृत्यायन, रामकुमार वर्मा, भोलाशंकर व्यास, नामवरसिंह, शिवप्रसादसिंह, रामचन्द तोमर, हीरालाल जैन भादि विद्वानों ने अपभ्रंश का अध्ययन किया और उसे पुरानी हिन्दी अथवा देशी भाषा कहकर सम्बोधित किया । सरहपा, कण्ह प्रादि बोद्ध संतों के स्वयंभू, पुष्पदंत आदि जौन विद्वानों और चन्द्रवरदाई तथा विद्यापति जैसे वैदिक कवियो ने भी इसको इसी रूप में देखा । अपभ्रंश और अवहट्ट ने हिन्दी के विकास में अनूठा योगदान दिया है । इसलिए हमने अपभ्रंश और अवहट्ट को हिन्दी के प्रादिकाल का प्रथमभाग तथा पुरानी हिन्दी को प्रादिकाल का द्वितीय भाग माना है ।
अपने कालान्तर में साहित्यिक रूप ले लिया और भाषा के विकास की गति के हिसाब से वह मागे बढ़ी जिसको प्रवहट्ट कहा गया। इसी को हम पुरानी हिन्दी कहना चाहेंगे । विद्वानों ने इसकी कालसीमा 11 वीं शती से 14 वीं शती तक रखी है। अब्दुल रहमान का संदेसरासक, शालिभद्र सूरि का बाहुबली रास, जिनपद्म सूरि का थूलिभट् फागु प्रादि रचनाएं इसी काल में आती हैं ।
इस काल की अवहट्ट किंवा पुरानी हिन्दी में सरलीकरण की प्रवृत्ति अधिक बढ़ गई । विभक्तियों का लोप-सा होने लगा । परसगों का प्रयोग बढ़ गया । ध्वनि परिवर्तन और रूप परिवर्तन तो इतना अधिक हुआ कि आधुनिक भाषात्रों के शब्दों के समीप तक पहुंचने का मार्ग स्पष्ट दिखाई देने लगा । विदेशी शब्दों का उपयोग बढ़ा । इल्ल, उल्ल प्रादि जैसे प्रत्ययों का प्रयोग अधिक होने लगा । संभवत: इसी - लिए डॉ. रामकुमार वर्मा ने अपभ्रंश साहित्य को भाषाकी दृष्टि से हिन्दी साहित्य के अन्तर्गत स्वीकार किया है । "चूंकि भाषा को साहित्य से पृथक् नहीं किया जा सकता इसलिए अपभ्रंश साहित्य भी हिन्दी साहित्य से सम्बद्ध होना चाहिये भले ही वह संक्रान्तिकालीन रहा है।" विद्वानों के इस मत को हम पूर्णतः स्वीकार नहीं कर सकते । हाँ, प्रवृतियों के सन्दर्भ में उसका प्राकलन अवश्य किया जा सकता है ।
जैसा हम पहले लिख चुके हैं, प्रादिकाल का काल निर्धारण और उसकी प्रामाणिक रचनाएं एक विवाद का विषय रहा है। जार्ज ग्रियर्सन से लेकर गणपति चन्द्र गुप्त तक इस विवाद ने अनेक मुद्दे बनाये पर उनका समाधान एक मत से कहीं नहीं हो पाया। जार्ज ग्रियर्सन ने चारणकाल (700-1300 ई.) की संज्ञा देकर उसके जिन नौ कवियों का उल्लेख किया है उनमें चन्दवरदायी को छोड़कर शेष कवियों की रचनायें ही उपलब्ध नहीं होतीं । इसके बाद मिश्रबन्धों ने "मिश्र वन्धु विनोद" के प्रथम संस्करण में इस काल को प्रारम्भिक काल (सं. 700-1444 ) कह कर उसमे 19 कवियों को स्थान दिया है । पर उन पर मन्थन होने के बाद प्रधिकांश कवि प्रामाणिकता की सीमा से बाहर हो जाते हैं । श्राचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने इतिहास में प्रादिकाल को दो भागों में विभाजित किया- अपभ्रंश और देश भाषा की रचनाएं। इनमें जैन काव्यों को कोई स्थान नहीं दिया गया। डॉ.
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रामकुमार वर्मा ने भी हिन्दी साहित्य के प्रारम्भिक काल को दो खण्डों में विभाजित किया- संधिकाल (सं. 750-1200) एवं चारणकाल (1000-1375सं.)। इसमें जैन साहित्य को समाहित करने का प्रयल हमा है। उन्होंने उसे दो वर्गों में विभक्त किया है। साहित्यिक अपभ्रश रचनाएं, और (2) अपभ्रश परवर्ती लोक भाषा या प्रारम्भिक हिन्दी रचनाए। प्रथम वर्ग में स्वयंभूदेव, देवसेन, पुष्पदंत, धनपाल, मुनि रामसिंह, अभयदेव मूरि, चन्द्रमुनि, कनकामर मुनि, नयनन्दि, जिनदत सूरि, योगचन्द्र, हेमचन्द्र, हरिभद्रसूरि, सोमप्रभ सूरि, मेरुतुग मादि कवियों की रचनाएं पाती हैं और द्वितीय वर्ग में शालिभद्र सूरि, जिनपद्म सूरि, विनयचन्द्र सूरि, धर्मसूरि, विजयसेन सूरि, अम्बदेव सूरि, राजशेखर सरि, प्रादि कवियों की रचनायों को स्थान दिया गया है । इन कवियों का काल 8 वीं शदी से 14 वीं शवी तक प्राता है । डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भी हिन्दी साहित्य के मादिकाल' में जैन, सिद्ध एवं नाय साहित्य को स्थान देना उचित नहीं समझा। फिर भी उन्होंने हिन्दी को अपभ्रंश साहित्य से अभिन्न माना है । हिन्दी साहित्य के वैज्ञानिक इतिहास में इस संदर्भ में कुछ प्रयास अवश्य हुआ है पर उसमे भी कुछ उत्तम कोटि की रचनाए रह गई हैं । अगर चन्द नाहटा ने "प्राचीन काव्यों की रूप परंपरा में प्रादिकालीन हिन्दी जैन साहित्य की परवर्ती रचनाओं को समाहित का करने प्रयत्न किया है । इधर इस काल की विविध विधाओं पर स्वतन्त्र रूप से भी काफी काम हुआ है। गोविन्द रजनीश, नरेन्द्र भानावत, महेन्द्र सागर प्रचण्डिया, पुरुषोत्तम मेनारिया, शम्भूनाथ पाण्डेय, भोलाशंकर व्यास, वासुदेव सिंह, पुरुषोत्तम प्रसाद प्रासोया, रामगोपाल शर्मा 'दिनेश' परमानन्द शास्त्री, गणपतिचन्द्र गुप्त, डॉ. हरीश प्रादि विद्वानों के कार्य इस संदर्भ में उल्लेखनीय हैं । गणपति चन्द्र गुप्त ने "मादिकाल की प्रामाणिक रचनाएं" पुस्तक में इस काल के हिन्दी जैन साहित्य को अच्छे ढंग से समायोजित किया है।
__यहां हम इन सभी विद्वानों द्वारा उल्लिखित रचनामों के आधार पर हिन्दी की प्रादिकालीन जैन कृतियों पर संक्षिप्त प्रकाश डाल रहे हैं । इस संदर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि स्वयंभू, पुष्पदन्त प्रादि अपभ्रंश कवियों के ग्रंथों को भी हमने इस काल में समेटा है । यह इसलिए कि इस काल में लोकभाषा के प्रचलित तत्व इन ग्रन्थों में यत्र-तत्र उभर पाये हैं। इसी काल के द्वितीय भाग में ये तस्व माधुनिक हिन्दी के काफी नजदीक आते दिखाई देते हैं । कुछ विद्वानों ने इसे अवहट्ट का रूप कहा है और कुछ ने देशी भाषा का। हम इसे प्रादिकालीन ही कहना उपयुक्त समझते हैं। भाषाविज्ञान की दृष्टि से यद्यपि अपभ्रंश और हिन्दी को पृथक-पृथक् माना जाता है और माना जाना चाहिये । पर कि हिन्दी की संरचना में अपनश काल में प्रचलित देशी भाषा के तत्वों ने विशेष योगदान दिया है वो
1. हिन्दी साहित्य, पृ. 15,
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संदर्भ में
साहित्य में परिलक्षित होता है। इसीलिए हमने विकास को दोना को स्वयंभू से प्रारम्भ करने का सुझाव दिया है। वैसे हिन्दी का यह माविका सही रूप में मुनि शालिभद्र सूरि से प्रारम्भ होता है जिन्होंने भरतेश्वर बाहुबली रास (वि. सं. 1241 सन् 1184) लिखा है । यह रचना इस हिम से प्रथम मानी जा सकती है। श्री अगरचन्द नाहटा ने वासेन और विरचित भरतेश्वर बाहुबली धोर को प्रथम रचना मानने का प्राग्रह किया है पर वह मन्त संक्षप्ति होने के कारण प्रातिनिधिक रचना नहीं कहीं जा सकती। डॉ. विनेश ने सरहपा को हिन्दी का प्रथमतम कवि प्रस्थापित करने का प्रयत्न किया है पर अपने पक्ष में प्रस्तुत तर्क तो फिर स्वयंभू को प्रथमतम कवि मानने को बाध्य कर देते हैं। यहां हमने इन दोनों मतों को समाहितकर हिन्दी के प्रादिकाल को दो भागों में विभाजित किया है प्रथम अपभ्रंश बहुल हिन्दी काल और दूसरा प्रारम्भिक हिन्दी काल प्रथम काल माग का प्रारम्भ स्वयंभू से होता है और दूसरे को शालि भद्र सूरि से प्रारम्भ किया है ।
स्वयंभू मापनीय संघ के प्राचार्य थे । वे कोसल के मूल निवासी थे पर उनका कार्य क्षेत्र मान्यखेट अधिक रहा जहां वे राष्ट्रकूट राजा ध्रुव (वि. सं. 837-851) के मंत्री रयडा धनंजय के प्राग्रह पर पहुंचे। स्वयंभू के दो ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं- पउमचरिउ और रिट्ठमिचरिउ (हरिवंश पुराण) । इन दोनों के अन्तिम भागों को ये पूरा नहीं कर सके। उन्हें पूरा किया उनके कनिष्ठ पुत्र त्रिभुवन स्वयंभू ने । ब्राह्मण परम्परा में पले-पुसे कवि ने जैन परम्परा को स्वीकारा और उसी के अनुरूप ग्रन्थ रचना की । अलौकिकता से दूर उनके ग्रन्थ राम, कृष्ण, परिष्टनेमि जैसे महापुरुषों की मानवीय दुर्बलताओं को अभिव्यक्त करने में संकोच का अनुभव नहीं करते । संस्कृत काव्य परम्परा से जुड़े हुये इन अलंकृत काव्यों में सभी रसों का समान प्रवाह हुआ है । इन काव्यों की भाषा में लीक भाषा का भी प्रयोग काफी हुआ है। सेहरु, घवघवंति, घोलइ, भिडिय, खलद, बलद, गुंजा, आदि जैसे शब्द प्रारम्भिक हिन्दी की ओर यात्रा करते हुए प्रतीत होते हैं। उदाहरणतः ---
तो भिडिय परोप्परु रणकुसल । विषिण वि सव- गाय सहास बन । विवि गिरि तुरंग सिंग- सिहर । विष्णि वि जल-हरख यहिर-जिर ॥ (हरिवंशपुरा)
स्वयंभू के बाद पुष्पवंत प्रपभ्रंश भाषा के द्वितीय कवि हुये । वे सूतः बन या (दिल्ली) के मास पास के निवासी काश्ययोत्री दादा मोर उपासक थे । पर बाद में जेवी हो गये। इन्हें भी डाट राजा कृष्ण तृतीय (सं. 996-1025) के मंत्री भरत और उसके पुत्र वश का द्याय मिला था । प्रकृति से स्वाभिमानी होने के कारण वे प्रापतियों के शिकार
रहे।
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संस्कृत काव्य परम्परा से प्रभाषित होने के कारण . भवालों में इन्द संस्कृत की, भवभूति कहा है । कवि की विशिष्ट रचनाएं तान है। (1) तिसाद मह्मपरिस गुणालेकार (महापुराण), (2) रणायकुमार चरित, और (3) असहर चरित । महापुराण में 63 शलाका महापुरुषों का चरित्र चित्रण है। स्वयंभू नै विमलर की परम्परा का पोषण किया तो पुष्पदंत ने गुणभद्र के उत्तरपुराण की परम्परा की अनुसरण किया। वर्णन के संदर्भ में उन पर त्रिविक्रम भद्र का प्रभाव परिलक्षित होता है । णायकुमार चरित में श्रुतपंचमी के माहात्म्य को स्पष्ट करते हो मगध राजकुमार नागकुमार की कथा निबद्ध है। तृतीय पंथ जसहर चरित प्रसिद्ध यशोधर कथा का पाल्पान करता है । वाणिक और मात्रिक दोनों तरह के छ को प्रयोग हुन्मा है । भाषा के विकास की दृष्टि से अधोलिखित कडवक देखिए।
जलु गलइ, झल झलइ । दरि भरइ, सार सरह। तडयडई, तडि पडइ, गिरि फुडइ, सिहि गइइ ॥ मरु बलइ, तरु धुलइ । जलु थलुवि गोउलु वि। गिरु रसिउ, भय तसिउ । थर हरइ, किर भरइ ।।
(महापुराण) इसके बाद मुनि कनकामर (112 : सं.) का करकंडु चरि ज, यदि (सं. 1150) का सुदंसण चरिउ, धक्कड़वंशीय धनपाल की भक्सियत्त कहा, पाहिल का पउमसिरि चरिउ, हरिभद्र सूरि का मिणाह चरिउ, यशः कीति का चन्दप्पाह चरित मादि जैसे कथा और चरित काव्यों में हिन्दी के विकास का इतिहास विपा हुआ है। इन कथा चरित काव्यों में जैनाचार्यों ने व्यक्ति के सहज विकास को प्रस्तुत किया है और काल्पनिकता से दूर हटकर प्रगतिवादी तथा मानवतावादी दृष्टिकोए अपनाया है।
प्रध्यात्मवादी कवियों में दसवीं शताब्दी के देवसेन और जोइन्दु तथा रामसिद्ध का नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। देवमेन का सावय धम्म दोहा श्रावों के लिये नीतिपरक उपदेश प्रस्तुत करता है । जोइन्दु के परमात्मप्रकाश और योगसार में सरल भाषा में संसारी मात्मा को परमात्मपद प्राप्ति का मार्ग बताया स्या है। रामसिंह ने पाहुड़ दोहा में सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के व्यावहारिक स्वरूप को प्रतिपादित किया है । इन तीनों प्राचार्यों के ग्रन्थों की भाषा हिन्दी के मादिकाल की पोर झुकती हुई दिखायी देती है। हेमचन्द (1088-11728) सकाते-पाते यह प्रवृत्ति पौर अधिक परिलक्षित होने लगती है---
... भल्ला हुमा जो मारिमा, बहिणि म्हारा कंतु । ____ लज्जेज्जन्तु वयंसियत, जइ भग्म पर एंतु ॥
हिन्दी के मादिकाल को अधिकांश रूम में जैन कवियों ने समुद्र किया है। इनमें मुजराती और राजस्थानी कत्रियों का विशेष योगदान रहा है। पारिवाल के एम
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हिन्दी कवि के रूम में भरतेश्वर बाहुबली के रचयिता (सं. 1241) शालिभद्र सूरि को स्वीकार किया जाने लगा है। यह रचना पश्चिमी राजस्थानी की है जिसमें प्राचीन हिन्दी का रूप उद्घाटित हुआ है। इसमें 203 छन्द है। कथा का विभाजन वस्तु, ठवणि, पउल, चूटक में किया गया है । नाटकीय संवाद सरस, सरल पोर प्रभावक हैं । भाषा की सरलता उदाहरणीय है
चन्द्र धूड विज्जाहर राउ, तिरिण वातई मनि विहीय विसाउ । हा कुल मण्डण हा कृलवीर, हा समरंगणि साहस धीर ॥ ठवणि 13 ॥
जिनदत्त सूरि के चर्चरी उपदेश, रसावनरास और काल स्वरूप कुलकम अपभ्रंश की दृष्टि से उल्लेखनीय हैं । कवि प्रासिग का जीवदया रास (वि. सं. 1257, सन् 1200) यद्यपि प्राकार में छोटा है पर प्रकार की दृष्टि से उपेक्षणीय नहीं कहा जा सकता। इसमें संसार का सुन्दर चित्रण हुमा है। इन्हीं कवि का चन्दनवाला रास है जिसमें उसने नारी की संवेदना को बड़े ही सरस ढंग से उकेरा है, अभिव्यक्त किया है । भाषा की दृष्टि से देखिये
मुभर भोली ता सुकुमाला, नाउ दीन्हु तसु चंदरण बाला ॥ 21 ॥
आघो खंडा तप किया, किव प्राभइ बह सुकाव निहाणु ।। 26 ।।
विजयसेन सरि का रेवंतगिरि रास (वि. सं. 1287, सन् 1230) ऐतिहासिक रास है जिसमें रेवंतगिरि जैन तीर्थ यात्रा का वर्णन है। यह चार कडवों में विभक्त है । इसमें वस्तुपाल, तेजपाल के संघ द्वारा तीर्थकर नेमिनाथ की मूर्ति-प्रतिष्ठा का गीतिपरक वर्णन है । भाषा प्राजल और शैली अाकर्षक है । इसी तरह सुमतिगणि का नेमिनाथ रास (सं 1295), देवेन्द्र सूरि का गयसुकुमाल रास (सं. 1300), पल्हरण का माबुरास (13 वीं शती), प्रज्ञातिलक का कल्ली रास (सं. 1363), अम्बदेव का समरा रासु (सं. 1373) शालिभद्र सूरि का पंचपांडव चरित रास (स. 1410), विनयप्रभ का गौतम स्वामी रास (सं. 1412), देव. प्रभ का कुमारपाल रास (सं. 1450), मादि कृतियां विशेष उल्लेखनीय हैं। इस काल की कुछ फागु कृतियां भी इसमें सम्मिलित की जा सकती हैं। इन फागु कृतियों में जिनपद्म की सिरि थूलिभद्द फागु (सं. 1390), राजशेखर सूरि का नेमिनाथ फागु (सं. 1405), कतिपय अज्ञात कवियों की जिन चन्द्र सूरि फागु (सं. 1341), व वसन्त विलास फागु सं. 1400) का भी उल्लेख करना प्रावश्यक है। भाषा की दृष्टि यहां देखिए कितना सामीप्य है
सोम मरुव धूव परिणाविय, जायवि तहि जन्न तह माविय । नच्चइ हरिसिय वजहिं तूरा, देवइ ताम्ब मपोरह पूरा ॥
गय सुकुमाल रास | 22 । मेरु ठामह न चलइ जाव, जां चंद दिवापर । सेषुनागु जां घरह भूमि जो सासई सायर ॥
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धम्मह विसउ जो जगह मही, पौर निश्चल होए। कूमरउ रायहं तरउ रासु ता नंदउ लोए ॥
-कुमारपाल रास प्रादिकाल की इस भाषिक पौर साहित्यिक प्रवृत्ति ने मध्यकालीन कवियों को बेहद प्रभावित किया । विषय, भाषा शैली और परम्परा का अनुसरण कर उन्होंने माध्यास्मिक और भक्ति मूलक रचनाएं लिखीं। इन रचनामों में उन्होंने मादिकालीन काव्य शैलियों और काव्य रूडियों का भी भरसक उपयोग किया। हिन्दी के प्राण्यानक काव्य अपभ्रंश साहित्य में प्रथित लोक कथानों पर खड़े हुए हैं। देवसेन, जोइन्दु और रामसिंह जैसे रहस्यवादी जैन कवियों के प्रभाव को हिन्दी संत साहित्य पर आसानी से देखा जा सकता है । भाषा, छन्द, विधान और काव्य रूपों की दृष्टि से भी अपभ्रश काव्यमत वस्तु वर्णन और प्रकृति चित्रण उत्तरकालीन हिन्दी कवियों के लिए उपजीवक सिद्ध हुये हैं । जायसी पोर तुलसी पर उनका अमिट प्रभाव दृष्टव्य है । छन्दविधान, काव्य और कथानक रूढ़ियों के क्षेत्र में यह प्रभाव अधिक देखा जाता है । प्रभाव ही क्या प्रायः समूचा हिन्दी जैन साहित्य अपभ्रंश साहित्य की रूढ़ियों पर लिखा गया है।
इस प्रकार अपभ्रंश और अवहट्ट से संक्रमित होकर मादिकालीन हिन्दी जैन साहित्य प्राचीन दाय के साथ सतत बढ़ता रहा और मध्यकालीन हिन्दी जैन साहित्य को वह परम्परा सौंप दी । मध्यकालीन हिन्दी जैन कवियों ने अपभ्रंश भाषा और साहित्य की लगभग सभी विशेषतामों का प्राचमन किया और उन्हें सुनियोजित ढंग से संवारा, बढ़ाया और समृद्ध किया । इस प्रवृत्ति में जैन कवियों ने मादान-प्रदान करते हुए कतिपय नये मानों को भी प्रस्तुत किया है जो कालान्तर में विधा के रूप में स्वीकृत हुए हैं। यही उनका योगदान है।
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तृतीय परिवर्त
मध्यकालीन हिन्दी जैन काव्य प्रवृत्तियां
fare पृष्ठों में हमने हिन्दी के मध्ययुग का काल क्षेत्र घोर सांस्कृतिक तथा भाषिक पृष्ठभूमि का संक्षिप्त अवलोकन किया । इस सन्दर्भ में विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि इतिहासकारों ने हिन्दी साहित्य के मध्यकाल को पूर्व मध्यकाल (भक्तिकाल ) और उत्तर मध्यकाल (रीतिकाल ) के रूप में वर्गीकृत करने का प्रयत्न किया है। चूंकि भक्तिकाल में निर्गुण और सगुण विचारधारायें समानान्तर रूप से प्रवाहित होती रही हैं तथा रीतिकाल में भक्ति सम्बन्धी रचनायें उपलब्ध होती हैं, अतः इस मध्यकाल का धारागत विभाजन न करके काव्य प्रवृत्यात्मक वर्गीकरण करना अधिक सार्थक लगता है। जैन साहित्य का उपर्युक्त विभाजन और भी सम्भव नहीं क्योंकि वहां भक्ति से सम्बद्ध अनेक धारायें मध्यकाल के प्रारम्भ से लेकर अन्त तक निर्वाध रूप से प्रवाहित होती रही हैं। इतना ही नहीं, भक्ति का काव्य-स्रोत जैन प्राचार्यों और कवियों की लेखनी से हिन्दी के श्रादिकाल में भी प्रवाहित हुआ है। अतः हिन्दी के मध्ययुगीन जैन काव्यों का वर्गीकरण कलात्मक न होकर प्रवृत्यात्मक किया जाना अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है ।
जैन कवियों और प्राचार्यों ने मध्यकाल की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में पेठकर अनेक साहित्यिक विधाओं को प्रस्फुटित किया है । उनकी इस प्रभिव्यक्ति को हम निम्नांकित काव्य रूपों में वर्गीकृत कर सकते हैं ।
1. प्रबन्ध काव्य --- महाकाव्य, खण्डकाव्य, पुराण, कथा चरित, रासा, संधि आदि ।
2. रूपक काव्य --- होली, विवाहलो, चेतनकर्मचरित प्रादि ।
3. अध्यात्म और भक्तिमूलक काव्य-स्तवन, पूजा, चौपई, जयमाल, चांचर, फागु, चुनड़ी, वेलि, संख्यात्मक, बारहमासा भादि ।
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4. गीतिकाव्य, और
5. प्रीतिमा को प्रात्यारित गुर्वावली
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श्री arred नाहटा ने भाषा काव्यों का परिचय प्रस्तुत करने के प्रसंग में उनकी विविध संज्ञाओं की एक सूची प्रस्तुत की है' - 1. रास, 2. संधि, 3. चौपाई 4. फागु, 5. धमाल, 6, विवाहलों, 7. 8. मंगल, 9. वैलि, 10. सलोक, 11. संवाद, 12. वाद, 13. झगड़ी, 14 मातृका, 15. वावनी, 16. कुक्क, 17. बारहमासा, 18. चौमासा, 19. पवाड़ा, 20. चचेरी (चाचार), 21. जन्माभिषेक, 22. कलश, 23. तीर्थमाला. 24. चैत्यपरिपार्टी. 25. संघवन, 26. ढाल, 27. ढालिया, 28. चौढालिया, 29. छढालिया 30. प्रबन्ध, 31. चरित, 32. सम्बन्ध, 33. आख्यान. 34. कथा, 35. सतक, 36. बहोत्तरी, 37. छत्तीसी, 38. ससरी, 39. बलासी, 40. इक्कीसो, 41 इकतीसो, 42. चौबीसी, 43. बीमी, 44: भ्रष्टक, 45. स्तुति, 46. स्तवन, 47. स्तोत्र. 48. गीते, 49. समभाव, 50: चैत्यवंदन, 51. देवबंदन, 52 वीनती, 53 नमस्कार, 51. प्रभाती, 55. मंगल, 56. सांझ, 57. बघावा, 58. महूली, 59 हीयाली, 60. गूढा, 61. गजल, 62. लावणी, 63. छंद, 64. नीसाथी, 65. नवरसी, 66. प्रवहरण, 67. पारण, 68. बाण, 69. पट्टावली, 70. गुणवली, 71. हमचड़ी, 72. ह्रौंच, 73. मालामालिका, 74 नाममाना, 75. रागमाला, 76. कुलक, 77. पूजा, 78. गीता, 79. पट्टाभिषेक, 80. निर्वाण, 81. संयमत्री विवाह वर्णन, 82. भास, 83. पद, 84. मंजरी, 85. रसावलो, 86. रसायन, 87. रसलहरी, 88. चंद्रावला, 69. दीपक, 90. प्रदीपिका, 91. फुलडा, 92. जोड़, 93. परिक्रम, 94. कल्पलता 95. लेख, 96. विरुद्ध, 97. मूकड़ी, 98. सत, 99. प्रकाश, 100. होरी 101 तक 102 तर निस्की, 193. चौक, 104. हुंडी, 1905 इण 106, faxım, 107. m, 108, at 109. gawin, 110, grofert, 111. रसोई, 112. का 113. भूखसत 114. जकड़ी, 115. दोहा, 116. कुंडलियर. 115. छप्पयादि ।
मध्यकालीन जैन काव्य की इन प्रवृत्तियों को समीक्षात्मक दृष्टिकोण देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि सभी प्रवृत्तियाँ मूलत: श्राध्यात्मिक उद्देश्य को लेकर प्रस्तुत हुई है। जहाँ माध्यात्मिक उद्देश्य प्रभाव हो जाता है, वहां स्वभावतः कवि की लेखनी आलंकारिक न होकर स्वाभाविक और सात्विक ही जाती है। कामूक रहस्यात्मक मोर भक्ति करता रहा है।
1, दिन
की स्व-परम्परा-धरचंद नाह, भारतीय मंदिर शोध प्रतिष्ठान बीकानेर, 1962 1
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1. प्रबन्ध काव्य :
प्रबन्ध काव्य के अन्तर्गत महाकाव्य श्रीर खण्डकाव्य दोनों भाते हैं। यहां उनके स्वरूप का विश्लेषण करना हमारा प्रभीष्ट नहीं है पर इतना कथन प्रवश्यक है कि उनके प्रख्यानों का वस्तु-तत्व पौराणिक, निजन्धरी, समसामयिक तथा कल्पित होता है । उनमें लोकतत्व का प्राधान्य रहता है । लोकतत्व गाथात्मक और कथात्मक रहता है। उनके पीछे धार्मिक अनुश्रुतियां, इतिहास और मान्यतायें छिपी रहती हैं। सृष्टि, लय, वंशपरम्परा, मन्वन्तर और विशिष्ट वंशों में होने वाले महापुरुषों का चरित ये पांच विषय पौराणिक सीमा में प्राते हैं।
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सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च । वंशानुचरितं चैव पुराणं पंच लक्षणम् ॥
कवियों ने जैन धर्म और
जैन साहित्य में प्रबन्धकाव्य की परम्परा आदिकाल से ही प्रवाहित होती रही है । जैन प्राचार्यों ने 63 शलाका महापुरुषों के चित्रांकन को अपना विशेष लक्ष्य बनाया है । उनकी जीवन गाथाधों के माध्यम से दर्शन सम्बन्धी विचार अभिव्यक्त किये हैं। इसके बावजूद क्रमबद्धता, गतिशीलता और भावव्यंजना में किसी प्रकार की ने भाषा के क्षेत्र में राजस्थानी, गुजराती और ब्रजभाषा के मिश्रित रूप का प्रयोग किया है । भाव, भाषा और शैली की दृष्टि से ये काव्य जायसी और तुलसी के काव्यों से हीन नहीं हैं बल्कि कहीं-कहीं तो ऐसा लगता है कि जायसी और तुलसी ने प्राचीन जैन प्रबन्ध काव्यों से प्रभूत सामग्री ग्रहणकर अपनी प्रतिभा से अपने समूचे साहित्य को उन्मेषित किया है ।
प्रबन्ध काव्य में अपेक्षित कमी नहीं श्राई | कवियों
पुराण, कथा और चरित काव्य भी प्रबन्ध के अन्तर्गत प्राते है । प्राचार्यों ने इन्हें भी जैन तत्वों को प्रस्तुत करने का माध्यम बनाया है । फिर भी यथावश्यक रसों के संयोजन में कोई व्यवधान नहीं था पाया। कवियों ने यथासमय शृंगार और वीररस का भरपूर वर्णन किया है। पर उसमें भी शान्तरस का भाव सूख नहीं पाया बल्कि कहीं-कहीं तो ऐसा लगता है कि शृंगार भूमि में आध्यात्मिक अनुभूति के कारण संसार का चित्रण से प्रस्तुत हुआ है । इनमें सगुण और निर्गुण दोनों प्रकार की कथाओं भीर चरित्रों का प्रलेखन मिलता है । इस आलेखन में कवियों ने लोक तत्वों की काव्यात्मक रूढ़ियों का भी भरपूर उपयोग किया है ।
और वीररस की पृष्ठ
कहीं अधिक सक्षम रूप
जहां तक रासो काव्य परम्परा का सम्बन्ध है उसके मूल प्रवर्तक जैन प्राचार्य ही रहे हैं । जैन रासो काव्य गीत नृत्य परक अधिक दिखाई देते हैं। इन्हें हम खण्डकाव्य के अन्तर्गत ले सकते हैं। कवियों ने इनमें तीर्थंकरों, चक्रवर्तियों और प्राचायों के चरित का संक्षिप्त चित्रण प्रस्तुत किया है। वही वही ये रासो उपदेश परक भी हुये हैं ।
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इनमें साधारणत: पौराणिकता का अंश अधिक है, काव्य का कम । संयोग-वियोग का का चित्रण भी किया गया है पर विशेषता यह है कि वह वैराग्यमूलक और शान्तरस से मापूरित है। प्राध्यात्मिकता की अनुभूति वहां टपकती हुई दिखाई देती है। राजुल और नेमिनाथ का सन्दर्भ जैन कवियों के लिए अधिक अनुकूल-सा दिखाई दिया है।
__इस भूमिका के साथ जैन प्रबन्ध काव्यों को हम समासतः इस प्रकार मालेखित कर सकते हैं- 1. पुराण काव्य (महाकाव्य और खण्ड काथ्य), 2. चरित काव्य, 3. कथा काव्य, और 4. रासो काव्य । 2. पौराणिक काव्य :
पौराणिक काव्य में महाकाव्य और खण्ड काव्य सम्मिलित होते हैं। हिन्दी जोन कवियों ने दोनों काव्य विधानों में तदनुकूल लक्षरणो एवं विशेषतामों से समन्वित साहित्य की सर्जना की है। उनके ग्रंथ सर्ग अथवा अधिकारों में विभक्त हैं, नायक कोई तीर्थंकर, चक्रवर्ती अथवा महापुरुष है, शांतरस की प्रमुखता है तथा श्रृंगार और वीर रस उसके सहायक बने है । कथा वस्तु ऐतिहासिक अथवा पौराणिक है, चतुपुरुषार्थों का यथास्थान वर्णन है, सों की संख्या आठ से अधिक है सर्ग के अंत में छन्द का परिवर्तन तथा यथास्थान प्राकृतिक दृश्यों का संयोजन किया गया है। महाकाव्य के इन लक्षणो के साथ ही खण्ड काव्य के लक्षण भी इस काल के साहित्य में पूरी तरह से मिलते हैं । वहाँ कवि का लक्ष्य जीवन के किसी एक पहलु को प्रका. शित करना रहा है। घटनाओं, परिस्थितियों तथा दृश्यों का संयोजन अत्यन्त मर्मस्पर्शी हुआ है । ऐसे ही कुछ महाकाव्यों और खण्डकाव्यों का यहाँ हम उल्लेख कर रहे हैं । उदाहरणार्थ
ब्रह्मजिनदास के मादिपुराण और हरिवंशपुराण (वि. सं. 1520), वादिचन्द्र का पाण्डवपुराण (वि. सं. 1654), शालिवाहन का हरिवंशपुराण (वि. सं. 1695) बुलाकीदास का पाण्डवपुराण (वि. सं. 1754, पद्य 5500), खुशालचन्द्रकाला के हरिवंशपुराण, उत्तरपुराण और पद्मपुराण (सं. 1783), मधरदास का पार्श्वपुराण (सं. 1789), नवलराम का वर्धमान पुराण (सं. 1825), धनसागर का पार्श्वनाथपुराण (सं. 1621), ब्रह्मजित का मुनिसुव्रतनाथ पुराण (सं. 1645), वैजनाथ माथुर का वर्षमानपुराण (सं. 1900), सेवाराम का शान्तिनाथ पुराण (सं. 1824). जिनेन्द्रभूषण का नेमिपुराण । ये पुराण भाव और भाषा की दृष्टि से उत्तम हैं। इस दृष्टि से-कविवर भूषरवास का पार्श्व पुराण दृष्टव्य है
किलकिलंत वैताल, काल कज्जल छवि सजहिं । मौं कराल विकराल, माल मदगज जिमि गजहि ॥ मुंडमाल गल धरहिं लाय लोयननि उरहिंजन । मुख फुलिंग फुकरहिं करहिं निर्दय पुनि हन हन ।।
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इहि विधि अनेक दुष धरि, कमठ जीव उपसर्ग किय ।
तिहुं लोक वंद जिनचन्द्र प्रति धूलि डाल निज सौस लिय। हिन्दी गैन साहित्य में पौराणिक प्रबन्ध काव्य की धारा मगाम पाटनी शती से प्रारम्भ हुई और मध्यकाल पाते-माते उसमें और मषिक वृद्धि हुई । कलियों ने तीर्थंकरों, चक्रवतियों, बारायणों आदि महापुरुषो के परितों को जीवन-निमाण के लिए पथिक उपयोगी पाया और फलतः उन्होंने अपनी प्रतिमा को यहां प्रस्फुटित किया। यद्यपि उनमें जन धर्म के सिद्धान्तों को स्पष्ट करने का विशेष प्रयत्न किया पया है पर उससे कथा प्रवाह में कहीं बाधा नहीं दिखाई देती । भावव्यंजना संपाद, परमापनि, परिस्थिति संयोजन आदि सभी तत्व यहां सुन्दर हंम से प्रस्तुत किये गये हैं।
जिन्हें प्राज खण्डकाव्य कहा जाता है उन्हें मध्यकाल में संधि काव्य की संज्ञा दी गई। संधि वस्तुतः सन के अर्थ में प्रयुक्त होता पा पर उत्तरकाल मैं एक सर्ग वाले खण्ड काथ्यों के लिए इस शब्द का प्रयोग होने लमा प्रमुख जैन संधि काव्यों में उल्लेखनीय काव्य है-जिन प्रभसूरि का अमस्थि संधि (सं. 1297) और ममणरेहा संषि, जयदेव का भावना संधि विनय चन्द का आनन्द सधि (14 वीं शती), कल्याण तिलक का भृवापुत्र संधि (सं. 1550), चारुचन्द्र का नन्दन मणिहार संषि, (सं. 1587), संयममूर्ति को उदाह राजर्षि संधि (सं 1590), धर्ममेरु का सुख-दुःख विपाक संधि (सं. 1604), गुणप्रभसूरि का चित्रसभूति संधि (सं. 1608), कुशल लाभ का जिनरक्षित संधि (सं. 1621), कनकसोम का हरिकेशी संधि (सं. 1640), गुणराज का सम्मति संधि (सं. 1630), चारित्र सिंह का प्रकीर्णक संधि (सं. 1631), विमल विनय का अनाथी संधि (सं. 1647), विनय समुद्र का नमि सधि(सं.17 वीं शती), गुणप्रभ सूरि का चित्र संभूति संधि (सं. 1759) प्रादि । ऐसे पचासों संधि काव्य भण्डारों में बिखरे पड़े
2. चरित काश्य:
हिन्दी गैन कवियो ने जैन सिद्धान्तों को प्रस्तुत करने के लिए महापुरुषों के चरित का शाख्यान किया है । कहीं-कहीं व्यक्ति के किसी गुण-अवगुण को लेकर भी चरित ग्रन्थों की रचना की गई है जैसे ठकुरसी का कृष्ण चरित्र । इन चरित ग्रन्थों में कवियों ने मानव की सहज प्रकृति और रागादि विकारों का सुन्दर वर्णन किया है । मध्यकालीन कतिपय चरित काव्य इस प्रकार है
सघारु का प्रद्युम्नचरित (सं. 1411), ईश्वरसूरि का ललितांग बस्ति (सं. 1561), ठकुरसी का कृष्ण चरित (सं. 1580), जयनीति का भवदेवचरित (सं. 1661), गौरवास का यशोधर चरित (सं. 1581), मालदेव का भोजप्रबन्ध
1. पायपुराण, 8. 23. पृ. 65.
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ܪܪ
(सं. 1612, पद्म 2000), पाण्डे विनवास का जम्बूस्वामी चरित (सं. 1642 ), नरेन्द्रकीर्ति का सगर प्रबन्ध (सं. 1646), वादिचन्द्र का श्रीपाल पाख्यान (सं. 1651 ), परिमल का श्रीपाल चरित्र (सं. 1651 ), पाये का भरतभुजबल चरित्र (सं. 1616), ज्ञानकीर्ति का यशोधर चरित्र (सं. 1658), पार्श्वचन्द्र सूरि का राजचन्द्र प्रवहरण (सं. 1661), कुमुदचन्द्र का भरत बाहुबली चन्द (सं. 1670 ), नन्दलाल का सुदर्शन चरित (सं. 1663) बनवारी लाल का भविष्यदत्त चरित्र ( सं. 1666 ), भगवतीदास का लघुसीता सतु (सं. 1684), कल्याण कीर्तिमुनि का चारुदत्त प्रबन्ध (सं. 1612), लालचन्द्र का पद्मिनी चरित्र (सं. 1707), रामचन्द्र का सीता चरित्र (सं. 1713), जोषसज गोदीका का प्रीतंकर चरित्र (सं. 1721), जिनहर्ष का श्रेणिक चरित्र (सं. 1724), विश्वभूषण का पार्श्वनाथ चरित्र (सं. 1738), किशनसिंह के भद्रबाहु चरित्र (सं. 1783), और यशोधर चरित (सं. 1781), लोहट का यशोधर चरित्र (सं. 1721), प्रजयराज का यशोधर चरित्र (सं. 1721), प्रजयराज पाटणी का नेमिनाथ चरित्र (सं. 1793 ), दौलत राम कासलीवाल का जीवन्धर चरित्र (सं. 1805), भारमल का चारुदत्त चरित्र (सं. 1813), शुभचन्द्रदेव का श्रेणिक चरित्र (सं. 1824 ), नाथमल मिल्ला का नागकुमार चरित्र (सं. 1810 ), चेतन विजय के सीता चरित्र श्री जम्बूचरित्र (सं. 1853), पाण्डे लालचन्द का वरांगचरित्र (सं. 1827 ), हीरालाल का चन्द्रप्रभ चरित, टेकचन्द का श्रेणिक चरित्र (सं. 1883), और ब्रह्म जयसागर का सीताहरण (सं. 1835 ) ।
इन चरित काव्यों में तीर्थंकरों प्रथवा महापुरुषों के चरित का चित्रण कर मानवीय भावनाओं का बड़ी सुगमता पूर्वक चित्रण किया गया है । यद्यपि यहां काव्य की अपेक्षा चारित्रांकन अधिक हुआ है परन्तु चरित्र प्रस्तुत करने का ढंग और उसका प्रवाह प्रभावक है । मानन्द धौर विषाद, राग और द्वेष तथा धर्म और अधर्म आदि भावों की अभिव्यक्ति बड़ी सरस हुई है । कवि भगवतीदास का लघु सीता सतु उल्लेखनीय है जहां उन्होंने मानसिक घात-प्रतिघातों का प्राकर्षक वर्णन किया है
तब बोलs मन्दोदरी रानी, सखि अषाढ़ बनघट चेहरानी । पीय गये ते फिर घर मावा, पामर नर नित मंदिर बाबा || लवहि पपीहे दादुर मोरा, हियरा उमग धरत नहीं धीरों ।। बादर उमहि रहे चौमासा, तिथ पिय विनु लिहि उरुन उसासा । नन्हीं बून्द करत भर लावा | पावस नभ प्राणमु दरसामा || दामिनि दमकत निशि अंधियारी । विरहिनि काम वाम उमारी । araft भोगु सुनहि सिख मोरी । जानति काहे भई मति चोरी ॥ मदन रसायन हर जग सारू । संजमु नैमु कथन निवहाक |
तब लंग हंस शेरीर मेहि, तब राज तह त्रिमा श्रम इ
लग कोई भोगे । 'लौ ॥
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इसी प्रकार कृपण चरित्र में कवि ठकुरसी ने कम्जस घनी का जो माखों देखा हाल चित्रित किया है वह दुष्टव्य है-
कृपणु एक परसिद्ध नर्यारि निवसतु निलक्वणु । कही करम संयोग तासु घटि, नाटि विचक्खणु ॥ देखि दुहू की जोड़, सथलु जगि रहिउ तमासं । याहि पुरिष के याहि, दई किम दे इम भासं ॥ वह रह्यौ रीति चाहे भली, दारण पुज्ज गुणसील सति ।
यह दे न खाण खरचरण किवं, दुवै करहि दिरिण कलह प्रति ।। afa हीरालाल द्वारा रचित चन्द्रप्रभचरित काव्य चमत्कार की दृष्टि से प्रति मनोहर है । इस सन्दर्भ में निम्न पथ दर्शनीय है
कवल बिना जल, जल बिन सरवर, सरवर बिन पुर, पुर बिन राय | राय सचिव बिन, सचिव बिना बुध, बुध विवेक बिन बिन शोभ न पाय ॥ इसी प्रकार नवलशाह विरचित वर्द्धमान चरित्र में अंकित महारानी प्रिय कारिणी के रूप सौन्दर्य का चित्रण (नख शिख वरन ) जनेतर कवियों से हीन नहीं है ।
नखन्त भयौ भय भयौ दशहू दिश
अम्बुज सौं जुग पाय बेने, नख देख नूपुस की झनकार सुनै, दृग शीरर कंदल थंभ बनं जुग जंग, सुचाल चलें गज की पिय क्षीन बनो कटि केहरि सौ, तन दामिनी होय रही लज नाभि निबौरियसी निकसी, पढ़हावत पेट संकुचन धारी । काम कपिच्छ कियौ पट रन्तर, शील सुधीर घरं प्रविकारी ॥ भूषण बारह भौतिन के अन्त, कण्ठ मे ज्योरित लस अधिकारी । देखत सूरज चन्द्र छिपे, मुख दाडिम दंद महाद्यविकारी ||
सारी ॥
भारी ।
भारी ।
प्यारी ।
इस प्रकार मध्यकालीन हिन्दी जैन चरित काव्य भाव, भाषा और अभिव्यक्ति की दृष्टि से उच्च कोटि के है । वस्तु और उद्देश्य बड्री सूक्ष्मता से समाहित है । पात्रों के व्यक्तित्व को उभारने मे जैन सिद्धान्तो का अवलम्बन जिस ढंग से किया गया है वह प्रशंसनीय है । सांसारिक विषमताओं का स्पष्टीकरण और लोकरंजनकारी तत्वों की अभिव्यंजना जैन साधक कवियों की लेखनी की विशेषता है। प्राचीन काव्यों में चरितार्थक पवीड़ो काव्य भी उपलब्ध होते हैं । इसी सन्दर्भ में भगवतीदास के वृहद सीता सतु श्रौर लघु सीता सतु जैसे सत सज्ञक काव्य भी उल्लेखनीय हैं ।
3. कथा काव्य :
मध्यकालीन हिन्दी जैन कथा काव्य विशेष रूप से व्रत, भक्ति और स्तवन के महत्व की अभिव्यक्ति के रूप में प्रस्तुत किये गये हैं। वहां इन कथाओं के माध्यम से विषय कषायों की निवृत्ति, भौतिक सुखों की अपेक्षा तथा शाश्वत सुख की प्राप्ति
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hi मार्ग दर्शाया गया है । उनमें चित्रित पात्रों के भाव चरित्र, प्रकृति और वृति को स्पष्ट करने में ये कथा काव्य अधिक सक्षम दिखाई देते हैं। ऐसे ही कथा काव्यों में ब्रह्मजिनदास (वि. सं. 1520) की रविव्रत कथा, विद्याधर कथा सम्यक्त्वकथा मादि, fareera की निर्जरपंचमी कथा (सं. 1576), ठकुरसी की मेघमालाव्रत कथा (सं. 1580), देवकलश की ऋषिदत्ता (सं. 1569), रायमल्ल की भविष्यदत्तकया (सं. 1633), वादिचन्द्र की अम्बिकाकथा (सं. 1651 ), छीतर ठोलिया की होलिकाकथा (सं. 1660), ब्रह्मगुलाल की कृपरण जगावनद्वार कथा (सं. 1671), भगवतीदास की सुगन्धदसमी कथा, पांडे हेमराज की रोहणी व्रत कथा, महीचन्द की शादित्यव्रत कथा, टीकम की चन्द्रस कथा ( सं 1708), जोधराज गोदीका का कथाकोश (सं. 1722), विनोदीलाल की भक्तामर स्तोत्र कथा (सं. 1747), किशनसिंह की रात्रिभोजन कथा (सं. 1773), टेकचन्द्र का पुण्याश्रवकथाकोश (स. 1822), जगतराम की सम्यक्त्व कौमुदी ( सं 1721) उल्लेखनीय हैं । ये कथा काव्य कवियों की रचना कौशल्य के उदाहरण कहे जा सकते हैं। 'सम्यक्त्व कौमुदी' की कथाओ में निबद्ध काव्य वैशिष्ट्य उल्लेख्य है
तबहि पावड़ी देखि चोर भूपति निज जान्यो । देखि मुद्रिका चोर तबै मन्त्री पहिचान्यौ ॥ सूत जनेऊ देखि चोर प्रोहित है भारी । पंचनि लखि विरतान्त यहै मन मे जु विचारी ॥ भूपति यह मन्त्री सहित प्रोहित युत काढी दयो । इह भांति न्याव करि भलिय विधि धर्म यापि जग जसलयौ ॥
इस प्रकार का काव्य वैशिष्ट्य मध्यकालीन हिन्दी जैन कथा काव्यों में अन्यत्र भी देखा जा सकता है। इसके साथ ही यहाँ जैन सिद्धान्तों का निरूपरत कवियों का विशेष लक्ष्य रहा है ।
4. रासा साहित्य
हिन्दी जैन कवियों ने रासा साहित्य के क्षेत्र में अपना अमूल्य योगदान दिया है । सर्वेक्षण करने से स्पष्ट है कि रासा साहित्य को जन्म देने वाले जैन कवि ही थे । जन्म से लेकर विकास तक जैनाचार्यों ने रासा साहित्य का सृजन किया है । यता का सम्बन्ध रास, रासा, रासु, रासो मादि शब्दों से रहा है जो 'रासक' शब्द के ही परिवर्तित और विकसित रूप है । 'रासक' का सम्बन्ध नृत्य, छन्द भथवा काव्य विशेष से है । यह साहित्य गीत-नृत्य परक और छन्द वैविध्य परक मिलता हैं । जैन कवियों ने गीत-नृत्य परक परम्परा को अधिक अपनाया है । इनमें कवियों ने धर्म प्रचार को विशेष महत्व दिया है। इस सन्दर्भ में शालिभद्रसूरि का पांच पाण्डव रास
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(सं.1410), विनयम उपाध्याय का गौतमरास (सं. 1412), सौमसुन्दरसूरि का भासयाराम (सं. 1450), जयसागर के बयरस्थामी पुरुरात और गौतमरास, होरपन्दरि वस्तुपाल तेवपाल रासादि (सं. 1486), सकलकीति (सं. 1443) के सोबहकारणरास पावि उस्लेखनीय हैं । ब्रह्मजिनदास (सं. 1445-1525) का रासा साहित्य कदापित सर्वाधिक है। उनमें रामसीतारास, यशोधररास, हनुमतसस (125 प) नामकुमारसस, परमहंसरास (1900 पद्य) अजितनाथ रास, होली रास (148 पंच) धर्मपरीक्षारास, ज्येष्ठजिनवर रास (120 पद्य), श्रोणिकरास, रामकितमिथ्यास्वरस (10 पब), 'सुदर्शनरास (337 पद्य), अम्बिका रास (158 पध), नागधीरास (23अपद्य), जम्बूस्वामी रास (10005 पडा), भद्रबहुरास, कर्मविपाक रास, सुकौसल स्वामी रास, रोहिणीस, सोलहकारणरास, दशलक्षणरास, अनन्तवतरास, कबूल रास, धन्यकुमारसस, चारुदत्त प्रबन्ध रास, पुष्पांजलि रास, धनपालरास (वानकथा सस), भविष्यदत्तरास, जीवंधररास, नेमीश्वररास, करकन्दुरास, सुभौमचक्रवर्तीरास और अम्मूमनुण रास प्रमुख है। इनकी भाषा गुजराती मिश्रित है। इन प्रन्यों की प्रतियां जयपुर, उदयपुर दिल्ली मादि के जनशास्त्र भण्डारों में उपलब्ध हैं ।
इनके अतिरिक्त मुनिसुन्दरसूरि का सुदर्शन श्रेष्ठिरास (सं. 1501), मुनि प्रतापचन्द का स्वप्नावलीरास (सं. 1500), सोमकीर्ति का यशोधररास (सं. 1526), संवेर सुन्दर उपाध्याय का सारसिखामनरास (सं. 1548), ज्ञानभूषण का पोसहरास (सं. 1558), यश-कीर्ति का नेमिनाथरास (स. 1558), ब्रह्मज्ञानसागर का हनुमंतरास (सं. 1630), मतिशेखर का धन्नारास (सं. 1514), विद्याभूषण का भविष्यदत्तरास (सं. 1600), उदयसेन का जीवंधररास (सं. 1606), विनयसमुद्र का चित्रसेन पद्मावतीरास (सं. 1605), रायमल्ल का प्रद्युम्नरास (सं. 1668), पांडे जिनदास का योगीरासा (सं. 1660), हीरकलश का सम्यक्त्व कौमुदीरास (सं. 1626), भगवतीदास (सं. 1662) के जोमीरासा आदि, सहमकीर्ति के शीलरासावि (सं. 1686) भाऊ का नेमिना रास (सं. 1759), चेतनषिजय का पालरास जैन रासा अन्धों में उल्लेखनीय है ।
इन रासा ग्रन्थों में श्रृंगार, वीर, शान्त और भक्ति रस का प्रवाह दिखाई देता है। प्रायः सभी रासों का अन्त शान्तरस से रंजित है। फिर भीम पौर विरह के चित्रों की कमी नहीं है । इस सन्दर्भ में 'पञ्चना सुन्दरी रास' सल्लेख्य है जिसमें राजना के विरह का सुन्दर चित्रण किया गया है। इस सन्दर्भ में वन्सत का वित्रण देखिए, कितना मनोहारी है
मधुकर करई गुंजारव मार विकार वहति । कोयल करइ पटहूकड़ा टूकड़ा मेलवा कन्त ।। मलयापल थी लकिरा पुलकिउ पवन प्रचण्ड । मदन महानष पाझह विरहीनि सिर दण्ड ।
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बरा से युक्त पं. भगवतीदास का जोगीराम की मादाय है जिसीक को अपने अन्दर विराजमान चिदानन्द की शिवनायक बन कर तारसमुद्र से पार होने की अभिव्यंजना की है
पखहू ही तुम पेखहु माई, जोगी जंगहि साई । घट-घट अन्तरि पसई चिदानन्द, अलखु न मंखिए कोई ।। भव-वन-भूल रह्यो भ्रमिरोक्लु, सिवपुर सुध विसराई । परम-प्रतीन्द्रिय शिव-सुख-जि करि, विषयनि रहि-सुभाइ । मनन्त चतुष्य-मुख-मया राजहि. तिन्हकी हउ बलिहारी।
मानिधरि ध्यानु बयह शिवनायक, जिङ' उतउह भवपासी ॥
इसी प्रकार भक्ति रस से ओतप्रोत सहजकीति के 'सुदर्शनप्रेष्ठिबासकी मिना पंक्तियां दृष्टव्य हैं :
केवल कमलाकर सुर, कोमल बचन विलास, कवियण कमल दिवाकर, पगमिय फल विधि पास। सुरवर किंनर बर भ्रमर, सुन चरणकंज जास, सरस वचन कर सरसबी, नमीयइ सोहाग वास । जासु पसायइ कवि लहर, कविजनमई जसवास,
हंसगमणि सा भारती, देउ मुझ वचन विलास । इस प्रकार जैन रासा साहित्य एक ओर जहां ऐतिहासिक अथवा पौराणिक महापुरुषों के चरित्र का चित्रण करता है वही साथ ही भाध्यात्मिक अथवा धार्मिक प्रादर्शों को भी प्रस्तुत करता है । जैनों की धार्मिक रास परम्परा हिन्दी के मादिकाल से ही प्रवाहित होती रही है। मध्ययुगीन रासा साहित्य मे मादिकाल रासा साहित्य की अपेक्षा भाव पार भाषा का अधिक सौष्ठव दिखाई देता है। प्राध्यात्मिक रसानुभूति की दृष्टि से यह रासा साहित्य प्रषिक विवेचनीय है।
2. रूपक काय माध्यात्मिक रहस्या को अभिव्यक्त करने का सर्वोत्तम साधन प्रतीक मौर रूपक होते हैं। और कवियों ने सांसारिक चित्रश, मात्मा की बुद्धामुख अवस्था, सुखदुःख की समस्यायें, राक्षात्मक विकारमौर लाखभंगुरता के दृश्य जित सूक्ष्मान्वेक्षण मौर गहन अनुमति के साथ प्रस्तुत किये हैं, यह अभिनन्दनीय है। हक काव्यों का उद्देश्य वीरता की सहल प्रवृत्ति का मोक मांगलिक चित्रण करता रहा है। मात्मा की कामावि क्षमता मिजाक प्राविक बान से किस प्रकार प्रसित होकर भवसागरमल करता रहता है भोर किस प्रकार उससे मुक्त होता है, इस प्रवृत्ति मौर मितिमार्ग का विवाह कर जैन कषियों ने मामा की शक्ति को
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रूपकों के माध्यम से उद्घाटित करने का प्रयत्न किया है। इस विधि से जैन तत्वों के निरूपण में नीरसता नहीं प्रा पायी। बल्कि भाव-व्यंजना कहीं अधिक गहराई से उभर सकी है । इस दृष्टि से त्रिभुवनदीपक प्रबन्ध, विद्याविलास पवाड़ा, नाटक समयसार, चेतन कर्मचरित, मधु बिन्दुक चौपई, उपशम पच्चीसिका, परमहंस चौपाई, मुक्तिरमणी चुनड़ी, चेतन पुद्गल धमाल, मोहविवेक युद्ध प्रादि रचनायें महत्वपूर्ण हैं । रूपकों के माध्यम से विवाहलउ भी बड़े सरस रचे गये हैं ।
इन रूपक काव्यों में दार्शनिक, आध्यात्मिक तथा सूक्ष्म भावनाओं का सुन्दर विश्लेषण किया गया है । नाटक समयसार इस दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय है । कवि बनारसीदास ने रूपक के माध्यम से मिध्यादृष्टि जीव की स्थिति का कितना सुन्दर चित्रण किया है यह देखते ही बनता है-
काया चित्रसारी मैं करम परजक मारी,
माया की सवारी सेज चादरि कलपना । संन करें चेतन अचेतना नीद लिये,
मोह की मरोर यहै लोचन को ढपना ॥ उद बल जोर यहै स्वासको सबद घोर,
विषं सुख कारज की दौर यह सपना । ऐसी मूढ़ दसा मैं मगन रहे तिहुँकाल,
धावै भ्रम जाल में न पावे रूप अपना ।।14।
इसी प्रकार 'मधुबिन्दुक चौपाई' में कवि भगवतीदास ने रूपक के माध्यम से संसार का सुन्दर चित्रण किया है
-:
यह संसार महावन जान । तामहि भयभ्रम कूप समान ||
गज जिम काल फिरत निशदीस तिहुँ पकरन कहुँ विस्वावीस ।। वट की जटा लटकि जो रही । सो प्रायुर्दा जिनवर कही || तिह जर काटत मूसा दोय । दिन अरु रैन लखहु तुम सोय || मांखी चूटत ताहि शरीर । सो बहु रोगादिक की पीर ॥ अजगर पस्यो कूप के बीच। सो निगोद सबतैं गति बीच || याकी कछू मरजादा नाहि । काल अनादि रहे छह माहि || तातें भिन्न कही इहि ठौर । चहुँ गति महितें भिन्न न औौर ॥ बहुदिश चार महाभुजंग । सो गति चार कही सवंग ॥ मधु की बून्द विषै सुख जान । जिन्हें सुख काज ज्यों नर त्यों विषयाश्रित जीव । इह विषि विद्याधर तहँ सुगुरु समान । दे उपदेश सुनावत ज्ञान ॥
रह्यो हितमान ||
संकट सहै सवीव ॥
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। इस प्रकार रूपक काव्य प्राध्यात्मिक चिन्तन को एक नयी दिशा प्रदान करते है । साधकों ने प्राध्यात्मिक साधनों में प्रयुक्त विविध तत्त्वों को भिन्न-भिन्न कारकों में खोजा है और उनके माध्यम से चिन्तन की गहराई में पहुंचे हैं। इससे सावना में निखार पा गया है। रूपकों के प्रयोग के कारण भाषा में सरसता और प्रालंकारिकता स्वभावतः अभिव्यंजित हुई है ।
3. अध्यात्म और भक्तिमूलक काव्य हिन्दी जैन साहित्य मूलतः अध्यात्म और भक्तिपरक है। उसमें बवा, मान मोर माचार, तीनों का समन्वय है। महन्त, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय पीर साधु इन पंच परमेष्ठियों की भक्ति में साधक कवि सम्यक साधना पथ पर चलता है और साध्य की प्राप्ति कर लेता है। इस सम्यक साधन और साध्य की अनुभूति कवियों के निम्नांकित साहित्य में विविध प्रकार से हुई है।
1. जैन कवियों ने जैन सिद्धान्तों का विवेचन कहीं-कहीं गद्य में न कर पद्य में किया है। वहां प्रायः काव्य गौण हो गया है और तत्त्व-विवेचन मुख्य । उदाहरणतः भ. रत्नकीर्ति के शिष्य सकलकीर्ति का पाराधना प्रतिबोधसार, यशोधर का तत्वसारदूहा, वीरचन्द को संबोधसत्ताणु भावना प्रादि । इन्हें हम प्राध्यात्मिक काव्य कह सकते हैं।
2. स्तवन जैन कवियों का प्रिय विषय रहा है। भक्ति के क्षेत्र में वे किसी से कम नही रहे । इन कवियो और साधकों की आराध्य के प्रति व्यक्त निष्काम भक्ति है । उन्होंने पंचपरमेष्ठियों की भक्ति में स्तोत्र, स्तुति, विनती, धूल आदि अनेक प्रकार की रचनाएँ लिखी हैं। पंचकल्याणक स्तोत्र, पंचस्तोत्र आदि रचनायें विशेष प्रसिद्ध है । इन रचनामों में मात्र स्तुति ही नहीं प्रत्युत वहां जैन सिद्धान्तों का मार्मिक विवेचन भी निबद्ध है।
3. चौपाई, जयमाल, पूजा प्रादि जैसी रचनामों में भी भक्ति के तत्त्व निहित है । दोहा और चौपाई अपभ्रंश साहित्य की देन है। ज्ञानपंचमी चौपाई, सिद्धान्त चौपाई, ढोला मारु चौपाई, कुमति विध्वंस चौपाई जैसी चौपाइयां जैन साहित्य में प्रसिद्ध हैं। यहां एक ओर जहां मिद्धान्त की प्रस्तुति होती है दूसरी और ऐतिहासिक तथ्यों का उद्घाटन भी । मूलदेव चौपाई इसका उदाहरण है।
4. पूजा साहित्य जैन कवियों का अधिक है । पंचपरमेष्ठियों की पूजा, पंचम दालक्षण, सोलहकारण, निर्दोषसप्तमीवत प्रादि व्रत सम्बन्धी पूजा, देवगुरु-शास्त्रपूजा, जयमाल मादि अनेक प्रकार की भक्तिपरक रचनायें मिलती हैं। बानराय का पूजा साहित्य विशेष लोकप्रिय हुमा है।
5. चांचर, होली, फागु, यद्यपि लोकोत्सवपरक काव्य रूप हैं पर उनमें जन कवियों ने बड़े ही सरस ढंग से माध्यात्मिक विवेचन किया है। चांचर या वरी में
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सीता हालों में छोटे-छोटे उन्हे लेकर टोली नृत्य करते हैं। रास में भी लगभग यही होता है । हिण्डोलना होली मोर फागु में तो कवियों ने आध्यात्मिकता का सुन्दर पुट दिया है। कहीं-कहीं सुन्दर रूपक तत्व भी मिलता है ।
6. वेfesto राजस्थान की परम्परा से गुंधा हुआ है। वहां चारण कवियों ने इसका उपयोग किया है । बाद में वेलि काव्य का सम्बन्ध भक्ति काव्य से हो गया । जैन कवियों ने इन वेलि arari में afte तत्व विवेचन और इतिहास प्रस्तुत किया है ।
7. संख्यात्मक और वर्णनात्मक साहित्य का भी सृजन हुआ है । छन्द संख्या के आधार पर काव्य का नामकरण कर दिया जाना उस समय एक सर्वसाधारण प्रथा थी । जैसे मदनशतक, नामवावनी, समकित वत्तीसी प्रादि ।
8. बारहमासा यद्यपि ऋतुपरक गीत है पर जैन कविकों ने इसे आध्यात्मिकसा बना लिया है। नेताथ के वियोग मे राजुल के बारहमास कैसे व्यतीत होते इसका कल्पनाजन्य चित्रण बारहमासों का मुख्य विषय रहा है। पर साथ ही अध्यात्मबारहमासा, सुमति कुमति बारहमासा आदि जैसी रचनायें भी उपलब्ध होती है ।
1. प्राध्यात्मिक काध्य
कतिपय प्राध्यात्मिक काव्य यहां उल्लेखनीय हैं-रत्वकीर्ति का प्राराधना प्रतिसार ( सं 1450), महमन्दि का पाहुड़ दोहा (सं. 1600), ब्रह्मगुलाल की त्रेपन किया ( सं 1665), बनारसीदास का नाटक समयसार (सं. 1693) मोर बनारसीविलास, मनोहरदास की धर्म परीक्षा (सं. 1705), भगवतीदास का ब्रह्मविलास ( सं 1755 ), विनयविजय का विनयविलास ( सं 1739) बानसराय की
पंचासिक तथा धर्मक्लास (सं. 1780), भूधर विलास का भूषविलास, दीपचंद माह के अनुभव प्रकास प्रादि (सं. 1781), देवीदास का परमानन्य बिलास धौर पदपंकत (सं. 1812), टोडरमल्ल की रहस्यपूर्ण बिट्ठी (सं. 1811), भजन का बुजविलास, पं. भागचन्द की उपदेश सिद्धान्त माला (सं. 1905), छत्रपति का मनमोहन पंचशती सं. 1905) प्रादि ।
संवाद भी एक प्राचीन विधा रही है जिसमें प्रश्नोत्तर के माध्यम से प्राच्याfree free or समाधान किया जाता था। नरपति (16वीं शती का दंतचि संवा, सह सुन्दर (सं. 1572) का प्रांख-कान संवाद, यौवन जरा संवाद जैसी माकर्षक ऐसी सरस रचनाएँ हैं जिनमें दो इन्द्रियों में संवाद होता है विन अध्यात्म में होती है । अन्य रचनाओं में रावण मन्दोदरी संवाद (स) 1562), मोती कम्पालिया संवाद, उद्यम कर्म संवाद, समकितशील संवाद, सिगोतम संवाद- मन
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संग्राम, सुमति कुमति का झगड़ा, सुम्बधी संचार सयंम कर्म संवाद कृपानारी संवाद, पन्चेन्द्रिय संवया रायस मोरी व ज्ञान व चारिव संवाद, प्रादि बीसों रचनाएँ हैं जिनमें रहस्यापकता के तस्य इतने
हुए हैं
कि संवाद गौरग हो गये हैं ।
इन यात्मिक काव्यों में कवियों ने जैन सिद्धान्तों को सरस भाषा में प्रस्तुत किया है। इन सिद्धान्तों को प्रस्तुत करने में एक और जहाँ दार्शनिक छटा दिखाई देती है वहीं काव्यात्मक भाव और भाषा का सुन्दर समन्वय भी मिलता है । विलास काव्य इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय हैं। कवि बनारसीदास ने 'परमार्थहिंडोलना' मैं आत्मतत्त्व का विवेचन काव्यात्मक शैली में चित्रित किया है-
सहज हिंडना हरख हिडोलना, भुकत चेतनराव । जहाँ धर्म कर्म संवेग उपजत, रस स्वभाव ॥ जहं सुमन रूप अनूप मंदिर, सुरुचि भूमि सुरंग । तहं ज्ञान दर्शन खंभ प्रविचल, चरन झाड अभंग ॥ मरुवा सुगुन परजाय विचरन, भौर विसल विवेक ।
व्यवहार निश्चय नय सुदण्डी, सुमति पटली एक ॥11
afa भगवतीदास ने ब्रह्मविलास की शतमष्टोत्तरी में विशुद्ध आत्मा कम के कारण किस प्रकार अपने मूल स्वभाव को भूल जाता है इसका सरस चित्रण खींचा है
कायासी जु नगरी में चितानन्द राज करें,
मायासी जु रानी पं मगन बहु भयो है। मोहसो है फोजदार क्रोध सो है कोतवार,
लोभ सो वजीर जहाँ लूसिवे को रहते है ।। उदैको जू काजी माने, मान को प्रदलजायौं,
कामसेवा errata माइ वाक्चे को है । ऐसी राजधानी में अपने गुरख भूल गयौ,
सुषि जब माई तवं ज्ञान प्राय गयो है ||291
विज्ञान के महत्व को अनेक वृष्टान्तों के माध्यम से कविवाद बनारसीदास ने नाटक समयसार में स्पष्ट करने का जो प्रयत्न किया है वह स्पृहणीय है-जैसे रजसोधा रज सोषिक दरब काढे, कनक काढि वाहत उपक
पावक
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पंक के गरम मैं ज्यों डारिये कुतलफल,
नीर करै उज्ज्वल नितारि डार मालकों ॥ दधि को मथैया मथि का जैसे माखनकों,
राजहंस जैसे दूध पीव त्यागि जलकौं । तैसें ग्यानवंत भेदग्यानकी सकति साधि,
बेदै निज संपति उछेदै परदल कौं ।'
2. स्तवन पूजा मौर जयमाल साहित्य आध्यात्मिक साधन में स्तवन, पूजा और जयमालका अपना महत्त्व है। साधक रहस्य की भावना की प्राप्ति के लिए इष्टदेव की स्तुति और पूजा करता है। भक्ति के सरस प्रवाह में उसके रागादिक विकार प्रशान्त होने लगते हैं और साधक शुभोपयोग से शुद्धोपयोग की ओर बढ़ने लगता है। पंचपरमेष्ठियों का स्तवन, तीर्थंकरों की पूजा और उनकी जयमाल तथा भारती साधना का पथ निर्माण करते हैं । इस साहित्य विद्या की सीमंधर स्वामी स्तवन, मिथ्या दुक्कण विनती गर्मविचार स्तोत्र, गजानन्द पंचासिका, पंच स्तोत्र, सम्मेदशिखिर स्तवन, जैन चौबीसी, विनती संग्रह, ननिक्षेप स्तवन प्रादि शताधिक रचनाएं हैं जो रहस्य भावना की अभिव्यक्ति में अन्यतम माधन कही जा सकती है। भक्तिभाव से प्रोतप्रोत होना इनकी स्वाभाविकता है।
उपर्युक्त स्तवन साहित्य में कुछ पदों का रसास्वादन कीजिए । कवि भूदरदास की जिनेन्द्रस्तुति अन्तःकरण को गहराई से छूती हुई निकल रही है
अहो जगत गुरु देव, सुनिए अरज हमारी । तुम प्रभु दीनदयाल, मैं दुखिया संसारी ॥ इस भव-वन के मांहि, काल अनादि गमायो । भ्रम्यो चतुर्गति माहिं, सुख नहिं दुख बहु पायो ।। कर्म महारिषु जोर, एक न काम कर जी।
मन माने दुख देहिं, काहू सों नाहिं डरे जी । इसी प्रकार द्यानतराय का 'स्वयंभू स्तोत्र' भी उल्लेखनीय है जिसमें तीर्थकरों की महिमा का गान है। इसमें पार्श्वनाथ और वर्तमान की महिमा के पद दृष्टव्य है
1. नाटक समयसार, संवरद्वार, पृ. 10
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बत्य कियो उपसर्ग अपार, ध्यान देखि मायो फनिधार। मयो कमठ मठ मुख कर श्याम, नमों मेरु सम पारस स्वाम 123. भवसागर तें जीव अपार, परम पोत में घरे निहार । बत काढ़े दया विचार, वर्षमान बंदी बहुबार ।।24.
पूजा और जयमाल साहित्य में भी कतिपय उदाहरण दृष्टव्य हैं जो रहस्यास्मक तत्त्व की गहनता को समझने में सहायक बनते है । अर्जुनदास, मजयराज पाटनी, धानतराय, विश्वभूषण, पांडे जिनदास प्रादि अनेक कवि हुए हैं जिन्होंने संगीतपरक साहित्य लिखा है । देखिए, कविवर द्यानतराय की सोलहकारण पूजा में कितनी भाव विभोरता है
कवन झारी निर्मल नीर, पूजों जिनवर गुन-गंभीर । परमगुरु हो जय जय माथ परम गुरु हो । दरशविशुद्ध भावना भाव, सोलह तीर्थकर पद पाय ।
परमगुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो॥ इसी प्रकार भगवतीदास ने ब्रह्मविलास में परमात्मा की जयमाला में ब्रह्म रूप परमात्मा का चित्रण किया है
एक हि ब्रह्म असंख्यप्रदेश । गुण अनंत चेतनता भेश । शक्ति मनंत लस जिह माहि । जासम और दूसरा नाहिं ।। दर्शन ज्ञान रूप व्यवहार निश्चय सिद्ध समान निहार ।
नहिं करता नहिं करि है कोय । सदा सर्वदा प्रविचल सोय ।। चाडपई काव्यों में ज्ञामपंचमी, बलिभद, ढोलामारु, कुमतिविध्वंस, विवेक, मलसुन्दरी प्रादि रचनाएं उल्लेखनीय हैं जो भाषा और विषय की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं । इनके अतिरिक्त मालदेव की पुरन्दर चौ., सुरसुन्दरी चौ., वीरांगद चौ., देवदत्त चौ. मादि, रायमल्ल की चन्द्रगुप्त चौ., साधुकीर्ति की नमिराज चौ., सहजकीति की हरिश्चन्द चौ., नाहर जटमल की प्रेमविलास चौ., टीकम की चतुर्दश चौ., जिनहर्ष की ऋषिदत्ता चौ., यति रामचन्द्र की मूलदेव चौ.. लक्ष्मी बल्लभ की रनहास पपई भी सरसता की दृष्टि से उदाहरणीय हैं।
चूनड़ी काव्य में रूपक तत्त्व अधिक ममित रहता है। इसी के माध्यम से जैन धर्म के प्रमुख तत्वों को प्रस्तुत किया जाता है। विनयचन्द की चूनझे (सं. 1576), साधुकीति की धूनड़ी (सं. 1648), भगवतीदास की मुकति रमणी चूड़ी (सं. 1680), चन्द्रकीर्ति की चारित्र चूनड़ी (सं. 1655) मादि काव्य इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय है । विनयचन्द्र की चूनड़ी में पत्नी पति से ऐसी धूनही वाहती है जो उसे भव-समुद्र से पार करा सके
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विणए बन्दवि पंचगुरु, मोह-महातम-तोगणियर।
साह हिन हावहि खूनडिय युवउ पभणइ पिड मोडिषि कर ॥1 फागु, बैलि, बारहमासो पौर विवाहलो साहित्य :
फागु में भी कवि अत्यन्त भक्तविभोर और आध्यात्मिक संत-सा दिखाई देता है । इसमें कवि तीर्थकर या प्राचार्य के प्रति समर्पित होकर भक्तिरस को उड़ेलता है । मलधारी राजशेखर सूरि की नेमिचन्द फागु (सं. 1405), हलराज की स्थूलिभद्र फागु (सं. 1409), सकलकीति की शान्तिनाथ फागु (सं. 1480), सोमसुन्दर सूरि की नेमिनाथ वरस फागु (सं. 1450), ज्ञानभूषण की मादीश्वर फागु (1560) मालदेव की स्थूलभद्र फागु (सं. 1612), वाचक कनक सोम की मंगल कलश फागु (सं. 1649), रनकीर्ति, धनदेवर्गारण, समधर, रत्नमण्डन, रायमल्ल, अंचलकीर्ति, विद्याभूषण आदि कवियों की नेमिनाथ तीर्थकर पर आधारित फागु रचनाएं काव्य की नयी विधा को प्रस्तुत करती हैं जिसमें सरसता, सहजता और समरसता का दर्शन होता है । नेमिनाथ और राजुल के विवाह का वर्णन करते समय कवि अत्यन्त भक्तविभोर और आध्यात्मिक संत-सा दिखाई देता है । इसी तरह हेमविमल सूरि फागु (सं 1554), पार्श्वनाय फागु (सं 1558), वसन्त फागु, सुरंगानिध नेमि फागु, अध्यात्म फागु प्रादि शताधिक फागु रचनाएँ प्राध्यात्मिकता से जुड़ी हुई हैं।
___ इनके अतिरिक्त फागुलमास वर्णन सिद्धिविलास (सं. 1763), अध्यात्म फागु, लक्ष्मीबल्लभ फागु रचनाओं के साथ ही धमाल-संज्ञक रचनाएं भी जैन कवियों की मिलती है जिन्हें हिन्दी में धमार कहा जाता है। अष्टछाप के कवि नन्ददास और गोविन्ददास आदि ने वसंत और टोली पदों की रचना धमार नाम से ही की है। लगभग 15-20 ऐसी ही धमार रचनाएं मिलती हैं जिनमें जिन समुद्रसूरि की नेमि होरी रचन। विशेष उल्लेखनीय है ।
बेलि साहित्य में वाछा की चङगति वेलि (1520 ई०), सकलकीति (16वीं शताब्दी) की कर्पूरकथ बेलि, महारक वीरचंद की जम्बूस्वामी बेलि (सं, 1690), ठकुरसी की पंचेन्द्रिय बेलि (सं. 1578), मल्लदास की क्रोषबेलि (सं. 1588), हर्षकीर्ति की पंचगति बेलि (सं. 1683), ब्रह्म जीवंधर की गुणणा बेलि (16वीं शताब्दी), अभयनंदि की हरियाल बेलि (सं. 1630), कल्याणकीर्ति की लघु-बाहुबली बेलि (सं. 1692), लाखाचरण की कृष्णरुक्मणि बेलि टब्बाटीका (सं. 1638), तथा 6वीं शती के वीरचन्द, देवानंदि, शांतिदास, धर्मदास की क्रमशः सुदर्शन बेलि, जम्बूस्वामिनी बेलि, बाहुबलिभी बेलि, भरत बेलि, लघुबाहुबलि केलि, गुरुबेलि और 17वीं शती के ब्रह्मजयसागर की मल्लिदासिमी बेलि व साह लोहठ की षड्लेश्यावेलि
__1. विनयचन्द्र की चूनड़ी, पहला ध्रुवक ।
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का विशेष उल्लेख किया जा सकता है जिसमें भक्त कवियों ने अपने सरस भावों को सुनगुनाती भाषा में उतारने का सफल प्रयत्न किया है।
बारहमासा भी मध्यकाल की एक विधा रही है जिसमें कवि अपने बडास्पद देव या प्राचार्य के बारहमासों की दिनचर्या का विधिवत् प्रात्याने करता है। ऐसी रचनात्रों में हीरानन्द सूरि का स्थूलि भर बारहमासी और नेमिनाथ बारहमासा (15वीं शती) डूंगर का नेमिनाथ फांग के नाम से बारहमासा (सं. 1535) ब्रह्मबूनराज का नेमीश्वर बारहमासा (सं. 1581), रत्नकीति का नेमि बारहमासा (सं. 1614), जिनहर्ष का नेमिराजमति बारहमासा (सं. 1713), बल्लभ का नेमिराजुल बारहमासा (सं. 1727), विनोदीलाल अग्रवाल का नेमिराजुल बारहमासा (सं. 1749) सिद्धिविलास का फागुणमास वर्णन (सं. 1763), भवानीदास के अध्यात्म बारहमास (सं. 1781), सुमति-कुमति-कुमति बारहमास, विनयचन्द्र का नेमिनाथ बारहमास (18वीं शती) आदि रचनाएँ विशेष प्रसिद्ध हैं । ये रचनाएँ अध्यात्म और भक्तिपरक है । इसी तरह की और भी शताधिक रचनाएँ हैं जो रहस्य साधना की पावन सरिता को प्रवाहित कर रही हैं । स्वतन्त्र रूप से बारहमासा 16वीं शती के उत्तरार्ध से अधिक मिलते हैं ।
विवाहलो भी एक विधा रही है जिसमें साधक कवि ने अपने भक्तिभाव को पिरोया है । इस सन्दर्भ में जिनप्रभसूरि (14वीं शती) का अंतरंग विवाह, हीरानंदसूरि (15वीं शती) के अठारहनाता विवाहलो और जम्बूस्वामी विवाहलो, ब्रह्माविनयदेव सूरि (सं. 1615) का नेमिनाथ विवाहलो, महिमसुन्दर (सं. 1665) का नेमिनाथ विवाहलो, सहजकीति का शांतिनाथ विवाहलस (सं. 1678), विजय रत्नसूरि का पार्श्वनाथ विवाहलो (सं. 8वीं शती) जैसी रचनाएँ विशेष उल्लेखनीय हैं। इन काव्यों में चरित नायकों के विवाह प्रसंगों का वर्णन तो है ही पर कुछ कवियों ने व्रतों के ग्रहण को नारी का रूपक देकर उसका विवाह किसी संयमी व्यक्ति से रवाया है। इस तरह द्रव्य और भाव दोनों विवाह के रूप यहां मिलते हैं । ऐसे काव्यों में उदयनंदि सूरि विवाहला, कीतिरत्न सूरि, गुणरत्न सूरि सुमतिसाधु सूरि पौर हेम विमल सूरि विवाहले हैं।
बह्म जिनदास (15वीं शती) ने अपने रूपक काव्य परमहंस रास' में शुद्ध स्वभाबी मात्मा का चित्रण किया है। यह परमहंस मात्मा माया रूप रमणी के पाकर्षण से मोह प्रसित हो जाता है। चेतना माहिती के कारा समझाये जाने पर भी वह मायाजाल से बाहर नहीं निकल पाता। उसका मात्र बहिरात्मा जीव काया नगरी में बच रहता है । माया से मान-पुत्र पैदा होता है । मन की निवृत्ति व प्रवृत्ति रूप दो पलियों से क्रमशः विवेक और मोह नामक पुत्रों की उत्पत्ति होती है । ये सभी परमहंस (बहिरात्मा) को कारागार में बन्द कर देते है और विकृत्ति तथा बिबेक को पर
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से बाहर कर देते हैं । इधर मोह के शासनकाल में पाप वासनामों का व्यापार प्रारंभ हो जाता है । मोह की दासी दुर्गति से काम, राग, पौर देष ये तीन पुत्र तथा हिंसा, घणा मोर निद्रा ये तीन पुत्रियां होती हैं। विवेक सन्मति से विवाह करता
सम्यक्स्व के खड्ग से मिथ्यात्व को समाप्त करता है । परमहंस प्रात्मशक्ति को जाग्रत कर स्वात्मोपनधि को प्राप्त करता है। इसी तरह ब्रह्मवूपराब, बनारसीवास मादि के काव्य भी इसी प्रकार भावाभिव्यक्ति से मोतप्रोत हैं।
फागु साहित्य में नेमिनाथ फागु (भट्टारक रत्नकीति) यहाँ उल्लेखनीय है कवि ने राजुल की सुन्दरता का वर्णन किया है
चन्द्रवदनी मृगलोचनी, मोचनी खंजन मीन । वासग नीत्पो वेरिणई, मेरिणय मधुकर दीन । युगल गल दाये शशि, उपमा नासा कीट । अधर विद्रुम सम उपमा, दंत नू निर्मल नीर ।। चिदुक कमल पर षट्पद, मानन्द कर सुधापान ।
ग्रीवा सुन्दर सोमती कम्बु कपोलने बान ।। कुछ फागुमो में अध्यात्म का वर्णन किया गया है। इस दृष्टि से बनारसीदास का मध्यातम फाग उल्लेखनीय है जिसमें कवि ने फाग के सभी अंग-प्रत्यंगों का सम्बन्ध प्रध्यात्म से जोड दिया है
भवपरपति चाचरित भई हो, मष्टकर्म बन जाल । अलख अमूरति मातमा हो, खेलं धर्म धमाल । नयपंकति चारि मिलि हो, ज्ञान ध्यान उफताल।
पिचकारी पद साधना हो संवर भाव गुलाल ॥' ऐतिहासिक वेलियो के साथ ही प्राध्यात्मिक वेलियां भी मिलती है। इन प्राध्यात्मिक वेलियो में 'पंचेन्द्रिय वेलि' विशेष उल्लेखनीय है जिसमे कवि ठाकरसी मे पंचेन्द्रिय-विषय वासना के फल को स्पष्ट किया है। स्पर्शन्द्रिय में प्रासक्ति का परिणाम है कि हापी लौह शृंखलामो से बंध जाता है और कीचक, रावण प्रादि दारुण दुःख पाते हैं।
वन तरुवर फल सउँ फिरि, पय पीवत ह स्वचंद । परसण इन्द्री प्रेरियो, बहु दुख सहे गयन्द ।।
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1. परमहंस रास, खंडेलवाल दि० जैन मन्दिर, उदयपुर में सुरक्षित है। 2. हिन्दी बन भक्ति काव्य पोर कषि, पृ. 109 3. बनारसी विलास, अध्यातम काग, 10-11, पृ. 155
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risai पाग संकुल चाले, सो कियो मसकं चाले । परसरण प्ररहं दुख पायो, तिनि अंकुश पावा पायो || परसा रस कीचक पूरय, गहि भीम शिलातल चूर्यो । परसरण रस रावण नामइ, वारची लंकेसुर रामद | परसरण रस शंकर राज्यौ तिय प्राये नट ज्यो नाच्यो ॥
मध्यकालीन हिन्दी जैन साहित्य में 'बारहमासा' बहुत लिखे गये हैं। उनमें से कुछ तो निश्चित ही उन्चकोटि के हैं । कवि विनोदीलाल का नेमि राजुल बारहमासा यहाँ उल्लेखनीय है जिसमें भाव और भाषा का सुन्दर समन्वय दिखाई देता है । यहाँ राजुल अपने प्रिय नेमि को प्राप्य पौष माह की विविध कठिनाइयों का स्मरण दिलाया है
पिय पौष में जाड़ो परंगी बनो, बिन सौंढ़ के शीत कैसे भर हो । कहा प्रोढेगे शीत लगे जब ही, किधों पातन की ध्रुवनीघर हो || तुम्हरो प्रभुजी तन कोमल है, कैसे काम की फौजन सौंलर हो । जब प्रावेगी शीत तरंग सबै, तब देखत ही तिनको डर हो ।
संख्यात्मक काव्य
मध्यकालीन हिन्दी जैन कवियों ने संख्यात्मक साहित्य का विपुल परिमाण में सृजन किया है । कहीं यह साहित्य स्तुतिपरक है तो कहीं उपदेश परक, कहीं अध्यात्मपरक है तो कहीं रहस्य भावना परक । इस विधा में समासशैली का उपयोग दृष्टव्य है ।
लावण्यसमय का स्थूलभद्र एकवीसो (सं. 1553), हीरकलम सिहासनवतीसी (सं. 1631), समयसुन्दर का दसशील तपभावना संवादशतक (सं. 1662), वासो कामत (सं. 1645), उदयराज की गुणवाबनी (सं. 1676), बनारसीदास की समकितवत्तीसी (सं. 1681), पांडे रूपचन्द का परमार्थ दोहाशतक, प्रानन्दघन का श्रानन्दघन बहत्तरी (सं. 1705), पाण्डे हेलराज का सितपट बौरासी बोल (सं. 1709 ), जिनरंग सूरि की प्रबोधवावनी (सं. 1731), रायमल्ल की प्रात्मaait (17ai aat), बिहारीदास की सम्बोषपंचासिका (सं. 1758), भूमरदास का जैनशतक (सं. 1781), बुधजन का चर्चाशतक प्रादि काव्य अध्यात्मरसता के क्षेत्र में उल्लेखनीय हैं।
1. हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि, पृ. 87 मिल बारहमासा, पृ. 14
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उपर्युक्त संस्थात्मक साहित्य में से कुछ मनोरम पद्य नीचे उदघृत हैं। बनारसीदास विरचित शानबावनी के निम् पद्य में प्रात्मज्ञानी की अवस्था और उसके जीवन की गतिविधियों का चित्रण देखते ही बनता हैऋतु बरसात नदी नाले सर जोर चढ़,
बाद नाहिं मरजाद सागर के फैल की। नीर के प्रवाह तृण काठवृन्द बहे जात,
चित्रावेल प्राइ चढ़े नाहीं कहू गेल की। बनारसीदास ऐसे पंचन के परपंच,
रंचक न संक प्राव वीर बुद्धि छैल की। कुछ न प्रनीत न क्यों प्रीति पर गुण केती,
ऐसी रीति विपरीति अध्यातम शैली ॥ इसी प्रकार भैया भगवतीदास ने अमित्यपच्चीसिका के एक पद्य में स्पष्ट किया है कि दुर्लभ नरभव को पाकर सच्चा प्रात्मबोध न होने से प्राणी भौतिक सुखों में उलझा रहता है। नर देह हाये कहा, पंडित कहाये कहा,
तीर्थ के न्हाये कहा तटि तो न जैहै रे । लच्छि के कमाये कहा, मच्छ के अघाये कहा,
छष के घराये कहा छीनता न ऐहें रे ।। केश के मुडाये कहा भेष के बनाये कहा,
जोवन के आये कहा, जराहू न खैहै रे । प्रम को विलास कहा, दुर्जन मे वास कहा,
प्रातम प्रकाश विन पीछे पछितैहै रे ।।
गातिकाव्य हिन्दी जन साहित्य में गीतिकाव्य का प्रमुख स्थान रहा है। उसमें वैयक्तिक भावात्मक अनुभूति की गहराई, प्रात्मनिष्ठता, सरसता और संगीतात्मकता आदि तत्वों का सनिवेश सहज ही देखने को मिल जाता है। लावनी, भजन, गीत, पद प्रादि प्रकार का साहित्य इसके अन्तर्गत पाता है। इसमें अध्यात्म, नीति, उपदेश, दर्शन, पैराग्य, भक्ति प्रादि का सुन्दर चित्रण मिलता है। कविवर बनारसीदास, बुधजन, धानत्तराय, दौलतराम, भैया भगवतीदास मादि कवियों का गीति साहित्य विशेष उल्लेखनीय है । जैन गीतिकाव्य सूर, तुलसी, मीरा भादि के पद साहित्य से किसी प्रकार कम नहीं। भक्ति सम्बन्धी पदों में सूर, तुलसी के समान दास्प-सस्य भाव, दीनता, पश्चात्ताप मादि भावों का सुन्दर और सरस चित्रण है। जैन कवियों के प्राराध्य राम के समान शील, शक्ति मोर सौन्दर्य से समन्वित या समान
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शक्ति सौन्दर्य से युक्त नहीं है। ये तो पूर्ण बीतसगी हैं। बता मकान उनसे कुछ अभीष्ट की कामना कर सकता है और न उसकी कामापूर्ण ही हो सकती है। इसके लिए वो उसे ही सम्यकज्ञान और सम्यकपारित्र का परिणामन करना होगा । मतः यहां अभिव्यक्त भक्ति निष्काम अहेतुक भक्ति है । भावावेश में कुछ कषियों ने अवश्य उनका पतितपावन रूप और उलाहना प्रादि से सम्बद पद लिखे हैं। इन सभी विशेषतामों को हम शताधिक हिन्दी जैन पद और गीतिकाव्यों में देख सकते हैं। उदाहरणार्थ-णमोकारफलगीत, मुक्ताफलगीत, नेमीबरणीत, (भ. सकलकोति, सं. 1443-1499), बारहवतगीत--जीवहागीत-जिगन्दगीत (ब्रह्मजिवदास, सं. 1445 से 1525), नेमीपवरगीत (चतरुमल, सं. 1571), पनकामीत (भ. भीमसेन, सं. 1520), विजयकीतिगीत, टंडारणागीतनेमिनाथ पसंत बाबूबराज, मं. 1591), नेमिनायगीत-मल्लनाथगीत (यशोवर, मं. 1581), मध्ठालिका गीत और पद (शुभचन्द्र), सीमंधर स्वामीगीत (भ. वीरचन्द्र, सं. 1580), बसालविलासगीत (सुमतिकीर्ति, सं. 1626), पंचसहेली-पंथिगीत-उदरगीत (बीहल, सं. 1574), पदसंग्रह (जिनदास पांडे), फुटकर शताधिक गीत (समयसुन्दर, सं. 1641-1700), पूज्यवाहनगीत (कुशललाभ), गीतसाहित्य (ब्रह्मसागर. सं. 1580--1655), कुमुवचन्द्र का मीतसाहित्य सं. 1645-1687), अाराधनागीत वादिचन्द्र (सं 1651), जिनराजसूरिगीत (सहजकीति, सं. 1662), नेमिनाथपद (हेमविजय, सं 1666), नेमिनाथराजुल प्रादि गीत (हर्षकीति, सं. 1683), मुनि अभय चन्द्र का मीन साहित्य (सं 1685-1721), ब्रह्मधर्मरुचि का गीत साहित्य (16 वीं), संयम सागर का गीत साहित्य, (सं. 16वीं शती), कनककीर्ति का गीत साहित्य (16बी शती), जिनका गीत साहित्य (17वी शती), जगतराम की जैन पदावली (सं 1724), किमानसिंह का गीत साहित्य (सं. 1771), भूधरदास का पद संग्रह, भवानीदास का गीत साहित्य (सं. 1791), माणिकचंद का पद साहित्य (सं. 1809) मगलराम का पद साहित्य (सं. 1825), ऐसे हजारों पद हिन्दी जैन कवियों के यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं जिनमें माध्यात्मिकता पौर रहस्यवादिता के तत्व गुजित हो रहे हैं।
यह काव्य विधा व्यष्टि और समष्टि चेतना का समहित किए हुए है। माध्यात्मिक विश्लेषण को ध्यानात्मकता के साथ जोड़कर कवियों ने सुन्दर और सरस भावबोध की सर्जना प्रस्तुत की है। मारमासे परमात्मा तक की मायासमयी दीर्घ यात्रा में पूजा, उपासना, उलाहना, दास्यभक्ति, शरालि, दाम्पत्यभाव, फाग, होली, वात्सल्यभाक, मन की चंचलता, स्नेहाधिक विकारणाको की परिणति, सत्संगति, संसार की प्रसारता, प्रामबोधन, भेनिशान, प्राध्यात्मिक विवाह, वितशुद्धि पादि विषयों पर हिन्दी न कलियों में जिस मामिकाता पोर तपस्पपिता के साथ शब्दों में अपने भाव गूथे हैं वे माव्य की ष्ट से तो स्तमा है ही पर नहत्य साधना के क्षेत्र में भी वे अनुपक्या लिके हुए हैं।
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उपर्युक्त गीत अथवा पद में से कतिपय पदों की सरसता उल्लेखनीय है । अधिकांश पदों में प्रावश्यक सभी तत्व निहित हैं। संगीतात्मकता की दृष्टि से मैया भगवतीदास का निम्न पद कितना मधुर है ! इसमें शरीर को परदेशी के रूप में दर्शाकर यथार्थता का चित्रल बड़ी कुशलता से किया है
कहा परदेशी को पतियारो । मनमाने तब चले पंथ को, साँझ गिर्न न सकारी। सबै कुटुम्ब छोड़ इतही पुनि, त्याग चले तन प्यारो॥ दूर दिशावर चलत पाप ही, कोउ न रोकन हारौ। कोक प्रीति करो किन कोटिक, अन्त होयगा न्यारो॥ धन सौं राषि धरम सो भूलत, झूलत मोह मंझारी । इहि विधि काल अनन्त गमायो, पायों नहिं भव पारो ॥ सांचे सुखसो विमुख होत हो, भ्रम मदिरा मतवारो।
चेतह चेत सुनहु रे भइया, पाप ही प्राप संभारी॥ इसी प्रकार प्रात्माभिव्यक्ति का तत्व कवि दौलतराम के निम्न पद में अभिव्यजित है
मेरो मन ऐसी खेलत होरी। मन मिरदंगसाज करि त्यारी, तन को तमूरा बनोरी। सुमति सुरंग सारंगी बजाई, ताल दोउ करजोरी। राग पांचों पद कोरी मेरो मन समकिति रूप नीर भर भारी, करुना केशर घोरी । ज्ञानमई लेकर पिचकारी, दोउ कर माहिं सम्होरी ।
इन्द्री पांचौ सखि बोरी । मेरो मन।।2।। कविवर बनारसीदास के इस पद में भाव और अभिव्यंजना का कितना समन्वय है
चेतन तू ति काल अकेला । नदी नाब संजोग मिले ज्यौं, त्यों कुटुम्ब का मेला ॥चेतन।। यह संसार अपार रूप सब, ज्यों पट पेखन खेला। सुख सम्पत्ति शरीर जल बुदबुद, विनशत नाही बेला चेतन।। मोह मगन भति मगन भूलत, परी तोहि गलजेला। मैं मैं करत चहूं गति डोलत, बोलत जैसे खेला चितन।। कहत बनारसि मिथ्यामत तजि, होय समुरु का चेला । तास वचन परतीत मानयि, होइ राहज सुरझला विना ।
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प्रकीर्णक काग्य में यहां हमने लाक्षणिक साहित्य, कोश, गजल, मुर्वावली आत्मकथा प्रादि विधानों को अन्तभूत किया है। इन विधानों की मोर इष्टिपात करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन कवि मात्र अध्यात्म और भक्ति की पोर ही माकषित नहीं हुए बल्कि उन्होंने छन्द, भलंकार, प्रात्मकथा, इतिहास मादि से सम्बद्ध साहित्य की सर्जना में भी अपनी प्रतिभा का उपयोग किया है।
__ लाक्षणिक साहित्य में पिंगल शिरोमणि, छन्दोविद्या, छन्द मालिका, रसमंजरी, चतुरप्रिया, अनूपरसाल, रसमोह शृंडार, लखपति पिंगल, मालापिंगल, छन्दशतक, अलंकार आशय, प्रादि रचनाएँ महत्वपूर्ण हैं। इसी तरह मनस्तमितव्रत संधि, मदनयुद्ध, अनेकार्थ नाममाला, नाममाला, मात्मप्रवोधनाममाला, प्रर्धकथानक, अक्षरमाला, गोराबादल की बात, रामविनोद, वैद्यकसार, बचनकोष, चित्तौड़ की गजल, क्रियाकोश, रत्नपरीक्षा, शकुनपरीक्षा, रासविलास, लखपतमंजरी नाममाला, गुर्वावली, चत्य परिपाटी आदि रचनाएँ विविध विधामों को समेटे हुए हैं।
इसी तरह कुछ हियाली संज्ञक रचनाएँ भी मिलती हैं जो प्रहेलिका के रूप मे लिखी गई है । बौद्धिक व्यायाम की दृष्टि से इनकी उपयोगिता निःसंदिग्ध है । मध्यकालीन जैनाचार्यों ने ऐसी अनेक समस्या मूलक रचनाएँ लिखी हैं । इन रचनामों में समयसुन्दर और धर्मसी की रचनाएँ विशेष उल्लेखनीय हैं।
उपर्युक्त प्रकीर्णक काव्य में मध्यकालीन हिन्दी जैन कवियों ने कहीं रस के सम्बन्ध में विचार किया है तो कहीं प्रलंकार पोर छन्द के, कहीं कोश लिखे हैं तो कहीं गुर्वावलियां, कहीं गजलें लिखी हैं तो कहीं ज्योतिष पर विचार किया है। यह सब उनकी प्रतिभा का परिणाम है। यहां हम उनमे से कतिपय उदाहरण प्रस्तुत करेंगे।
कविवर बनारसीदास ने काव्य रसों की संख्या 9 मानी है-भृगार, वीर, करुण, हास्य, रोद्र, वीभत्स, भयानक, अद्भुत और शान्त । इनमें शान्त रसको 'रसनिको नायक' कहा है। उसका निवास वैराग्य में बताया है-माया की मरुचिता में शान्त रस मानिये ।" उन्होंने इन रसों के पारमार्थिक स्थानों पर भी विचार किया है
गुन विचार सिंगार, वीर उद्यम उदार रुख । करूना समरस रीति, हास हिरदै उखाह सुख । बष्ट करम दल मलन, रुद्र बरत तिहि मानक । तन बिलेछ बीमत्छ दुन्द मुख वसा भयानक ॥
1. नाटक समयसार, सर्वविशुविद्वार, 133-134.
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प्रत अनंत बल चितवन, सांत सहज वैराग व नवरसविलास पास तब, जब सुबोध घट, प्रगट हुव ॥
रस के समान प्रकार पर भी हिन्दी जैन कवियों ने विचार किया है। इस संदर्भ में कुंवरकुशल का लखपत जयसिंधु और ग्राम का कार माय मचरी उल्लेखनीय है। यहां रस, वस्तु और प्रबंकार को स्पष्ट किया गया है । अलंकार के कारण वस्तु का चित्रस्य रमणीय बनता है। उससे रस उपकृत होता है और भों की रमणीयता में निखार भाता है ।
छन्दोविधान की दृष्टि से भी हिन्दी जैन कवि स्मरणीय हैं। कविवर वृन्दावनदास ने प्रत्यन्त सरल भाषा में लघु-गुरु को पहचानने की प्रक्रिया बतायी है
गुरु की पढ़ियो लघु को
गुरु हूँ को लघु कहत हैं, समझत सुकवि सुचेत ॥
ठों गणों के नाम, स्वामी और फल का निरूपण कवि ने एक ही सर्वये में कर दिया है
लघु की रेखा सरल है, इहि क्रम सौं गुरु-मधु परखि, कहूं कहूँ सुकवि प्रबन्ध महं,
रेखा बंक | छन्द निशंक 11 गुरु कह देत ।
मगन तिगुरु मूलच्छि लहावत नगन तिलघु सुर शुभ फल देत । मगन जल शुद्धि करेत ॥ जगन रवि रोग निकेत । लघु नव शून्य समेत ||
मगन प्रादि गुरु इन्दु सुजस, लघु श्रादि रगन मध्य लघु, भगिन मृत्यु, गुरुमध्य सगत भन्त गुरु, वायु भ्रमन तगनत इसी प्रकार बनारसीदास की नाममाला, भगवतीदास की अनेकार्थ नाममाला भादि कोश ग्रन्थ भी उल्लेखनीय हैं। यह कोश साहित्य संस्कृत कोश साहित्य से प्रभावित है ।
इस प्रकार श्रादि-मध्यकालीन हिन्दी जैन काव्य की प्रवृत्तियों की घोर दृष्टिपात करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि साधक कवियों ने साहित्य की किसी एक विघा को नहीं अपनाया, बल्कि लगभग सभी faurai में अपनी प्रतिभा को उन्मेषित किया है । यह साहित्य भाव, भाषा मौर अभिव्यक्ति की दृष्टि से भी उच्चकोटिका है । यद्यपि कवियों का यहाँ आध्यात्मिक प्रथवा रहस्य भावनात्मक उद्देश्य मूलत: काम करता रहा पर उन्होंने किसी भी प्रकार से प्रवाह में गतिरोध नहीं होने दिया । रसचर्वणा, छन्द- वैविध्य, उपमादि अलंकार, श्रीजादि गुण स्वाभाविक रूप जे अभिव्यंजित हुए है । भाषादि भी कहीं बोझिल नहीं हो पाई। फलतः पाठक सरसता और स्वाभाविकता के प्रवाह में लगातार बहता रहता है और रहस्य भावना के मार्ग को प्रशस्त कर लेता है। अंतर कवियों की तुलना से भी यही बात स्पष्ट होती है ।
1. हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन, पृ. 239. 2. वही ।
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चतुर्व परिवर्त रहस्यभावना : एक विश्लेषण
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रहस्य-शाब्दिक अर्थ, अभिव्यक्ति और प्रयोग :
सृष्टि के सर्जक तत्व अनादि और अनन्त हैं, उनकी सर्जनशीलता प्राकृतिक शक्तियों के संगठित रूप पर निर्भर करती है । पर उसे हम प्रायः किसी अज्ञात शक्ति विशेष से सम्बद्ध कर देते हैं, जिसका मूल कारण मानसिक दृष्टि से स्वयं को असमर्थ स्वीकार करना है। इसी प्रसामर्थ्य मे सामर्थ्य पैदा करने वाले 'सत्यं शिवं सुन्दरम्' तत्व की गवेषणा और स्वानुभूति की प्राप्ति के पीछे हमारी रहस्यभावना एक बहुत बड़ा सम्बल है । साधक के लिए यह एक मुह तस्व बन जाता है जिसका सम्बन्ध पराबौद्धिक ऋषि-महर्षियों की गुह्य साधना की पराकाष्ठा और उसकी विशुद्ध तपस्या से जुड़ा हुमा है । प्रत्येक दृष्टा के साक्षात्कार की दिशा, मनुभूति पौर अभिव्यक्ति समान नहीं हो सकती। उसका ज्ञान और साधनागम्म मनुभव अन्य प्रत्यक्षदर्शियों के शान और अनुभव से पृथक् होने की ही सम्भावना अधिक रहा करती है। फिर भी लगभग समान मानों को किसी एक पन्थ वा सम्प्रदाय से जोड़ा जाना भी अस्वाभाविक नहीं। जिस मार्ग को कोई चुम्बकीय व्यक्तित्व प्रस्तुत कर देता है, उससे उसका चिरन्तन सम्बन्ध जुड़ जाता है और भागामी शिष्यपरम्परा उसी मार्ग का अनुसरण करती रहती है । यथा समय इसी मार्ग को अपनी परम्परा के अनुकूल कोई नाम दे दिया जाता है, जिसे हम अपनी भाषा में धर्म कहने लगते हैं। रहस्यभावना के साथ ही उसका अविनामाच सम्बन्ध स्थापित कर दिया जाता है और कालान्तर में भिन्न-भिक्ष धर्म और सम्प्रदायों की सीमा में उसे बांध दिया जाता है।
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'रहस्य' शब्द 'रहस्' पर आधारित है । 'रहस्' शब्द 'रह' त्पागार्थक धातु से असुन् प्रत्यय लगाने पर बनता है। तदनंतर यत् प्रत्यय जोड़ने पर रहस्य शब्द निर्मित होता है । उसका विग्रह होगा-रहसि भवम् रहस्यम् । अर्थात् रहस्य एक ऐसी मानसिक प्रतीति अथवा अनुभूति है, जिसमें साधक शेय वस्तु के अतिरिक्त ज्ञेवान्तर वस्तुओं की वासना से प्रसंपृक्त हो जाता है। __'रहस्' शब्द का द्वितीय अर्थ विविक्त, विजन, छन्न, निःशलाक, रह, उपांशु मोर एकान्त है। और विजन में होने वाले को रहस्य कहते है। (रहसिभवम् रहस्यम्) । गुह्य अर्थ में भी रहस्य शब्द का प्रयोग हुमा है। श्रीमद्भगवद् गीता और उपनिषदों में रहस्य शब्द का विशेष प्रयोग दिखाई देता है । वहां एकान्त अर्थ में 'योगी यु जीत सततमात्मानं रहसि स्थितम्', मर्म अर्थ मे 'भक्तो सि सखा चेति रहस्यम् हवेतदमुत्त' और गुहार्थ में 'गुह्ययाद् गुह्यतरं' (18. 63), 'परम गुह्य' (18. 38) आदि की अभिव्यक्ति हुई है। इस रहस्य को प्राध्यात्मिक क्षेत्र में अनुभूति के रूप में और काव्यात्मक क्षेत्र में रस के रूप में प्रस्फुटित किया गया है। रहस्य के उक्त दोनो क्षेत्रो के मर्मज्ञों ने स्वानुभूति को 'चिदानन्द चैतन्य' अथवा 'ब्रह्मानंद सहोदर' नाम समर्पित किया है । रस-निस्पति के सन्दर्भ में ध्वन्यालोक, काव्यप्रकाश, साहित्यदर्पण आदि प्राचीन काव्य ग्रन्थों में इसका गम्भीर विवेचन किया गया है।
जहां तक जैन साहित्य का प्रश्न है, उसमें रहस्य' शब्द का प्रयोग अन्तराय कर्म के अर्थ मे हुमा है । धवलाकार मे इसी अर्थ को 'रहस्य मंतरायः', (1/1, 1, 1/44) कहकर स्पष्ट किया है । 'रहस्य' शब्द का यह अर्थ कहां से प्राया है, यह गुत्थि अभी तक सुलझ नहीं सकी । सम्भव है अन्तराय कर्म की विशेषता के सन्दर्भ में 'रहस्य' शब्द को अन्तराय कर्म का पर्यायार्षक मान लिया गया हो । जो भी हो, इस अर्थ को उत्तरकालीन प्राचार्यों ने विशेष महत्व नहीं दिया अन्यथा उसका प्रयोग लोकप्रिय हो जाता । दूसरी ओर जैनाचार्यों ने रहस्य शब्द के इर्दगिर्द घूमने वाले प्रर्थ को अधिक समेटा है । गुह्य साधना के अर्थ में उन्होंने रहस्य शब्द का प्रयोग भले ही प्रथमतः न किया हो पर उसमें संनिहित प्राध्यात्मिक वस्तुनिष्ठता को
1. सबंधातुभ्योऽसुन् (उणादिसूत्र-चतुर्थपाद)। 2. तत्र भवः दिगादिभ्यो यत् (पाणिनि सूत्र, 4. ३. 53. 54)। 3. विविक्त विजनः छन्ननिःशलाकास्तथा रहः । __ रहस्योपांशु चालिडे रहस्यम् तद्भवे त्रिषु ॥ अमरकोश 2. 8. 22-23.
मभिधान चिन्तामणि कोश, 741, 4. गुझे रहस्यम्............अभिषान चिन्तामणिकोश, 742.
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तो मूल भावना के रूप में स्वीकार किया ही है । हमें इस संदर्भ में प्रादि तीर्यकर ऋषसदेव को प्रथम रहस्यवादी व्यक्तित्व स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं होगा। उनकी ही परम्परा का प्रवर्तन करने वाले नेमिनाथ, पार्श्वनाथ मोर महावीर जैसे ऐतिहासिक महापुरुषों का नाम भी अग्रमण्य है । इसी रहस्य साधना को जनसामान्य तक पहुंचाने का प्रयत्न करने वालों में प्राचार्य कुद-कुद, कार्तिकेय, पुज्यपाद, योगेन्दु. मुनि रामसिंह, बनारसीदास, मानन्दघन आदि जैसे साधकों का नाम किसी भी तरह भुलाया नहीं जा सकता । उनके ग्रन्थों में प्राध्यात्मिक तत्त्व को रहस्य से जोड़ दिया गया है जहाँ गैन रहस्य साधना का स्पष्ट विश्लेषण दिखाई देता है । जैन साधक 'टोडरमल की रहस्यपूर्ण चिट्ठी' इसी अर्थ को व्यक्त करती है । इस चिट्ठी में उन्होंने अपने कतिपय मित्रों को आध्यात्मिकता का संदेश दिया है। इसी तरह पाइअलच्छिनाममाला, सुपासणाहचरिउ (318) तथा हेमचन्द्र प्राकृत व्याकरण (2.204) मादि ग्रन्थों में भी रहस्य शब्द को गुह्य अथवा प्राध्यात्म की परिधि में मंढ़ दिया है । प्रतएवं इस प्राधार पर यह कहना अनुपयुक्त नहीं होगा कि जन साधकों ने भी 'रहस्य' के दर्शन को अध्यात्म से अङ्गता नहीं रखा । उन्होंने तो वस्तुतः यथासमय रहस्य शब्द का प्रयोग 'पाध्यात्म के अर्थ में ही किया है। आध्यात्म का अर्थ है-प्रात्मा को अर्थात् स्वयं को अधिश्रित करके वर्तमान होना (मात्मानमधिश्रिन्य वर्तमानोऽध्यात्मम्--अषसहस्री, कारिका 2.)। इसमें पात्मा को केन्द्रितकर परमात्मपद की प्राप्ति के लिए प्रयत्न किया जाता है। प्राचीन प्रर्धमागधी जैनागमो में भी इस शब्द का प्रयोग हुआ है।
इस रहस्य तत्व की भावानुभूति वासना रूप भाव के माध्यम से भावक के मानस-पटल पर अकित होती है । इसी को साक्षात्कार कहा जाता है । यह साक्षाकार तभी हो पाता है, जब मिथ्यात्व या प्रज्ञान का मावरण साधक की प्रात्मा से हट जाये । तब इसको रहस्यानुभूति कहा जायेगा । भावानुभूति काव्यात्मक है मौर रहस्यानुभूति साधनात्मक या दार्शनिक है । एक का सम्बन्ध रस से है और दूसरे की परिधि माध्यात्मिक है । प्रथम प्रक्रिया विचार से प्रारम्भ होती है और भावना से होती हुई अनुभूति मे विराम लेती है । द्वितीय प्रक्रिया अनुभूति से अपनी यात्रा प्रारम्भ करती है और भावना से होती हुई विचार में गभित हो जाती है । प्रथम को विषय प्रधान (Objective) कहा जा सकता है और द्वितीय को प्रात्मप्रधान या भावात्मक (Subjective) माना जा सकता है।
1.
सूय, 1.4.18; भगवती, 2.24, 37.38; 9. 137; 15.56, 157%3; 18. 40; नाया. 1.1. 16, 44; 1. 5.90; 1. 7.6. 42; 1.8. 139%B 1.14.70; उवासक, 1.13. 57.59%; पण्हा, 6.2; देखिए, भागम शब्दकोय, पु. 609
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भावना को न्याय प्रणाली में 'चिन्ता', वेदान्त में निदिध्यासन, योग में ध्यान बार कायकत्र में साधारणीकरण व्यापार, व्यापना, मादि के रूप में चिषित किया गया है। माध्यात्मिक क्षेत्र में भावना साधन मात्र है पर काव्य के क्षेत्र में महान भार साध्य दोनों है । दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि रहस्य भाभी को सम्बन्ध पात्मिक-प्राध्यात्मिक साधना से है। पर उसकी भावात्मक भावना काव्यात्मक क्षेत्र में मा जाती है।
वाद के साथ रहस्य (रहस्यवाद) शब्द का प्रयोग हिन्दी साहित्य में सर्वप्रथम प्राचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने सन् 1927 में सरस्वती पत्रिका के मई मंक में किया था। लगभग इसी समय अवधनारायण उपाध्याय तथा प्राचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भी इस शब्द का उपयोग किया। जैसा ऊपर हम देख चुके हैं, प्राचीन काल में 'रहस्य' जैसे शब्द साहित्यिक क्षेत्र में पा चुके थे पर उसके पीछे अधिकांगतः अध्यात्मरस से सिक्त साधना-पथ जुड़ा हुआ था। उसकी अभिव्यक्ति भले ही किसी भाष मोर भाषा में होती रही हो पर उसकी सहजानुभूति सार्वभौमिक रही है। जहां तक उसकी अभिव्यक्ति का प्रश्न है, उसे निश्चित ही साक्षात्कार कर्ता गूगे के गुड़ की भाति पूर्णत: व्यक्त नहीं कर पाता । अपनी अभिव्यक्ति में सामर्थ्य लाने के लिए वह तरह-तरह के साधन अवश्य खोजता है। उन साधनों में हम विशेष रूप से संकेतमयी और प्रतीकात्मक भाषा को ले सकते हैं । ये दोनों साधन साहित्य में भी मिल जाते हैं।
यद्यपि 'रहस्यवाद' जैसा शब्द प्राचीन भारतीय योग-साधनामों में उपलब्ध नहीं होता, पर 'रहस्य' शब्द का प्रयोग अथवा उसकी भूमिका का विनियोग वहां सदव से होता रहा है । इसलिए भारतीय साहित्य के लिए यह कोई नवीन तथ्य नहीं रहा। पर्यवेक्षण करने से प्राधुनिक हिन्दी साहित्य में 'रस्यवाद' शब्द का प्रयोग पाश्चात्य साहित्य के प्रग्रेजी शब्द Mysticism के रूपान्तर के रूप में प्रयुक्त हमा है । इस (Mysticism) शब्द का प्रयोग भी अंग्रेजी साहित्य में सन् 1900 के पास-पास प्रारम्भिक हुमा ।' उसकी रचना ग्रीक भाषा के Mystikes शब्द से होनी चाहिए। जिसका अर्थ किसी गुह्य ज्ञान प्राप्त करने के लिए साधनारत दीक्षित शिष्य है। उस दीक्षित शिष्य द्वारा व्यक्त उद्गार अथवा
1. Bonquet, A., C., Comparative Religion, Pelican Series
1953, P. 286, 2. The Concise Oxford Dictionary, P. 782 (sq. Mystic),
Oxford, 1960 ३. देखिये, मनन्दल का हिन्दी शब्द कोश.
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सिधान्त को रहस्यवाद कहा गया है। इसमें साधना प्रधान है और अनुसूति वा साक्षात्कार की यजमा गमित है।
रहस्यवार को परिभाषा वाद शब्द की निष्पत्ति वद् धातु+धा प्रत्यय = क् +भ से हुई है। जिसका अर्थ कथन होता है । उत्तरकाल में इसका प्रयोग सिद्धान्त और विचारधारा के संदर्भ में होने लगा। भारम्भवाद, परिणामवाद, विवर्तवाद, अनेकान्तबार, विमानबाद मायावाद मादि ऐसे ही प्रयोग हैं। जहां वाद होता है, यहां विवाद की श्रृंखला तयार हो जाती है । प्रात्मसाक्षात्कार की भावना से की गई योम-साधना के साथ भी याद बुला भोर रहस्य बाद की परिभाषा में अनेक रूपता बायी । इसलिए साहित्यकारों ने रहस्य भावना को कहीं दर्शम पदक माना और कही साधनापरक, कहीं भावात्मक (प्रेमप्रधान) तो कहीं प्रकृतिकमूलक, कहीं योगिक तो कही अभिव्यक्तिमूलक । परिभाषामों का यह वैविध्य साधकों की रहस्यानुभूति की विविधता पर ही आधारित रहा है। इतना ही नहीं, कुछ विद्वानों ने तो रहस्य भावना का सम्बन्ध चेतना, संवेदन, मनोवृत्ति और चमत्कारिता से भी जोड़ने का प्रयत्न किया है। इसलिए माजतक रहस्यवाद को परिभाषा सर्वसम्मत नहीं हो सकी। रहस्यवाद की कतिपय परिभाषायें इस प्रकार हैंभारतीय विद्वानों की दृष्टि में रहस्यवाकः--
डॉ० एस. राधाकृष्णन ने सर्म, अध्यात्म पोर रहस्यवाद के बीच सम्बन्ध बनाते हुए लिखा है कि प्रत्येक धर्मों में बाह्य विधि-निषेषों का प्रावधान रहता है जबकि आध्यात्मिकता सर्वोच्च सत्ता को समझाने और उससे तादात्म्य स्थापित करने तथा जीवन के सर्वांगीण विकास की ओर संकेत करती है। माध्यात्मिकता धर्म और और उसके अन्तर्गत निहित तत्व का सार है और रहस्यवाद में धर्म के इसी पक्ष पर बल दिया गया है।
डॉ. महेन्द्रनाथ सरकार ने रहस्यवाद की परिभाषा को दार्शनिक रूप देते हुए कहा है कि रहस्यवाद सत्य एवं वास्तविक तथ्य तक पहुंचने का एक ऐसा माध्यम है जिसे निषेधात्मक रूप में तर्कशून्य कहा जा सकता है। परन्तु डॉ. राधाकमल मुकर्जी ने रहस्यवाद को कला बताते हुए कहा है कि वह एक ऐसा साधन है जिससे साधक मन्तःयोग द्वारा संसार को प्रखण्ड रूप में अनुभव करता है। वासुदेव जग.
1. 2. 3.
Eastero Religion and Western Thoughts, P. 61 Mysticism in Bhaguad Gita, Calcutta, 1944 P. 1. Preface, Mysticism : Theory and Art, P. 12.
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साथ कीतिकार ने रहस्यवाद को एक माचार प्रधान अनुशासन बनाकर उसे ईश्वर से एकता प्राप्त करने का एक साधन बताया है। प्रो. रागडे के अनुसार रहस्यवाद अन्तनि के द्वारा परमात्मा का साक्षात्कार कहा जा सकता है । मा० रामचन्द्र शक्ल के अनुसार साधना के क्षेत्र में जो अद्वैतवाद है, काव्य के क्षेत्र में वही रहस्यवाद है। जयशंकर प्रसाद के अनुसार काव्य में प्रात्मा की संकल्पात्मक अनुभूति की मुख्य धारा का नाम रहस्यवाद बताया है।
डॉ० रामकुमार वर्मा ने रहस्यवाद को अन्तहित प्रवृत्ति का प्रकाशन बताते हुए कहा है-रहस्यवाद जीवात्मा की उस अन्तहित प्रवृत्ति का प्रकाशन है जिसमें वह दिव्य और अलौविक शक्ति से अपना शान्त और निश्छल सम्बन्ध जोड़ना चाहती है पौर यह सम्बन्ध यहां तक बढ़ जाता है कि दोनों में कुछ भी अन्दर नहीं रह जाता। प्रा० परशुराम चतुर्वेदी ने रहस्यवाद की व्यापकता को स्पष्ट करते हुए लिखा है-"रहस्यवाद एक ऐसा जीवन दर्शन है जिसका मूल आधार किसी व्यक्ति के लिए उसकी विश्वात्मक सत्ता की प्रनिर्दिष्ट वा निविशेष एकता वा परमात्म तत्व की प्रत्यक्ष एवं अनिवचनीय अनुभूति में निहित रहा करता है और जिसके अनुसार किये जाने वाले उसके व्यवहार का स्वरूप स्वभावतः विश्वजनीन एवं विकासोन्मुख भी हो सकता है। महादेवी वर्मा-"रहस्यानुभूति में बुद्धि के ज्ञेय को ही हृदय का प्रेय मान लेती हैं। डॉ. त्रिगुणायत के अनुसार जब साधक भावना के सहारे प्राध्यात्मिक सत्ता की रहस्यमयी अनुभूतियों को वाणी के द्वारा शब्दमय चित्रों में सजाकर रखने लगता है, तभी साहित्य में रहस्यवाद की सृष्टि होती है । डॉ. प्रेमसागर ने रहस्यवाद को प्रात्मा और परमात्मा के मिलन की भावात्मक अभिव्यक्ति कहा है । डॉ० कस्तूरचन्द कामलीवाल प्राध्यात्मिकता की उत्कर्ष सीमा का नाम रहस्यवाद निश्चित करते हैं। डॉ० रामकुमार वर्मा के स्वर में स्वर मिलाकर डॉ०
1. Studies in Vedanta, Boumbay. PP, 150-160 2. Mysticism in Maharashtra, PP. 1-12. 3. हिन्दी काव्य में रहस्यवाद, प्रा० रामचन्द्र शुक्ल
काव्य, कला तथा अन्य निबन्ध-जयशंकर प्रसाद 5. कबीर का रहस्यवाद, पृ 6. 6. रहस्यवाद, पृ. 25. 7. महादेवी का विवेचनात्मक गद्य, 10. कबीर की विचारधारा-डी० त्रिगुणायत, 11. हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि, पृ. 476. 12. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 20. (प्रस्तावना)
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रूपनारायण पाण्डे ने रहस्पवाद को मानव की उस प्रांतरिक प्रवृत्ति का प्रकाशन माना है जिससे वह परम सत्य परमात्मा के साथ सीधा प्रत्यक्ष सम्बन्ध जोड़ना चाहता है।
उपर्युक्त परिभाषामों को समीक्षात्मक दृष्टि से देखने पर यह पता चलता है कि विद्वानों ने रहस्यवाद को किसी एक ही दृष्टिकोण से विचार किया है । किसी ने उसे समाजपरक माना है तो किसी ने विचारपरक, किसी ने अनुभूविजन्य माना है तो किसी ने उसकी परिभाषा को विशुद्ध मनोविज्ञान पर आधारित किया है तो किसी ने दर्शन पर, किसी ने उसे जीवन दर्शन माना है, तो किसी ने उसे व्यवहार प्रधान बताया है। 2. पाश्चात्य विद्वानों की दृष्टि में रहस्यवाद
M.G. R. Alliert Forges ने रहस्यवाद को Theology (ईश्वरीयशास्त्र) से सम्बद्ध कर कहा है कि ये दोनों विधायें विज्ञानों की राशी कही जा सकती है । R. L. Nettleship ने यथार्थ रहस्यवाद को अनुभूतिजन्य प्रतीति का एकांश बोध स्वीकार किया है जो किसी अधिक वस्तु का प्रतीक मात्र है-True mysticism is the consciousness that everything that we cxperience is an element and only an eliment in fact, i. e, that in being what it is, it is symbolic of some thing more. Walter T. Stace ने रहस्यवाद को चेतना से सम्बद्ध कर उसे sensory intellectual conscious. ness कहा । फ्लीडर (Fleiderer) ने रहस्यवाद की भावात्मक अभिव्यक्ति को उपस्थित करते हुए उसे पात्मा और परमात्मा के एकत्व का प्रतीक माना है । यहां उन्होंने रहस्यवाद का धार्मिक प्रथवा आध्यात्मिक दृष्टि से विश्लेषण किया हैMysticism is the immediate feeling of the unity of the self with God; it is nothing but the fundamental feeling of religion. The religious life is at its very heart and centre."
Pingle Panthison (पिंगले पाधिजन) ने लिखा है--"रहस्यवाद उन मानवीय प्रयत्नों से सम्बद्ध है जो चरम सत्य को ग्रहण करने के प्रयत्न में होता है
1. भक्ति काव्य में रहस्यवाद, पृ. 349. 2. Mystical Phenomena, London, 1926, P.3 3. Mysticism in Keligion by Dr. M. R. Inge, New-York,
P. 25. 4. The Teachings of the Mystics, Newyark, 1960, P. 238. 5. Mysticism in Religion by Dr. Dean Inge, P. 25
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और उस सर्वोच्च सत्ता के सान्निध्य से उत्पक्ष एक मानन्द होता है। परम सत्य का ग्रहण रहस्यवाद का दार्शनिक पक्ष है और सर्वोच्च सत्ता के साथ मिलने के मानन्द से उत्पन्न अनुभूति धार्मिक पक्ष है ।" E. Caird ने रहस्यवाद को एक मानसिक प्रवृत्ति माना है । जिसमें प्रात्मा और परमात्मा के सभी सम्बन्ध गाभित हो जाते हैं | Caird को यह परिभाषा रहस्यवाद मौर अध्यात्मवाद को एक मानकर चल रही है । William James ने परिभाषा को दिये बिना ही यह कहा है कि उसकी अनुभूति विशुद्धतम और अभूतपूर्व होती है और वह अनुभूति प्रसंप्रेक्ष्य है। Von Hartman ने रहस्यवाद की व्यापकता और परिभाषा पर विचार करते हुए उसे चेतना का वह तृप्तिमय बांध बतलाया है जिसमें विचार, भाषा पोर इच्छा का अन्त हो जाता है तथा जहां अचेतनता से ही उसकी चेतना जाग्रत हो जाती है। प्रायः ये सभी परिभाषायें मनोदशा से विशेष सम्बद्ध हैं। उन्होंने स्वानुभूति को किसी साधना विशेष से नहीं जोड़ा।
Ku. Under Hill (कुमारी अण्डहिल) ने रहस्यवाद की परिभाषा को मनोवैज्ञानिक क्षेत्र के अतिरिक्त दार्शनिक क्षेत्र की अोर लाकर खडा किया है
और कहा है कि-"रहस्यवाद तथ्य की खोज विषयक उस प्रणाली का मुनिदिष्ट रूप है जो उत्कृष्ट एवं पूर्ण जीवन के लिए काम में लाया जाता है और जिसे
1. Mysticism appears in connection with the endeavour of
human-mind to grasp the devine essence or the ultimate reality of things and to enjoy the blessedsess of actual communion with the highest. The first is the philosophical side of mysticism. The Second is the religious side. God ceases to be an object and becomes an experience." My
sticism in Religion by Inge, P. 25. 2. Mysticism is a religion in the most concentrated and exel
usive form. It is that aptitude of mind in which all other relations are swallowed up in the relation of the soul of
God." ibid. P. 25 3. The Varities of Religious Experience, a study in human
nature, Longmans, 1929, P. 429. ___ भक्तिकाव्य में रहस्यवाद, पृ. 12 पर उद्धृत.
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हमने अब तक मानवीय चेतना की एक सनातन विशेषता के रूप में पाया है। एक अन्य स्थान पर उन्होंने रहस्यवाद की संक्षिप्त परिभाषा देते हुए उसे भगवत सता के साथ एकता स्थापित करने की कला कहा है, जिसने किसी सीमा तक इस एकता को प्राप्त कर लिया है अथवा जो उसमें विश्वास रखता है और जिसने इस एकता की सिद्धि को अपना चरम लक्ष्य बना लिया है।" यहां व्यक्ति एवं भगवत् सत्ता, दोनों के अस्तित्व को स्वीकार किया गया है तथा दोनों में एकता-स्थापन की सम्भाबना भी की गई है। प्रस्तु, अण्डर हिल वेदान्त में विशिष्टाद्वैत की भांति ईश्वर एवं जीव की एकता को स्वीकार करती प्रतीत होती हैं । Frank Gaynor ने उसे
और भी स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। उन्होंने कहा है-'रहस्यवाद दर्शन, सिद्धान्त, ज्ञान या विश्वास है जो भौतिक जगत् की अपेक्षा प्रात्मा की शक्ति पर अधिक केन्द्रित रहता है । विश्वजनीन प्रात्मा के साथ प्रारिमक संयोग अथवा बौद्धिक एकत्व रहस्यवाद का लक्ष्य है। पात्मिक सत्य का सहज ज्ञान और भावात्मक बुद्धि तथा अात्मिक चिन्तन अनुशासन के विविध रूपों के माध्यम से उपस्थित होता है । रहस्य. वाद अपने सरलतम और अत्यन्त वास्तविक अर्थ में एक प्रकार का धर्म है जो कि ईश्वर के साथ सम्बन्ध के सजगबोध (awareness) और ईश्वरीय उपस्थिति की सीधी और घनिष्ठ चेतना पर बल देता है । यह धर्म की अपनी तीव्रतम, गहनतम और सबसे अधिक सजीव अवस्था है । सपूर्ण रहस्यवाद का मौलिक विचार है कि जीवन मौर जगत् का तत्व वह आत्मिक सार है, जिसके अन्तर्गत सब कुछ है और जो प्राणिमात्र के अन्तर में स्थित यह वास्तविक सत्य है जो उसके बाह्य प्राकार प्रथवा क्रिया कलापों से सम्बन्धित नहीं है। w. E. Hocking ने रहस्यवाद की अन्य परिभाषाओं का खण्डन करते हुए उसे धार्मिक अथवा प्राध्यात्मिक क्षेत्र से सम्बद्ध किया है। उन्होंने कहा है कि रहस्ववाद ईश्वर के साथ व्यवहार करने का एक मार्ग है। इसे हम भावार्थ में एक साधना विशेष कह सकते हैं।
2.
Mysticism is seen to be a highly specialized form of that search for reality for heightened and completed life, which we have faund to be a, constant characteristic of human consciousness. Mysticism in Newyark. 1155,P.93 (Practical Mysticism by Vader hill. Practical Mysticism by Under Hill, P. 3, भक्ति काव्य में रहस्यबाद, से उद्धृत, पृ. 13. Mysticism Dictionaries by Frank Gaynor; भक्तिकाव्य में रहस्यबाद, पृ. 13 से उद्घट Mysticism is a way of dealing with God. New Haven, 1912, P. 3557 रहस्यवाद-परसुराम से उद्धृत, पृ. 20.
4.
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पाश्चात्य विद्वानों द्वारा भी प्रस्तुत की गई रहस्यवाद की ये परिभाषायें कथंचित ही सही हो सकती हैं। इनमें प्रायः सभी ने ईश्वर के साक्षात्कार को रहस्यवाद का चरम लक्ष्य स्वीकार किया है और उसे मनोदशा से जोड़ रखा है। परन्तु जैन दर्शन इससे पूर्णतः सहमत नहीं हो सकेगा । एक तो जैन दर्शन में ईश्वर के उस स्वरूप को स्वीकार नहीं किया गया जो पाश्चात्य दर्शनों में है और दूसरे रहस्यवाद का सम्बन्ध मात्र मनोदशा से ही नहीं, वह तो वस्तुतः एक विशुद्ध साधन पथ पर प्राचरित होकर प्रात्मसाक्षात्कार करने का ऐकान्तिक मार्ग है। Frank Gaynor का यह कथन कि उसे विश्वजनीन प्रात्मा के साथ अनात्मिक संयोग अथवा atfar एकत्व का प्रतीक न होकर अनुभूतिजन्य सहजानन्द का प्रतीक माना जाना चाहिए, जहां व्यक्ति प्रात्मा के अशुद्ध स्वरूप को दूर करने में जुटा रहता है । Pringle Panthoison, Ku Under Hill प्रादि विद्वानों की परिभाषात्रों में भी आत्मा और परमात्मा के मिलने को प्रमुख स्थान दिया है । यहां भी मैं सहमत नहीं हो सकती क्योंकि ईश्वर को सभी धर्मों में समान रूप से स्वीकार नहीं किया गया । अतः रहयवाद की ये परिभाषायें सार्वभौमिक न होकर किसी पन्थ विशेष से सम्बद्ध ही मानी जा सकेंगी ।
रहस्यवाद की परिभाषा को एकागिता के संकीर्ण दायरे से हटाकर उसे सर्वाङ्गीण बनाने की दृष्टि से हम इस प्रकार परिभाषा कर सकते हैं - रहस्यभावना एक ऐसा प्राध्यात्मिक साधन है जिसके माध्यम से साधक स्वानुभूतिपूर्वक श्रात्मतत्व से परम तत्व में लीन हो जाता है । यही रहस्यभावना अभिव्यक्ति के क्षेत्र में प्राकर रहस्यवाद कही जा सकती है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि अध्यात्म की चरमोत्कर्षाfवस्था की भावाभिव्यक्ति का नाम रहस्यवाद है । इस अर्थ की पुष्टि में हम पीछे प्राकृत जैनागम तथा धवला आदि के उद्धरण प्रस्तुत कर चुके हैं ।
इस परिभाषा में हम रहस्यवाद की प्रमुख विशेषतानों को इस प्रकार प्रस्तुत कर सकते हैं-
(1 ) रहस्यभावना एक प्राध्यात्मिक साधन है । अध्यात्म से तात्पर्य है चिन्तन । जैन दर्शन में प्रमुखतः सात तत्व माने जाते हैं— जीव, प्रजीव, माधव, बन्ध, संवर, निर्जर और मोक्ष । व्यक्ति इन सात तत्वों का मनन, चिन्तन मौर अनुपालन करता है । साधक सम्यक् चरित्र का परिपालन करता हुआ सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की प्राराधना करता है । यहां सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चरित्र साधन के रूप में स्वीकार किये गये हैं ।
(2) रहस्यभावना की अन्यतम विशेषता है स्वानुभूति । बिना स्वयं की प्रत्यक्ष मनुभूति के साधक साध्य की प्राप्ति नहीं कर सकता । इसी को शास्त्रीय परिभाषा में सम्यग्दर्शन कह सकते हैं। अनुभूति के उपरान्त ही श्रद्धा दृढतर होती
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चली जाती है। यह अनुभूति भावात्मक होती है और यह भावात्मक अनुभूति ही रहस्वाद का प्राण है।
प्रात्मानुभव से साधक षड्-द्रव्यों के अस्तित्व पर भलीभांति चिन्तन करता है, श्रद्धा करता है, कर्म उपाधि से मुक्त हो जाता है, दुर्गति के विषाद से दूर हो जाता है तथा उसका चित्त समता, सुधा रस से भर जाता है। अनुभूति की दामिनी शील रूप शीतल समीर के भीतर से दमकती हुई सन्तापदायक भावों को वीरकर प्रगट होती है और सहज शाश्वत मानन्द की प्राप्ति का सन्मार्ग प्रदर्शित करती है।
बतारसीदास के गुरु रूप पण्डित रूपचन्द का तो विश्वास है कि प्रात्मानुभव से सारा मोह रूप सथन अन्धेरा नष्ट हो जाता है । अनेकान्त की चिर नूतन किरणों का स्वच्छ प्रकाश फैल जाता है, सत्तारूप अनुपम पद्मुत ज्ञेयाकार विकसित हो जाता है, मानन्द कन्द अमन्द अमूर्त प्रात्मा में मन बस जाता है तथा उस सुख के सामने अन्य सुख वासे से प्रतीत होने लगती हैं। इसलिए वे अनादिकालीन अविद्या को सर्वप्रथम दूर करना चाहते हैं ताकि चेतना का अनुभव घट घट में अभिव्यक्त हो सके।
कविवर थानतराय प्रात्मविमोर होकर यही कह उठे-"प्रातम अनुभव करना रे भाई।" यह प्रात्मानुभव भेदविज्ञान के बिना सम्भव नहीं होता। नव पायों का ज्ञान, व्रत, तप, संयम का परिपालन तथा मिथ्यात्व का विनाश अपेक्षित है । भैया भगवतीदास ने अनुभव को शुद्ध-अशुद्ध रूप में विभाजित करके शुद्धानुभव को उपलब्ध करने के लिए निवेदन किया है। यह शुद्धानुभव राग, द्वेष, मोह, मिथ्यात्व तथा पर पदार्थों की संगति को त्यागने, सत्यस्वरूप को धारण करने और मात्मा (हंस) के स्वत्व को स्वीकार करने से प्राप्त होता है। इसमें वीतराग भक्ति, अप्रमाद, समाधि, विषयवासना मुक्ति, तथा षदव्य-ज्ञान का होना भी पावश्यक है' । शुद्धानुभवी साधक मात्मा के निरंजन स्वरूप को सदैव समीप रखता
1. हिन्दी जैन भक्ति काव्य मोर कवि, पृ.5 2. बनारसी विलास, ज्ञानवावनी पृ. 6 3. वही परमार्थ हिन्डोलना, पृ.5 4. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 36-37 5. वही, पृ. 111 6. ब्रह्मविलास, भात प्रष्टोत्तरी, 98. 7. वही, 101
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है और पुण्य-पाप के भेदक तत्त्व से सुपरिचित रहता है। एक स्थान पर तो या भगवती दास ने अनुभव का अर्थ सम्यग्ज्ञान किया है और स्पष्ट किया है कि कुछ थोड़े ही भव (जन्म-मरण) शेष रहने पर उसकी प्राप्ति होती है। जो उसे प्राप्त नहीं कर पाता वह संसार में परिभ्रमण करता रहता है । कविवर भूधरदास पात्मानुभव की प्राप्ति के लिए भागमाभ्यास पर अधिक बल देते हैं । उसे उन्होंने एक पूर्व कला तथा भवदापहारी घनसार की सलाक माना है। जीवन की मल्पस्थिति और फिर द्वादशांग को अगाधता हमारे कलाप्रेमी को चिन्तित कर देती है। इसे दूर करने का उपाय उनकी दृष्टि में एक ही है-श्रुताभ्यास । यही श्रुताभ्यास पात्मा का परम चिन्तक है । कविधर द्यानतराय भी भववाधा से दूर रहने का सर्वोत्तम उपाय प्रात्मानुभव मानते हैं । यात्मानुभव करने वाला साधक पुद्गल को विनाशीक मानता है । उसका समता-सुख स्वयं मे प्रगट रहता है। उसे किसी भी प्रकार की दुविधा अथवा भ्रम शेष नहीं रहता। भेदविज्ञान के माध्यम से वह स्व-पर का निर्णय कर लेता है । दीपचन्द कवि भी प्रात्मानुभूति को मोक्ष प्राप्ति का ऐसा साधन मानते हैं जिसमे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरित्र की प्राराधना की जाती है । फलतः अलण्ड और मचल ज्ञान-ज्योति प्रकाशित होती है । डा. राधाकृष्णन ने भी इसी को रहस्यवाद कहा है । पर उन्होने विचारात्मक अनुभूति को दर्शन का क्षेत्र तो बना दिया पर उसका भावात्मक अनुभूति से कोई सम्बन्ध स्वीकार नहीं किया । अतः यहां हम उनके विचारो से सहमत नहीं हो सकेंगे। अनुभूति में भाव यद्यपि प्रधान और मूल अवश्य है पर उनका निकट सम्बन्ध विचार अथवा दर्शन से भी बना रहता है। बिना विचार और दर्शन के भावों में सघनता नही पा सकती।
(3) मात्मतत्व आध्यात्मिक साधना का केन्द्र है । संसरण का मूल कारण है-पात्म तत्त्व पर सम्यक् विचार का प्रभाव । प्रात्मा का मूल स्वरूप क्या है ? और वह मोहादि विकारों से किस प्रकार जन्मान्तरों में भटकता है ? इत्यादि से प्रश्नों का यहां समाधान खोजने का प्रयत्न किया जाता है।
1. वही, पुण्य पापजगमूल पच्चीसी, पृ. 18 2. वही, परमात्म शतक, पृ. 29 3. जैन शतक, पृ.91 4. अध्यात्म पदावलि, पृ. 359 5. ज्ञानदर्पण, 4, 45, 128-130 आदि 6. Heart of Hindustan (भारत को अन्तरास्मा) अनुवादक-विश्वम्भरनाथ
त्रिपाठी, 1953, पृ. 65
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(4) परमपद में लीन हो जाना रहस्यवाद की प्रमुख अभिव्यक्ति है । इसमें free wear at salt पवित्र अवस्था तक पहुंच जाता है कि वह स्वयं परमात्मा बन जाता है । बात्मा और परमात्मा का एकाकारत्व एक ऐसी अवस्था है जहां aree समस्त दुःखों से विमुक्त होकर एक अनिर्वचनीय शाश्वत चिदानन्द चैतन्य का रसपान करने लगता है। इसी को शास्त्रीय परिभाषा में हम निर्वारण प्रथवा मोक्ष कहते हैं ।
मुक्त अवस्था में श्रात्मा और परमात्मा का तादात्म्य हो जाता है । इसी तादात्म्य को समरस कहा गया है। जैन धर्म में ब्रात्मा और परमात्मा का यह तादात्म्य अखंड ब्रह्म के अंश के रूप में स्वीकार नहीं किया गया, बहां तो विकारों से मुक्त होकर श्रात्मा ही परमात्मा बन जाता है । इस सन्दर्भ में हम भागे के प्रध्यान में विशद विवेचन करने का प्रयत्न करेंगे। परन्तु यहां इतना अवश्य कहना चाहूंगी कि जैन धर्म में श्रात्मा के तीन स्वरूप वरिणत हैं—बहिरात्मा, अन्तरात्मा भीर परमात्मा । बहिरात्मा मिथ्यादर्शन के कारण विशुद्ध नहीं हो पाता । अन्तरात्मा में विशुद्ध होने की क्षमता है पर वह विशुद्ध अभी हुप्रा नहीं तथा परमात्मा श्रात्मा का समस्त कर्मों से विमुक्त और विशुद्ध स्वरूप है । प्रात्मा के प्रथम दो रूपों को साधक और अन्तिम रूप को साध्य कहा जा सकता है। साधक अनुभूति करने वाला है और साध्य अनुभूति तत्त्व |
परमात्म स्वरूप को सकल प्रोर निष्कल के रूप में विभाजित किया गया है । सकल वह है जिसके ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय इन चार धातिया कर्मों का विनाश हो चुका हो और शरीरवान हो । जैन परिभाषा में इसे महन्त प्रथवा अर्हत् कहा गया है। हिन्दी साहित्य में इसी को सगुण ब्रह्म कहा गया गया है । आत्मा की निष्कल अवस्था वेदनीय, आयु, नाम, और गोत्र इन चार अतिया कर्मों का भी विनाश हो जाता है। भौर आत्मा निर्देही बन जाता है । इसी को हिन्दी साहित्य में निर्गुण ब्रह्म की संज्ञा दी गई है। उत्तरकालीन जन afraid मा के सकल श्रौर निष्कल अवस्था की भावविभोर होकर भक्ति प्रदर्शित की है और भक्ति भाव में प्रवाहित होकर दाम्पत्यमूलक हेतुक प्रेम का चित्रण किया है, जिसमें आत्मा परमात्मा से मिलने के लिए विरह में तड़पती है, समरस होने का प्रयत्न करती है । समरस हो जाने पर वह उस अनुभूतिगत अानन्द और चिदानन्द चैतन्य रस का पान करती है ।
के प्रमुख तत्व
रहस्य भावना किंवा रहस्यवाद strate or क्षेत्र सम्म है। उस प्रनन्त शक्ति के स्रोत को खोजना ससीम शक्ति के सम्म के बाहर है अतः संसीनता से असीमता और परम विशुद्धता तक
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पहुंच जाना तया चिदानन्द चैतन्य रस का पान करना साधक का मूल उद्देश्य रहता है। इसलिए रहस्यवाद का प्रस्थान बिन्दु संसार है जहां प्रात्याक्षिक और पत्रात्याक्षिक सुख-दुःख का अनुभव होता है और परम विशुद्धावस्था रूप को प्राप्त करता है। वहां पहुंचकर सापक कृतकृत्य हो जाता है। और उसका भवचक्र सदैव के लिए समाप्त हो जाता है। इस अवस्था की प्राप्ति का मार्ग अत्यन्त रहस्य अथवा गुह्य है इसलिए साधक में विषय के प्रति जिज्ञासा और प्रौत्सुक्य जितना अधिक जामृत (जागरित) होगा उतना ही उसका साध्य समीप होता चला जायगा।
रहस्य को समझने और अनुभूति में लाने के लिए निम्नलिखित प्रमुख तत्वों का भाषार लिया जा सकता है
1. निज्ञासा और प्रौत्सुक्य । 2. संसारचक्र में भ्रमण करने वाले आत्मा का स्वरूप । 3. संसार का स्वरूप । 4. संसार से मुक्त होने का उपाय (भेद विज्ञान) । 5. मुक्त अवस्था की परिकल्पना (निर्वाण)। इन्हीं तत्त्वों पर प्रस्तुत प्रबन्ध में आगे विचार किया जायेगा।
रहस्यभावना का साध्य, साधन और साधक रहस्यभावना का प्रमुख साध्य परमात्मपद की प्राप्ति करना है जिसके मूल साधन हैं—स्वानुभूति और भेदविज्ञान । किसी विषय वस्तु का जब किसी प्रकार से साक्षात्कार हो जाता है तब साधक के अन्तरंग में तद्विषयक विशिष्ट अनुभूति जागरित हो जाती है। साधना की सुप्तावस्था में चराचर जगत साधक को यथावत् दिखाई देता है । उसके प्रति उसके मन मे मोह गर्मित पाकर्षण भी बना रहता है। पर साधक के मन में जब रहस्य की यह गुत्थि समझ में आ जाती है कि संसार का प्रत्येक पदार्थ प्रशाश्वत है, क्षणभंगुर है और यह सत्-चित् रूप प्रात्मा उस पदार्थ से पृथक् है, ये कभी हमारे नहीं हो सकते और न हम कभी इन पदार्थों के हो सकते हैं तब उसके मन में एक अपूर्व प्रानन्दाभूति होती है। इसे हम जैन शास्त्रीय परिभाषा में 'भेदविज्ञान' कह सकते हैं । साधक को भेदविज्ञान की यथार्थ अनुभूति हो जाना ही रहस्यवादी साधना का साध्य कहा जा सकता है। विश्व सत्य का समुचित प्रकाशन इसी अवस्था में हो पाता है। भेदविज्ञान की प्रतीति कालान्तर में दृढ़तर होती चली जाती है और प्रात्मा भी उसी रूप में परम विशुद्ध अवस्था को प्राप्त हो जाता है। इस अवस्था में पहुंचकर साधक अनिर्वचनीय अनुभूति का मास्वादन करता है। पात्मा की यह अवस्था शाश्वत और पिस्तन सुखद होती है।
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रहस्यवादी का यही साध्य है। शास्त्रीय परिभाषा में इसे हम 'निर्वाण' कह सकते हैं ।
साध्य सदैव रहस्य की स्थिति में रहता है। सिद्ध हो जाने पर फिर वह रहस्यवादी के लिए अज्ञात अथवा रहस्य नहीं रह जाता । साधक के लिए वह भले ही रहस्य बना रहे। इसलिए तीर्थंकर ऋषभदेव, महावीर, राम, कृष्ण प्रादि की परम स्थिति साध्य है । इसे हम ज्ञेय प्रथवा प्रमेय भी कह सकते हैं ।
इस साध्य, ज्ञेय अथवा प्रमेय की प्राप्ति में जिज्ञासा मूल कारण है । जिज्ञासा ही प्रमेय अथवा रहस्य तत्त्व के प्रन्तस्तल तक पहुंचने का प्रयत्न करती है । सद साध्य के संदर्भ में साधक के मन में प्रश्न, प्रति प्रश्न उठते रहते हैं । 'प्रथातो ब्रह्म जिज्ञासा' इसी का सूचक है । 'नेति नेति' के माध्यम से साधक की रहस्यभावना पवित्रतम होती जाती है और वह रहस्य के समीप पहुंचता चला जाता है । फिर एक समय वह अनिर्वचनीय स्थिति को प्राप्त कर लेता है—'यतो वाचा निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह ।' यह अनुभूतिपरक जिज्ञासा ही अभिव्यक्ति के क्षेत्र में काव्य बनकर उतरती है । इसी काव्य के माध्यम से सहृदय व्यक्ति साधारणीकरण प्राप्त करता है और शनैः शनैः साध्य दशा तक बढ़ता चला जाता है । प्रतएव इस प्रकार के काव्य में व्यक्त रहस्यभावना की गहनता भौर सघनता को ही बथार्थ मे काव्य की विधेयावस्था का केन्द्र बिन्दु समझना चाहिए ।
परम गुह्य तत्व रूप रहस्य भावना के वास्तविक तथ्य तक पहुंचने के लिए साधक को कुछ ऐसे शाश्वत साधनों का उपयोग करना पड़ता है जिनके माध्यम से वह चिरन्तन सत्य को समझ सके । ऐसे साधनो में मात्मा और परमात्मा के विशुद्ध स्वरूप पर चिन्तन और मनन करता विशेष महत्वपूर्ण हैं । जैन धर्म में तो इसी को केन्द्र बिन्दु के रूप मे प्रतिष्ठित किया गया है। इसी को कुछ विस्तार से समझाने के लिए वहां समूचे तत्वों को दो भागों में विभाजित किया गया हैजीव और जीव । जीव का अर्थ ग्रात्मा है और प्रजीव का विशेष सम्बन्ध उन पौद्गलिक कर्मों से है जिनके कारण यह भ्रात्मा संसार मे बारम्बार जन्म ग्रहण करता रहता है । इन कर्मों का सम्बन्ध प्रात्मा से कैसे होता है, इसके लिए mira utर बन्ध शब्द प्राये हैं तथा उनसे म्रात्मा कैसे विमुक्त होता है, इसके लिए संवर और निर्जरा तत्वों को रखा गया है । मात्मा का कम से सम्बन्ध जब पूर्णतः दूर हो जाता है जब उसका विशुद्ध श्रीर मूल रूप सामने घाता है। इसी को मोक्ष कहा गया है ।
इस प्रकार रहस्य भावना का सीधा सम्बन्ध जैन संस्कृति में उक्त सप्त तत्वों पर निर्भर करता है । इन सप्त तत्वों की समुचित विवेचना ही जैन ग्रन्थों की मूल भावना है । आचार शास्त्र और विचार शस्त्र इन्हीं तत्वों का विश्लेषणा करते हुए दिई देते हैं। मध्यात्मवादी ऋषि महर्षियों मोर विद्वान मात्रायों ने रहस्यभावना
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को साधना में अनुभूति के साथ विपुल साहित्य का सृजन किया है। जिसका उल्लेख हम यथास्पान करते गये हैं।
"एक हि सदविप्राः बहुधा वदन्ति' के अनुसार एक ही परम सत्य को विविध प्रकार से अनुभव में लाते हैं और उसे अभिव्यक्त करते हैं। उनकी रहस्यानुभूतियों को धरातल पवित्र प्रास्मसाधना से मण्डित रहता है । यही साधक तत्वदी पौर कवि बनकर साहित्य जगत् में उतरता है। उसका काध्य भावसौन्दर्य से निखरकर स्वाभाविक भाषा में निसृत होता है फिर भी पूर्ण अभिव्यक्ति में असमर्थ होकर वह प्रतीकात्मक इंग से भी अपनी रहस्यभावना को व्यक्त करने का प्रयत्न करता है। उसकी अभिव्यक्ति के साधन स्वरूप भाव और भाषा में श्रद्धा, प्रेम भक्ति, उपलम्भ, पश्चात्ताप, दास्यभाव प्रादि जैसे भाव समाहित होते हैं। साधक की दृष्टि सत्संगति मोर सदगुरु महिमा की ओर आकृष्ट होकर आत्म साधना के मार्ग से परमात्मपद की प्राप्ति की ओर मुड़ जाती है।
रहस्यभावना की साधना में साधक पूरे आत्मविश्वास के साथ प्रात्मशक्ति का दवसापूर्वक उपयोग करता है। तदर्थ उसे किसी बाह्य शक्ति की भी प्रारम्भिक अवस्था में आवश्यकता होती है जिसे वह अपने प्रेरक तत्व के रूप मे स्थिर रखता है। साधना में स्थिरता और प्रकर्षता लाने के लिए साधक भक्ति-ज्ञान और कर्म के समन्वित रूप का प्राश्रय लेकर साध्य को प्राप्त करने का लक्ष्य बनाता है । भक्तिपरक साधना मे श्रद्धा और विश्वास, ज्ञानपरक साधना में तर्क-वितर्क की प्रतिष्ठा और कर्म परक साधना मे यथाविधि प्राचार-परिपालन होता है।
जैन साधनात्मक रहस्यवादी साधक भक्ति, ज्ञान और कर्म को समान रूप से अंगीकार करता है । दार्शनिक परिभाषा में इसे क्रमशः सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का परिपालन कहा जा सकता है । साधनावस्था में इन तीनों का सम्यक मिलन निर्वाण की प्राप्ति के लिए अपेक्षित है।
साधक और कवि की रहस्यभावना में किचित् अन्तर है। साधक रहस्य का स्वयं साक्षात्कार करता है पर कवि उसकी भावात्मक भावना करता है। यह प्रावश्यक नहीं कि योगी कवि नही हो सकता अथवा कवि योगी नहीं हो सकता। काव्य का तो सम्बन्ध भाव से विशेषतः होता है और साधक की रहस्यानुभूति भी वहीं से जुड़ी हुई होती है। अतः इतिहास के पन्ने इस बात के साक्षी हैं कि उक्त दोनों व्यक्तित्व समरस होकर प्राध्यात्मिक साधना करते रहे हैं । यही कारण है कि योगी कवि हुमा है और कवि योगी हुआ है । दोनों ने रहस्यभावना को भावात्मक अनुभूति को अपना स्वर दिया है ।
प्रस्तुत प्रबन्ध में हमने उक्त दोनों व्यक्तित्वों की प्रतिभा, प्रमुभूति और सजगता को परखने का प्रयत्न किया है। इसलिए रहस्यवाद के स्थान पर हमने
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भावना शब्द को प्रधिक उपयुक्त माना है । भावना अनुभूतिपरक होती है और बाद किसी धर्म, सम्प्रदाय अथवा साहित्य से सम्बद्ध होकर बसीमित हो जाता है । इस अन्तर के होते हुए भी रहस्यभावना का सम्बन्ध अन्ततोगत्वा चूंकि किसी साधना विशेष से सम्बद्ध रहता है इसलिए वह भी कालान्तर में मनुवृति के माध्यम से एक बाद बन जाता है। इसलिए 'रहस्यवाद' लोकप्रिय हो गया । अध्यात्मवाद और दर्शन :
जहां तक अध्यात्मवाद और दर्शन के सम्बन्ध का प्रश्न है, वह परस्पराश्रित है | अध्यात्मवाद योग साधना है जो साक्षात्कार करने का एक साधन है और दर्शन उस योग साधना का जौद्धिक' विवचन है । अध्यात्मवाद अनुभूति पर आधारित है जबकि दर्शन ज्ञान पर प्राधारित है । अध्यात्मवाद तत्व ज्ञान प्रधान है और दर्शन उसकी पद्धति और विवेचन करता है। इस प्रकार दर्शन अध्यात्मवाद से भिन्न नहीं हो सकता | अध्यात्मवाद की व्याख्या और विश्लेषरण दर्शन की पृष्ठभूमि में ही सम्भव हो पाता है । दोनो के अन्तर को समझने के लिए हम दर्शन के दो भेद कर सकते हैं - प्राध्यात्मिक रहस्यवाद और दार्शनिक रहस्यवाद । श्रध्यात्मिक रहस्यवाद आाचार प्रधान होता है और दार्शनिक रहस्यबाद ज्ञानप्रधान । भ्रतः माचार और ज्ञान की समन्वयावस्था ही सच्चा अध्यात्मवाद अथवा रहस्यवाद है । इसलिए हमने अपने प्रबन्ध मे जैन प्राचार और ज्ञान मीमांसा के माध्यम से ही रहस्यवाद को प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है ।
रहस्यवाद किसी न किसी सिद्धान्त अथवा विचार- पक्ष पर प्राधारित रहता है और उस विचार पक्ष का अटूट सम्बन्ध जीवन-दर्शन से जुड़ा रहता है जो एक नियमित भाचार और दर्शन पर प्रतिष्ठित रहता है। साधक उसी के माध्यम से रहस्य का साक्षात्कार करता है। वही रहस्य जब अभिव्यक्ति के क्षेत्र में भाता है तो दर्शन बन जाता है । काव्य मे अनुभूति की अभिव्यक्ति का प्रयत्न किया जाता है और उस अभिव्यक्ति मे स्वभावतः श्रद्धा-भक्ति का भाषिक्य हो जाता है। धीरेutt urfaश्वास, रूड़ियां, चमत्कार, प्रतीक, मंत्र-तंत्र प्रादि जैसे तत्त्व उससे बढ़ने पर जुड़ने लगते हैं ।
'दूसरी ओर रहस्यभावना की प्रतिष्ठा जब तर्क पर धाधारित हो जाती है तो उसका दार्शनिक पक्ष प्रारम्भ हो जाता है। दर्शन को न तो जीवन से पृथक् किया जा सकता है और न अध्यात्म से । इसी प्रकार काव्य का सम्बन्ध भी दर्शन से बिल्कुल तोड़ा नहीं जा सकता । दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि प्रत्येक प्रध्यात्मवादी अथवा रहस्यवादी काव्य के क्षेत्र में पाने पर दार्शनिक साहित्यकार हो जाता है । यहीं उसकी रहस्य भावना की अभिव्यक्ति विविध रूप से होती है । आदि कवि वाल्मीकि भी कालान्तर में दार्शनिक बन गये । वेदों और आगमों के रहस्य का उद्घाटन करने वाले ऋषि महर्षि भी दार्शनिक' बनने से नहीं बच सकें ।
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वस्तुतः यहीं उनके जीवन्त-दर्शन का साक्षात्कार होता है और यहीं उनके कति रूप का उद्घाटन भी । काव्य की भाषा में इसे हम रहस्यभावना का साधारणकरण कह सकते हैं । परम तत्व की गुह्यता को समझने का इससे अधिक मच्छा
और कौन-सा साधन हो सकता है ? रहस्यवार और अध्यात्मवाद:
अध्यात्म अन्तस्तत्व की निश्छल गतिविधि का रूपान्तर है। उसका साध्य परमात्मा का साक्षात्कार और उससे एकरूपता की प्रतीति है। यह प्रतीति किसी न किसी साधनापथ प्रथवा धर्म पर प्राधारित हुए बिना सम्भव नहीं । साधारणतः विद्वानों का यह मत है कि धर्म या सम्प्रदाय को रहस्यवाद के अन्तर्गत नहीं रखा जा सकता क्योंकि धर्म या सम्प्रदाय ईश्वरीय शास्त्र (Thelogy) के साथ जुड़ा रहता है । इसमें विशिष्ट माचार, बाह्य पूजन पद्धति, साम्प्रदायिक व्यवस्था आदि जैसी बातों की ओर विशेष ध्यान दिया जाता है जो रहस्यवाद के लिए उतने मावश्यक नहीं ।
पर यह मत तथ्यसंगत नही । प्रथम तो यह कि ईश्वरीय शास्त्र का सम्बन्ध प्रत्येक धर्म प्रयवा सम्प्रदाय से उस रूप में नहीं जिस रूप में वैदिक अथवा ईसाई धर्म में है । जैन और बौद्ध दर्शन में ईश्वर को सृष्टि का कर्ता-हर्ता नहीं माना गया । दूसरी बात, बाह्य पूजन पद्धति, कर्मकाण्ड आदि का सम्बन्ध भी जैन धर्म और बौद्ध धर्म के मूल रूपों में नहीं मिलता। ये तत्त्व तो श्रद्धा और भक्ति के विकास के सूचक हैं । उक्त धर्मों का मूल तत्त्व तो संसरण के कारणों को दूर कर निर्वाण की प्राप्ति करना है । यही मार्ग उन धर्मों का वास्तविक आध्यात्म मार्ग है। इसी को हम तत्तद् धर्मों का 'रहस्य' भी कह सकते हैं। रहस्यवाद और दर्शन :
यद्यपि दर्शन को अन्तिम परिणति अध्यात्म में होती है। पर व्यवहारतः अध्यात्म और दर्शन में अन्तर होता है। अध्यात्म अनुभूतिपरक है जबकि दर्शन बौद्धिक चेतना का दृष्टा है। पहले में तत्वज्ञान पर बल दिया जाता है जबकि दूसरा उसकी पद्धति भौर विवेचना पर धूमता रहता है । इसलिए रहस्यभावना का विस्तार विविध दार्शनिक परम्परामों तक हो जाता है चाहे वे प्रत्यक्षवादी हों पथवा परोक्षवादी । वह एक जीवन पद्धति से जुड़ जाती है जो व्यक्ति को परमपद तक पहुंचा देती है । प्रतएव रहस्यभावना किंवा रहस्यवाद व्यक्ति के क्रियाकलाप में अर्थ से लेकर इति तक व्याप्त रहता है।
1, मावार्य परसुराम चतुर्वेदी, रहस्यवाद, पृष्ठ, 9.
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· रहस्यवाद का सम्बन्ध जैसा हम पहले कह चुके हैं, किसी न किसी धर्मदर्शन-विशेष से अवश्य रहेगा । ऐसा लगता है, मभी तक रहस्गवाद की व्याख्या और उसकी परिभाषा मात्र वैदिक दर्शन और सस्कृति को मानदण्ड मानकर ही की जाती रही है । ईसाई धर्म भी इस सीमा से बाहर नहीं है । इन धमों में ईश्वर को सृष्टि का कर्ता मादि स्वीकार किया गया है और इसीलिए रहस्यवाद को उस मोर अधिक मुड़ जाना पड़ा । परन्तु जहां तक श्रमण संस्कृति और दर्शन का प्रश्न है वहां तो इस रूप में ईश्वर का कोई अस्तिस्व है ही नहीं। वहां तो मात्मा ही परमात्मपद प्राप्त कर तीर्थकर अथवा बुद्ध बन सकता है। उसे अपने अन्धकाराच्छन्न मार्ग को प्रशस्त करने के लिए एक प्रदीप की मावश्यकता अवश्य रहती है जो उसे प्राचीन भाचार्यों द्वारा निर्दिष्ट मार्ग पर चलकर प्राप्त हो जाता है। रहस्य भावाद हिना रहस्यवाव के प्रकार :
रहस्य भावना अथवा रहस्यवाद के प्रकार साधनामों के प्रकारों पर प्रवलम्बित हैं। विश्व में जितनी साधनायें होंगी, रहस्यवाद के भी उसने भेद होंगे। उन भेदों के भी प्रभेद मिलेंगे। उन सब भेदों-प्रभेदों को देखने पर सामान्यतः दो भेद किये जाते हैं- भावनात्मक रहस्यवाद और साधनात्मक रहस्यवाद । भावनास्मक रहस्यवाद अनुभूति पर प्राधारित है और साधनात्मक रहस्यवाद सम्य प्राचार-विचार युक्त योगसाधना पर । दोनों का लक्ष्य एक ही है। परमात्मपद अथवा ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति में परमपद से विमुक्त प्रात्मा द्वारा उसकी प्राप्ति के संदर्भ में प्रेम अथवा दाम्पत्य भाव टपकता है। अभिव्यक्ति की असमर्थता होने पर प्रतीकात्मक रूप में अपना अनुभव व्यक्त किया जाता है। यौगिक साधनों को भी वह स्वीकार करता है और फिर भावावेश में प्राकर अन्य माध्यात्मिक तथ्यों किंवा सिद्धान्तों का निरूपण करने लगता है । अतः डॉ. त्रिगुणायत के स्वर में हम अपना स्वर मिलाकर रहस्यभावना किंवा रहस्यवाद के निम्न प्रकार कह सकते हैं
1. भावात्मक या प्रेम प्रधान रहस्य भावना, 2. अभिव्यक्तिमूलक अथवा प्रतीकात्मक रहस्यभावना, 3. प्रकृतिमूलक रहस्य भावना, 4. यौगिक रहस्य भावना, और 5. माध्यात्मिक रहस्य भावना।
रहस्य भावना के ये सभी प्रकार भावनात्मक और साधनात्मक रहस्यभावना के अन्तर्गत पा जाते हैं। उनकी साधना अन्तर्मुखी और बहिर्मुखी. दोनों होती हैं। मन्तमुखी साधना में साधक अशुद्धात्मा के मूल स्वरूप विशुखात्मा को प्रियतम अथवा प्रियतमा के रूप में स्वीकारकर उसे योगादि के माध्यम से खोजने का प्रयत्न करता है तथा बहिर्मुखी साधना में विविध माध्यात्मिक तथ्यों को स्पष्ट
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करने का प्रयत्न करता है। जैन साधना में ये दोनों प्रकार की साधनायें उपलब्ध होती हैं । वस्तुतः कोई भी रहस्यभावना भावनात्मक और साधनात्मक क्षेत्र से बाहर नहीं जा सकती ।
रहस्य भावना का सम्बन्ध चरम तत्व को प्राप्त करने से रहा है और चरम Tea का सम्बन्ध किसी एक धर्म अथवा योग साधना विशेष से रहना सम्भव नहीं । इसलिए रहस्यभावना की पृष्ठभूमि में साधक की विज्ञासा और उसका प्राचरित सम्प्रदाय विशेष महत्व रखता है । सम्प्रदायों और उनके श्राचारों का वैभिन्य सम्भ an: विचारों ओर साधनाओं में वैविष्य स्थापित कर देता है। इसलिए साधारण तौर पर आज जो वह मान्यता है कि रहस्य ाद का सम्बन्ध भारतीय साधनाओं में मात्र वैदिक साधना से ही है, भ्रम मात्र है । प्रत्येक सम्प्रदाय का साधक अपने किसी न किसी प्राप्त पुरुष में श्रद्वैत तत्व की स्थापना करने की दृष्टि से उनके ही द्वारा निर्दिष्ट पथ का अनुगमन करता है और अलौकिक स्वसंवेद्य अनुभवों और रहस्यभावों को प्रतीक श्रादि माध्यम से अभिव्यक्त करने का प्रयत्न करता है। यही कारण है कि धुनिक रहस्यवाद की परिभाषा मे भी मत वैभिन्य देखा जाता है ।
इसके बावजूद अधिकांश साधनों में इतनी समानता दिखाई देती है कि जैसे वे होनाधिक रूप से किसी एक ही सम्प्रदाय से सम्बद्ध हों । यह अस्वाभाविक भी नही, क्योंकि प्रत्येक साधक का लक्ष्य उस प्रदृष्ट शक्ति विशेष को श्रात्मसात करना है । उसकी प्राप्ति के लिए दर्शन, ज्ञान और चारित्र की त्रिवेणी-धारा का पवित्र प्रवाह अपेक्षित है। रहस्यवाद की भूमिका इन तीनों की सुन्दर संगम-स्थली है। परम सत्य या परमात्मा के आत्मसाक्षात्कार के स्वरूप का वर्णन सभी साधक एक जैसा नहीं कर सके क्योंकि वह अनादि, अनन्त और सर्वव्यापक है, और उसकी प्राप्ति के मार्ग भी अनन्त हैं । अतः अनेक कथनों से उसे व्यंजित किया जना स्वाभाविक है । उनमें जैन दर्शन के स्याद्वाद और प्रमेकान्तवाद के अनुसार किसी का भी कथन गलत नहीं कहा जा सकता । रहस्यभावना में वैभिम्य पाये जाने का यही कारण है । सम्भवतः पद्मावत में जायली ने निम्न छन्द से इसी भाव को दर्शाया है"विधना के मारग हैं तेते । सरग नखत तन रौवां जेते ॥"
इस वैभिय के होते हुए भी सभी का लक्ष्य एक ही रहा है- परम सत्य की प्राप्ति बोर परमात्मा से भात्मसाक्षात्कार ।
रहस्य भावना किवा रहस्यवाद की परम्परा :
वैविक रहस्यभावना - रहस्य भावना की भारतीय प्रारम्भ होती है । इस दृष्टि से नासदीय सूक्त मोर पुरष
परम्परा वैदिक युग से सूबत विशेष महत्वपू
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हैं। नासदीय सूक्त में एक ऋषि के रहस्यात्मक अनुभवों का वर्णन है। तदनुसार सृष्टि के प्रारम्भ में न सत् था न भसत् और न प्रकाश था । किसने किसके सुख के लिए प्रावरण डाला ? तब अगाध जल भी कहां था ? न मृत्यु यी न प्रमृत । न रात्रि को पहिचाना जा सकता था, न दिन को । वह अकेला ही अपनी शक्ति से श्वासोच्छवास लेता रहा इसके परे कुछ भी न था । 'पुरुषसूक्त' में रहस्यमय ब्रह्म के स्वरूप की तो बड़ी सुन्दर कल्पना की गयी हैं।" यहां यज्ञ की प्रमुखता के साथ ही बहुtaarara का जन्म हुआ और फिर जनमानस एक देवतावाद की भोर मुड़ गया । उपनिषद् साहित्य में यह रहस्य भावना कुछ और अधिक गहराई के साथ क्ति हुई है। वेदों से उपनिषदों तक की यात्रा में ब्रह्म विद्यापूर्ण रहस्यमयी और बन चुकी थी । उसे पुत्र, शिव्य अथवा प्रशान्तचित्तवान् व्यक्ति को ही दे का निर्देश है । जरत्कार और याज्ञवल्क का संवाद भी हमारे कथन को पुष्ठ करता है । कठोपनिषद् में प्रात्मा की उपलब्धि श्रात्मा के द्वारा ही सम्भव बताई गई है। वहां उस प्रात्मज्ञान को न प्रवचन से, न मेघा से और न बहुश्रुत से प्राप्त बताया गया है । 4 तर्क से भी वह गभ्य नहीं ।' वह तो परमेश्वर की भक्ति और स्वयं के साक्षात्कार अथवा अनुभव से ही गम्य है ।" मुण्डकोपनिषद् की पराविद्या यही ब्रह्म four है | यही श्रेय है । इसी को अध्यात्मनिष्ठ कहा गया है । श्रविद्या के प्रभाव से प्रत्येक आत्मा स्वयं को स्वतन्त्र मानता है परन्तु वस्तुतः वैदिक रहस्यवादी विचारधारा के अनुसार वे सभी ब्रह्म के ही अंश हैं । यही ब्रह्म शक्तिशाली और सनातन है ।
यह ब्रह्मविद्या अविद्या से प्राप्त नही की जा सकती । परमात्म ज्ञान से ही यह विद्या दूर हो सकती है ।" श्वेताश्वतरोपनिषद् में कैवल्य प्राप्ति की चार सीढ़ियों का निर्देशन किया गया है 18
1. ऋग्वेद 10 129 1-2; भक्ति काव्य में रहस्यवाद, पृ. 24.
2.
वही, 10.90.1.
3.
वेदान्ते परमं गुह्यं पुराकल्पे प्रचोदितम् ।
नाप्रज्ञान्ताय दातव्यं नापुत्रायाशिष्याय वा पुनः ।। श्वेताश्वतर 6.22.
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेघया बहुना श्रुतेन ।
यवेष वृते तेन लभ्यस्तस्यैष भात्मा विश्रृणुते तन स्वाम् ॥ कठोप
1.2. 23,
5.
6.
7.
8.
बी, 1. 2. 9.
श्वेताश्वतरोपनिषद् 6. 23 छान्दोग्योपनिषद्, 7. 1. 3. कठोपनिषद्, 1.3.14.
ज्ञात्वा देवं सर्वपाशापट्टानि: क्षीणैः क्लेशे जन्ममृत्यु प्रहारिणः । तस्याभिध्यानाहृतीयं देहमेवे विश्वेश्वर्य केवलं प्राप्तकामः । श्वे, पू. 1. 11
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1. यौगिक साधनों और ध्यानयोग प्रक्रिया के माध्यम से परमात्मा का ज्ञान प्राप्त होना अथवा ब्रह्म का साक्षात्कार होना ।
2. ब्रह्म का साक्षात्कार हो जाने पर सम्पूर्ण क्लेशों का दूर होना ।
3. क्लेशक्षय पोने पर जन्म-मृत्यु से मुक्त होना, पौर
4. जन्म मृत्यु से मुक्त होने पर कैवल्यावस्था प्राप्त होना ।
वेद और उपनिषद् के बाद गीता, भागवत् पुराण, शाण्डिल्य भक्ति सूत्र मोर नारद भक्ति सूत्र वैदिक रहस्यवादी प्रवृत्तियों के विकासात्मक सोपान कहे जा सकते हैं । 'तस्वमसि, सोsहं, श्रहं ब्रह्मास्मि' जैसे उपनिषद् के वाक्यों में प्रभिव्यक्त विचारधारा उत्तरकालीन संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और हिन्दी साहित्य को प्रभावित करती हुई मागे बढ़ती है। सिद्ध सम्प्रदाय भौर नाथ सम्प्रदाय का रहस्यवाद यद्यपि अस्पष्टसा रहा है पर उसका प्रभाव भक्तिकालीन कवि कबीर, दादू श्रीर जायसी पर पड़े बिना न रहा । ये कवि निर्गुणवादी भक्त रहे । सगुणवादी भक्ति कवियों में मीरा, सूर और तुलसी का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इनमें मीरा और सन्त कवियों की रहस्य भावना में कोई विशेष प्रन्तर नहीं । तुलसी की रहस्य भावना में दाम्पत्य भावना उतनी गहराई तक नहीं पहुंच पाई जितनी जायसी के कवि में मिलती है । रीतिकाल में प्राकर यह रहस्य भावना शुष्क-सी हो गई। आधुनिक काल में प्रसाद, पन्त निराला और महादेवी जैसी कवियों में अवश्य वह प्रस्फुटित होती हुई दिखाई देती है जिसे आलोचकों ने रहस्यवाद कहा है ।
ata रहस्य भावना किया रहस्यवाद :
साधारणतः यह माना जाता है कि रहस्यवाद वहीं हो सकता है जहां ईश्वर की मान्यता है । पर यह मत श्रमण संस्कृति के साथ नहीं बैठ सकता । जैन और बौद्ध धर्म वेद और ईश्वर को नहीं मानते । वैदिक संस्कृति की कुछ शाखाओंों ने भी इस संदर्भ में प्रश्न चिन्ह खड़े किये है। इसके बावजूद वहां हम रहस्य भावना पर्याप्त रूप में पाते हैं । अतः उपर्युक्त मत को व्याप्ति के रूप में
स्वीकार नहीं किया जा
सकता ।
बौद्ध दर्शन में प्रात्मा के अस्तित्व को अव्याकृत से लेकर निरात्मवाद तक चलना पड़ा । ईश्वर को भी वहां सृष्टि का कर्ता, हर्ता मौर धता नहीं माना गया । फिर भी पुनर्जन्म प्रथवा संसरण से मुक्त होने के लिए व्यक्ति को सम्यग्ज्ञान होना श्रावश्यक है । उसकी प्राप्ति के लिए प्रज्ञा, शील
1. बौद्ध संस्कृति का इतिहास- डॉ. भार्गचन्द्र जैन भास्कर, पृ. 83-92.
चतुरायं सत्य का औौर समाधि ये
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तीन साधन दिये गये है। इतर साधनों के माध्यम से वित (मामा) अन्ततोगत्वा दुवस्व की प्राप्ति कर लेता है। पाने चलकर महायानी साधना अपेक्षाकृत अधिक गुष बन गई। उसने हट्योग पोर तांत्रिक साधना को भी स्वीकार कर लिया। महायान का शून्यवाद पूर्ण रहस्यवादी-सा बन जाता है । कबीर मादि कवियों पर भी बौख धर्म का प्रभाव दिखाई देता है । समूची बौद्ध साधना का पर्यालोचन करने. पर यह स्पष्ट हो जाता है कि भात्मा, चित्त अथवा संस्कार को बुद्धत्व में मिला देने की साधना प्रक्रिया के रूप में रहस्य भावना बौद्ध साधकों में भली भांति रही है। जैन रहस्य भावना :
साधारणतः जैन धर्म से रहस्य भावना अथवा रहस्यवाद का सम्बन्ध स्था.पित करने पर उसके सामने प्रास्तिक-नास्तिक होने का प्रश्न खड़ा हो जाता है। परिपूर्ण जानकारी के बिना जैन धर्म को कुछ विद्वानों ने नास्तिक दर्शनों की श्रेणी में बैठा दिया है । यह प्राश्चर्य का विषय है । इसी कल्पना पर यह मन्तव्य व्यक्त किया जाता है कि जैन धर्म रहस्यवादी हो नहीं सकता क्योंकि वह वेद और ईश्वर को स्वीकार नहीं करता । यही मूल में भूल है ।
प्राचीन काल में जब वैदिक संस्कृति का प्राबल्य था, उस समय नास्तिक की परिभाषा वेद-निन्दक के रूप में निश्चित कर दी गई। परिभाषा के इस निर्धारण में तत्कालीन परिस्थिति का विशेष हाथ था। वेदनिन्दक अथवा ईश्वर सृष्टि का कर्ता, हर्ता, धर्ता के रूप में स्वीकार न करने वाले सम्प्रदायों में प्रमुख सम्प्रदाय थे जैन और बौद्ध । इसलिए उनको नास्तिक कह दिया । इतना ही नहीं, निरीश्वरवादी मीमांसक और सांख्य जैसे वैदिक भी नास्तिक कहे जाने लगे।
सिद्धान्ततः नास्तिक की यह परिभाषा निन्तान्त प्रसंगत है। नास्तिक और पास्तिक की परिभाषा वस्तुतः पारलौकिक अस्तित्व की स्वीकृति और भस्वीकृति पर निर्भर करती है। मात्मा और पारलोक के अस्तित्व को स्वीकार करने वाला मास्तिक
और उसे अस्वीकार करने वाला नास्तिक कहा जाना चाहिए था। पाणिनिसूत्र 'अस्ति नास्ति दिष्टं मतिः' (4-4-60) से भी यह बात पुष्ट हो जाती है । जैन संस्कृति के अनुसार प्रात्मा अपनी विशुद्धतम अवस्था में स्वयं ही परमात्मा का रूप ग्रहण कर लेती है । दैहिक और मानसिक विकारों से वह दूर होकर परमपद को प्राप्त कर लेती है। इस प्रकार यहां स्वर्ग, नरक, मोक्ष प्रादि की व्यवस्था स्वयं के कर्मों पर भाषारित है। अत: जैन दर्शन की गणना नास्तिक दर्शनों में करना नितान्त मसंगत है।
जैन रहस्यभावना भी श्रमण संस्कृति के अन्तर्गत पाती है। बौद्ध साधनाने जैन साधना से भी बहुत कुछ ग्रहण किया है। जैन साधकों ने मात्मा को केन्द्र के रूप में स्वीकार किया है। यही मात्मा जब तक संसार में जन्म-मरण का चक्कर
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लगाता है, उसे विशुद्ध प्रथवा विमुक्त कहा जाता है । मात्मा की इसी विशुद्धावस्था को परमात्मा कहा गया है। परमात्म पद की प्राप्ति स्व-पर विवेक रूप भेदविज्ञान के होने पर ही होती है । भेदविज्ञान की प्राप्ति मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान प्रौर मिथ्याचारित्र के स्थान पर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के समन्वित श्राचरण से हो पाती है। इस प्रकार श्रात्मा द्वारा परमात्मपद की प्राप्ति ही जंन रहस्यभावना की अभिव्यक्ति है । प्रागे के अध्यायों में हम इसी का विश्लेषण करेंगे ।
यहां यह ध्यातव्य है कि रहस्यभावना माने के लिए स्वानुभूति का होना souravre है। अनुभूति का अर्थ है अनुभव । बनारसीदास ने शुद्ध निश्चयनय, शुद्ध oraहारनय और प्रात्मानुभव को मुक्ति का मार्ग बताया है। उन्होंने अनुभव का अर्थ बताते हुए कहा है कि प्रात्मपदार्थ का विचार प्रौर ध्यान करने से चित को जो शान्ति मिलती है तथा प्रात्मिक रस का आस्वादन करने से जो श्रानन्द मिलता है, उसी को अनुभव कहा जाता है ।
वस्तु विचारत घ्याव तें, मन पार्व विश्राम । रसस्वादन रस ऊपजं, अनुभौ याको नाम ॥
कवि बनारसीदास ने इस अनुभव को चिन्तामणिरत्न, शान्ति रस का कूर, मुक्ति का मार्ग और मुक्ति का स्वरूप माना है । इसी का विश्लेषण करते हुए श्रागे उन्होने कहा है कि अनुभव के रस को जगत के ज्ञानी लोग रसायन कहते हैं । इसका श्रानन्द कामधेनु चित्रावेली के समान । इसका स्वाद पंचामृत भोजन के समान है । यह कर्मो का क्षय करता है और परमपद से प्रेम जोड़ता है। इसके समान अन्य धर्म नही है ।
अनुभौ चिन्तामरिण रतन, अनुभव है रसकृप ।
अनुभौ मारग मोख को, अनुभव मोख स्वरूप ॥ 18 ॥
अनुभौ के रस सो रसायन कहत जग । अनुभौ श्रभ्यासयहु तीरथ की ठौर है ॥ अनुभी की जो रसा कहावे सोई पोरसा सु । अनुभौ अघोरसासों ऊरध की दौर है । अभी की केलि यहै, कामधेनु चित्रावेली | अनुभी को स्वाद पंच अमृत को कौर है ।
अनुभो करम तोरं परम सौ प्रीति जोरे । प्रनुभो समान न घरम कौऊ और है ॥ 19 ॥ *
1.
1. वही, 18-19 ॥
नाटक समयसार, 17.
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मचन्द पाने में इस मनुवृति को प्रारम ब्रह्म की अनुभूति कहकर उसे दिव्योष की प्राप्ति का साधन बताया है। वतन इसी से अनन्त दर्शन-शान-सुखवीर्य प्राप्त करता है और स्वतः उसका सामात्कारफर 'चिदानन्द चैतन्य का रसपान करता है
अनुभी अभ्यास में निवास सुष चेतन को, मनुभी सरूप सुध बोष को प्रकाश है । मनुभो अपार उपरहत अनन्त ज्ञान; अनुभौ भनीत त्याग ज्ञान सुखरास है। अनुभी मपार सार प्राप ही को पाप बान, पाप ही में व्याप्त दीस जामें जड़ नास है । अनुभौ प्ररूप है सरूप चिदानन्द चन्द,
अनुभो प्रतीत पाठ कर्म स्यौ प्रकास है ॥-12 जिस प्रकार वैदिक संस्कृति में ब्रह्मवाद अथवा प्रात्मवाद को अध्यात्मनिष्ठ माना है उसी प्रकार जन संस्कृति में भी रहस्यवाद को आध्यात्मवाद के रूप में स्वीकार किया गया है। पं. माशाधर ने अपने योग विषयक अन्य को 'अध्यात्मरहस्य' उल्लिखित किया है। इससे यह स्पष्ट है कि जैनाचार्य अध्यात्म को रहस्य मानते थे । अतः माज के रहस्यवाद को अध्यात्मवाद कहा जा सकता हैं।
बनारसीदास ने इस अध्यात्म या रहस्य की अभिव्यक्ति के माध्यम को अध्यात्म शैली नाम दिया । तीर्थकर, चक्रवर्ती भादि जैसे साधकों ने इसी का अनुभव किया है और इसी को अपनी अभिव्यक्ति का साधन अपनाया है
इस ही सुरस के सषादी भये ते तो सुनी,
तीर्थकर चक्रवर्ती शैली अध्यात्म की । बल वासुदेव प्रति वासुदेव विधापर,
चारण मुनिन्द्र इन्द्र छेदी बुद्धि भ्रम की ॥ अध्यात्मवाद का तात्पर्य है पात्म चिन्तन । प्रात्मा के दो भाव है-भागमरूप और मध्यात्मरूप । मागम का तात्पर्य है वस्तु का स्वभाव और अध्यात्म का तात्पर्य प्रात्मा का अधिकार अर्थात् प्रारम द्रव्य । संसार में जीव के दो भाव विद्यमान रहते हैं-पागम रूप कर्म पद्धति और अध्यात्मरूप शुद्धचेतन पदति । कर्म पद्धति में द्रव्यरूप
और भावरूप कर्म पाते हैं। द्रव्यरूप कर्म पुद्गल परिणाम कहलाते हैं और भावरूप कर्म पुद्गलाकार मात्मा की अशुद्ध परिणति परिणाम कहलाते हैं । शुद्ध चेतना पति का तात्पर्य है शुखात्म परिणाम वह भी द्रव्य रूप और भाव रूप दो प्रकार
1. अध्यात्मसर्वया, पृ. 1. 2. बनारसी विलास, ज्ञानवाणी, पृ. 8.
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का है।दव्य रूप परिणाम यह है जिसे हम जीव कहते हैं और भाव प परिणाम में अनन्त चतुष्टय, मनन्तज्ञान, दर्शन, सुख मोर वीर्य की प्राप्ति मानी जाती है। इस प्रकार मध्यात्म से सीधा सम्बन्ध मात्मा का है।
अध्यात्म शैली का मूल उद्देश्य मात्मा को कर्मजाल से मुक्त करना है। प्रमाद के कारण व्यक्ति उपदेशादि तो देता है। पर स्वयं का हित नहीं कर पाता। वह वैसा ही रहता है जैसा दूसरों के पंकयुक्त परों को धोने वाला स्वयं अपने पैरों को नहीं होता। यही बात कलाकार बनारसीदास ने अध्यात्म शैली की विपरीत रीति को बड़े ही सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है । इस अध्यात्म शैली को ज्ञाता साधक की सुदृष्टि ही समझ पाती है
मध्यातम शैली अन्य शैली को विचार तसो,
शाता को सुदृष्टिमांहि लगे एतो अन्तरो॥ एक और रूपक के माध्यम से कविवर ने स्पष्ट किया है कि जिनवाणी को समझने के लिए सुमति और पात्मज्ञान का अनुभव आवश्यक है । सम्यक् विवेक और विचार से मिष्याज्ञान नष्ट हो जाता है। शुक्लध्यान प्रकट हो जाता है, और आत्मा मध्यात्म शैली के माध्यम से मोक्षरूपी प्रासाद में प्रवेश कर जाता है।
जिनवाणी दुग्ध मांहि । विजया सुमति हार, निजस्वाद कंद वृन्द पहल पहल में । 'मिथ्यासोफी' मिटि गये ज्ञान की महल में । 'शीरनी' शुक्ल ध्यान अनहद नाद' तान, 'गान' गुणमान करे सुजस सहल में । 'बानारसीदास' मध्यनायक सभा समूह,
अध्यात्म शैली चली मोक्ष के महल में ॥ बनारसीदास को अध्यात्म के बिना परम पुरुष का रूप ही नहीं दिखाई देता। उसकी महिमा अगम और अनुपम है । वसन्त का रूपक लेकर कविवर ने पूरा अध्यातम फाग लिखा है । सुमति रूपी कोकिला मधुर संगीत गा रही है। मिथ्याश्रम रूपी कुहरा नष्ट हो गया है । माया रूपी रजनी का स्थितिकाल कम हो गया, मोहपंक
1. वही, पृ. 210. 2. बनारसी विलास : शानवावनी, पृ. 29. १. वही, पृष्ठ, 13. 4. वही, पृष्ठ, 38. 5. वही, पृष्ठ, 45.
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मशुभ
घट गया, संशय रूपी शिविर समाप्त हो गया, शुभ-दल-पल्लव लहलहा पड़े, पतझर प्रारम्भ हो गई, विषयरनि- मालती मलिन हो गई, विरति-वेलि फैल गई, विवेक शfe निर्मल हुआ, ग्रात्म शक्ति-सुचन्द्रिका विस्तृत हुई, सुरति प्रग्नि ज्वाला जाग उठी, सम्यक्त्व- सूर्य उदित हो गया, हृदय कमल विकसित हो गया, कषायहिमगिरी गल गया, निर्जरा नदी में प्रवाह ना गया, धारणा-धारा शिव-सागर की भोर वह चली, नय पंक्ति चर्चरी के साथ ज्ञानध्यान- डफ का ताल बजा, साधनापिचकारी चली, संवरभाव-गुलाल उड़ा, दया-मिठाई, तप मेवा, शील- जल, संयमताम्बूल का सेवन हुआ, परम ज्योति प्रगट हुई, होलिका में भाग लगी, भाठ काठकर्म जलकर बुझ गये और विशुद्धावस्था प्राप्त हो गई ।
usereमरसिक बनारसीदास प्रादि महानुभावों के उपर्युक्त गम्भीर विवेचन से यह बात छिपी नही रही कि उन्होने प्रध्यात्मवाद और रहस्यवाद को एक माना है । दोनो का का प्रस्थान बिन्दु, लक्ष्य प्राप्ति तथा उसके साधन समान हैं। दोनों शान्त रस के प्रवाहक हैं । अतः हमने यहां दोनों को समान मानकर यात्रा की है।
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"गूंगे का सा गुड़ " की इस रहस्यनुभूति में तर्क प्रप्रतिष्ठित हो जाता है-'कहत कबीर तरक दुइ साथै तिनको मति है मोटी' और वाद-विवाद की प्रोर से मन दूर होकर भगवद् भक्ति में लीन हो जाता है। उसकी अनुभूति साधक की श्रात्मा ही कर सकती है । रूपचन्द ने इसी को 'चेतन अनुभव घट प्रतिमास्यों,' 'चेतन अनुभव घन मन मीनों प्रादि शब्दो से अभिव्यक्त किया है । सन्त सुन्दरदास ने ब्रह्म साक्षात्कार का साधन अनुभव को ही माना है । 4 बनारसीदास के समान ही सन्त सुन्दरदास ने भी उसके मानन्द को 'अनिर्वचनीय' कहा है। उन्होंने उसे साक्षात् ज्ञान और प्रलय की अग्नि माना है जिसमें सभी द्वैत, द्वन्द घौर प्रपंच विलीन हो जाते हैं ।
1.
2.
बनारसी विलास : अध्यात्म फाग, पृ. 1 - 18.
वाद-विवाद काहू सो नहीं मांहि, जगत थे न्यारा, दादूदयाल की वानी, भाग 2, पृ. 29.
3. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 36-37.
4.
प्रभुभव बिना नहि जान सके निरसन्ध निरन्तर नूर है रे ।
उपमा उसकी अब कौन कहे नहिं सुन्दर चन्दन सूर है रे || सन्त सुधासागर, T. 586.
सन्त चरनदास की वानी, भाग 2, पृ. 45.
5.
6. सुन्दर विलास, पृ. 164.
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पाहि
कबीर ने उसे 'पानं पे भाव" तथा सुन्दरदास ने 'म जाने' स्वीकार किया है। भैया भवतीदास ने इसी को शुद्धात्मा का अनुभव कहा है । बनारसीदास ने पंचामृत पान को भी अनुभव के समक्ष तुच्छ माना है और इसलिए उन्होंने कह दिया- 'प्रनुभौ समान घरम कोक घोर न* अनुभव के आधार स्तम्भ ज्ञान, श्रद्धा और समता आदि जैसे गुण होते हैं। कबीर और सुन्दरदास जैसे सन्त भी श्रद्धा की मावश्यकता पर बल देते हैं ।
इस प्रकार अध्यात्म किवां रहस्य साधना में जैन और जैनंतर साधकों ने समान रूप से स्वानुभूति की प्रकर्षता पर बल दिया है । इस अनुभूतिकाल में प्रात्मा को परमात्मा अथवा ब्रह्म के साथ एकाकारता की प्रतीति होने लगती है । यहीं समता और समरसता का भाव जागरित होता है । इसके लिए सन्तों और प्राचार्यों को शास्त्र और ग्रामों की अपेक्षा स्वानुभूति और चिन्तनशीलता का प्राधार अधिक रहता है। डॉ० रामकुमार वर्मा ने सन्तों के सन्दर्भ मे सही लिखा है- ये तत्व' सीधे शास्त्र से नही प्राये, वरन् मशताब्दियों की अनुभूति तुला पर तुला कर, महात्मायों के व्यावहारिक ज्ञान की कसौटी पर कसे जाकर, सत्संग और गुरु के उपदेशों से संग्रहीत हुए । यह दर्शन स्वाजित अनुभूति है। जैसे सहस्रों पुष्पों की सुगन्धि मधु की एक बुंद में समाहित है, किसी एक फूल की सुगन्धित मधु में नहीं है, उस मधु निर्माण के भ्रमर मे अनेक पुण्य तीर्थों की यात्रायें सन्निविष्ट है । अनेक पुष्पों की क्यारियां मधु के एक-एक करण में निवास करती करती हैं, उसी प्रकार सन्त सम्प्रदाय का दर्शन अनेक युगों और साधकों की अनुभूतियों का समुच्चय है 18
*
जैब और जनेतर रहस्य भावना में अन्तर
उपर्युक्त सक्षिप्त विवेचना से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि जैन मोर जैनेतर रहस्य भावना मे निम्नलिखित अन्तर है
(1) जैन रहस्य भावना श्रात्मा और परमात्मा के मिलने की बात अवश्य करता है पर वहा प्रात्मा से परमात्मा मूलतः पृथक् नही । म्रात्मा की विशुद्धावस्था
nate ग्रन्थावली, पृ. 318
सुन्दर विलास, g. 159.
1.
2.
3. ब्रह्मविलास शत प्रष्टोतरी, पृ. 98.
4.
पृ.
नाटक समयसार, उत्थानिका, 19, बनारसी विलास, ज्ञानबावली
14.
5.
6. डॉ. रामकुमार वर्मा मनुशीलन, पृ. 77.
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को ही परमात्मा कहा जाता है जबकि अन्य साधनामों में अन्त तक मारमा पौर परमात्मा दोनों पृथक रहते हैं। प्रात्मा और परमात्मा के एकाकार होने पर भी मारमा परमात्मा नहीं बन पाता । जैन साधना अनन्त मास्मामों के अस्तित्व को मानता है पर नेतर साधनामों में प्रत्येक प्रात्मा को परमात्मा का मंश माना गया है।
(2) जन रहस्य भावना में ईश्वर को सुख-दुःख दाता नहीं माना गया। वहाँ तीर्थकर की परिकल्पना मिलती है जो पूर्णतः वीतरागी पौर प्राप्त है। प्रतः उसे प्रसाद-दायक नहीं माना गया । वह तो मात्र दीपक के रूप में पथ-दर्शक स्वीकार किया गया है । उत्तरकाल में भक्ति आन्दोलन हुए और उनका प्रभाव जैन साधना पर भी पड़ा । फलतः उन्हें भक्तिवश दुःखहारक पौर सुखदायक के रूप में स्मरण किया गया है। प्रेमाभिव्यक्ति भी हुई है पर उसमे भी वीतरागता के भाव अधिक निहित हैं।
(3) जैन साधना अहिंसा पर प्रतिष्ठित है। अतः उसकी रहस्य भावना भी अहिंसा मूलक रही । षट्चक्र, कुण्डलिनी मादि जैसी तान्त्रिक साधनामों का जोर उतना अधिक नहीं हो पाया जितना अन्य साधनाओ मे हुमा।
(4) जैन रहस्य भावना का हर पक्ष सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र के समन्वित रूप पर आधारित है।
(5) स्व-पर विवेक रूप भेदविज्ञान उसका केन्द्र है। (6) प्रत्येक विचार निश्चय पोर व्यवहार नय पर आधारित है।
जैन और जैनेतर रहस्य भावना में अन्तर समझाने के बाद हमारे सामने जैन साधको की एक लम्बी परम्परा आ जाती है । उनकी साधना को हम मादिकाल मध्यकाल और उत्तरकाल के रूप में विभाजित कर सकत है। इन कालो मे जैन साधना का ऋमिक विकास भी दृष्टिगोचर होता है। इसे सक्षेप में हमने प्रस्तुत प्रबन्ध की भूमिका में उपस्थित किया है । अतः यहां इस सन्दर्भ मे अधिक लिखना उपयुक्त नहीं होमा । बस इतना कहना पर्याप्त होगा कि जेन रहस्य भावना तीर्थकर ऋषभदेव से प्रारम्भ होकर पार्श्वनाथ और महावीर तक पहुंची, महावीर से भाचार्य कुन्दकुन्द, उमा स्वामी, समन्तभद्र, सिद्धसेन दिवाकर, मुनि कातिकेय, प्रकलंक, विद्यानन्द, प्रभाचन्द, मुनि योगेन्दु, मुनि रामसिंह, मानन्दतिलक, बनारसीदास, भगवतीदास, मानन्दधन, भूषरदास, थानतराय, दौलतराम मादि जैन रहस्य साधकों के माध्यम से रहस्य भावना का उत्तरोत्तर विकास होता गया। पर यह विकास अपने मूल स्वरूप से उतना अधिक दूर नहीं हुमा जितना बौद्ध साधना का विकास । यही कारण है कि जन रहस्य साधना ने जनेतर रहस्य साधनामों को पर्याप्त रूप से प्रभावित किया है। इसकी तुलनात्मक अध्ययन मध्यकालीन हिन्दी साहित्य से किया जाना अभी शेष है । इस अध्ययन के बाद विश्वास है, रहस्यवाद किया इस्य भावना के क्षेत्र में एक नया मानदण्ड प्रस्थापित हो सकेगा।
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अन्त में यहां यह कह देना भी भावश्यक है कि छायावाद मूलतः एक साहित्यिक प्रान्दोलन रहा है जबकि रहस्यवाद की परम्परा भार परम्परा रही है । इसलिए रहस्यवाद छायावाद को अपने सुकोमल अंग में सहजभाव से भर लेता है। फलतः हिन्दी-साहित्य के समीक्षको ने यत्र-तत्र रहस्यवाद और छायावाद को एक ही तुला पर तौलने का उपक्रम किया है । वस्तुतः एक प्रसीम है, सूक्ष्म है, अमूर्त है जबकि दूसरा ससीम है, स्थूल है मौर मूर्त है । रहस्य भावना में सगुण साकार भक्ति से निर्गुण निराकार भक्ति तक साधक साधना करता है। पर छायावाद में इस सूक्ष्मता के दर्शन नहीं होते । मानवतावाद और सर्वोदयवाद को भी रहस्यवाद का पर्यायार्थक नहीं कहा जा सकता । रहस्यवाद प्रात्मपरक है जबकि मानवतावाद मौर सर्वोदयवाद समाजपरक है।
रहस्यवाद वस्तुतः एक काव्यधारा है जिसमें काव्य की मूल प्रात्मा अनुभूति प्रतिष्ठित रहती है । रहस्य शब्द मूढ, गुह्य, एकान्त अर्थ में प्रयुक्त होता है। प्राचार्य मानन्दवर्धन ने ध्वनि तत्व को काव्य का 'उपनिषद्' कहा है। जिसे दार्शनिक दृष्टि से रहस्य कहा जा सकता है और काव्य की दृष्टि से 'रस' माना जा सकता है। रस का सम्बन्ध भावानुभूति से है जो वासनात्मक (चित्तवृसिरूपात्मक) अथवा मास्वा. दात्मक होती है। रहस्य की अनुभूति ज्ञाता-जेय-ज्ञान की अनुभूति है। कवि इस रहस्य की अनुभूति को तन्मयता से जोड़ लेता है जहां रस-सचरण होने लगता है। यह अनुभूति प्रात्मपरक होती है, भावना मूलक होती है।
भावना शब्द का प्रयोग जैन दर्शन मे अनुचिन्तन, ध्यान अनुप्रेक्षण के प्रर्ष मेहमा है । वेदान्त मे इसी को निदिध्यासन माना है। व्याकरण में भावना को 'ज्यापार' का पर्ययार्थक कहा है । भट्टनायक इसी को भावकत्व अथवा साधारणीकरण के रूप मे स्वीकार करते हैं। यही रसानुभूति है जो सहृदय के हृदय में व्याप्त हो जाती है । भावना के अभाव में पभिव्यक्ति किसी भी परिस्थिति में संभव मही है। इसलिए कवि के लिए भावना एक साधन का काम करती है। प्राध्या. त्मिक ताव दृष्टा रहस्य की साक्षात् भावना करता है जबकि कवि उसकी भावात्मक मनुभूति करता है । जैन सापक अध्यात्मिक कवि हुए हैं जिनमें रहस्य भावना का संचार दोनों रूपो में हुमा है । उनका स्थायी भाव वैराग्य रहा है। और वे शान्तरस के पुजारी माने जाते है।
1. ध्वनेः स्वरूपं सकल-सत्कवि काव्योपनिषद् भूतम्-वन्यालोक, 1.1. 2. वैयाकरण भूषणसार, 106. 3. काव्य प्रकाश, तृतीय उल्लास, रसनिष्पत्ति, 4. काव्य में रहस्यवाद, डॉ. बबूलाल अवस्थी, प्रथम, कानपुर 1965.
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वाद के जाल में फंसकर यह रहस्य भावना रहस्यवाद के रूप में माधुनिक साहित्य में प्रस्फुटित हुई है। इसका वास्तविक सम्बन्ध पध्यात्मविद्या से है जो पात्म परक होती है। अन्तः साक्षात्कार केन्द्रीय तत्त्व है । अनुभूति उसका साधन है । मोक्ष उसका साध्य है जहां पात्मज्ञान के माध्यम से जिन तत्त्व पोर महंतत्व में मत भाव पैदा हो जाता है।
जैन कवि वाद के पचड़े में नहीं रहे थे तो रहस्य भावना तक ही सीमित रहे हैं । इसलिए हमने यहाँ दर्शन और काव्य की समन्वयात्मकता को माधार माना है जहां साधकों ने समरस होकर अपने भावों की अभिव्यक्ति प्रस्तुत की है। ये साधक पहले हैं, कवि वाद में हैं। जहां कहीं दार्शनिक कवि और साधक का रूप एक साथ भी दिखाई दे जाता है । वाद शैली का घोतक है और भावना अनुभूति परक है। जैन कवि भावानुभूति में अधिक जुटे रहे हैं । इसलिए हमने यहाँ 'रहस्यवाद' के स्थान पर रहस्य भावना को ही अधिक उपयुक्त माना है। रहस्य भावना के विवेचन के कारण रहस्यवाद का काव्यपक्ष भी हमारे अध्ययन की परिधि से बाहर हो गया है।
1. जो जिण सो हर्ड, सो जि हुऊ, एहड भाउ भिन्तु
जोइया, उग्णु णतन्तु एमन्तु मोक्यहो कारणि-परमात्मा सार
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पंचम परिवर्त रहस्यभावना के बाधक तत्त्व
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रहस्य-भावना का चरमोत्कर्ष ब्रह्मसाक्षात्कार है। साहित्य में इस ब्रह्मसाक्षात्कार को परमार्थ प्राप्ति, प्रात्म-साक्षात्कार परमपद प्राप्ति, परम सत्य, पजर-अमर पद मादि नामों से उल्लिखित किया गया है । इसमें प्रात्म चिन्तन को रहस्यभावना का केन्द्र बिन्दु माना गया है। प्रात्मा ही साधना के माध्यम से स्वानुभूतिपूर्वक अपने मूल रूप परमात्मा का साक्षात्कार करता है । इस स्थिति तक पहुंचने के लिए उसे एक लम्बी यात्रा करनी पड़ती है । सर्वप्रथम उसे स्वयं में विद्यमान राग-द्वेष-मोहादिक विकारो को विनष्ट करना पड़ता है। ये ही विकार संसारी को जन्म-मरण के दुःख सागर मे डुबाये रहते है । इनको दूर किये बिना न साधना का साध्य पूरा होता है । और न ब्रह्मसाक्षात्कार रूप परमरहस्य तत्त्व तक पहुचा जा सकता है । यही कारण है कि प्रायः सभी साधनामो में उनसे विमुक्त होने का उपदेश दिया गया है। सांसारिक विषय-वासना:
साधक कवि सांसारिक विषय-वासना पर विविध प्रकार से चिन्तन करता है । चिन्तन करते समय वह सहजभाव से भावुक हो जाता है । उस अवस्था में वह कभी अपने को दोष देता है तो कभी तीर्थंकरों को बीच में लाता है। कभी रागादिक पदार्थों की पोर निहारता है तो कभी तीर्थंकरों से प्रार्थना, विनती और उलाहने की बात करता है । कभी पश्चात्ताप करता हुभा दिखाई देता है तो कभी सत्संगति और दास्यभाव को अभिव्यक्त करता है। इन सभी भावनाओं को हिन्दी जन कवियों ने निम्न प्रकार से अपने शब्दों में गूथने का प्रयत्न किया है।
कविवर बनारसीदास संसार की नश्वरशीलता पर विचार करते हुए कहते है कि सारे जीवन तूने व्यापार विया, जुना श्रादि खेला, सोना-चांदी एकत्रित किया, भोग वासनामों में उलझा रहा । पर यह निश्चित है कि एक दिन यम पायेगा मौर
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तुम्हें यहां से उठा ले जायेगा । उस समय यह सारा वैभव यहीं पड़ा रह जायेगा । प्रांधी-सी गों। संघ मुख चला जायेगा । वह बराल काल की कुमरे सदैव तुम्हारे सिर पर लटकती रहती है। श्रम तो वृद्धावस्था भी मानवी । इस समय तो कम से कम मन में यह सूभा भा जाय और जन्म मरण की बात की सोचकर संसार के स्वभाव पर विचार कर ले :
जिय मन हैं ।
वा दिन को करं सोच वनज किया व्यापारी तूनें टांडा लादा भारी । tet पूजी जुम्रा खेला भाखिर बाजी हारी रे || माखिर बाजी हारी, कर ले चलने को तैयारी | इक दिन डेरा होयगा वन में || वा दिन ||1|
1.
2.
झूठे नैना उलफत बांधी, किसका सोना किसका चांदी । इक दिन पवन चलेगी प्रांधी, किसकी बीबी किसकी बांदी ॥ नाहक चित्त लगा वै धन में || वा दिन ||21| मिट्टी सेती मिट्टी मिलियो, पानी से पानी । मूरख सेती मूरख मिलियो, ज्ञानी से ज्ञानी ॥ यह मिट्टी है तेरे तन में ॥ कहत बनारसि सुनि भवि प्राणी, यह पद है निरवाना रे । जीवन मरन किया सौ नाही, सिर पर काल निशाना रे ।। सूझ पड़ेगी बुढ़ापेपन मे ॥ बा दिन 1412
वा दिन 1131
संसरण का प्रबलतम कारण मोह और प्रज्ञान है जिनके कारण जीव की राग द्वेषात्मक प्रवृत्तियां उत्पन्न होती है। ये प्रवृत्तियां हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह की भोर मन को दौड़ाती है । मन की चंचलता और वचनादि की असंयमता से शुभ अथवा कुशल कर्म भी दुःखदायी हो जाते है । मोह के शेष रहने पर कितना भी योगासन प्रादि किया जाये पर व्यक्ति का चित्त प्रात्म-दृष्टि की मोर नही दौड़ता । श्रुताभ्यास करने पर भी जाति, लाभ, कुल, बल, तप, विद्या प्रभुता और रूप इन पाठ भेदों से जीव अभिमान ग्रस्त हो जाता है । फलत: विवेक जाग्रत नहीं होता और आत्मशक्ति प्रगट नहीं हो पाती। इसलिए बनारसीदास जीव पर कहकर कहते हैं :---
देखो भाई महाविकल संसारी
दुखित धनादि मोह के कारन, राग द्वेष भ्रम मारी ॥
हिन्दी पद संग्रह, पृ. 55.
वही, पृ. 57.
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संसारी जीव को अनंतकाल तक इस संसार में खेलते-भटकते हो गया पर कभी उसे इसका पश्चात्ताप नहीं हुमा । बह जुमा, मालस, शोक, भय, कुकथा, कौतुक, कोप, कृपणता, अज्ञानता भ्रम, निद्रा, मद और मोह इन तेरह काठियों में रमता रहा। जिस संसार में सदैव जन्म-मरण का रोग लगा रहता है, प्रायु क्षीरण होने का कोई उपाय नहीं रहता, विविध पाप और विलाप के कारण जुड़े रहते हैं, परिग्रह का विचार मिथ्या लगता रहता है, इन्द्रिय-विषय-सुख स्वप्नवत् रहता है, उस चंचल विलास में, रे मूद, तू अपना धर्म त्यागकर मोहित हो गया। ऐसे मोह प्रौर हर्ष-विषाद को छोड़ । जो कुछ भी सम्पत्ति मिली है वह पुण्य प्रताप के कारण । पर उसके परिग्रह और मोह के कारण तूने कर्मबंध की स्थिति बढ़ा ली। जब अन्त पायेगा तो यहां से अकेले ही जाना पड़ेगा। संसार की वास्तविक स्थिति पर साधक जब चिन्तन करता है तो उसे स्पष्ट प्राभास हो जाता है कि यह शरीर भी अन्य पदार्थों के समान शक्तिहीन होता चला जायेगा। बाल्यावस्था से वृद्धावस्था तक शरीर की गिरती हुई क्रमिक अवस्था को देखकर साधक विरक्त-सा हो जाता है। उसे सारा संसार नश्वर प्रतीत होने लगता है।
जगजीवन को तो यह सारा संसार धन की छाया-सा दिखता है । उन्होंने एक सुन्दर रूपक में यह बात कही । पुत्र, कलत्र, मित्र, तन, सम्पत्ति प्रादि कर्मोदय के कारण जुड़ जाते हैं । जन्म-मरण रूपी वर्षा पाती है और माधव रूपी-पवन से वे सब बह जाते है। इन्द्रियादिक विषय लहरों-सा विलीन हो जाता है । रागद्वेष रूप वक-पंक्ति बड़ी लम्बी दिखाई देती है, मोह-गहल की कठोर भावाज सुनाई पड़ती है, सुमति की प्राप्ति न होकर कुमति का संयोग हो जाता है । इससे भवसागर कैसे पार किया जा सकता है । पर जब रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र) का प्रकाश भोर मनंत चतुष्टय (अनंत दर्शन-ज्ञान-सुख-वीर्य) का सुख मिलने लगता है तब कवि को यह सारा संसार क्षणभंगुर लगने लगता है :-जगत सब दीसत बन की छाया ।
संसारी जीव अपनी मादतों से प्रत्यन्त दुःखी हो जाता है । वह न तो किसी प्रकार पंच पापों से मुक्त हो पाता है पोर न चार विकथामों से । मन, वचन, काय को भी वह अपने वश नहीं कर पाता, राग द्वेषादिक जम जाते हैं, प्रात्म-ज्ञान हो
1. बनारसी बिलास, तेरह काठिया, पृ. 157. 2. वही, प्रास्ताविक फुटकर कविता, पृ. 8-16, 3. वही, पृ. 12. 4. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 77.
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नहीं पाता । ऐसी स्थिति में जगतराम कवि प्रस्त-सा होकर कहते हैं । 'मेरी कौन गति होसी हो गुसाई ॥
धानतराय को तो यह सारा संसार बिल्कुल मिथ्या दिखाई देता है । वे अनुभव करते हैं कि जिस नश्वर देह को हमने अपना प्रिय माना और जिसे हम सभी प्रकार के रसपाकों से पोषते रहे, वह कभी हमारे साथ चलता नहीं, तब अन्य पदार्थों की बात क्या सोचें? सुख के मूल स्वरूप को तो देखा समझा ही नहीं। व्यर्थ में मोह करता है। प्रात्मज्ञान को पाये बिना असत्य के माध्यम से जीव द्रव्याजंन करता, असत्य साधना करता, यमराज से भयभीत होता 'मैं' और 'मेरा' की रट लगाता संसार में घूमता घिरता है। इसलिए संसार की विनाशशीलता देखते हुए वे संसारी जीवों को सम्बोधित करते हुए कहते हैं । 'मिथ्या यह संसार है रे, झूठा यह संसार रे ।
दौलतराम ने भी संसार को 'घोके की दाटी' कहा है और बताया है कि संसारी जीव जानबूझकर अपनी आंखों पर पट्टी बांधे हुए हैं । उसे समझाते हुए वे कहते हैं कि तेरे प्राण क्षण में निकल जायेंगे, तो तेरी यह मिट्टी यहीं पड़ी रह जायेगी । प्रतः अन्त.कपाट खोल ले और मन को वश में कर ले । संसारी जीव अनंतकाल से संसार में जन्म-मरण के चक्कर लगा रहा है । उत्पन्न होने से मरने तक दुःखदाह में जलता रहता है । भक्त कवि द्यानतराय को माता, पिता, पुत्र, पत्नी आदि सभी स्वार्थीप दिखाई देते हैं। शरीर का रतिभाव कवि को और भी विरागता की पोर जाने को बाध्य करता है। इसलिए इससे दूर होने के लिए वे ब्रह्मज्ञान का अनुभव आवश्यक मानते हैं। यही उनके लिए कल्याण का मार्ग है। इसी संदर्भ में भैया भगवतीदास ने चौपट के खेल में संसार का चित्रण प्रस्तुत किया है........चौपट के खेल में तमासो एक नयो दीस, जगत की रीति सब याही में बनाई है।
यह संसार की विचित्रता है । किसी के घर मंगल के दीप जलते है, उनकी माशायें पूरी होती हैं, पर कोई मधेरे में रहता है, इष्ट वियोग से रुदन करता है, निराशा उसके घर में छायी रहती है। कोई सुन्दर-सुन्दर वस्त्राभूषण पहिनता, घोड़ों पर दौड़ता है पर किसी को तन ढांकने के लिए भी कपड़े नहीं मिलते। जिसे
1. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 102. 2. वही, पृ. 130, 133. 3. जिया जग बोदे की दाटी........वही, पृ. 211. 4. ब्रह्मविलास, सुपथकुपथपचीसिका, 10, पृ. 181. .. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 154,
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प्रातःकाल राजा के रूप में देखा वही दोपहर में जंगल की भोर जम्ता दिखाई देता है । जल के बबूले के समान यह संसार अस्थिर और क्षणभंगुर है । इस पर दर्प करने की क्या कता ? वह तो रात्रि का स्वप्न जैसा है, पावक में तृणपूल-सा है, काल-कुदाल लिए शिर पर खड़ा है, मोह पिशाच ने मतिहरण किया है । 2
संसारी जीव द्रव्यार्जन में अच्छे बुरे सभी प्रकार के साधन अपनाता, मकान श्रादि खड़ा करता, पुत्र-पुत्री प्रादि के विषय में बहुत कुछ सोचता पर इसी बीच यदि यमराज की पुकार हो उठी तो 'रूपी शतरंज की बाजी सी सब कुछ वस्तुयें यों ही पड़ी रह जाती, उस धन-धान्य का क्या उपयोग होता ?
चाहत है धन होय किसी विश्व, तो सब काज सरें जियरा जी । गेह चिनाय करूं गहना कछु, ब्याहि सुता सुत बांटिये भाजी ॥ चिन्तत यो दिन जाहिँ चले, जम प्रामि अचानक देत दगाजी । खेलत खेल खिलारि गयँ, रहि जाइरूपी शतरंज की बाजी | जिनके पास धन है वे भी दुःखी हैं, जिनके पास धन नहीं है वे भी तृष्णावश दुःखी हैं । कोई घन त्यागी होने पर भी सुख-लालची हैं, कोई उसका उपयोग करने पर दुःखी है। कोई बिना उपयोग किये ही दुखी है। सच तो यह है कि इस संसार मे कोई भी व्यक्ति सुखी नहीं दिखाई देता ।" वह तो सांसारिक वासनाओं में लगा रहता है । 4
पांडे जिनदास ने जीव को माली और भव को वृक्ष मानकर मालीरासो नामक एक रूपक रचा। इस भव-वृक्ष के फल विषयजन्य हैं । उसके फल मरणान्तक होते है । 'माली वरज्यो हो ना रहे, फल की भूष ।
5
सुन्दरदास के लिए यह प्राधचर्य की बात लगी कि एक जीव संसार का मानन्द भी लूटना चाहता है और दूसरी ओर मोक्ष सुख भी । पर यह कैसे सम्भव है ? पत्थर की नाव पर चढ़कर समुद्र के पार कैसे जाया जा सकता है ? कृपाणों की शय्या से विश्राम कैसे मिल सकता है।
1. वही, पृ. 157.
2.
जैनशतक, भूधरदास, 32-33, छहढाला- बुधजन प्रथमढाल, ।
3.
मनमोदनपंचशती, 216, हिन्दी पद संग्रह, पृ. 2:39, पृ. 194, पृ. 252, T. 211.
पाण्डे रूपचन्द, गीतपरमार्थी, परमार्थ जकड़ी संग्रह, जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई.
5. हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि,
पृ.
4.
128.
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'पायर की करि नाव पारन्वषि उतरवी कहे, काग उड़ावनि काज़ सूत्र चिन्तामरिण बाहे । बस छांह बादल तरणी रवं धूम के धूम, करि कृपाया संज्या रमे ते क्यों पार्श्व विसराम ॥12
95
विनयविजय संसारी प्राणियों की ममता प्रवृत्ति को देखकर भावुक हो उठते हैं और कह उठते हैं- 'मेरी मेरी करत बाउरे, फिरे जीव प्रकुलाय' ये पदार्थ जल के बुलबुले के समान क्षणभंगुर हैं। उनसे तूं क्यों ललचाता है ? माया के विकल्पों ने तेरी आत्मा के शुद्ध स्वभाव को प्राच्छादित कर लिया है । मृगतृष्णा
और तृप्ति के कांटों से पड़े रहकर दुःख भोग रहा है। उसे ज्ञान- कुसुमों की शय्या को प्राप्त करने का सौभाग्य हुआ ही नहीं । स्वयं में रहने वाले सुधा-सरोवर को देखा नहीं जिसमें स्नान करने से सभी दुःख दूर हो जाते हैं ।"
कविवर दौलतराम का हृदय संसार की विनश्वरता को देखकर करुणा हो जाता है और कह उठता है कि भरे विद्वन् । तुम इस 'संसार' मे रमण मत करो । यह संसार केले के तने के समान प्रसार है । फिर भी हम उसमें प्रासक्त हो जाते हैं। क्योकि मोह के इन्द्रजाल में हम जकड़े हुए हैं । फलतः चतुर्गतियों में जन्म-मरण के दु.ख भोग रहे हैं । इस दुःख को अधिक व्यक्त करने के लिए कवि ने पारिवारिक सम्बन्धों की अनित्यता का सुन्दर चित्रण किया है। उन्होंने कहा कि कभी जो अपनी पत्नी थी वह माता बन जाती है, माता पत्नी बन जाती है, पुत्र पिता बन जाता है, पुत्री सास बन जाती है। इतना ही नहीं, जीव स्वयं का पुत्र बन जाता है । इसके अतिरिक्त उसने नरक पर्याय के घोर दुःखों को सहा है जिसका कोई मन्त नहीं रहा । उसे सुख वहां है कहां ! रे विद्वन् ! सुर भोर मनुष्य की प्रचुर विषय लिप्सा से भी तुम परिचित हो तो बताओ, कौन-सा संसारी जीव सुखी है। संसार की क्षणभंगुरता को भी तुमने परखा है। वहां महान् ऐश्वर्यं प्रौर समृद्धि क्षण भर में नष्ट हो जाती है । इन्द्र जैसा ऐश्वर्यशाली तो जीव भी कुक्कुर हो जाता है, नृप कृषि बन जाता है, धन सम्पन्न भिखारी बन जाता है और तो क्या जो माता पुत्र के वियोग में मरकर व्याप्रिणी बनी, उसी ने अपने पुत्र के शरीर के खण्ड-खण्ड कर दिये । कवि उनसे फिर कहता है कि मवष्य को बाल्यावस्था में हिताहित का
2.
1. वही, पृ. 163, मंदिर ठोलियान, जयपुर का गुटका नं. 110, पृ. 120 पद्य 5 वां ।
जैन भक्ति काव्य और कवि, पृ. 295.
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मान नहीं रहता भौर तरुणावस्था में हृदय कामग्नि से दहकता रहता है तथा पवावस्था में मंग-प्रत्यंग विकल हो जाते हैं, तब बतानो, संसार में कौन-सी दशा सुखदायी है ? अन्त में कवि अनुभूतिपूर्ण शब्दों में कहता है, रे विद्वन्, संसार की इसी प्रसारता को देखकर अन्य लोग मोक्ष मान के अनुगामी बने । तुम भी यदि कमों से मुक्ति चाहते हो तो इस क्षणिक संसार से विरक्त हो जामो और जिनराज के द्वारा निर्दिष्ट मार्ग पर चलना प्रारम्भ कर दो
मत राची धो-धारी। भंवरभ्रमरसर जानके, मत राची धीधारी ।। इनाजाल को ख्याल मोह ठग विभ्रम पास पसारी। पहुंगति विपतिमयी जामें जन, भ्रमत भरत दुख भारी ।। रामा मा, मा बामा, सुत पितु, सुता श्वमा, अवतारी । को प्रचंभ जहाँ माप मापके पुत्रदशा विस्तारी ।। घोर नरक दुख और न घोर न लेश न सुख विस्तारी ॥ सुर नर प्रचुर विषय जुरजारे, को सुखिया संसारी॥ मंडल है प्रखंडल छिन में, नप कृमि, सघन भिखारी । जा सुत-विरह मरी है वाघिनि, ता सुन देह विदारी ॥ शिशु न हिताहित ज्ञान, तरु उर मदन दहन परजारी। वृद्ध भये विकसंगी थाये, कौन दशा सुखकारी ।। यों मसार लस छार भव्य झट गये मोख-मग चारी। यातें होह उदास 'दौल' अब, भज जिनपति जगतारी ।।
संसार का सुन्दर चित्रण गेन कथा साहित्य में मधुबिन्दु कथा के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है । एक व्यक्ति घनघोर जंगल में भूल गया । वह भयभीत होकर भटकता रहा । इतने में एक गज उसकी मोर दौड़ता दिखाई दिया। उसके भय से वह समीपवर्ती कुए में कूद पड़ा। कुए के किनारे लगे वटवृक्ष की शाखा को कूदते समय पकड़ लिया। उसमें मधुबिन्दुनों का छाता लगा हुमा था । उसकी बूंदों में उसकी मासक्ति पैदा हो गई। कूप के निम्न भाग में चार विकराल अजगर मुंह फैलाये उस व्यक्ति की मोर निहार रहे थे। इधर हाथी अपनी सूर से वृक्ष शाखा को झकझोर रहा था और जिस भाखा से बह लटका था उसे एक चूहा कार रहा था । मधुमक्खियां भी उस पर पाक्रमण कर रही थीं। इस कथा में संसार महावत है, भवभ्रमण कूप के समान है, गज यम है, मधुमक्खियों का काटना रोगादि का माक्रमण है, अजगर का कूप में होना निगोद का प्रतीक है, चार प्रज
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गर पगति के प्रतीक है, मधुबिन्दु सांसारिक सुखाभास है। कविवर भगवतीदास ने भी इसी कथा का प्राधार लेकर संसार का चित्रण किया है।'
कवि बूचराज ने ससार को टोड (व्यापारियों का चलता हुमा समूह) कहा है और अपने टंडारणागीत में परिवार के स्वार्थ का सुन्दर चित्रण किया है :
'मात पिता सुत सजन सरीर दह सब लोग विराणावे । इयण पंख जिम लरुवर वासे दसहं दिशा उडाणावे ।। विषय स्वारथ सब जग वंछ करि करि बुधि बिनारणावे ।
छोडि समाधि महारस नूपम मधुर विन्दु लपटाणावे ॥”
संसार के इस चित्रण में कवि साधकों ने एक मोर जहां संसार की विषय वासना मे प्रासक्त जीवों की मन:स्थिति को स्पष्ट किया है वहीं दूसरी ओर उससे विरक्त हो जाने का उपदेश भी दिया है। इन दोनों के समन्वित चित्रण में साधक टूटने से बच गया । उसका चिन्तन स्वानुभूति के निर्मल जल से निखरकर भागे बढ़ गया । जैन कवियों के चित्रण की यही विशेषता है।
2 शरीर से ममत्व रहस्य साधकों के लिए संसार के समान शरीर भी एक चिन्तन का विषय रहा है। उसे उन्होने समीप से देखा और पाया कि वह भी संसार के हर पदार्थ के समान वह भी नष्ट होने वाला है। समय प्रथवा अवस्था के अनुसार वह लीन होता चला जाता है । अध्यात्म रसिक भूधर कवि ने शरीर को चरखा का रूप देकर उसकी यथार्थ स्थिति का चित्रण किया है । इस सन्दर्भ में मोह-मग्न व्यक्ति को सम्बोधते हुए वे कहते हैं कि शरीर रूपी चरखा जीर्ण-शीर्ण हो गया । उससे अब कोई काम नहीं लिया जा सकता । वह आगे बढ़ता ही नहीं। उसके पैर रूप दोनों खूटे हिलने लगे, फेफड़ों में से कफ की धर-घरं आवाज पाने लगी जैसे पुराने चरखे से पाती है, उसे मनमाना चलाया नहीं जा सकता। रसना रूप तकली लड़खड़ा गयी, शब्द रूप सूत से सुधा नहीं निकलती, जल्दी-जल्दी शब्द रूप सूत टूट जाता है। प्रायु रूप माल का भी कोई विश्वास नहीं, वह कब टूट जाय, विविध प्रौषधियां देकर उसे प्रतिदिन स्वस्थ रखने का प्रयत्न किया जाता है, उसकी मरम्मत की जाती है,
1. ब्रह्मविलास, मधुबिन्दुक चौपाई, छीहल का पन्थी गीत भी देखिये जो
जयपुर के दीवान बधीचन्द्रजी के मंदिर में, गुटका नं. 27, वेष्टन नं. 973
में सुरक्षित है। 2. हिन्दी जैन भक्ति काव्य पार कवि, पृ. 100.
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Aatur मरम्मत करने वालों ने घुटने टेक दिये। जब तक शरीर रूप करता त्या या तब तक सभी को वह प्रिय था। पर जैसे ही वह पुराना हुआ, उसका रंगविरंग हुआ, तो अब उसे कोई देखना ही नहीं चाहता। इसलिए हे भाई, मिष्या 'तत्त्व रूप मोटे धागे को महीन कर उसे सुलझा लो और सम्यग्ज्ञान को उत्पन्न कर लो । उसका भन्त तो ईंधन में होना निश्चित ही है, बस, प्रात:काल समझकर पूरे प्राश्मविश्वास के साथ सम्यग्ज्ञान को प्राप्त करने का प्रयत्न करो ।
" चरखा चलता नाही (१) चरखा हुधा पुराना (वे) ॥ मय दे दो हालत लागे, उर मदरा खखसना । छीदी हुई संखड़ी पांसू, फिरं नहीं मनमाना ॥ ॥ रसना तकली ने बल खाया, सो अब कैसे खूटे | अबद सूत सुधा नहीं निकस, घड़ी-घड़ी पल टूटै ॥2॥ मायु माल का नहीं भरोसा, मंग चलाचल सारे । रोज इलाज मरम्मत चाहे, वेद बाढ़ ही हारे ॥3॥
या वरखला रंगा चंगा, सबका चित्त चुरावं । पलटा वरन गये गुन अगले अब देखें नहीं भावे ॥14॥ मोटा मही काट कर भाई ! कर अपना सुरकेरा ।
आग से ईंधन होगा, भूधर समझ सबेरा || 5 || 2
छील कवि ने उदरगीत में जीव की तीनों अवस्थाओं का वर्णन किया है । बाल्यावस्था में वह नव-दस माह अत्यन्त कष्ट पूर्वक गर्भावस्था में रहता है, बाल्याबस्था अज्ञान में चली जाती है, युवावस्था इन्द्रियवासना में निकल जाती है प्रोर वृद्धावस्था में इन्द्रियाँ शिथिल होने लगती हैं। सारा जीवन यों ही चला जाता है'उदर उदधि में दस मासाह रह्यो ।'
'जरा बुढ़ापा बैरी ग्राइभो, सुधि-बुधि नाही जब पछिताइयो 12
शरीर के सौन्दर्य और
तो बुद्धावस्था या गई,
ऐसे शरीर से ममत्व हटाने के लिए भूभर कवि ने बल पर अभिमान करने वाले मोही व्यक्ति से कहा कि भाई ! कुछ तो सचेत हो जाओ । श्रवण शक्ति कम हो गई, पैरों में चलने की शक्ति न होने से वे लड़खड़ाने लगे । शरीर यष्टि के समात पतला हो गया, भूख कम होने
1. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 152, भूमर पद संग्रह, जिनवाणी प्रचारक कार्यालय
कलकत्ता ।
2. हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि, पृष्ठ 105 उदरगीत, दीवान बधीचन्द्रजी का मंदिर, जयपुर गुटका नं. 27, वेष्टन नं. 973.
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लगी, पाली में पानी गिरने लगा, तिों को पोक्त टूट गई, हरियों के जोड़ उखड़ने लने, कमी को रंग बदल गया, औरीर में रोग ने घेरा गल दिया, पुनादि सम्बन्धी उस दुःख को बोट नहीं सकते, तब पोर कोन बांट सकेगा ? इसलिए रे प्राणी पद 'तो कम से कम अपना हित कर लें। यदि अभी भी सचेत नहीं हमा तो फिर कर होगा । पश्चात्ताप ही हाथ लगेगा।
पीया र बुढ़ापा मानी, सुषि बुधि विसरानी ।' भैया भगवती दास को यह शरीर सप्त धातु से निर्मित महागुरव से परिपूर्ण दिखाई देता है । इसलिए उन्हें पाश्चर्य होता है कि कोई उसमें पासकों हो जाता है । कवि भूधरदास को भी यह पाश्वर्य का विषय बना कि किसी को इस शरीर से घसा क्यों नहीं होती-'देह दशा यह विखित मात, पिनात नहीं किन बुद्धि हारी है।'
___ यह शरीर सभी प्रकार के पवित्र पदार्थों से भरा हुमा है। इसलिए दौलतराम कहते हैं कि इस शरीर को घिनौनी और जड़ जानकर उससे मोह मत करो :
'मत कीज्यो जी गारी, घिनगेह देह जड़ जान के । मात पिता रज वीरजसो यह, उपजी मलकुलवारी।
अस्थिमाल पलनसा जाल की, लाल लाल जलक्यारी ।। मैया भगवतीदास कहते हैं कि ऐसे घिनौने अशुद्ध शरीर को शुद्ध कैसे किया जा सकता है ? शरीर के लिए भोजन कुछ भी दो पर उससे रुधिर, मांस, अस्थियां पादि ही उत्पन्न होती हैं । इतने पर भी वह क्षणभंगुर बना रहता है। पर मज्ञानी मोही व्यक्ति उसे यथार्थ मानता है। ऐसी मिथ्या बातों को वह सत्य समझ लेता है।
पं. दौलतराम शरीर के प्रति मानव के राग को देखकर प्रत्यन्त ब्रहित हो जाते हैं और कह उठते है हे मूढ, इससे ममत्व क्यों करता है । यह शरद मेघ और जलबुदबुद के समान क्षणभंगुर है। प्रतः भास्मा और शरीर का भेदविज्ञान कर,
1. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 15, बनारसीविलास, प्रास्ताविक फुटकर
कविता, 12. 2. बाविलास, शतमम्टोत्तरी, 46, पृ. 18, 3. जैनशतक, 20, पृ. 9. 4. दौलत जैन पद संग्रह, पृ. 11. पद 17वां । 5. ब्रह्मविलास, शतमष्टोत्तरी, 103.
ब्रह्मविलास, परमाणे पद पंक्ति 1.
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V
शाश्वत सुख को प्राप्त करो।' एक पद में वे कहते हैं कि रे मूर्ख, तुम अपना मिथ्याज्ञान छोड़ो। व्यर्थ में शरीर से ममत्व जोड़ लिया है। यह शरीर तुम्हारा नहीं है जिसे तुम प्रनादिकाल से अपना मानकर पोषण कर रहे हो। यह तो सभी प्रकार के मलों दोषों का थैला है। इससे ममत्व रखने के कारण ही तुम अनादिकाल से कर्मों से बंधे हुए हो और दुःखों को भोग रहे हो । पुनः समझाते हुए कवि कहता है, यह शरीर जड़ है, तू चेतन है। जड़ और चेतन, दोनों पृथक्-पृथक् अस्तित्व रखने वाले पदार्थों को तुम एक क्यों करना चाहते हो। यह सम्भव भी नहीं । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चरित्र ये तीनों तुम्हारी सम्पत्ति हैं । इसलिए सांसारिक tarit से मोह छोड़कर तुम उस अजर-अमर सम्पदा को प्राप्त करो और शिवगौरी के साथ सुख भोग करो। शरीर से राग छोड़े बिना वह मिल नहीं सकता । जिन्होंने यह शरीर - राग छोड़ दिया उन्हीं से तुम्हारी ममता होनी चाहिए। इसी ज्ञानामृत का तुम पान करो ताकि पर पदार्थों से तुम्हारा ममत्व छूट सके :--
छांडि दे या बुधि भोरी, वृथा तन से रति जोरी ।
यह पर है, न रहै थिर पोषत, तकल कुमल की झोरी ॥ यासी ममता कर अनादि तैं, बंधी करम की डोरी । सहै दुख जलधि - हिलोरी || 1 || यह जड़ है, तू चेतन, यों ही अपनावत बरजोरी । सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चरन निधि ये हैं संपति तोरी ॥ सदा विलसो शिव-गोरी ॥2॥ सुखिया भये सदीव जीव जिन, यासौं ममता तोरी । 'दौल' सीख यह लीजे, पीजे ज्ञान-पियूष कटोरी ॥
मिटे पर चाह कठोरी ||3|| 2
विनयविजय ने शरीर की नश्वरता और प्रकृति को देखकर उसे एक रूपक के माध्यम से प्रस्तुत किया है । शरीर घोड़ा है और आत्मा सवार । घोड़ा चरने में माहिर है पर कंद होने में डरता है। कितना भी अच्छा अच्छा खाये पर जीन कसने पर बहकने लगता है । कितना भी पैसा खर्च करो, संवारी के समय सवार को कहीं जंगल में गिरा देगा | क्षण भर में भूखा होता है, क्षरण भर में प्यासा । सेवा तो बहुत कराता है, पर तदनुरूप उसका उपयोग नहीं हो पाता। उसे रास्ते पर लाने के लिए चाबुक की प्रावश्यकता होती है। उसके बिना संसार से पार नहीं हुआ जा
सकता :--
1.
2.
दौलत जैन पद संग्रह, 17.
अध्यात्म पदावली, पद 4, पृ. 340.
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'पोरा झूठा है रे तू मत भूले प्रसवारा । तोहि सुषा ये लागत प्यारा, अंत होपया म्यारा ।। चरै चीज मार डर कैद सो, प्रबट चल पटारा । जीन कसै तब सोया चाहै, खाने को होशियारा॥ खूब खजाना खरच खिलानो, यो सब न्यामत चारा। प्रसबारी का अवसर प्राव, गलिया होय गंवारा ।। छिनु तासा छिनु प्यासा होव, खिवमत बहुत करावन हारा। दौर दूर जंगल में डार, भूरे धनी विचारा ॥ करहु चौकड़ा चातुर चौकस, यो चाबुक दो चाटा।
इस घोरे को विनय सिखावो, ज्यों पावो भवपारा ॥1 बुधजन शरीर की नश्वरता का भान करते हुए शुद्ध स्वभाव चिदानंद चैतन्य अवस्था में स्थिर होने का संदेश देते हैं-'तन देख्या अस्थिर घिनावना ।....... बुधजन तनत ममत मेटना चिदानंद पद धारना (बुधजनविलास, पद 116)। मृत्यु अवश्यंभावी है। उसके आने पर कोई भी अपने प्रापको बचा नहीं पाता, इसलिए उससे भयभीत होने की प्रावश्यकता नही बल्कि प्रात्मचिंतन करके जन्म-मरण के दुःखो से मुक्त हो जाना ही श्रेयस्कर है- "काल अचानक ही ले जायेगा, गाफिल होकर रह्ना क्या रे ! छिन हूँ तोको नाहिं बचा तो सुमटन को रखना क्या रे" (बुधजन विलास, पद 5)।
शरीर की इस नश्वरता का प्राभास साधक प्रतिपल करता है और साधनात्मक प्रवृत्ति मे शुद्ध स्वभावी चैतन्य की भावना भाता है। मृत्यु एक अटल तथ्य है जिसमें शरीर भग्न हो जाता है मात्र स्वस्थ चेतन रह जाता है।
3. कर्मजाल प्रत्येक व्यक्ति अथवा साधक के सुख-दुःख का कारण उसके स्वयंकृत कर्म हमा करते हैं। भारतीय धर्म साधनामों में चार्वाक को छोड़कर प्रायः सभी विचारकों ने कर्म को संसार में जन्म मरण का कारण ठहराया है। यह कर्म परम्परा जीव के साथ अनादिकाल से जड़ी हुई है। जैन चिन्तकों ने ईश्वर के स्थान पर कर्म को संस्थापित किया है । तदनुसार स्वयंकृत कर्मों का भोक्ता जीव स्वयं ही होता है, चाहे वे शुभ हों या अशुभ । इसलिए जन्म-परम्परा तथा सुख-दुःख की असमानता में ईश्वर का कोई रोल यहां स्वीकार नहीं किया गया । जीव फल भोमने में जितना परतंत्र है उतना ही नवीन कर्मों के उपार्जन करने में स्वतन्त्र भी है।
1. हिन्दी चैन भक्ति काव्य और कपि, पृ. 294.
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प्राचीन भारतीय साहित्य के देखने से ऐसा लगता है कि उस समय कर्म के समकक्ष भनेक सिद्धान्त बड़े दिये गये थे। उस समय की काल को विश्व का नियन्त्रक मानता था तो कोई स्वभाव को, कोई नियति को अनिलाता था तो कोई यदुच्छा को, किसी का ध्यान भूतों पर जाता था. तो किसी का ईश्वर पर कोई अपने wrest देव के हाथ दे देता था तो कोई पुरुषार्थ को पता था । इन सभी वादों ने एकान्तिक मिटको से किल्ला करू. कर्म सिद्धान्त के स्थान पर स्वयं को प्रासीत कर लिया। परन्तु जैक्सन में इन सभी को समन्वित रूप में स्वीकार किया गया है। तदनुसार सभी कारण मिलकर ही कार्य की निष्पत्ति करते हैं। इसी को सम्यक् धारणा कहा जाता है।
कर्मों का अस्तित्व, सुख-दुःख के वैविध्य, नवीन शरीर धारणा करने की प्रक्रिया तथा दानादिक क्रियाओंों के फल में स्पष्टत दिखाई देता है । समान- साधन होने पर भी फल का तारतम्य प्रदृष्ट कर्म का ही परिणाम है। कर्म को जैन धर्म में मूर्ति अथवा पदलिक माना गया है और आत्मा को प्रमूर्तिक । प्रमूर्त प्रात्मा के साथ मूर्त कर्म का सम्बन्ध अनादिकाल से चला आ रहा है। इसी प्रकार शरीर और कर्म का सम्बन्ध भी बीजांकुर के समान अनादिकालीन है और वह कार्यकारण भावात्मक है। हमारे मन-वचन-काय की प्रत्येक क्रिया अपना संस्कार श्रारमा मौर कर्म प्रथवा कारण शरीर पर छोड़ती जाती है । यह संस्कार कार्मारण शरीर से बंधता चला जाता है और उसका जब परिपाक हो जाता है तो बंधे कर्म के उदय से यह आत्मा स्वयं हीनावस्था मे पहुच जाती है । फलतः मिथ्यात्व मादि विकारों से वह ग्रसित होता जाता है ज्ञानादि रूप विशुद्ध स्वरूप को प्राप्त नहीं कर पाता । जाते हैं और नये कर्म बंधते चले जाते हैं । म्रात्मा और कर्म की यही परम्परा अनादिकाल से चली ना रही है। शास्त्रीय परिभाषा में पुद्गल परमाणुओंों के पिण्ड रूप कर्म को द्रव्य कर्म और राग द्वेषादिक प्रवृत्तियों को भाव कर्म, और शरीर रूप कर्म को नोकर्म कहा गया है। बनारसीदास ने इसे एक उदाहरण देकर स्पष्ट किया है । मान लीजिए जिस प्रकार कोठी में धान रखी है, बाल के मीर का है तो उस पान को अलग कर करण को रख लेते हैं। इसमें कोठी के समान नोकमंगल हैं । यान के समान
राग, द्वेष, मोह, प्रज्ञान मोर वह अपने अनन्त पुराने कर्म निर्माण होते:
कमल हैं, चमी के सम्रन भावकर्ममल तथा करण के समान भगवान है बुद्गला के ये दो हो, जाल हैं- अध्यकर्म और भावकर्म । सहज शुद्ध, चेतन, भावकर्य की ओर.
1.
सम्मति तर्क प्रकरण, 3-53.
2. बनारसीविलास, मध्यातम बसीसी, 11-13.
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बसता है और काय कर्म जोकर्म से बंधा पुदगल पिण्ड है । 1 भावकर्म के के रूप है। ज्ञान और कर्म ज्ञान चक चेतन के अन्तर में गुप्त और ज्ञानचक प्रत्यक्ष है। दूस शब्दों में यह कह सकते हैं कि चेतन के ये दोनों भाद शुक्लपक्ष र कृष्णपा के समान हैं। शाम के कारण चेतन सजग बना रहता है और कर्म के कास्य मित्रा अम्र में निति रहता है । एक दर्शक है, दूसरा मा एक निर्जरा का कारण है, दूसरा मंत्र का 12
जैन धर्म में कर्मों के प्राभव के कारण पांच माने रति (व्रताभाव), प्रमाद, कषाय (क्रोध, मान, माया और वचन, काय की प्रवृत्ति) । दानं पुण्यादिक कार्य शुभ कर्म के कारण हैं और हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह यादि पाप श्रथवा अशुभ बन्ध के कारण हैं। कम का बन्ध चार प्रकार का होता है- प्रकृति बन्ध, स्थिति बन्ध, अनुभाव बन्ध और प्रदेश बन्ध | प्रकृतिबन्ध आठ प्रकार का है - ज्ञानवरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय । इन कर्मों के भेद प्रभेदादि की भी चर्चा जैन शस्त्रों के अनुसार मध्यकालीन हिन्दी जैन कवियों ने बड़ी गहराई और विस्तार से की है । उस गहराई तक हम नहीं जाना चाहेंगे। हम यहां मात्र यह कहना चाहते हैं कि इन कर्मों के कारण जीव संसार मे परिभ्रमण करता रहता है। जीव के सुख दुःख का प्रमुख कारण कर्म माना गया है। जिस प्रकार से तेज जल प्रवाह मे भंवर चक्कर लगाता रहता है और उसमें फंस जाने वाला मृत्यु का शिकार हो जाता है उसी प्रकार कर्म का विपाक हो जाने पर जीव संसार के जन्म-मरण के प्रवाह में विद्यमान कर्मरूप भंवर में फंसे जाता है 15 जिस प्रकार ज्वार के प्रकोप से भोजन में कोई रुचि नहीं रहती उसी प्रकार कुकर्म अथवा प्रशुभकर्म के उदय से धर्म के क्षेत्र में उसे कोई उत्साह जाग्रत नहीं होता। जब तक जीव का सम्बन्ध जड़ अथवा कर्मों से रहता है तब तक उसे दुःख ही दुःख भोगने पड़ते हैं
"जब लगु मोती सीप महि तब लगु समु गुण जाइ । जब लमु जीया संगि जड, तब लग दूख सुहाइ || ""
बनारसी विलास, प्रध्यातम बत्तीसी 9-10.
1.
2. वही पृ. 14.
3.
4.
स्थानांग 418. समवायांस 5.
बनारसी विलास कर्म प्रकृति विधान मादि
बनारसी विलास, मोक्ष पेठी, पृ. 18.
5.
6. हिन्दी भक्तिः
गये हैं- मिथ्यात्व प्रर्वि
लोभ) प्रोर योंग (मन)
रकम..
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164
वस्तराम साह का जीव इन कर्मों से भयभीत हो गया । वह इन्हों का के कारण पर-पदार्थों में मासक्त रहा और भव भव के दुःख भोगे । कर्मों से अत्यन्त दुःखी होकर वे कहते हैं कि ये कर्म मेरा साथ एक पल मात्र को भी नहीं छोड़ते।। भया भगवतीदास तो करुणाद्र होकर कह उठते हैं, कि धुएं के समुदाय को देखर गर्व कौन करेगा क्योकि पवन के चलते ही वह समाप्त हो जाने वाला है। सन्ध्या का रंग देखते-देखते जैसे विलीन हो जाता है, दीपक-पतंग जैसे काल-कवलित हो जाता है, स्वप्न मे जैसे कोई नृपति बन जाता है, इन्द्रधनुष जैसे शीघ्र ही मष्ट हो जाता है, मोसबूद जैसे धूप के निकलते ही सूख जाती है, उसी प्रकार कर्म जाल में फंसा मूढ जीव दु:खी बना रहता है।
'धूमन के धौरहर देख कहा गर्व कर, ये तो छिनमाहि जाहि पौन परसत ही। संध्या के समान रंग देखत ही होय मंग, दीपक पतंग जैसे काल गरसत ही ।। सुपने में भूप जैसें इन्द्र धनुरूप जैसें, प्रोस बंद धूप जैसे दुर दरसत ही। ऐसोई भरम सब कर्म जालवर्गणा को, तामे मूढ मग्न होय मरै तरसत ही ॥2
कर्म ही जीव को इधर से उधर त्रिभुवन में नचाता रहता है। बुधजन 'हो विषना की मौप कही तो न जाय । सुलट उलट उलटी सुलटा दे प्रदरस पुनि दरसाय ।" कहकर कर्म की प्रबलता का दिग्दर्शन करते हुए यह स्पष्ट करते हैं कि कर्मों की रेखा पाषाण रेखा-सी रहती है । वह किसी भी प्रकार टाली नही जा सकती। त्रिभुवन का राजा रावण क्षण भर में नरक मे जा पड़ा । कृष्ण का छप्पन कोटि का परिवार वन में बिलखते-बिलखते मर गया। हनुमान की माता अंजना वन-वन रुदन करती रही, भरत बाहुबलि के बीच घनघोर युद्ध हुमा, राम और लक्ष्मण ने सीता के साथ वनवास झेला, महासती सीता को दधकती आग में कूदना पड़ा, महाबली पाण्डवों की पत्नी द्रौपदी का चीर हरण किया गया, कृष्ण रुक्मणी का पुत्र प्रथम्न देवों द्वारा हर लिया गया । ऐसे सहस्रों उदाहरण हैं जो कर्मों की गाथा गाते मिलते हैं । अष्टकर्मों को नष्ट किये बिना संसार का प्रावागमन समाप्त नहीं होता। इस पर चिन्तन करते हुए शरीरान्त हो जाने के बाद की कल्पना करता है और कहता है कि अब वे हमारे पाचो किसान (इन्द्रियाँ) कहां गये । उनको खूब खिलाया पिलाया, पर वह सब निष्फल हो गया । चेतन अलग हो गया और इन्द्रिया मलग हो गई। ऐसी स्थिति मे उससे मोहादि करने की क्या मावश्यकता ? देखिये इसे कवि कलाकार ने कितने सुन्दर शब्दों में व्यक्त किया है
1. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 165. 2. ब्रह्मविलास, पुण्य पचीसिका, 17 पृ. 5, नाटक पचीसी 2 पृ. 23. 3. ब्रह्मविलास, प्रनित्यपचीसिका, 16 पृ. 175. 4. बुधजन विलास पद 73. 5. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 241. कर्मन की रेखा न्यारी से विषना टारी नाहिटर 1
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कित गये पंच किसान हमारे। कित० ॥ टेक ॥ । बोयो बीज खेत गयो गिरफल, भर बये खाद पनारे। कपटी लोगों से साझाकर,....हुए माप विचारे ||1| प्राप दिवाना गह-गह बैठो लिख-लिख कागद डारे। बाकी निकसी पकरे मुकद्दम, पांचों हो गये न्यारे 112॥ रुक गयो कंठ शब्द नहिं निकसत, हा हा कम सौं हारे।
'बनारसि' या नगर न बसिये, चल गये सींचन हारे ।॥3॥' संसार की प्रसारता को देखते हुए कविवर भगवतीदास संसारी से अभिमान छोड़ने को कहते हैं-'छाडि दे अभिमान जियके छोडि दे । राजा रंक प्रादि कोई कभी स्थिर रूप से यहां नहीं रहे । तुम्हारे देखते-देखते कितने लोग पाये और गथे । एक क्षण के विषय में भी कुछ कहा नहीं जा सकता। भतः चतुर्मति के प्रमरण में कारणभूत इन कर्मों को छोड़ने का प्रयत्ल करो। पांडे रूपचन्द की मात्मा निजपद को भूलकर कर्मों के कारण संसार में जन्म मरण करने लगी। उसे तृष्णा की प्यास भी अधिक लगी--
विषयन सेवते भये, तृष्णा तें न बुझाय,
ज्यों जलखारा पीवतें, वाढे तृणाधिकाय । कनककीर्ति ने भी कर्म घटावली में अष्टकर्मों के प्रभाव को स्पष्ट किया है। इस प्रभाव को साधक और गहराई से सोचता है कि वह किस प्रकार उसकी मात्मा के मूल गुरणों का हनन करता है । भूधरदास "देख्या बीच जहान के स्वप्ने का प्रजेब तमाशा रे । एको के घर मंगल गावं पूरी मन की भाशा । एक वियोग मरे बहु रोव भरि-भरि नैन निरासा" कहकर कर्म के स्वभाव को अभिव्यक्त करते हैं।
6. मिथ्यास्व
मिथ्यात्व का तात्पर्य है प्रज्ञान और प्रज्ञान का तात्पर्य है धर्म विशेष के सिद्धान्तों पर विश्वास नहीं करना । मिथ्यात्व, प्रज्ञान, प्रविद्या, मिथ्याशान, मिथ्या. दृष्टि, मादि शब्द समानार्थक हैं । प्रत्येक धर्म और दर्शन ने इन शब्दों का प्रयोग
1. बनारसी विलास-पृ. 240. 2. ब्रह्मविलास, परमार्थ पद पंक्ति, 12. रूपचन्द “लसुन के पात्र कि बास कपूर
की कपूर के पात्र कि लसुन की होइ" कहकर कर्म प्रकृति को स्पष्ट करते हैं । 3. परमार्थी दोहाशतक, जनहितेषी, भाग 6, अंक 5-6; जैन सिद्धान्त भवन
पारा में एक हस्तलिखित प्रति है। 4. कर्मघटावलि, बधीचन्द मन्दिर, जयपुर, गुटका नं. 108.
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समभय समान अर्थों में किया है। उनके विश्लेषाण की प्रक्रिया भले ही पृथक रही हो। इसलिए हर समुसामा के साहित्य में इसके भेद-प्रमेव मी अपने ढंग से किये गये हैं।
जम-साधना के क्षेत्र में मिथ्यात्व उस दृष्टि को कहा गया है जिसमें विशुद्धता न हो, पर पदार्थों में प्रासक्ति हो, एकान्तवादी का पक्षपाती हो, भेदविज्ञान जाग्रत न हुमा हो, कर्म के मनोरों से संसार में वैसा ही डोलता हो जैसे बधरूड़े में पड़ा पत्ता, कोषादि कषायों से ग्रसित हो, पौर क्षण भर मे सुखी और क्षण भर में दुःखी बन जाता हो । माया, मिथ्या और शोक इन तीनों को शल्य कहा गया है। वामण इन्हीं में उलझे रहते हैं । व्यक्ति इनके रहते विशुद्धावस्था को प्राप्त नहीं कर सकता। जिस प्रकार लाल रंग के कारण से दूसरा पट भी लाल दिखाई देता है अथवा कपिरादि से साफ करने पर कपड़ा सफेद नहीं रह सकता। उसी प्रकार मिथ्यास्य से प्राबुत रहने पर सम्यक् ज्ञानादिक गुणों की प्राप्ति नहीं की जा सकती। पुदगल प्रथया पदार्थों से मोह रखना तथा पुद्गल और आत्मा को एक रूप मानना यही मिथ्याभ्रम है । प्रात्मा जब पुद्गल की दशा को मानने लगता है तभी उसमें कर्म मौर विभाव उत्पन्न होना प्रारम्भ हो जाते हैं । परिप्रहादिक बढ़ जाते हैं। मदिरापान किये बन्दर को यदि विच्छू काट जाय तो जिस प्रकार वह उत्पाद करता है उसी प्रकार मिथ्याज्ञानी भी प्रात्मज्ञानी न होने के कारण भटकता रहता है।
कर्म रूपी रोग की दो प्रकृतियों होती हैं । एक कम्पन मौर दूसरी ऐंठना । शास्त्रीय परिभाषा में इन दोनों को क्रमश: पाप और पुण्य कहा गया है। विशुद्धारमा इन दोनों से शून्य रहता है। पाप के समान पुण्य को भी जैन दर्शन में दुःख का कारण माना गया है क्योंकि वह भी एक प्रकार का राग है और राग मुक्ति का कारण हो नहीं सकता। यह अवश्य है कि दानपूजारिक शुभ भाव हैं जो शुद्धोपयोग को प्राप्त कराने में सहयोगी होते हैं । इसलिए बनारसीरास ने पुण्य को भी 'रोग' रूप मान लिया है। पाप से तपादिक रोग, चिन्ता, दुःख प्रादि उत्पन्न होते हैं और पुण्य से संसार बढ़ाने वाले विषपभोगों की बुद्धि पार्स-रौद्रादि ध्यान उत्पन्न होते हैं। मिथ्यावी इन दोनों को समान मानता है, कम्पन रोग से भय करता है मौर ऐंठन से" प्रीति । एक में उद्वेग होता है और दूसरे में उपशान्ति । एक में कच्छप जैसा
1. वित्र देखिए, स. भामचन्द्र जैन, बौद्ध संस्कृति का इतिहास, प्रथमाध्याय 2. बमारसी विलास, मानमावनी 5, नाटक समयसार, उत्पानिका, 9.
भूधर विलास, पद 9. 3. बनारसी विलास, मोक्ष पैठी 9. 4, वही, कर्म बत्तीची .
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संकोच, तुरग.सी. कमाल मौर, पन्धकार जैसा समय रहता है. और, दूसरे में, बकरकुद-सी उमंग, बकरबन्द जैसी चाल तथा महारबाही प्रकार होगा। तम और उचोद ये दोनों प्रगल को पर्याय हैं पर, मिथ्या शाजाम ममें अपील पैदा नहीं होता इसलिए संसार में भटकते रहते हैं। दोनों हाथे हिलोने. वाली हैं। कोई पर्वत से गिरकर मरता है तो कोई कूप से। मरण दोनों का एक है, रूप विविध भले ही हों। दोनों के माता-पिता क्रमशः वेदनीय मार मोहनीय है। उन्हीं से वे बन्धे हुए हैं। शृंखला एक ही है.चाहे वह लोहे की हो अथवा स्वर्ण की हो। जिसकी चित्त दशा जैसी होगी उसकी दृष्टि वैसी ही होगी। इसलिए शानी संसार चक्र को समाप्त कर देता है पर मिथ्यात्वी उसे और भी बढ़ा लेता है।
पुण्य-पाप दोनों संसार भ्रमण के बीज है। इन्हीं के कारण इन्द्रियों को सुख-दुःख मिलता है । मैया भगवतीदास ने इसलिए इन दोनों को त्यागने का उपदेश दिया है। अजरामर पद प्राप्ति के लिए यह आवश्यक है। बनारसीदास ने इसे नाटक समयसार के पुण्यपाप एकत्वद्वार में इस तत्त्व पर विशद प्रकाश डाला है। उन्होंने कहा है जैसे किसी चांडालनी के दो पुकहुए, उममें से उसने एक पुत्र ब्राह्मण को दिया और एक अपने घर में रखा ! जो ब्राह्मण को दिपा वह ब्राह्मण कहर लाया और मद्य-मांस भक्षण का त्यागी हुमा । जो घर में रहा वह पाण्डाल कहलाया तथा महा-मांसभक्षी हुमा । उसी प्रकार एक वेदनीय कर्म के पाप और पुण्य भिन्न-भिव नाम वाले दो पुत्र हैं, के दोनों संसार में मटकाते हैं। और दोनों बंधपरम्परा को बढ़ाते हैं । इससे ज्ञानी लोम दोनों को ही अभिलाषा नहीं करते।
जैसे काहू चंडाली जुमल-पुत्र जने शिकि,
एक दीयो रामन के एक घर राख्यो है। बांमन कहापौर विनिमय-मांस त्याकाकीला,
चांडाल कहायोतिकि मजन्मांक वाली है ।। तैसें एक वेदनी करम के जुगल पुर,
एक पाप एक पुत्र नाम भिन्न भाख्यो है। दुई मोहि दौर धूप दोऊ कर्मबन्धक्रम,
यात ग्यानवंत नहि कोउ अभिलाग्यो है। बनारसीदास ने नाटक समय-सार में एक रूपक के माध्यम से,मिथ्यात्व को समझाने का प्रयत्न किया है। शरीररूपी महल में कर्मरूपी भारी पलंग है, माया की शय्या सजी हुई है, संकल्प विकल्प की चादर तनी हुई है। चेतना अपने स्वरूप
1. बनारसी विलास, कर्मछत्तीसी, 1-39. 2. ब्रह्मविलास, अनादि बत्तीसिका, पृ.220. 3. नाटक समयसार, पृ. 96.
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को भूला हुमा निद्रा की गोद में पड़ा हुआ है, मोह के झकोरों से नेत्रों के पलक इंक रहे हैं, कर्मोदय से तीव्र पुरकने की आवाज हो रही है, विषय सुख की खोज में भटकना स्वप्न है, ऐसी अज्ञानावस्था में प्रात्मा सदा मम्न होकर मिथ्यात्व में भटकता फिरता है, परन्तु अपने प्रात्मस्वरूप को नहीं देखता. काया चित्रसारी में करम परजंक भारी,
माया की संवारी सेज चादरि कल्पना । सैन कर चेतन प्रचेतना नींद लिये, ___मोह की मरोट यहै लोचन को ढपना ॥ उदै बल जोर यहै श्वासको सबद घोर,
विष-सुख कारज की दौर यहै सपना । ऐसी मूढ दसा मैं मगन रहै तिहुंकाल,
घाब भ्रम जाल मैं न पावै रूप अपना ॥1 मिथ्याज्ञानी तत्त्व को समझ नहीं पाता। उसका ज्ञान वसा ही दबा रहता है जैसा मेघघटा में चन्द्र । वह सद्गुरु का उपदेश नहीं सुनता, तीनो अवस्थामों में निन्द होकर घूमता रहता है । मरिण और कांच में उसे कोई अन्तर नहीं दिखता। सत्य मोर असत्य का उसे कोई भेदज्ञान भी नही है। तथ्य तो यह है कि मणि की परख जौहरी ही कर सकता है । सत्य का ज्ञान ज्ञानी को ही हो सकता है। कलाकार बनारसीदास ने इसी बात को कितने मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है
"रूप की न झांक हिये करम को डांक पिये,
ज्ञान दबि रह यो मिरगांक जैसे धन में । लोचन की ढांक सो न माने सद्गुरु हांक,
डोले मूढ़ रंग सो निशंक निहूंपन में ॥2 मिथ्यात्व के उदय से विषयभोगों की ओर मन दौड़ता है । वे सुहावने लगते है। राग के बिना भोग काले नाम के समान प्रतीत होते हैं। राम से ही समूचे शरीर का संवर्धन होता है और समूचे मिथ्या संसार को सम्यक् मानने लगता है। इसलिए कविवर भूषरदास ने रागी भोर विरागी के बीच मन्तर स्पष्ट करते हुए लिखा है कि यह अन्तर वैसे ही है जैसे बैंगन किसी को पम्य होता है और किसी को वायूवर्षक होता है । मिथ्याज्ञानी स्वयं को चतुर मौर दूसरे को मूढ़ मानता
1. नाटक समयसार, निर्जराद्वार 14, पृ. 138. 2. बनारसीविलास, अध्यात्मपद पंक्ति, 5, पृ. 224. 3. रागीविरागी के विचार में बडोई भेद, जैसे 'भटा पचकाहूं काहू को बयारे
।' न सतक, 18
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है । सांयकाल को प्रातःकाल मानता है, शरीर को ही सब कुछ मानकर प्रधेरे में बना रहता है। कविवर भावुक होकर इसीलिए कह उठते हैं कि रे अज्ञानी, पाप धतूरा मत बो। उसके फल मृत्युवाहक होंगे। किंचिद भौतिक सुख-प्राप्ति की लालसा में तू अपना यह नरजन्म क्यों व्यर्थ खोता है ? इस समय तो धर्म-कल्पवृक्ष का सिंचन करना चाहिए। यदि तुम विष बोते हो तो तुमसे प्रभागा और कौन हो सकता है । संसार में सबसे अधिक दुःखदायक फल इमी वृक्ष के होते हैं प्रतः भोंदु मत बन ।
अज्ञानी पाप धतूरा न बोय।
फल चाखन की वार भरे द्रग, मरहै मूरख रोय ॥ वस्तराम का चेतन भी ऐसा ही भोंदु बन गया । वह सब कुछ भूलकर मिथ्या संसार को यथार्थ मानकर बैठ गया। धर्म क्या है, यह मिथ्याज्ञानी समझ नहीं पाता। अहर्निश विषय भोगों में रमता है और उसी को सुकृत मानता है। देव-कुदेव, साधु-कुसाधु, धर्म-कुधर्म प्रादि में उसे कोई पन्तर नहीं दिखाई देता । मोह की निद्रा में वह अनादिकाल से सो रहा है। राग-द्वेष के साथ मिथ्यात्व के रंग में रच गया है, विषयवासना में फंस गया है। चेतन कर्म चरित्र में भया भगवतीदास ने इसकी बड़ी सुन्दर मीमांसा की है । मिथ्यात्व विध्वंसन चतुर्दशी में उन्होंने मिथ्यात्व को स्पष्ट किया है। मिथ्यात्व के कारण ही अनादिकाल से यह प्रशुद्धता बनी हुई है। मोक्षपथ रुका हुआ है, सकट पर संकट सहे गये हैं। फिर भी चेतन उससे मुक्त नहीं हो रहा । मोह के दूर होने से राग-द्वेष दूर होंगे, कर्म की उपाधि नष्ट होगी और चिदानन्द अपने शुद्ध रूप को प्राप्त कर सकेगा। अन्यथा मिथ्यात्व के कारण ही वह चतुर्गति मे भ्रमण करता रहेगा। जब तक मिथ्यात्व है जब तक भ्रम रहेगा और जब तक भ्रम है तब तक कर्मों से मुक्ति नहीं मिल सकती और न ही सम्यग्ज्ञान हो सकता है।
मिथ्याज्ञान के कारण स्वपरक्वेिक जाग्रत नहीं हो पाता। पूर्वावस्था में तो विषय भोगों में रमण करता है पर जब वृद्धावस्था पाती है तो रुदन करता है। कोषादिक कषायों के वशीभूत होकर निगोद का बन्ध करता है। सारे जीवन भर गांठ की कमाई खाता है, एक कौड़ी की भी नई कमाई नहीं करता । इससे अधिक
1. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 166. 2. वही, पृ. 166. 3. ब्रह्मविलास, शत प्रष्टोतरी, 4. ब्रह्मविलास, मिथ्यात्व विध्वंसन चतुर्दशी, 7-12. 5. ब्रह्मविलास, उपदेशपचीसिका, 20.
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मूदार कौन हो सकता है यह चेतन-चेतन की हिंसा करता रहा, भईय-अभक्ष्य "साता रहा, सत्व को सत्य और असत्य की सत्य मानती रहा, 'वस्तु के स्वभाव को नही पहचाना, मात्र बाह्य क्रियाकाण्ड को धर्म मानर्ता रहा तथा कुँगुरु, कुदेव और सुपर का सेवन करता रहा । मोह के प्रम से राग-द्वेष में हुँदो रहा । मोह केपरिणाम स्वरुप जीप में राग-द्वेष उत्पन्न होता है। रागद्वेष उसका मूल स्वभाव नहीं। रागादिक के रंग से स्फटिक भरिण जैसा विशुद्ध चेतन भी रंगीला दिखाई देने लगता है। यह रंगीला भाव मिथ्यात्व है । मिध्यात्व से ही वह काया माया को स्थिर मानकर उसमें पासरत रहता है। लोभी बनकर इच्छामों की दावानल में भुखरता रहता है। जीव भोर पुनल के भेद को न समझकर मज्ञानी बना रहता है।'
कविवर द्यानतराय मिथ्याज्ञानी की स्थिति देखकर पूछ उठते हैं कि हे मात्मन्, यह मिथ्यात्व तुमने कहां से प्राप्त किया ? सारा संसार स्वार्थ की भोर निहारता है पर तुम्हें अपना स्वार्थ स्वकल्याण नहीं रुचा। इस अपवित्र, अचेतन देह में तुम कैसे मोहासक्त हो गये ? अपना परम प्रतीन्द्रिय साक्षात सुख छोड़कर इन्द्रियों की विषय-वासना में तन्मय हो रहे हो । तुम्हारा तम्ब माम जड़ क्यों हो गया और तुमने अपना अनन्त ज्ञानादिक गुणों से युक्त अपना नाम क्यों मुला दिया ? त्रिलोक का स्वतन्त्र राज्य छोड़ कर इस परतन्त्र को स्वीकारते हुए तुम्हें लज्जा नहीं पाती। मिथ्यात्व को दूर करने के बाद ही तुम कर्ममल से मुक्त हो सकोगे और परमात्मा कहला सकोगे। तभी तुम अनन्त सुख को प्राप्त कर मुक्ति प्राप्त कर सकोगे।
"जीव ! तू मूढपना कित पायो। सब जग स्वारथ को चाहत है, स्वारय तोहि न भायो। अशुचि अचेत दुष्ट तन माही, कहा जान विरमायो । परम अतिन्द्री निज मुख हरि के, विषय-रोग सक्टायो ।।
1. "खाय चल्यो गांड की कमाई कौड़ी एक नाही।
सो सौ मूढ दूसरी न ढूढयो कहूँ पायो है ।। ब्रह्मविलास, अनित्यपचीसिका, 11. 2. वही, सुपथ-कुपथ पचीसिका, 5-22. 3. वही, मोह भ्रमाष्टक 4. वही, रागादि निर्णयाष्टक, 2. 5. हिन्दी पद संग्रह, बुधजन, पृ. 196. 6. सुषजनविलास, 29. 7. वही, 71.
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पैलन नाम भयो जड़ काहे, अपनी नाम कमायो । तीन लोक की राज छाडिक, भीख मांग न लगायो ।' भूउपना मिथ्या अब छूटे, तब तू सन्त कहायो ।
'चानत' सुख अनन्त शिव विलसी, यों सद्गुरु बतलायी 11 दौलतराम इस मिथ्या भ्रम-निद्रा को देखकर अत्यन्त दुड़ी हुए और कह उठे-रे नर, इस दुःखदाई भ्रम निद्रा को छोड़ते क्यों नहीं हो ? चिरकाल से नसी में पड़े हुए हो, पर यह नहीं सोचते कि इसमें तुम्हारा क्या कितना घाटा इसा है ? मूर्ख व्यक्ति पाप-पुण्य कार्यों में कोई भेद नहीं करता और न उसका मर्म ही समझता है। जेब दुःखों की ज्वाला में झुलसने लगता है तब उसे कष्ट होता है। इतने पर भी निद्रा भंग नहीं होती । कवि पुनः अन्य प्रकार से कहता है कि तुम्हारे सिर पर यमराज के भयंकर बाजे बज रहे हैं, अनेक व्यक्ति प्रतिदिन प्राण त्यायते हैं। क्या तुम्हें यह समाचार सुनाई नहीं दिया ? तुमने अपना रूप तो मुला दिया पौर पर रूप को स्वीकार कर लिया । इतना ही नही, तुमने इन्द्रिय विषयों का ईधन जलाकर इच्छामों को बढ़ा दिया। अब तो एक यही मार्ग है कि तुम राग-द्वेष को छोड़कर मोक्ष के रास्ते को पकड़ लो :हे नर, भ्रम-नीद क्यों न छोड़त दु.खदाई । सोवत चिरकाल सोंज मापनी उमाई ।। मूरख अधकर्म कहा, भेद नहिं मर्म लहा । लागै दुःख ज्वाला की न देह के तताई ॥ जम के रव बाजते, सुमैरव अति गाजते । अनेक प्रान त्यागते, सुनै कहा न भाई।
जैन रहस्यवाद में मिथ्याक्ष्य के तीन भेद होते हैं-मियादर्शन, मिथ्यामन और मिथ्याचारित्र । ये तीनों भेद गृहील और अगृहीत स्य होते हैं। गृहीत का पर्व है बाझकारणों से ग्रहण करना मौर मगहीत का तात्पर्य है निसर्गम, अनादिकाल से होना । इन्हीं के कारण संसारी भव प्रापण करता रहता है। जीवादि सप्त सवीं के स्वरूप पर यथार्थ रूप से श्रद्धा न करना अगृहीत मिथ्यावर्शन है और उससे जला होने वाला ज्ञान प्रग्रहीत मिथ्याज्ञान है । पंचेन्द्रियों के विषय भोगों का सेवन करना अग्रहीत मिथ्याचारिम है। इनके कारण जीव पवे मापको सुली-युःखी, बनी, मिनी, सबल, निर्बल आदि रूप से मानता है, शरीर के उत्पन्न होने पर अपनी उत्पत्ति और शरीर के नष्ट होने पर अपना नाश समझता है, रागद्वेषादि कारसों को जुटाता है पौर प्रारम-मालिको मौकर इच्छामों का अम्बार समान है। नहीं मियादर्शन में जीव कुगुरू, कुदेव और कुधर्म का देवन करता है। गुरु का वह व्यक्ति जो मिथ्यात्वादि अन्तरंग परिग्रह और पीतवस्त्रादिबास परिषद को भारत करता हो,
1. मध्यात्म पदावलि, पृ. 360 2. अध्यात्म पदावली, पृ. 3441
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अपने को सुनि मानता हो, मनाता हो। राग-द्वेषादि युक्त देव-कुदेव हैं और हिंसादि का उपदेश देने वाला धर्म कुधर्म है । इनका सेवन करने वाला व्यक्ति संसार में स्वयं डूबता है और दूसरे को भी डुबाता है । वे एकान्तवाद का कथन करते हैं तथा भेदविज्ञान न होने से कषाय के वशीभूत होकर शरीर को क्षीण करने वाली अनेक प्रकार की हठयोगादिक क्रियायें करते हैं । 1
मिध्यादृष्टि जीव पंचेन्द्रियों के विषय सुख में निजसुख भूल जाता है । जैसे कल्पवृक्ष को जड़ से उखाड़कर धतूरे को रोप दिया जाय, गजराज को बेचकर गंधे को खरीद लिया जाय, चिन्तामरिण रत्न को फेंककर कांच ग्रहण किया जाय वैसे ही धर्म को भूलकर विषयवासना को सुख माना जाय तो इससे अधिक मूर्खता और क्या हो सकती है ।" ये इन्द्रियां जीव को कुपथ में ले जाने वाली हैं, तुरग सी वक्रगति वाली हैं, विवेकहारिणी उरग जैसी भयंकर, पुण्य रूप वृक्ष को कुठार, कुगतिप्रदायनी fararaaraat, witतिकारिणी और दुराचारर्वाधिरणी हैं। विषयाभिलाषी जीव की प्रवृत्ति कैसी होती है, इसका उदाहरण देखिये :
धर्मतरुमंजन को महामत्त कुंजर से, प्रापदा भण्डार के भरन को करोरी हैं । सत्यशील रोकने को पौढ़ परदार जैसे दुर्गति के मारग चलायवे को घोरी है ॥ कुमति के अधिकारी कुनंपंथ विहारी, भद्रभाव ईंधन जरायबे को होरी है । मृषा के सहाई दुरभावना के भाई ऐसे विषयाभिलाषी जीव अघ के अघोरी है ॥
भैया भगवतीदास चेतन को उद्बोधित करते हुए कहते हैं कि तुम उन दिनों को भूल गये जब माता के उदर में नव माह तक उल्टे लटके रहे. आज यौवन के रस में उन्मत्त हो गये हो। दिन बीतेंगे, यौवन बीतेगा, वृद्धावस्था प्रायेगी, मौर यम के चिह्न देखकर तुम दुःखी होगे । श्ररे चेतन, तुम श्रात्मस्वभाव को भूलकर इन्द्रियसुख में मग्न हो गये, क्रोधादिकपायों के वशीभूत होकर दर-दर भटक गये, कभी तुमने भामिनी के साथ काम क्रीड़ा की कमी लक्ष्मी को सब कुछ मानकर अनीतिपूर्वक द्रव्यार्जन किया और कभी बली बनकर निर्बलों को प्रताड़ित किया । अष्ट मदों से तुम खूब खेले और धन-धान्य, पुत्रादि इच्छाओं की पूर्ति में लगे रहे। पर ये सब सुख मात्र सुखाभास हैं, क्षणिक हैं, तुम्हारा साथ देने वाले नहीं । नारी विष की वेल है, दुःखदाई है। इनका संग छोड़ देना ही श्रेयस्कर है 18
2
छहढाला, दौलतराम, द्वितीय ढाल; मनमोदक पंचशती, 106-8 1 बनारसीविलास, भाषासूक्त मुक्तावली, 6 पृ. 201
1.
2.
3. वही, 72, पृ. 54
4.
ब्रह्मविलास, प्रात प्रष्टोत्तरी, 32-331
5.
ब्रह्मविलास, 39-44, हिन्दी पद संग्रह, पृ. 431 6. वही, 79-81
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1
इसी प्रकार धन-सम्पत्ति भी जीव को दुर्गति में ले जाने वाली है। वह चपला-सी चंचल है, दावानल-सी वृथला को बढ़ाने वाली है, कुलटा-सी डोलती है, बन्धु विरोधिनी, छलकारिणी और कवायवधिणी है। क्रोधादिक कषाय भी इसी तरह चेतन को दुर्गति में ले जाने वाले होते हैं । क्रोष, भ्रम, भय, चिन्ता धादि को बढ़ाने वाला, सर्प के समान भयंकर, विषवृक्ष के समान जीवन हरण करने वाला, कलहकारी, यशहारी और धर्म मार्ग विध्वंसक है ।
माया कुमति-गुफा है, जहां बध -बुद्धि की घूमरेखा और कोप का दावानल उठता रहता है। मानी मदांध गज के समान रहता है। इसलिए भगवतीवास ने 'aife वे अभियान जियरे छांडि दे अभिमान ।' तू' किसका है और तेरा कौन है ? सभी इस जगत में मेहमान बन कर प्राये हैं, कोई वस्तु स्थिर नहीं । कुछ नहीं कहा जा सकता कि क्षण भर में तुम कहाँ पहुँचोगे । बड़े-बड़े भूप प्राये और गये तब तू क्यों गर्व करता है ?
माया वेतन के शुभ भावों को प्रच्छन्न कर देती है। वह कुशलजनों के लिए air uौर सत्यहारिणी है। मोह का कुंजर उसमें निवास करता है, वह प्रपयश की खान, पाप-सन्तापदायिनी, अविश्वास और विलाप की गृहिणी है ।" बनारसीदास
1.
2.
बनारसीविलास, भाषासुक्तावली, 73-76
जो सुजन वित्त विकार कारन, मनहु मदिरा पान । जो भरम भय चिन्ता बढावत, प्रसित सर्प समान ॥ जो जन्तु जीवन हरन विष तय, तनदहनदवदान । सो कोपरांश बिनाशि भविजन, पहहू शिव सुलवान ॥ बही भाषासुक्तावली, 451,
3. वही, 511
4. छांड़ि दे प्रभिमान बियरे
113
दे अभिमान ॥
mrat तू अरु कौन तेरे, सही हैं महिमात ॥ देश राजा रंक कोऊँ, पिर नहीं यह थान || 1 ||
ब्रह्मविलास, परमार्थ पद पंक्ति, 12, पृ. 113
5. वही, फुटकर कविता, 15, पृ. 276 | 6. कुचल जननको बांझ, सत्य रविहरन साँझ मिति । कुगति युवती उरमाल, मोह कुंजर निवास चिति । हम वारिज हिमराशि, पाप सन्ताप महायनि । प्रयश खानि जान, तजहु माया दुःखदायनि ॥ बनारसीविलास, भाषासुक्तावली, 53-56
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ने माया और खाया को एक माना है क्योंकि ये दोनों क्षण-क्षण में घटती-बढ़ती रहती हैं। उन्होंने माया का बोझ रखने वाले की अपेक्षा खर पयवा रीछ को अधिक अच्छा माना। भूपरदास ने उसे ठगनी कहा है
सुनि ठगनी माया, ते सब जग ठग खाया । टुक विश्वास किया जिन तेरा सो मूरख पछताया ।।सुनि ॥1॥ मामा तनक दिखाय बिज्जु ज्यों मूढ़मती ललचाया।
करि मद अंध धर्महर लीनों, अन्त नरक पहुंचाया ॥ नि ।।2413 मानन्दधन भी माया को महाठगनी मानते हैं और उससे विलग रहने का उपदेश देते हैं
अवधू ऐसो ज्ञान विचारी, वामें कोण पुरुष कोरण नारी । बम्मन के घर न्हाती पोती, जोगी के घर चेली ॥ कलमा पढ़ भई रे सुरकड़ी, तो आप ही माप अकेली। ससुरो हमारो बालो भोलो, सासू बोला कुंवारी ॥ पियुजो हमारो होई पारणिये, तो मैं हूं झुलावनहारी ।
नहीं हूँ परणी, नहीं हूँ कुवारी, पुत्र जणाबन हारी ॥
लोभ में भी सुख का लेश नहीं रहता । लोभी का मन सदैव मलीन रहता है। वह ज्ञान-रवि रोकने के लिए घराघर, सुकृति रूप समुद्र को सोखने के लिए कुम्भ नद, कोपादिको उत्पन्न करने के लिए अररिण, मोट के लिए विषवृक्ष, महादृढ़कन्द, विवेक के लिए राहु और कलह के लिए केलिमीन हैं। बनारसीदास ने सभी पापों का मूल लोभ को, दुःख का मूल स्नेह को और व्याधि का मूल अजीर्ण को बताया है। बुधजन का मन लोभ के कारण कभी तृप्त ही नहीं हो पाता। जितना भोग मिलता है उतनी ही उसकी तृष्णा बढ़ती जाती है। इसलिए कभी उसे सुख भी नहीं मिलता ।' लोभ की प्रवृत्ति माशाजन्य होती है । भूधरदास ने पाशा को नदी मानकर
1. माया छाया एक है, घट बड़े छिनमाहि । इनकी संगति जे लगे, तिनहिं कहीं सुख नाहिं ॥16॥
वही पृ. 2051 2. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 154 । 3. आनन्दधन बहोत्तरी, पद 98 । 4. बनारसीविलास, माषा सूक्तावली, 58 5. बही, 19, पृ. 205, ब्रह्मविलास, पुण्यपीसिका, 11 पृ.4 ।
हिन्दी पद संग्रह, पृ. 1971 बुधजनविलास, 291
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उसका सुन्दर वर्णन किया है। माशाप नही मोह रूपी ऊचे पर्वत से निकलकर सारे भूतल पर फैल जाती है। उसमें विविष ,मनोरथ का जन, वृष्णा को तरंगे, अम का भंवर, यप का ममर, चिन्ता का तट है जो धर्म-पक्ष को बहाते चले जाते हैंमोह से महान ऊँचे पर्वत सौ ढर आई, तिहजग भूतल में या ही विसतरी है। विविध मनोरथ में भूरि जलमरी बहै, मिसना तरंगनि सो माकुलता परी है। परं भ्रम भोर जहाँ रागसो मगर तहाँ, चिन्ता तटतुंग धर्मवृच्छढाय ढरी है। ऐसी यह पाशा नाम नदी है अगाध ताकों, धन्य साधु धीरज जहाज चढि तरी है।
लोम से मुनिगण भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहते, उसका लोम शिव-रमणी से रमण करने का बना रहता है। ऐसा लोभी व्यक्ति नग चिन्तामणी को छोड़कर पत्थर को बटोरता, सुन्दर वस्त्र छोड़कर चिथड़े इकट्ठे करता तथा कामधेनु को छोड़कर बकरी ग्रहण करता है ।
नम चिन्तामणि डारिके पत्थर जोउ, ग्रह नर मूरख सोई। सुन्दर पाट पटम्बर अम्बर छोरिक मोंढरण लेत है लोई ॥ कामदूधा परतें जू विडार के खेरि गहें मतिमंद जि कोई। धर्म को छोर अधर्म कौं जसराज उणें निज बुद्धि विगोई 112113
संसारी जीव इन क्रोधादि कपायों के वशीभूत होकर साधना के विमल पथ पर लीन नहीं हो पाता । कोषं, मान, मावा, लोभादि विकारों से ग्रस्त होकर बह मसरण को और भी आगे बढ़ा लेता है। उसे शाश्वत सुख की प्राप्ति में सर्वाधिक बाधक तत्त्व ये कषाय हैं जो पात्मा को संसार-सागर में भटकाते रहते हैं।
मोह मष्ट कर्मों में प्रबलतम कर्म है मोहनीय, उसी के कारण जीव संसार में भटकता रहता है। धन की तृषा-तृप्ति और वनिता की प्रीति में वह धर्म से विमुख हो जाता है । अपने इन्द्रिय सुख के लिए सभी तरह के अच्छे-बुरे साधन अपनाता है । ऐसे व्यक्ति की मोह-निद्रा इतनी तीव्र होती है कि जगाने पर भी वह जागता नहीं । वह तो पर पदाथों में पासक्त रहता है। उसे स्व-पर विवेक नहीं रहता । मिष्पास्ववश मेरा-मेरा की रट लगाता रहता है। यह मोह चतुर्गति के दुःखों का कारण
1 जैनबतक, 761 2. हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि, पृ. 2351 3. हिन्दी पद संग्रह, पं. रूपचन्द्र, पृ. 31 । 4. वही, पृ. 33 1 स्व पर विवेक विना भ्रम भूल्यो, मै में करत रह्यो,
पद 411
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होता है। जीव परकीय वस्तु पर मुग्ध होकर स्वकीय वस्तु को छोड़ बैठता है। मोह का प्रबल प्रताप इतना तेज रहता है कि जीव उससे सदैव संतप्त बना रहता है। सुर नर इन्द्र सभी मोहीजन अस्त्र के बिना भी प्रस्त्रवान हैं। हरि, हर, ब्रह्मा मादिक महापुरुषों ने उसे छोड़ दिया पर जिन्होंने नहीं छोड़ा वे जीवन भर विलाप करते रहते हैं । इसलिए पं० रूपचन्द्र भावविभोर होकर बड़े प्राग्रह से जीव की सलाह देते हैं कि इस मोह को छोड़ो। इस पाप से दुःखी क्यों बने हो ।
जिस प्रकार पवन के झकोरों से जल में तरंगें उठती हैं वैसे ही परिवह मौर मोह के कारण मन चंचल हो उठता है । जैसे कोई सर्प का डंसा व्यक्ति अपनी रुचि से नीम खाता है वैसे ही यह संसारी प्राणी ममता-मोह के वशीभूत होकर इन्द्रियों के विषय सुख में लगा है । प्रनन्तकाल से इसी महामोह की नींद के कारण चतुर्गति में परिभ्रमण कर रहा है। मोह के कारण ही व्यक्ति एक वस्तु के अनेक नाम निर्धारित कर लेता है । उनके अनेकत्व को एकत्व में देखता है । कल्पित नाम को भी मोहवश तीनों अवस्थाओं में एकसा और यथार्थ मानता है । पर यह भ्रम है । उस भ्रम पर ही विचार क्यों नहीं कर लेता ? यदि उस पर विचार कर ले तो इस संसार से पार हो जायेगा। मोह से विकल होने पर जीव चेतन को भूल जाता है और देह में राग करने लगता है। सारा परिवार स्वार्थ से प्रेरित होता है । जन्म और मरण करने वाला प्राणी स्वयं अकेला रहता है पर वह सारे संसार का मोह बटोरे चलता है । वह सोचता है, यदि विभूति होती तो दान देता । और भी उसके मन में प्रपंच माते हैं जिनके कारण संसार में भ्रमण करता रहता है । वह बन्ध का कारण जुटाता है, पर मोक्ष प्राप्ति का उपाय नहीं जानता। यदि जान जाता तो भव-भ्रमण सहज ही दूर हो जाता।
जीव के लिए उसका मोह सर्वाधिक महादुःखदाई होता है । मनादिकाल से मात्मा की अनन्त शक्ति को उसने छिपा दिया था। क्रम क्रम से उसने नरभव प्राप्त किया, फिर भी मोह को नहीं छोड़ा। जिस परिवार को अपना मानकर पाला-पोसा, वह भी छोड़कर चला गया, जन्म-मरण के दुःख भी पाये । इसका मूल कारण मोह है जिसका त्याग किये बिना परमपद प्राप्त नहीं हो सकता।' मोही बत्मा को
1. हिन्दी जैन भक्तिकाव्य और कवि, पृ. 38। 2. वही, पृ. 41 तोहि अपनपी भूल्यो रे भाई, पद 55। 3. वही, पृ. 50। 4. बनारसीविलास, मानपच्चीसी 5-61 5. वही, नामनिर्णय विधान, 7 पृ. 1721 6. वही, अध्यात्मपद पंक्ति, 2-4 । 7. ब्रह्मविलास, परमार्थ पद पंक्ति,6।
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परदेशी मानकर कवि कह उठा- इस परदेशी का क्या विश्वास । यह न सुबह बिना है, न शाम, कहीं भी चल देता है, सभी कुटुम्बियों को और शरीर को छोड़कर दूर देश चला जाता है, कोई उसकी रक्षा करने वाला नहीं । सच तो यह है, किसी से कितनी भी प्रीति करो, यह निश्चित है कि वह एक दिन पृथक् हो जायेगा । इसने बन से प्रीति की पौर धर्म को मूल गया। मोह के कारण अनन्तकाल तक घूमता रहा । राग-द्रव, क्रोध, मान, माया, लोभ, विषयवासना आदि विकारों में मग्न रहा । उनके कारण दुःखों को भी भोगता रहा पर कभी सुख नहीं पाया " इसलिए भगवतीदास बड़े दुःखी होकर कहते हैं- "चेतन परे मोह वश धाय ।" यह चेतन मोह के वश होकर विषय भोगों में रम जाता है । वह कभी धर्म के विषय में सोचता नहीं । समुद्र में चिन्तामणिरत्न फेंककर जैसे मूर्ख पश्चात्ताप करता है वैसे ही यह मोही नरभव पाकर भी धर्म न करने पर फिर अन्त में पश्चात्ताप करेगा ।
मोह के भ्रम से ही अधिकांश कर्म किये जाते हैं। मोह को चेतन और अचेतन में कोई भेद नहीं दिखाई देता । मोह के वश किसने क्या किया है, इसे पुराण कथानों का प्राधार लेकर भगवतीदास ने सूचित किया है । उन कथाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि मोह की परिणति दो हैं- - राग और द्वेष इन दोनों के कारण जीव मिथ्याभ्रम में पड़ जाता है । यह भीव घिनौने शरीर में लीन रहता, नारी के er से देह पर प्राकर्षित होता, लक्ष्मी के कारण बड़े-बड़े महाराजा अपना पर छोड़कर प्रजा के समान लोभ की पूर्ति के लिए डोलता है । भगवतीदास को उन सांसारियों पर बड़ी हंसी प्राती है जो इस छोटी-सी प्रायु में करोड़ों उपाय करते हैं । 5 रे मूढ़ । जिसे तूने घर कहा है वहां डर तो अनेक हैं पर उन सभी को भूलकर विषय-वासना में फंस गया है । जल, चोट, उदर, रोग, शोक लोकलाज, राज श्रादि अनेक डरों से तो तू डरता है पर यमराज को नहीं डरता । तू मोह में इतना for उलझ गया है कि तेरी मति और गति दोनों बिगड़ गई हैं । तू अपने हाथ अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहा है।" स्वप्न बत्तीसी कवि ने मोह-निद्रा का
1. कहाँ परदेशी को पतवारो,
मनमाने तब चले पंथ को, सांज गिर्न न सकारो ।
सब कुटुम्ब खांड इतही पुनि त्याग चले तन प्यारो ॥11॥ वही, पृ. 10 1
2. वही, परमार्थपद पंक्ति 15, माझा, बघीचन्द मंदिर, जयपुर में सुरक्षित प्रति । 3. वही, 25 1
4. ब्रह्मविलास, मोह भ्रमाष्टक |
5. वही, पुण्यपापजगमूल पच्चीसी, 4, पृ. 1951
6. वहीं, जिन धर्म पचीतिका ।
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अत्यन्त स्पष्ट निवण किया है और कहा है कि उसके त्यागे बिना विनासी सुख नहीं मिल सकता। मेरे मोह. ने मेरा सब कुछ बिगाड़ कर रखा है। कर्मरूप मिरिकन्दरा में उसका निवास रहता है । उसमें छिपे हुए ही वह भनेक पाप करता है पर किसी को दिखाई नहीं देता। इन्द्रिय वासना में परमन के अपहरण का भाव दिखाई देता है। बड़ी श्रद्धा के साथ कवि कहता है कि इन सभी विकारों को दूर करने का एक मात्र उपाय जिनवाणी है
मोह मेरे सारे ने विगारे पानजीव सब,
जगत के 'बासी तैसे बासी कर राखे हैं। कर्मगिरिकंदरा में वसत छिपाये प्राप,
करत अनेक पाप जात कसे भाखे हैं। विषेवन और तामे चोर को निवास सदा,
परष न हरवे के भाव अभिलासे हैं । ताप जिनराज जूके बैन फौजदार चढ़े,
पान मान मिले चिन्हें मोक्ष वेश दाखें हैं।
दौलतराम का जीव तो अनादिकाल से ही शिवपथ को भूला है। वह मोह के कारण कभी इन्द्रिय सुखो में रमता है तो कभी मिथ्याज्ञान के चक्कर में पड़ा रहता है। जब प्रविद्या-मिथ्यात्व का पर्दा खुलता है तो वह कह उठता है, रे चेतन, मोहवशात् तूने व्यर्थ में इस शरीर से मनुराग किया । इसी के कारण प्रनादिकाल से तू कर्मों से बंधा हुआ है । यह जड़ है और तू चेतन, फिर भी यह अपनापन कसे ? ये विषयभोग भुजग के समान हैं जिसके डसते ही जीव मृत्यु-मुख में चला जाता है। इनके सेवन करने से तृष्णा रूपी प्यास बंसी ही बढ़ती है जैसे क्षार जल पीने से बढ़ती है। है नर ! सयाने लोगों की शिक्षा को स्वीकार क्यों नहीं करते ? मोह मद पीकर तुमने अपनी सुध भुला दी। कुबोध के कारण कुव्रतों में मग्न हो गये, ज्ञान सुधा का मनुभव नहीं लिया। पर पदार्थों से ममत्व जोड़ा मोर संसार की मसरता को परखा नहीं।
1. ब्रह्मबिलास, स्वप्नबत्तीसी । 2. वही, फुटकर कविता 2 । 3. "जीव तूं अनादि ही ते मूल्यो शिव मेलवा," हि. पद. सं. पृ. 221 । .. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 233 । .. वही, पृ. 2311
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विषय सेवन से उत्पन्न तृष्णा के खारे जल को पीने के बाद उसकी प्यास बढ़ती है, खाज खुजाने के समान प्रारम्भ में तो अच्छी लगती है पर बाद में दुःखदायी होती है। वस्तुतः इन्द्रिय भोग विषफल के समान है ।'
बुधजन को तो आत्मग्लानि-सी होती है कि इस आत्मा ने स्वयं के स्वरूप को क्यों नहीं पहचाना । मिथ्या मोह के कारण वह अभी तक शरीर को ही अपना मांगता रहा । धतूरा खाने वाले की तरह यह प्रात्मा अज्ञानता के जाल में फंस गया हैं । इसलिए कवि को यह चिन्ता का विषय हो गया कि वह किस प्रकार शाश्वत सुख को प्राप्त करेगा ।" मोह से ही मिथ्यात्व पनपता है । इसलिए साधकों मोर आचार्यो ने इस मोह को विनष्ट करने का उपदेश दिया है । जब तक विवेक जाग्रत नहीं होता, मोह नष्ट नहीं हो सकता । यशपाल का मोहपराजय, वादिचन्द सूरि का ज्ञानसूर्योदय हरदेव का मयण-पराजय- चरिउ, नागदेव का मदनपराजय चरित मौर पाहल का मनकरहारास विशेष उल्लेखनीय हैं । बनारसीदास का मोह विवेक युद्ध इन्ही से प्रभावित है । अचलकीर्ति को माया, मोहादि के कारण संसार-सागर कैसे पार किया जाय, यह चिन्ता हो गई। मन रूपी हाथी घाठ मदों से उन्मता हो गया । तीनों मवस्थायें व्यर्थ गंवा दीं, अब तो प्रभु की ही शरण है ।
काहा करूँ कैसे तर भवसागर भारी ॥ टेक ॥
माया मोह मगन भयो महा विकल विकारी ॥ कहा ० ॥ सुमन-सा मंजारी ।
ज्यु प्रतिबल महंकारी ||
मन हस्ती मद ग्राठ, चित पीता सिंघ सांप
मोह साधक का प्रबलतम शत्रु है । साधना के बाधक तत्वों में यदि उसे नष्ट कर दिया जाय तो चिरन्तन सुख भी उपलब्ध करने में प्रत्यन्त सहजता हो जाती है । इसलिए साधकों ने उसके लिए "महाविष" की संज्ञा दी है। इस तथ्य को सभी arati में स्वीकार किया गया है। उसकी हीनाविकता और विश्लेषण की प्रक्रिया में प्रन्तर अवश्य है ।
1. परमार्थ दोहाशतक, 4-11, (रूपचन्द्रे), लूणकर मन्दिर, जयपुर में सुरक्षित प्रति ।
2.
हिन्दी पद संग्रह, पृ. 245 1
3. "देषो चतुराई मोह कस्म की जगतें, प्रानी सब राषे भ्रम सानिकै ।"
मनराम विलास, मनराम, 63, डोलियों का वि. जैन मंदिर जयपुर, वेष्टन नं० 395K
4. यह पद लूणकरजी पाण्डा मंदिर, जयपुर के गुटका नं. 114, पत्र 17.2-173 पर अंकित है ।
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जैन साधकों ने धार्मिक बाह्याडम्बर को रहस्यसाधना में बाधक माना है। बाह्य क्रियामों से पात्महित नहीं होता इसलिए उसकी गणना बन्ध पद्धति में की गई है। बाह्य क्रिया मोह-महाराजा का निवास है, प्रज्ञान भाव रूप राक्षस का नगर है। कर्म
और शरीर मादि पुद्गलों की मूर्ति हैं । साक्षात् भाषा से लिपटी मिश्री भरी छुरी, है। उसी के जाल में यह चिदानन्द प्रात्मा फंसता जा रहा है। उससे शान-सूर्य का प्रकाश छिप जाता है। प्रतः बाह्य क्रिया से जीव, धर्म का कर्ता होता है, निश्चय स्वरूप से देखो तो क्रिया सदैव दुःखदायी होती है। इस सन्दर्भ में पीताम्बर का यह कपन मननीय है-"भेषधार कहे मैया भेष ही में भगवान, भेष में न भगवान, भगवान न भाव में ।" बनारसीदास ने भी यही कहा है कि अम्बर को मैला कर देने वाला योग-मारम्बर किया, अग विभूति लगायी, मृगछाला ली और घर परिवार को छोड़कर वनवासी हो गये पर स्वर का विवेक जाग्रत नहीं हुमा ।।
या भगवतीदास ने बाह्यक्रियामों को ही सब कुछ मानने वालों से प्रश्न किये कि यदि मात्र जलस्नान से मुक्ति मिलती हो तो जल में रहने वाली मछली सबसे पहले मुक्त होती, दुग्धपान से मुक्ति होती तो बालक सर्वप्रथम मुक्त होगा, मंग में विभूति लगाने से मुक्ति होती हो तो गषों को भी मुक्ति मिलेगी, मात्र राम कहने से मक्ति हो तो शुक भी मुक्त होगा, ध्यान से मुक्ति हो तो बक मुक्त होगा, शिर मुड़ाने से मुक्ति हो तो भेड़ भी तिर जायेगी, मात्र बस्त्र छोड़ने से मुक्त कोई होता हो तो पशु मुक्त होंगे, पाकाश गमन करने से मुक्ति प्राप्त हो तो पक्षियों को भी मोक्ष मिलेगा, पवन के खाने से यदि मोक्ष प्राप्त होता तो व्याल भी मुक्त हो जायेंगे । यह सब संसार की विचित्र रीति है । सब तो यह है कि तत्वज्ञान के बिना मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता। मिथ्याभ्रम से देह के पवित्र हो जाने से पात्मा को पवित्र मान लेते हैं,
1. नाटक समयसार, सर्वविशुद्धिद्वार, 96-971 2. बनारसीविलास, ज्ञानवावनी, 43 पृ. 871 3. जोग प्रडम्बर ते किया, कर मम्बर मल्ला ।
भंग विभूति लगायके, लीनी मृग छल्ला । है वनवासी ते तजा, घरबार महल्ला । मप्यापर न बिछारिणयां सब झूठी गल्ला । वही, मोक्षपडी, 8, पृ. 1321 शुद्धि ते मीनपियें पयवालक, रासभ अंग विभूति लगाये। राम कहे शुक ध्यान गहे वक, भेड़ तिर पुनि मूडमुड़ाये॥ वस्त्र विना पशु व्योम पले खग, व्याल तिरे मित पौम के साये । एतो सबै जड़ रीत विचक्षन ! मोक्ष नहीं बिन तस्व के पाये। (माविलास, मत अष्टोत्तरी, 11, पृ. 10)
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अनाचार को ही नर्म राय-पाप कर्म के बकर में मनाजमान पर कसा हो मुनाद बेह को जलाकर ही धर्म मानने वाल का प्रवचन करते हुए भी शास्त्र को नहीं सक्यते । नरदेह पाने से पंडित पहनाने से वीर्ष स्थान करने से, द्रव्यार्जन करने से छत्रधारी होने से, केश के मुझने से और भेष धारण करने से क्या तात्पर्य, यदि मारम प्रकाशात्मक ज्ञान नहीं हुआ। शानान किये बिना ही अनेक प्रकार के साधु विविध सापना करते हुए दिखाई देते हैं। उनमें कुचकनफटा, जटाधारी, भस्म लपेटे, चेरियों से घिरे धूम पायी साधु है. जो कामवासना से पीड़ित और विषयभोगों में लीन हैंके फिर कानफटा, केऊ पीस धरै जटा, .
के लिए भस्मवटा भूले भटकत हैं। केऊ तज जांहि अटा, केऊ धेरें चेरी चटा,
केऊ पढ़े पट केऊ घूम गटकत हैं। के तत किये लटा, केऊ महादीसें कटा,
__ केऊ तरतटा केक रसा लटकत है। भ्रम भावते न हटा हिये काम नाहीं घटा,
विर्ष सुख रटा साथ हाथ पटकत हैं 1100 कान फटाकर योगी बन जाते हैं, कंधे पर झोली लटका लेते हैं, पर ब्या का विनाश नहीं करते तो ऐसे ढोंगी योगी बनने का कोई फल नहीं । यति मा पर इन्द्रियों पर विजय नहीं पायी, पांचों भूतों को मारा नहीं, जीव मजीव को समझा नहीं, वेष लेकर भी पराजित हुमा, वेद पढ़कर ब्राह्मण कहलाये पर बह्मदशा का शान नहीं । प्रात्म तत्त्व को समझा नहीं तो उसका क्या तात्पर्य ? बंगल जाने भस्म
1. ब्रह्मविलास, सुपंथ कुपंथ पचीसिका, 11, पृ. 182 । 2. नरदेह पाये कहा पंडित कहायेकहा,
तीरथ के न्हाये कहा तीर तो न जैहे रे। लच्छि के कमाये कहा मच्च के पाये कहा, छत्र के पराये कहा छीनतान ऐहै रे । केश के मुंगये कहा भेष के बनाये कहा, जोबन के प्राये कहा जराह न खेह रे। भ्रम को विलास कहा दुर्जन में वास कहा, पात्म प्रकाश दिन पीछे पछित है।"
वही, अनित्य पचीसिका, पृ.114। ३. वही, सुद्धि पौषीती, 10 पृ. 1591
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चढ़ाने और जटा धारण करने से कोई अर्थ नहीं, जब तक पर पदार्थो से पाशा न तोड़ी जाय । पाण्डे हेमराज ने भी इसी तरह कहा की शुद्धात्मा का अनुभव किये। बिना तीर्थ स्नान, शिर मुंडन, तप-तापन प्रादि सब कुछ व्यर्थ हैं-"शुद्धातम अनुभो बिना क्यों पावं सिवषेत" "जिनहर्ष ने ज्ञान के बिना मुण्डन तप आदि को मात्र कष्ट उठाना बताया है। उन क्रियानों से मोक्ष का कोई सम्बन्ध नहीं ---"कष्ट करे जसराज बहुत पे ग्यान बिना शिव पंथ न पावें ।" शिरोमणिदास ने "नहीं दिगम्बर नहीं स धार, ये जती नहीं भव भ्रमें अपार" कहकर और पं. दौलतराम ने "इंड मुंडाये कहां तत्त्व नहि पाच जो लौं लिखकर, भूधरदास ने "अन्तर उज्ज्वल करना रे भाई", कहकर इसी तथ्य को उद्घाटित किया है और शिथिलाचार की भर्त्सना की है। किशनसिंह ने बाह्यक्रियाओं को व्यर्थ बताकर अन्तरंग शुद्धि पर यह कहकर बल दिया
जिन पापकू जीया नहीं, तन मन कूषोज्या नहीं। मन मैल कुंघोया नहीं, अंगुल किया तो क्या हुमा ।। लालच करै दिल दाम की, षासति करै बद काम की। हिरदै नहीं सुन राम की, हरि हरि कह्या तो क्या हुआ ॥
1. जोगी हुवा कान फडाया झोरी मुद्रा गरी है।
गोरख कहै असना नही मारी, परि धरि तुमची न्यारी है ।।2।। जती हुवा इन्द्री नहीं जीती, पंचभूत नहिं मार्या है । जीव अजीव के समझा नाहीं, भेष लेइ करि हास्या है ॥4॥ वेद पढ़े मरू बरामन कहावं, ब्रह्म दसा नहीं पाया है। प्रात्म तत्त्व का प्ररथ न समज्या, पोथी का जनम गुमाया है ।।5।। जंगल जावै भस्म चढ़ाये, जटा व धारी कैसा है। परभव की मासा नहीं मारी, फिर जैसा का तैसा है ॥6॥
रूपचन्द, स्फुटपद् 2-6, अपभ्रश और हिन्दी में जैन रहस्यबाद, पृ. 184, अभय जन ग्रन्यालय
बीकानेर की हस्तलिखित प्रति । 2. उपदेश दोहा शतक, 5-18 दीवान बधीचन्द मंदिर जयपुर, गुटका नं. 17,
बेष्टन नं 636। 3. जसराज बावनी, 56, अन गुर्जर कविमो, भाग 2, पृ. 116। 4. सिद्धान्त शिरोमणि, 57-58, हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास,
पृ. 1681 5. हिन्दी पर संग्रह, पृ. 1451
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कृता इमां धन मालदा, घंधा कर जंजालदा।
हिरदा हुमा व्यंमालदा, कासी गया तो क्या हुमा ।" बाक्रियामों के करने से जीव रागादिक वासनामों में लिप्त रहता है और अपना मात्म कल्याण नहीं कर पाता इसलिए ऐसे बाह्याडम्बरों का निषेध जैन साधकों और कवियों ने जैनेतर सन्तों के समान ही किया है । दौलतराम ने देह माश्रित बाह्यक्रियामों को मोक्ष प्राप्ति की विफलता का कारण माना है इसलिए वे कहते हैं
मापा नहिं जाना तूने कैसा शानधारी रे । देहाश्रित करि क्रिया भापको मानत शिव-मग-धारी रे । निज-निवेद विन घोर परीसह, विफल कही जिन सारी रे।।
मन को चंचलता रहस्यभावना की साधना का केन्द्र मन है। उसकी मति चूंकि तीव्रतम होती है इसलिए उसे वश में करना साधक के लिए अत्यावश्यक हो जाता है । मन का शैथिल्य साधना को डगमगाने में पर्याप्त होता है। शायद यही कारण है कि हर साधना में मन को वश में करने की बात कही है । जैन योग साधना भी इसमें पीछे नहीं रही।
संसारी मन का यह कुछ स्वभाव-सा है कि जिस और उसे जाने के लिए रोका जाता है उसी और वह दौड़ता है । यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है । पं. रूपचन्द्र का अनुभव है कि उनका मन सदैव विपरीत रीति चलता है । जिन सांसारिक पदार्थों से उसने कष्ट पाया है उन्ही मे प्रीति करता है । पर पदार्थों में मासक्त होकर बनैतिक माचरण भी करता है । कवि उसे वश में नहीं कर पाता और हारकर बैठ जावा है।
कलाकार बनारसीदास ने मन को जहाज का रूपक देकर उसके स्वभाव की मोर अधिक स्पष्ट कर दिया है। जिस प्रकार किसी व्यक्ति को समुद्र पार करने के लिए एक ही मार्ग रहता है जहाज, उसी तरह भव (समुद्र) से मुक्त होने के लिए सम्यग्ज्ञानी को मन रूपी जहाज का प्राश्रय लेना पड़ता है। वह मन-घटे में स्वयं में विद्यमान रहता है, पर प्रशानी उसे बाहर खोजता है, यह माश्चर्य का विषय है। कर्मरूपी समुद्र में राग-द्वेषादि विभाव का पल है, उसमें विषय की वरमें उठती रहती हैं, तृष्णा की प्रबल बड़वाग्नि और ममता का शब्द फैला रहता है। भ्रमरूपी मंबर है जिसमें मन रूपी जहाज पबन के जोर से चारों दिशाओं में पककर लगाता, 1. हिन्दी जैन भक्ति काव्य मोर कबि, पृ. 3324 2. अध्यात्म पदावली, पृ. 3421 3. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 491
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विरता बिरता, सूखता, उतराता है। अब चेतन रूप स्वामी जागता है और उसका परिणाम समझता है तो वह समता रूप श्रृंखला फेकता है । फलतः भंवर का प्रकोप कम हो जाता है।
कर्म समुद्र विभाव जल, विषयकषाय तरंग।
बडवागनि तृष्णा प्रवल, ममता धुनि सरवंग ॥5॥ भरम भंवर तामें फिर, मनजहाज चहुँ और ।
गिरं खिरं बूड तिर, उदय पवन के जोर ॥6॥ जब चेतन मालिम जग, लखै विपाक नतूम ।
डार समता शृंखला, थक भ्रमर की धूम 11701 बनारसीदास का मन इधर-उपर बहुत भटकता रहा । इसलिए वे कहते हैं कि रे मन, सदा सन्तोष धारण किया कर । सब दुःखादिक दोष उससे नष्ट हो जाते है। मन भ्रम अथवा दुविधा का घर है । कवि को इसकी बड़ी चिन्ता है कि इस मन की यह दुविधा कब मिटेगी मोर कब वह निजनाथ निरंजन का स्मरण करेगा, कर वह अक्षय पक्ष की पोर लक्ष्य बनायेगा, कब वह तन की ममता छोड़कर समता ग्रहण कर शुभमान की ओर मुड़ेगा, सद्गुरु के वचन उसके घट के अन्दर निरन्तर कब रहेंगे, कर परमार्थ सुख को प्राप्त करेगा, कब धन की तृष्णा दूर होगी, कब घर को छोड़कर एकाकी वनवासी होगा । अपने मन की ऐसी दशा प्राप्त करने के लिए कवि पातुर होता हुमा दिखाई देता है।
जगजीवन का मन धर्म के मर्म को नहीं पहचान सका। उसके मन ने दूसरों की हिंसा कर धन का अपहरण करना चाहा, पर स्त्री से रति करनी चाही, असत्य भाषण कर बुरा करना चाहा, परिग्रह का भार लेना चाहा, तृष्णा के कारण संकल्प विकल्पमय परिणाम किये, रौद्रभाव धारण किये, क्रोध, मान, माया लोभादि कषाय
और अष्टमद के वशीभूत होकर मिथ्यात्व को नहीं छोड़ा, पापमयी क्रियायें कर एख-सम्पत्ति चाही, पर मिली नहीं । जगतराम का मन भी बस में नहीं होता। वे किसी तरह से उसे खींचकर भगषच्चरण में लगाते है पर क्षण भर बाद पुनः वह वहां से भाग जाता है। प्रसाता कमों ने उसे खूब झकझोरा है इसलिए वह शिथिल पौर मुरझा-सा गया है । साता कर्मों का उदय पाते ही वह हर्षित हो जाता है।"
1. बनारसीविलास, पृ. 152, 331 2. रे. मन ! कर सदा सन्तोष, जातें मिटत सब दुःख दोष । बनारसीविलास,
पृ. 2281 3. वही, अध्यातम पंक्ति, 13 पृ. 2311 4. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 821 5. वही, पृ.95।
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रूपचन्द अपने मन की बल्टी रीति की और संकेत करते हैं कि वहां दुका मिलता है वहीं वह दौड़ता है इसलिए वे उसके सामने अपनी हार मान लेते हैं।
पर पदार्थों से ममत्व करने के बाद भैया भगवतीदास को बब शान का माभास होता है तो वह कह उठते हैं, रे मूड मन, चेतन को भूलकर इस परछाया में कहाँ भटक गये हो ? इसमें तेरा कोई स्वरूप नहीं। वह तो मात्र व्याधि का घर है । तेरा स्वरूप तो सदा सम्यक् गुण रहा है और शेष माया रूप भ्रम है। इस अनुपम रूप को देखते ही सिद्ध स्वरूप प्राप्त हो जायेगा । अभी तक विषय सुखों में तू रमा रहा, पर यदि विचार करो तो उससे तुम्हारा भला नहीं होगा । तो ऐसे शानियों-ध्यानियों का साथ कर जिनसे मति दुषर सके। उनसे यह मोह माया छूटेगी
और तुम सिद्ध पद प्राप्त कर लोगे। चेतन कर्म चरित्र में 'चेतन मन भाई रे" का सम्बोधन कर कवि ने स्पष्ट किया है कि किस प्रकार मन माया, मिथ्या और शोक में लगा रहता है । इन तीनों शल्यों को मूलतः छोड़ना चाहिए । तदर्थ कोष, मान, माया और लोभादिक कषाय, मोह, अज्ञान विषयसुख प्रादि विकारों को तिलांजलि देकर अविनाशी ब्रह्म की पाराधना करनी चाहिए। संसार में पाने के बाद मरण अवश्यम्भावी है फिर धन योवन, विषय रस प्रादि में रे मूढ़, क्यों लीन है, तन और मायु दोनों क्षीण उसी तरह हो रहे हैं जैसे अजुलि से जल झरता जाता है । इसलिए जन्म-मरण के दुःखों को दूर करने का प्रयत्न करो।"
पंचेन्द्रिय संवाद में मन के दोनों पक्षों को कवि ने सुघड़ता से रखा है । मन अपने आपको सभी का सरदार कहता है। वह कहता है कि मन से ही कर्म मीण होता है, करुण पुन्य होता है और प्रास्मतत्व जाना जाता है । इसलिए मन इन्द्रियों का राजा है और इन्द्रियां मन की दास हैं। तब मुनिराज ने उसका दूसरा पक्ष उसी के समक्ष रखा-रे मन, तू व्यर्थ में गर्व कर रहा है। तुम्हारे कारण ही तन्दुल मच्छ नरक में जाता है, जीव कोई पाप करता है तब उसका अनुमोदन करता है, इन्द्रियां तो शरीर के साथ ही बैठी रहती हैं पर दिन रात इधर-उपर चक्कर लगाता रहता है । फलतः कर्म बंधते जाते हैं। इसलिए रे मन, राग द्वेष को दूर कर परमात्मा में अपने को लगायो ।
1. हिन्दी, पद संग्रह 651 2. ब्रह्मविलास, शत अष्टोत्तरी, 471 3. वही, 81। 4. बही, चेतन कर्म चरित्र, 234-246 । 5. वही, परमार्थ पद पंक्ति, शिक्षा ईद, पृ. 1081 6. बही, पंचेन्द्रिय संबाद, 112-1241
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मनबत्तीसी में कवि ने मन के चार प्रकार बताये हैं-सत्य, पसत्य अनुभव और उभय । प्रथम दो प्रकार संसार की भोर मुकते हैं और शेष दो प्रकार भवपार कराते हैं । मन यदि ब्रह्म में लग गया तो अपार सुख का कारण बना, पर यदि भ्रम में लग गया तो मपार दुःख का कारण सिद्ध होगा। इसलिए त्रिलोक में मन से बली और कोई नहीं। मन दास भी है, भूप भी है। वह पति चंचल है। जीते जी मात्मज्ञान मोर मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती। जिसने उसे पराजित कर दिया वही सही योता है। जैसे ही मन ध्यान में केन्द्रित हो जाता है, इन्द्रियां निराश हो जाती हैं और प्रारम ब्रह्म प्रगट हो जाता है । मन जैसा मूर्ख भी संसार में कोई दूसरा नहीं। वह सुख-सागर को छोड़कर विष के वन में बैठ जाता है। बड़े-बड़े महाराजाओं ने षट्खण्ड का राज्य किया पर वे मन को नहीं जीत पाये इसलिए उन्हें नरक गति के दुःख भोगना पड़े। मन पर विजय न पाने के कारण ही इन्द्र भी पाकर गर्भधारणा करता है । प्रतः भाव ही बन्ध का कारण है और भाव ही मुक्ति का ।
कपि भूधरदास ने मन को हाथी मानकर उसके अपर-शान को महावत के रूप में बैठापा पर उसे वह गिराकर, समति की सांकल तोड़कर भाग खड़ा प्रा। उसने गुरु का अंकुश नहीं माना, ब्रह्मचर्य रूप वृक्ष को उखाड़ दिया, अघरज से स्नान किया, कर्ण पोर इन्द्रियों की चपलता को धारण किया, कुमति रूप हथिनी से रमण किया। इस प्रकार यह मदमत्त-मन-हाथी स्वच्छतापूर्वक विचरण कर रहा है। गुण रूप पथिक उसके पास एक भी नहीं पाते। इसलिए जीव का कत्तव्य है कि वह उसे वैराग्य के स्तम्भ से बांध ले।
ज्ञान महावत डारि, सुमति संकलगहि खण्ड । मुरु अंकुश नहिं पिन, ब्रह्मवत-विरख विहंडे । करि सिंघत सर न्हौन, केलि अघ-रज सौं ठाने । करन चपलता धरै, कुमति करनी रति मान ।। डोलत सुधन्द मदमत्त मति, गुण-पथिक न भावात उर।
वैराग्य खंभते बांध नर, मन-पतंग विचरत बुरै ॥2 एक स्थान पर भूधरदास कवि ने मन को सुमा और जिनधरण को पिंजरा का रूपक देकर सुपा को पिंजरे में बैठने की सलाह दी और अनेक उपमानों के साथ कर्मों से मुक्त हो जाने का प्राग्रह किया है-'मेरे मन सुपा जिनपद-पीअरे वसि यार
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1. वही, मनवत्तीसी, भावन ही तै बन्ध है, भावन ही ते मुक्ति।
जो जानं गति भाव की, सो जान यह युक्ति ॥26॥
वही, फुटकर कविता, 91 2. जैनशतक, 67 पृ. 261
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माव न बार रे (भूधरक्लिास पद 5) । इसी तरह भागे कवि मन को मूरखपंथी कहकर हंस के सौम रूपक द्वारा उसे सांसारिक वासनामों से विरक्त रहने का उपदेश दिया है और जिमचरण में बैठकर सतगुरु के वचनरूपी मोतियों को चुनने की सलाह दी है-मन हँस हमारी ले शिक्षा हितकारी।' (वही पद 33)
मन की पहेली को कवि दौलतराम ने जब परखा तो वे कह उठे-रे मन, तेरी को कुटेव यह ।' मह तेरी कैसी प्रवृति है कि तू सदैव इन्द्रिय विषयों में लगा रहता है । इन्हीं के कारण तो अनादिकाल से तू निज स्वरूप को पहिचान नहीं सका
और शाश्वत सुख को प्राप्त नहीं कर सका। यह इन्द्रिय सुख पराधीन, क्षरण-शयी दुःखदायी, दुर्गति और विपत्ति देने वाला है। क्या तू नहीं जानता कि स्पर्श इन्द्रिय के विषय उपभोग में हाथी गड्ढे में गिरता है और परतन्त्र बन कर अपार दुःख उठाता है । रसना इन्द्रिय के वश होकर मछली कांटे में अपना कण्ठ फंसाती है और मर जाती है। गन्ध के लोभ में भ्रमर कमल पर मण्डराता है और उसी में बन्द होकर अपने प्राण गंवा देता है । सौन्दर्य के चक्कर में प्राकर पतंग दीपशिखा में अपनी पाहुति दे डालता है। कणेन्द्रिय के लालच में संगीत पर मुग्ध होकर हरिण वन में व्याधों के हाथ अपने को सौप देता है। इसलिए रे मन, गुरु सीख को मान और इन सभी विषयों को छोड़
रे मन तेरी को कुटेव यह, करन-विषय में पाव है। दनहीं के वश तू अनादि तें, निज स्वरूप न लखावै है । पराधीन छिन-छीन समाकुल, दुरगति-विपत्ति चखा है । फरस विषय के कारन वारन, गरत परत दुःख पावै है। रसना इन्द्रीवश झष जल में, कंटक कंठ छिदावे है ।। गंध-लोल पंकज मुद्रित में, अलि निज प्रान खपाव है। नयन-विषयवश दीप शिखा में, अंग पतंग जरावै है ॥ करन विषयवश हिरन प्रस्न में, खलकर प्रान लुभाव है।
दौलत तज इनको, जिनको भज, यह गुरु-सीख सुनाव है। जनेतर प्राचार्यों की तरह हिन्दी के जैनाचार्यों ने भी मन को करहा की उपमा दी है। ब्रह्मदीप का मन विषय.रूप बेलि को चरने की ओर झुकता है पर उसे ऐसा करने के लिए कवि आग्रह करता है क्योंकि उसी के कारण उसे संसार में जन्म-मरण के परकर लगाना पड़े-"मन करहा भव बनिमा चरइ, तदि विष वेस्लरी बहूत । तहं परंतह बहुं दुखु पाइयड, तब जानहु गौ मीत ।" इस विषयवासना में शाश्वत सुख की प्राप्ति नहीं होगी। रे मूड़, इस मन रूपी हाथी को बिन्ध्य की पोर
1. अध्यात्म पदावली, पद 1, पृ. 3391
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जाने से रोको प्रयथा यह इम्हारे शील रूप बन को तहस-नहस कर देगा। फलतः तुम्हें संसार में परिभ्रमण करते रहना पड़ेगा
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ur remove में रह करहि इवियविसय सुहस्य । सुक्खु शिरंतर हि गवि मुच्चहि ते कि सग || अम्मिय इह मणु हत्विया विभहं अंतर वारि । तं मंजेस सीसवणु कुणु पडिसइ संसारि ॥
भगवतीदास को मन सबसे अधिक प्रबल लगा । त्रिलोकों में भ्रमण कराने वाला यही मन है । वह दास भी है। उसका स्वभाव चंचलता है । उसे वश में किये बिना मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती। मन को ध्यान में केन्द्रित करते ही इन्द्रियां निराश हो जाती हैं और प्रात्मब्रह्म प्रकाशित हो जाता है ।
मन सो बली न दूसरो, देख्यो इहि संसार ।। तीन लोक में फिरत हो, जतन लागे बार ॥ 8 ॥ मन दासन को दास है, मन भूपन को भूप ॥ मन सब बातनि मम राजा की सेन रात दिना दौरa फिरै, करें अनेक अन्याय ॥ 10 ॥ इन्द्रिय से उमराव जिर्ह, विषय देश विचरंत || भैया तिह मन भूपको, को जीते विन संत ॥ 11 ॥ मन चंचल मन चपल प्रति, मन बहु कर्म कमाय ॥ मन जीते विन प्रातमा, मुक्ति कहो किम थाय ।। 12 ।। सम्सो जोषा जगत में, और दूसरो नाहि ॥
योग्य है, मन की कथा प्रनूप ॥ 9 ॥ सब इन्द्रिन से उमराव ॥
ताहि पचारं सो सुभट, जीत लहै जग माहि ॥ 13 ॥ मन इन्द्रिन को भूप है, ताहि करें जो फेर ॥
सो सुख पावे मुक्ति के, या में क न फेर ॥ 14 ॥ जब मन संघो ध्यान में, इन्द्रिय भई निराश ॥ तब इह भातम ब्रह्म ने, कीने निज परकाश ॥ 15 ॥
दुधजन को संसार में उलझा हुआ मन बाचला-सा लगने लगा परे पर वस्तुओं
को wet विकार में करना चाहता है- "मनुमा बावला हो गया । (बुधजन, विज्ञास, पद 104), इसी तरह वे अन्यत्र कह उठते हैं-हाँ मनाजी थारि गति बुरी कं
1. arra र हिन्दी में जैन रहस्यवाद, पृ. 177
2. ब्रह्मविलास, पृ. 262 1
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दुखदाई हो । निज कारण में नेक न लागत पर सौ प्रीति लगाई हो (वही, पद 62। और जर तक जाते हैं तो मन को उसकी प्रनन्त चतुष्टयी शक्ति का स्मरण कराकर कह उठते हैं-रे मन मेरा तू मेरी को भान-मान रे (बही, पद 64)।
बानतराय मन को सन्तोष धारण करने का उद्बोधन करते हैं और उसी को सबसे बड़ा धन मानते हैं-"गाहु सन्तोष सदा मन रे, जा सम और नहीं पन दे" (द्यानत पद संग्रह, पद 61)। इसलिए वे विषय भोगों को विष-बेल के समान मानकर जिन नाम स्मरण करने के लिए प्रेरित करते हैं-"जिन नाम सुमर मन बावरे कहा इत उत भटक । विषय प्रकट विष बेल हैं जिनमें जिन पटक ।" (वही, पद 102) वीतराग का ध्यान ही उनकी दृष्टि में सदैव सुखकारी है-कर मन ! वीतराग को ध्यान । ....."धानत यह गुन नाम मालिका पहिर हिये सुखदान (वही, पद 61)।
__ इस प्रकार हमने देखा कि उक्त बाधक तत्त्वों के कारण साधक साधना पथ पर अग्रसर नहीं हो पाता । कभी वह सांसारिक विषय-वासनाओं को असली सुख मानकर उसी में उलझ जाता है, कभी शरीर से ममत्व रखने के कारण उसी की चिन्ता में लीन रहता है, कभी कर्मों के प्राधव पाने और शुभ-अशुभ कर्मजाल में फैसने के कारण पात्म-कल्याण नहीं करता, कभी मिथ्यात्व, माया-मोह आदि के मावरण में लिप्त रहता है, कभी बाह्याडम्बरों को ही परमार्थ का साधन मानकर उन्ही क्रिया-काण्डों में प्रवृत्त रहता है और कभी मन की चंचलता के फलस्वरूप उसका साधना रूपी जहाज डगमगाने लगता है जिससे रहस्य साधना का पथ प्रोझल हो जाता है।
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पष्ठ परिवर्त रहस्य भावना के साधक तत्व
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रहस्य भावना के पूर्वोक्त बाधक तत्वों को दूर करने के बाद साधक का मन निश्छल और शांत हो जाता है। वह वीतरागी सद्गुरु की खोज में रहता है । सद्गुरु प्राप्ति के बाद साधक उससे संसार-सागर से मार होने के लिए मार्ग-दर्शन की प्राकांक्षा व्यक्त करता है । सद्गुरु की अमृतवाणी को सुनकर उसे संसार से वैराग्य होने लगता है। वह संसार की प्रवृत्ति को अच्छी तरह समझने लगता है, शरीर को अपवित्रता, विनश्वर शीलता और नरभव-दुर्लभता पर विचार करता है, प्रारम सम्बोधन, पश्चात्ताप प्रादि के माध्यम से मात्मचिन्तन करता है, वासना पौर कर्म फल का अनुभव करने लगता है, चेतन और कर्म के सम्बन्ध पर गम्भीरता. पूर्वक मनन करता है, प्राश्रय और बन्ध के कारणों को दूर कर संवर और निर्जरा लत्त्व की प्राप्ति करने का प्रयत्न करता है। बाह्य क्रियानों से मुक्त होकर अन्त:करण को विशुद्ध करता है, स्व-पर विवेक रूप भेदविज्ञान को प्राप्त करता है और सम्यग्दर्शन और ज्ञानचारित्र रूप रत्नत्रय की प्राप्ति के लिए साधना करता है। इस स्थिति मे पाते-पाते साधक का चित्त मिथ्यात्व की ओर से पूर्णतः दूर हट जाता है तथा भेदविज्ञान में स्थिरता लाने के लिए साधक तप और वैराग्य के माध्यम से परमार्थ रूप मोक्ष की प्राप्ति के लिए क्रमशः शुभोपयोगी पौर शुद्धोपयोगी बन जाता है। अभी तक साधक के लिए जो तत्त्व रहस्य बना था उसकी गुत्थी धीरे-धीरे रहस्य भावना और रहस्य तत्त्वों के माध्यम से सुलझने लगती है । वह कषाय, लेश्या आदि मार्गणामों से मुक्त होकर महावतों का अनुपालन कर गुणस्थानों के माध्यम से क्रमशः निर्वाण प्राप्ति की अोर अभिमुख हो जाता है ।
1. सद्गुरु जन साधना में सद्गुरु प्राप्ति का विशेष महत्व है । विशेषतः उसका महत्व रहस्यसापकों के लिए है, जिन्हें वह साधना करने की प्रेरणा देता है। रहस्यसापना
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में जो तस्य बाधा डालते हैं उनके प्रति रुचि बात कर सपना की घोर सर करता है । सामना में सद्गुरु का स्थान वही है जो पन्त का है। चैने अर्हन्त तीर्थकर, माचार्य, उपाध्याय और साधु को सद्गुरु मानकर उनकी उपासन्य स्तुति और भक्ति की है।' मोहादिक कर्मों के बने रहने के कारण वह 'बड़े आमनि से हो पाती हैं ।" कुशल लाभ ने गुरु श्री पूज्यकरण के उपदेशों को कोकिलकामिनी के गीतों में, मयूरों की थिरकन में और चकोरों के पुलकिन नयनों में देखा + उनके ध्यान में स्नान करते ही शीतल पवन की लहरें चलने लगती हैं। सकल जगत् सुपथ की सुगन्ध से महकने लगता है, सातों क्षेत्र सुधर्म से भरपूर हो जाता है । ऐसे गुरु के प्रसाद की उपलब्धि यदि हो सके तो शाश्वत सुख प्राप्त होने में कोई बाधा नही होगी
सोमप्रभाचार्य के भावों का अनुकरण कर बनारसीदास ने भी गुरु सेवा को 'पायपच परिहारहि परहिं शुभपंथ पग' तथा 'सदा प्रवादित चित्त जुतारन तरन जग' माना है । सद्गुरु की कृपा से मिथ्यात्व का विनाश होता है । सुगति-दुर्गति के fares ra ! fafer-निषेष का ज्ञान होता है, पुण्य-पाप का अर्थ समझ में आता है, संसार-सागर को पार करने के लिए सद्गुरु वस्तुतः एक जहाज है । उसकी समानता संसार में और कोई भी नहीं कर सकता ---
'सदा गुरु ध्यान स्नानलहरि शीतल वहइ रे 1 कीर्ति सुजस विसाल सकल जग मह महइ रे । साते क्षेत्र सुठाम सुधमेह श्री गुरु पाय प्रसाद सदा सुख
नीपजई रे । संपजइ रे ॥
1.
2.
कवि का गुरु अनन्तगुणी, निराबाधी, निरुपाधि, अविनाशी, चिदानंदमय
मौर ब्रह्मसमाधिमय है । उनका ज्ञान दिन में सूर्य का प्रकाश और रात्रि में चन्द्र का प्रकाश है । इसलिए हे प्राणी, चेतो और गुरु की अमृत रूप तथा निश्चयव्यवहारनय
3.
4.
मिथ्यात्व दलन सिद्धान्त साधक, सुकतिमारग जानिये । करनी प्रकरनी सुगति दुर्गति, पुण्य पाप बखानिये ॥ ससार सागर तरन तारन, गुरु जहाज जगमांहि गुरुसम कह 'बनारस', श्रौर कोउ न पेखिये ॥14
विशेखिये |
बनारसीविलास, पंचपदविधान |
हिन्दी पद संग्रह, रूपचन्द, पृ. 48.
हिन्दी जैन भक्त काव्य और कवि, पृ. 117. बनारसीविलास, पु. 24.
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रूप वाणी को सुनो। मर्मी व्यक्ति हो मर्म को जान पाता है । गुरु की वाणी को ही उन्होंने कहा और उसकी ही शुभधर्म प्रकाशक, पापविनाशक, कुपयभेदक, वृष्urates प्रादि रूप से स्तुति की 12 जिस प्रकार से अंजन रूप औषधि के लगाने से तिमिर रोग नष्ट हो जाते हैं वैसे ही सद्गुरु के उपदेश से संशयादि दोष विनष्ट हो जाते हैं। शिव पच्चीसी में गुरु वाणी को 'जलहरी' कहा है। * उसे सुमति और शारदा कहकर कवि ने सुमति देव्यष्टोत्तर शतनाम तथा शारदाष्टक लिखा है जिनमें गुरुवाणी को 'सुधाधर्म संसाधनी धर्मशाला, सुघातापनि नाशनी मेघमाला | महामोह विध्वंसनी मोक्षदानी' कहकर 'नमोदेवि वागेश्वरी जैनवानी' प्रादि रूप से स्तुति की है 15 केवलज्ञानी सद्गुरु के हृदय रूप सरोवर से नदी रूप जिनवाणी निकलकर शास्त्र रूप समुद्र में प्रविष्ट हो गई। इसलिए वह सत्य स्वरूप और धनन्तनयात्मक है । कवि ने उसकी मेघ से उपमा देकर सम्पूर्ण जगत के लिए हितकारिणी माना है ।" उसे सम्यग्दृष्टि समझते है और मिथ्यादृष्टि नहीं समझ पाते । इस तथ्य को कवि ने अनेक प्रकार से समझाया है । जिस प्रकार निर्वाण साध्य है और अरहंत, श्रावक, साधु, सम्यक्त्व श्रादि अवस्थायें साधक है, इनमें प्रत्यक्ष-परोक्ष का भेद है । ये सब अवस्थायें एक जीव की हैं ऐसा जानने वाला ही सम्यग्दृष्टि होता है । "
सहजकीर्ति गुरु के दर्शन को परमानददायी मानते हैं - 'दरशन नधिक प्राणंद जंगम सुर तरुकद ।' उनके गुण अवर्णनीय हैं- 'वरणवी हूं नवि स 19 जगतराम ध्यानस्थ होकर अलख निरंजन को जगाने वाले सद्गुरु पर बलिहारी हो जाता है 10 और फिर सद्गुरु के प्रति 'ता जोगी चित लावो मोरे बालो' कहकर
1.
हिन्दी पद संग्रह, रूपचन्द, पृ. 48.
2. बनारसी विलास, भाषा मुक्तावली, पृ. 20, पृ. 27.
3.
वही, ज्ञानपच्चीसी, 13, पृ. 148.
4.
वही, शिवपच्चीसी, 6, पृ. 150.
5. वही, शारदाष्टक, 3, पृ. 166.
6.
नाटक समयसार, जीवद्वार, 3.
7. त्यावर वरषा समै, मेध प्रखंडित धार ।
त्यौं सद्गुरु वानी खिरे, जगत जीव हितकार | वही सत्यसाधक द्वार, 6, पृ. 338.
8. नाटक समयसार, 16, पृ. 38.
9. जिनराजसूरी गीत, ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह, 2, 7, पृ. 174-176. तेरहपंथी मंदिर जयपुर, पद संग्रह, 946, पत्र 63-64.
10.
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अपना अनुराग प्रगट किया है । वह शील रूप लंगोटी में संयम रूप दोरी से गांठ लगाता है भमा और करुणा का नाद बजाता है तथा मान रूप गुफा में दीपक संजोकर चेतन को जगाता है । कहता है, रे चेतन, तुम ज्ञानी हो और समझाने वाला सद्गुरु है तब भी तुम्हारे समझ में नहीं पाता, यह आश्चर्य का विषय है।
सद्गुरु तुमहिं पढ़ा चित दै अरु तुमहू ही ज्ञानी,
तबहूं तुमहिं न क्यों हू भाव, चेतन तत्व कहानी। पांडे हेमराज का गुरु दीपक के समान प्रकाश करने वाला है और वह तमनाशक पोर बरागी है। उसे पाश्चर्य है कि ऐसे गुरु के वचनों को भी जीवन तो सुनता है और न विषयवासना तथा पापादिक कर्मों से दूर होता है। इसलिए वह कह उठता है-'सीष सगुरु को मानि ले रे लाल ।'
___रूपचन्द की दृष्टि मे गुरु-कृपा के बिना भवसागर से पार नहीं हुप्रा जा सकता । ब्रह्मदीप उसकी ज्योति में अपनी ज्योति मिलाने के लिए प्रातुर दिखाई देते हैं-'कहै ब्रह्मदीप सजन समुझाई करि जोति मे जोति मिलावै ।'
___ब्रह्मदीप के समान ही मानंदधन ने भी 'अवधू' के सम्बोधन से योगी गुरु के स्वरूप को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। मैया भगवतीदास ने ऐसे ही
1. ता जोगी चित लावों मोरे बाला ॥
संजम डोरी शील लंगोटी घुलघुल, गाठ लगाले मोरे बाला । ग्यान गुडिया गल विच डाले, प्रासन दढ जमावे ॥1॥ क्षमा की सौति गले लगावै, करुणा नाद बजावे मोरे वाला। ज्ञान गुफा में दीपक जो के चेतन अलख जगांवे मोरे बाला ॥
हिन्दी पद संग्रह, पृ. 99. 2. गीत परमार्थी, परमार्थ जकड़ी संग्रह, जैन ग्रन्थ रत्ताकर कार्यालय, बम्बई, 3. गुरु पूजा 6, वृहज्जिनवाणी संग्रह, मदनगंज, किशनगढ़, सितम्बर, 1955,
पृ. 201. 4. ज्ञानचिन्तामणि, 35, बीकानेर की हस्तलिखित प्रति. 5. सुगुरु सीष, दीवान बधीचन्द मंदिर, जयपुर, गुटका नं. 161. .. गुरु बिन भेद न पाइय, को परु को निज वस्तु ।
गुरु बिन भवसागर विषइ, परत गहइ को हस्त ।। अपभ्रंश और हिन्दी में
जैन रहस्यवाद. पृ. 97. 7. मनकरहारास, मामेरशास्त्र भण्डार, जयपुर की हस्तलिखित प्रति. 8. मानधन बहोत्तरी, 7.
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योगी सद्गुरु के वचनामृत द्वारा संसारी जीवों को सचेत हो जाने के लिए प्रावाहन किया है
एतो दुःख संसार में, एतो सुख सब जान । इमि लखि भैया चेतिये, सुगुरुवचन उर धान ॥
मधुबिंदुक की चौपाई में उन्होंने अन्य रहस्यवादी सन्तों के समान गुरु के महत्व को स्वीकार किया है। उनका विश्वास है कि सद्गुरु के मार्गदर्शन के बिना जीव का कल्याण नहीं हो सकता, पर वीतरागी सद्गुरु भी प्रासानी से नहीं मिलता, पुत्र के उदय से ही ऐसा सद्गुरु मिलता है-
'सुग्रटा सोचं हिए मकार | ये गुरु सांधे तारनहार ॥ मैं शठ फिरयो करम वन माहिं। ऐसे गुरु कहुं पाए नाहि । प्रमो पुण्य उदय कुछ भयो । सांचे गुरु को दर्शन लयो ||
पांडे रूपचन्द गीत परमार्थी में आत्मा को सम्बोधते हुए सद्गुरु के महत्व को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि सद्गुरु प्रमृतमय तथा हितकारी वचनों से चेतन को समझाता है :--
1.
2.
3.
चेतन, अचरज मारी यह मेरे जिय प्राये | अमृत वचन हितकारी, सद्गुरु तुमहिं पढ़ाई । सद्गुरु तुमहिं पढ़ा चित दे, प्रारु तुमहू हो ज्ञानी । तब तुम न क्यों हू भ्राव, चेतन तत्व कहानी ॥
दौलतराम जैन गुरु का स्वरूप स्पष्ट करते हुए चितित दिखाई देते हैं कि उन्हें वैसा गुरु कब मिलेगा जो कंचन कांच में व निदक-वंदक में समताभावी हो, वीतरागी हो, दुर्धर तपस्वी हो, अपरिग्रही हो, संयमी हो। ऐसे ही गुरु भवसागर से पार करा सकते हैं
कब हौ मिल मोहि श्री गुरु मुनिवर करि हैं भवोदधि पारा हो । भोग उदास जोग जिन लीन्हों छाड़ि परिग्रह मारा हो । कंचन कांच बराबर जिनके, निदक-बंदक सारा हो । दुर्धर तप तपि सम्यक् निजघर मन वचन कर धारा हो । ग्रीषम गिरि हिम सरिता तीरे पावस तरुतर ठारा हो । करुणा मीन हीन त्रस थावर ईर्यापथ समारा हो ||
मधुविन्दुक की चौपाई, 58, ब्रह्मविलास, पृ. 130.
ब्रह्मविलास, पृ. 270.
गीत परमार्थी, हिन्दी जैन शक्ति काव्य और कवि, पृ. 171.
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• - ५४८ मास बर्मास उपसि बासबन पासुक करत महारा हो।
भारत रौद्र लैश नहिं जिनके धर्म शुक्ल चित धारा हो ॥ ध्यानारद गूढ़ निज मातम शुद्ध उपयोग विचारा हो। ... माप तरहि पोरनि को तारहिं, भव जल सिन्धु प्रपारा हो। दौलत ऐसे जैन जतिन को निजप्रति धोक' हमारा हो ।
(दौलत विलास, पद 72) द्यानतराय को गुरु के समान पौर दूसरा कोई बाता दिखाई नहीं दिया। तदनुसार गुरु उस मन्धकार को नष्ट कर देता है जिसे सूर्य भी नष्ट नहीं कर पाता, मेघ के समान सभी पर समानभाव से निस्वार्थ होकर कृपा जल बरषाता है, नरक तिर्यंच आदि गतियों से जीवों को लाकर स्वर्ग-मोक्ष में पहुंचाता है । अतः त्रिभुवन में दीपक के समान प्रकाश करनेवाला गुरु ही है । वह संसार सायर से पार लगाने बाला जहाज है। विशुद्ध मन से उसके पद-पंकज का स्मरण करना चाहिए। कवि विषयवाना में पगे जीवों को देखकर सहानुभूतियों पूर्वक कह उठता है
जो तजै विषय की प्रासा, द्यानत पावै सिववासा ।
यह सतगुरु सीख बनाई काहूं विरल के जिय माई ॥ भूधरदास को भी श्रीगुरु के उपदेश अनुपम लगते है। इसलिए वे सम्बोधित कर कहते हैं- "सुन ज्ञानी प्राणी, श्रीगुरु सीख सयानी । गुरु की यह सीख रूप गंगा नदी भगवान महावीर रूपी हिमाचल से निकली, मोह-रूपी महापर्वत को भेदती हुई मागे बढ़ी, जग की जड़ता रूपी प्रातप को दूर करते हुए ज्ञान रूप महासागर में गिरी, सप्तभंगी रूपी तरगे उछली । उसको हमारा शतशः वन्दन । सद्गुरु की यह बापी प्रज्ञानान्धार को दूर करने वाली हैं।
गुरु समान दाता नहिं कोई।। भानु प्रकाश न नासत जाको, सो अंधियारा डारे खोई॥1॥ मेघ समान सबन 4 बरस, कछु इच्छा जाके नहि होई। नरक पशुगति प्रागमाहितं सुरग मुकत सुख थापं सोई ।। 2 ।। तीन लोक मंदिर में जानो, दीपकसम परकाशक लोई। दीपतलें अंधियारा भरयो है अन्तर बहिर विमल है जोई।।3।। तारन तरन जिहाज सुगुरु है, सब कुटुम्ब गेवं जगतोई। बानत निशिदिन निरमल मन में, राखो गुरु पद-पंकज दोई 11411
द्यानत पद संग्रह. पृ. 10. 2.. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 126-127, 133. 3. भूपर विलास, 7 पृ.4.
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बुधजन सत्गुरु की सीख को मान लेने का प्राग्रह करते है-"सुठिल्यौ जीव सुजान सीख गुरु हित की कही। मुल्यो अनन्ती बार गति-मति साता न लही। (बुधजन विलास, पद 99), गुरु द्वारा प्रदत्त ज्ञान के प्याले से दुधजन सारे जंगलों से दूर हो गये :
गुरु ने पिलाया जो ज्ञान प्याला। यह बेखबरी परमावां की निजरस में मतवाला। यों तो छाक जात नहिं बिनहूं मिटि गये प्रान जंजाल । अद्भुत प्रानन्द मगन ध्यान में बुद्धजन हाल सम्हाला ॥
-~-बुधजन विलास, पद 77 समय सुन्दर की दशा गुरु के दर्शन करते ही बदल जाती है भौर पुण्य क्शा प्रकट हो जाती है-आज कू धन दिन मेरउ ।पुण्यदशा प्रगटी अब मेरी पेखतु गुरु मुख तेरउ ।। (ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह, पृ. 129) साधुकीति तो गुरु दर्शन के बिना विहल से दिखाई देते हैं। इसलिए सखि से उनके आगमन का मार्ग पूछते हैं। उनकी व्याकुलता निर्गुण संतों की व्याकुलता से भी अधिक पवित्रता लिए हुए है (ऐतिहासिक जन काव्य संग्रह, पृ. 91.)।
वीर हिमाचल से निकसी, गुरु गौतम के मुखकुण्ड ढरी है । मोह महाचल भेद चली, जग की जड़ता तप दूर करी है। ज्ञान पयोनिधिमाहिं रुली, बहु भंग-तरंगनी सौं उछरी है। ता शुचि शारद गंगनदी प्रति, मैं अंजुरी निज सीस धरी है ।।
इस प्रकार सद्गुरु मौर उसकी दिव्य वाणी का महत्व रहस्य-साधना की प्राप्ति के लिए आवश्यक है । सद्गुरु के प्रसाद से ही सरस्वती ! और एकचित्तता की प्राप्ति होती है । ब्रह्म मिलन का मार्ग यही सुझाता है। परमात्मा से साक्षात्कार कराने में सद्गुरु का विशेष योगदान रहता है । माया का प्राच्छन्न प्रावरण उसी के उपदेश और सत्संगति से दूर हो पाता है । फलतः प्रात्मा विशुद्ध बन जाता है। उसी विशुद्ध प्रात्मा को पूज्यपाद ने निश्चय नय की दृष्टि से सद्गुरु कहा है।
1. जनशतक, 14-15, पृ. 6-7. 2. सिद्धान्त चौपाई, लावण्य समय, 1-2. 3. सारसिखामनरास, संवेग सुन्दर उपाध्याय, बड़ा मन्दिर, जयपुर की हस्त
लिखित प्रति नमत्यात्मात्मेव जन्म निर्वाणमेव च । गुरुरास्मात्मम स्तर स्मान्नान्यो स्ति परमार्थतः ॥751 समाधि तम्ब, 75.
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2. नरभव दुर्लभता
प्रायः सभी दार्शनिकों ने नरभव की दुर्लभता को स्वीकार किया है। यह सम्भवतः इसलिए भी होगा कि ज्ञान की जितनी अधिक गहराई तक मनुष्य पहुंच सकता है उतनी गहराई तक अन्य कोई नहीं। साथ ही यह भी स्थायी तथ्य है कि जितना अधिक प्रज्ञान मनुष्य में हो सकता है उतना और दूसरे में नहीं । ज्ञान और अज्ञान दोनों की प्रकर्षता यहाँ देखी जा सकती हैं । इसलिए प्राचार्यों ने मानव की शक्ति का उपयोग उसके प्रज्ञान को दूर करने में लगाने के लिए प्रेरित किया है। एतदर्थ सर्वप्रथम यह मावश्यक है कि साधक के मन में नरभव की दुर्लभता समझ में मा जाय । महात्मा बुद्ध ने भी अनेक बार अपने शिष्यों को इसी तरह का उपदेश दिया था।
मन की चंचलता से दुःखित होकर रूपचन्द कह उठते हैं-"मन मानहि किन समझायो रे।" यह नरभव-रत्न अथक प्रयत्न करने पर सत्कमों के कारण प्राप्त हो सका है। पर उसे हम विषय-वासनादि विकार-भाव रूप काचमरिण से बदल रहे हैं। जैसे कोई व्यक्ति धनार्जन की लालसा से विदेश यात्रा करे और चिन्तामणि रत्न हाथ माने पर लौटते समय उसे पाषाण समझ कर समुद्र में फेंक दे। उसी प्रकार कोई भवसागर में भ्रमण करते हुए सत्कर्मों के प्रभाव से नरजन्म मिल जाता है पर यदि प्रज्ञानवश उसे व्यर्थ गवा देता है तो उससे पधिक मूढ और कौन हो सकता है ? सोमप्रभाचार्य के शब्दों को बनारसीदास ने पुनः कहा कि जिस प्रकार प्रज्ञानी व्यक्ति सजे हुए मतंगज से ईधन ढोये, कंचन पात्रों को धूल से भरे, प्रमात रस से पैर धोये, काक को उड़ाने के लिए महामरिण को फेंक दे और फिर रोजी प्रकार इस नरभव को पाकर यदि निरर्थक गंवा दिया तो बाद में पश्चात्ताप के प्रति. रिक्त और कुछ भी हाथ नहीं लगेगा।
ज्यों मतिहीन विवेक बिना नर, साजि मतगंज ईधन ढोवै । कंचन भाजन धूल भर शत्, मूढ सुधारस सौं पग धोवे ।। बाहित काग उड़ावन कारण, डार महामणि मूरख रोवे । स्यों यह दुर्लभ देह 'बनारसि' पाय प्रजान प्रकारथ खो ।
1. थेरीगाथा, 4,459 आदि, 2. नरभवरतन जनत बहुतनि तें, करम-करम करि पायो रे।
विषय विकार काचमरिण बदले, सु प्रहले जान गवायो रे ॥ हिन्दी पद संग्रह, पृ. 34.
बनारसीविलास, भाषा सूक्तमुक्तावली, 5 पृ. 19. 4. वही, भाषा सूक्त मुक्तावली, पृ. 19.
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चानतराय ने 'नहि ऐसौ जनम बारम्बार' कहकर यही बात कही है। उनके अनुसार यदि कोई नरभव को सफल नहीं बनाता तो 'मंघ हाथ बटेर माई, सजत ताहि वार' वाली कहावत उसके साथ चरितार्थ हो जायेगी। भैया भगवतीदास ने व्यक्ति की पहले उसे सांसारिक इच्छात्रों को प्रोर से सचेत किया है और फिर नर. जन्म को दुर्लभता की मोर संकेत किया । जीव अनादिकाल से मियाज्ञान के वशीभूत होकर कर्म कर रहा है । कभी वह रामा के चक्कर में पड़ता है तो कभी बन के, कभी शरीर से राग करता है तो कभी परिवार से । उसे यह ध्यान नहीं कि 'प्राज कालि पाँजरे सौ पची उड़ जातु है ।। रे चिदानद, तुम अपने मूल स्वरूप पर विचार करो। जब तक तुम और रूप में पगे रहोगे, तब तक वास्तविक सुख तुम्हें नहीं मिल सकेगा। इन्द्रिय सुख को यदि तुम वास्तविक सुख मानते हो तो इससे अधिक भूल तुम्हारी और क्या होगी? यह सुख क्षणिक है और तुम्हारा स्वरूप अविनाशी है। ऐसा नरजन्म पाकर विवेकी बनी और कर्मरोग से मुक्त होमो, इसी मे कल्याण है। अन्यथा पश्चात्ताप करना पड़ेगा। तुमने इतनी गाढ़ निद्रा ली जो साधारणतः मौर कोई नहीं लेता । अब तुम्हारे हाथ चिन्तामरिण पाया है, नरभव पाया है इसलिए घट की मांखें खोल और जौहरी बन ।
संसार की करुण स्थिति को देखकर भी यह मूढ नर भयभीत नहीं होता। समनष्य जन्म को पाकर सोते-सोते ही व्यतीत कर दिया जाय तो बहुत बड़ी अज्ञानता होगी। उस समय की कोई कीमत नही लगायी जा सकती है। एक-एक पल उसका अमूल्य है । इसलिए कवि ने 'चेतन नरभव पाय के, हो जानि वृथा क्यों खोवे छै' का उद्घोष किया है । दौलतराम ने चतुर्गति के दुःखो का वर्णन करते हए "दुर्लभ लहि ज्यो चिन्तामणि त्यो पर्यायलही त्रसतणी' कहकर मनुष्य को सचेत किया है।' बुधजन के भावो को देखिये, कितनी मातुरता और व्यग्रता दिखाई दे रही है उनके शब्दों में :
1. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 116. 21 ब्रह्मविलास, शतप्रष्टोत्तरी, 21,22,44. 3. वही, 42,43. 4. वही, शतप्रष्टोत्तरी, 83-85, परमार्थपद पंक्ति, 5. 5. जैन शतक, भूधरदास, 21. 6. हिन्दी पद संग्रह, बस्तरामसाह, पृ. 166. 7. बहढाला, प्रथम ढाल, 1-6.
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नरभव पाप फेरि दु:खाना देता काम न करना हो। नाहक ममत ठानि पुद्गलसों, करम जालक्यों परना हो । नरमव०॥1॥ यह तो ना तू मल्पी, तिल तुष की बुरुवरना हो। राम-कोष तजि भज समता को कर्म साया कोहरना हो4120 वों व पाय विषय सुख सेहा, मज चलियन डोमा हो। 'बुक्जन' समुकि सेम जिनवर पद, ज्यों भक्तामर तरना हो ।
कविवर विषयासक्त व्यक्ति की प्राहट को पहचानते हैं। इसलिए वे कहते हैं कि तुमने अभी तक बहुत विचार किया है अपना । यह नरभव मुक्ति-महल की सीडी है, संसार-सागर से पार कराने वाला तट है फिर क्यो इसे व्यर्थ खो रहा है
"अरे हो से तो सुधरी बहुत बिमारी । ये मति मुक्ति महल की पोरी पाय रहत क्यों पिछारी।"
(बुधवन विलास, पद 26) मूबरदास सचेत होकर नरभव की सफलता की बात करते हैं
परे हो चेतो रे भाई। मानुष देह लही दुलही, सुपरी उधरी भवसंगति पाई। जे करनी वरनी करनी नहिं, समझी करनी समझाई। यों शुभ थान जग्यो उर ज्ञान, विर्ष विषपान तृषा न बुझाई । पारस पाव सुधारस भूधर, भीख के मांहि सुलाज न आई।
(भूघर विलास, पद 46) बिहारीदास को नरभव व्यर्थ करना समुद्र में राई फेक कर पुनः प्राप्त करना जैसा लमा-"मातम कठिस उपाय पाय नरभव क्यों तजै राई उदधि समानी फिर टूट नही पाइये।" नरभव दुर्लभता के चिन्तन के साथ ही साधक का मन संसार पौर शरीर की नश्वरता पर भी टिक जाता है। उसका मन तथाकथित सांसारिक सुखों की भोर से हटकर स्थायी सुख की प्राप्ति में लग जाता है। अब यह समझने लगता है कि सांसारिक सुख वस्तुतः वास्तविक सुख नहीं बल्कि सुबाआम है। नरभव दुर्लभता का चिन्तन इस चिन्तन को गौर माये बढ़ा देता है।
1. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 181-192. 2. सम्बोपचासिक, 3 दिगम्बर जैन मन्दिर बडोत की हस्तलिखित प्रति, 3. प्रस्तुत विषय पर 'रहस्य भावना के बाषक तत्त्व" नामक अध्याय में विस्तार
से मध्यकालीन कवियों के विचार प्रस्तुत किये जा चुके हैं।
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3. प्रास्म सम्बोधन
नरभव दुर्लभता, शरीर मादि विषयों पर चिन्तन करने के साथ ही साधक अपने चेतन को मात्म सम्बोधन से सन्मार्ग पर लगाने की प्रेरणा देता है। इससे प्रसदवृत्तियाँ मन्द हो जाती हैं और साध्य की ओर भी एकाग्रता बढ़ जाती है साधक स्वयं मामे पाता है और संसार के पदार्थों की क्षणभंगुरता प्रादि पर सोचता है।
बनारसीदास अपने चेतन को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि रे चेतन, तू त्रिकाल में अकेला ही रहने वाला है । परिवार का संयोग तो ऐसा ही है, जैसे नदीनाव का संयोग होता है । जहाँ संयोग होता है वहां वियोग भी निश्चित ही है। यह संसार प्रसार है, भरणभंगुर है । बुलबुले के समान सुख, संपत्ति, शरीर प्रादि सभी कुछ नष्ट होने वाले हैं । तू मोह के कारण उनमें इतना अधिक पासक्त हो गया है कि आत्मा के समूचे गुणो को मूल गया है । 'मैं मैं' के भाव में चतुतियों में भ्रमण करता रहा । अभी भी मिथ्यामत को छोड़ दे और सद्गुरु की वाणी पर श्रद्धा कर ले । तेरा कल्याण हो जायेगा ।। रे चेतन, तू अभी भी मिथ्याभ्रम की घनघोर निद्रा में सोया हुमा है । जबकि कषाय रूप चार चोर तुम्हारे घर को नष्ट किये दे रहे हैं
चेतन तुहु जनि सोवहु नीद अघोर ।
चार चोर घर मूसंहि सरबस तोरो। इसलिए तू राग द्वेष प्रादि छोड़कर और कनक कामिनी से सम्बन्ध त्याग प्रचेतन पदार्थों की सगति में तू सब कुछ मूल गया । तुझे यह तो समझना चाहिए था कि चकमक में कभी भाग निकलती नहीं दिखती। आगे कवि अपनी प्रात्मा को सम्बोधते हुए कहते हैं
___ "तू मातम गुन जानि रे जावि, साधु वचन मनि प्रानि रे पानि । भरत चक्रवर्ती, रावरण प्रादि पौराणिक महापुरुषों का उदाहरण देकर वे और भी अधिक स्पष्ट करते हैं कि अन्त समय पाने पर "पौर न तोहि छुड़ावन हार।"3
1. चेतन तू तिहूकाल अकेला,
नदी नाव संजोग मिल ज्यों, त्यों कुटुम्ब का मेला । चेतन ॥1॥ यह संसार प्रसार रूप सब, ज्यों पटमेखन खेला। सुख संपत्ति शरीर जलबुद बुद, विनशत नाहीं बेला ॥ कहत 'बनारसि' मिथ्यामत तज, होय सुगुरु का चेला । तास वचन परती न पान जिय, होइ सहज सुरझला । चेतन ।।3।।
बनारसी विलास, मध्यातमपद पंक्ति, 2. 2. बनारसी विलास, प्रध्यातमपद पंक्ति, 9-20. 3. बही, मध्यातम पद पंक्ति, 8.
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यह संसारी जीवात्मा पर पदार्थों में अधिक रुचि दिखाता है और स्वयं अपने गुणों को भूल जाता है-चेतन उल्टी चाल चले ।
जड़ संगत तें जड़ता व्यापी निज गुन सकल टले । यह चेतन बार-बार मोह में फंस जाता है इसलिए वे उसे अपने आप को सम्भालने को कहते हैं-
चेतन तोहिन नेक संसार,
नख शिख लों दृढ़ बन्धन बैठे कौन निखार 11
इसीलिए बनारसीदास संसारी जीव को 'भौंदू' कहकर सम्बोधित करते हैं । उनके इस शब्द में कितनी यथार्थ अभिव्यक्ति हुई है यह देखते ही बनता है। उनका कथन हैं-रे भोंदू, ये जो चर्म चक्षु हैं जिनसे तुम पदार्थों का दर्शन करते हो, वस्तुतः ये तुम्हारी नहीं है । उनकी उत्पत्ति भ्रम से होती है और जहां भ्रम होता है वहां श्रम होता है। जहां श्रम होता है वहां राग होता है। जहां राग होता है वहां मोहादिक भाव होते हैं, जहां मोहादिक भाव होते हैं वहां मुक्ति प्राप्ति सम्भव है । रे भौ, ये चर्म चक्षुएं तो पौद्गलिक हैं, पर तूं तो पुद्गल नही । ये भावें पराधीन हैं । fear प्रकाश के वे पदार्थ को देख नहीं सकती । अतः ऐसी प्राखें प्राप्त करने का प्रयत्न करो जो किसी पर निर्भर न रहें
भौ भाई ! समुझ शब्द यह मेरा,
जो तू देखे इन प्रखिनसौ तामें कछु न तेरा, भौदू० ॥ ॥ पराधीन बल इन प्राखिन को विनु प्रकाश न सूर्भ ।
सो परकाश प्रगति रवि शशि को, तू अपनों कर बूझे, भोंदू ॥15॥ ३ वास्तविक प्राखें तो 'हिये की ग्राखें हैं। रे भोंदू, तुम उन्हीं हिये की प्राखों
से देखो जिनसे किसी प्रकार का भ्रम उत्पन्न नहीं होता। उनसे प्रमृत रस की वर्षा
मांखों से परमार्थ
होती है । वे केवल ज्ञानी की वाणी को परख सकती हैं । उन देखा जाता है जिससे प्राणी कृतार्थ हो जाता है। यही केवली की व्यवस्था है जहां कर्मों का लेष नहीं रहता । उन प्रांखों के मिलते ही अलख निरंजन जाग जाता है, मुनि ध्यान धारणा करता है। संसार के अन्य सभी कार्य मिथ्या लगने लगते हैं, विषय विकार नष्ट होकर शिव-सुख प्राप्त होता है, समता रस प्रकट होता है, निर्विकल्पावस्था में जीव रमण करने लगता है । बनारसीदास कहते हैं-"वा दिन
1. वही, मध्यातम पद पंक्ति, 12.
2. बनारसी विलास, प्रध्यातम पद पंक्ति, 18, पृ. 234-35.
3.
भोंदू भाई देखि हिये की मांखें,
जे कर अपनी सुख सम्पत्ति भ्रम की सम्पत्ति नायें, भोंदू भाई । वही, 19 g. 235.
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को कर सोच जिय ! मन में वा दिन ॥" हे मूढ़ प्राणी जिस दिन भांषी चलेगी उसमें तुम्हें व तुम्हारे परिवार को एवं सम्पत्ति को वह जाना पड़ेगा इसलिए तू इन सब में चित मत लगा और निर्वाण प्राप्ति का मार्ग ग्रहण कर ।
मैया भगवतीदास ने जीवन की तीनों अवस्थाओंों का सुन्दर चित्रण करके... संसारी को उद्घोषित किया है
भूलि गयी तिज रूप अनुपम, मोह- महामद के मतवारे ।
हू दान बन्दो भव के तुम वेतन क्यों नहीं चेतन हारे || 2 तुम्हारे घर में चिदानन्द बैठा है उससे रूप को देखने-परखने का उपम्य कीजिए-चिनन्द भैया विराजित है घट मांहि,
वाके रूप लखिये को उपाय कछु करिये ॥
पर प्रदायों के संसर्ग से भ्रात्म धर्म को मत भूल | सम्यग्ज्ञानी होकर परमार्थ प्राप्त कर और शुद्धानुभव रस का पान कर 13
व्यक्ति भोगों की और सरलता पूर्वक दौड़ता है। उसकी इस प्रवृत्ति को स्पष्ट करते हुए कविवर दौलतराम ने " मान ले या सिख मोरी, भुकं मत भोगन श्रोरी" कहकर भोगवासना को मुजंग के शरीर (भोग) के समान बताया है जो देखने में तो सुन्दर लगता है पर स्पर्श करते ही इस लेता है और मर्मान्तिक पीड़ा का कारण बनता है । जिस प्रकार तोता भाकाश में चलने की अपनी गति को भूलकर नलिनी के फंदे में फंसता है और पश्चाताप करता है उसी प्रकार रे आत्मत्, तू अपने स्वरूप को भूलकर दुःख सागर में डुबकियां लगाता है। 5 इसलिए वे चेतन को उस श्रोर से मुड़ने के लिए कहते हैं
1.
2.
3.
4.
5.
वही, अष्टपदी मलहार, पृ. 240.
ब्रह्मविलास, शत प्रष्टोत्तरी, 50-54 पृ. 19-20.
अंसा, भ्रम न भूलिये पुद्गल के परसंग । अपनो काज संवारिये, प्राय ज्ञान के अंम ॥ प्रायज्ञात के अंग माप दर्शन कर लोजे । कीजे विस्ता भाव' शुद्ध प्रनुभो रस पीजे ।
दीजे चउविधि दान, अहो शिव खेत बसया ।
तुम त्रिभुवन के राय, भरम जिन मूलहू मैया 217 111 वही, 74, पृ. 24.
अध्यातम पदावली पृ, 340.
अपनी सुधि मूल भाप श्राप दुख उपायो ।
जसे शाम तम चाल बिसरि, मलिनी लटकायी । दोलतराम, मध्यात्म पदाreft, g. 340.
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'जियो तोहि समझायी सी सौ बार ।
देख संगुरु की परहित में रति हित उपदेश सुनायो सौ सौ बार । विषय मुजंग से दुखं पायो, पुनि तिनसों लपटाये ।
स्वपद विसार रच्यो पर पद में, मदरत छौं बोरायौ !!
7
तन धन स्वजन नहीं है तेरे, नाहक नेह लगायो ।
क्यों न तर्ज भ्रम, चाख समामृत, जो नित संत सुहायो ॥
बहू समुझि कठिन यह तरभव, जितवृष विता गमायो ।
ते विलखें मनि डार उदधि में, दौलत को पछनायो ||
जीव के मिथ्याज्ञान की घोर विहार कर धानतराय कहे बिना नहीं रह पाते -- जानत क्यों नहि हे नर प्रातम ज्ञानी,
राग द्वेष पुद्गल की संगति निहचे शुद्ध निशानी 12
तू
मैं मैं की भावना से क्यों प्रसित है ? संसार का हर पदार्थ क्षणभंगुर है पर अविनाशी है मैं मैं काहे करत हैं, तन घन भवन निहार । तू अविनाशी प्रातमा, विनासीत परन्तु माया मोह के चक्कर में पड़कर स्वयं की
संसार ॥
शक्ति को भूल गया है । तेरी हर श्वासोच्छवास के साथ सोहं सोहं के भाव उठते है । यही तीनों लोकों का सार है । तुम्हें तो सोहं - छोड़कर अजपाजप में लग जाना चाहिए। उदयराज जती ने प्रीति को सांसारिक मोह का कारण बताकर उससे दूर रहने का उपदेश दिया है
4.
उदराज कहैं सुरिण श्रातमा इसी प्रीति जिप करें 14
रूपचन्द ने चेतन को चतुर सुजान कहकर अपने शुद्ध वेतन्य स्वरूप को पहचानने के लिए उद्बोधित करते हैं श्रीर कहते है कि पर पदार्थ अपने कभी भी नहीं हो सकते - 'रूपवन्द चितचेति नर, प्रपनी न होइ निदान' (हिन्दी पद संग्रह,
143)
1.
2.
3. सोहं सोहं होत नित, सांस उसास मंझार |
aret ग्ररथ विचारिए, तीन लोक में सार ।
जैसो तसो प्राप, थाप निहपै तजि सोहं ।
अजपा जाप संभार, सार सुख सोहं सोहं | धर्मविलास, पू. 65.
अध्यात्मपदावली, 12, पृ. 342.
1
हिन्दी पद संग्रह, पृ. 115.
भजत छत्तीसी, 37, राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रन्थों की. भाग 2, परिशिष्ट 1, पृ. 142-3 मिश्रबन्धु-व364, हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि, पृ. 151.
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पद 62) 1 क्या प्रोस से कभी प्यास बुझ सकती है ?1 क्या विषय-सुख से कभी सहज शाश्वत सुख प्राप्त हो सकता है ? इसलिए रे चेतन ! पर-पदार्थों से प्रीति मत कर । तुम दोनों का स्वभाव बिल्कुल भित है। तू विवेकी है और पर पदार्थ जड़ हैं। ऐसी स्थिति में तू कहाँ उनमें फँसा हुआ है-जिय जिन करहि पर सों प्रीति । एक प्रकृति न मिलें जासों को मरे तिहि नीति | 2
बुधजन को अज्ञानी जीव के इन कार्यों पर प्रचंभा होता हैं कि वह पाप कर्म को भी धर्म से सम्बद्ध करता है
'पाप काज करि धन को चाहै, धर्म विषै में बताव छ । 3
इसलिए मनराम तो सीधा कह देते हैं- 'चेतन इह घर नाहीं तेरी ।' मिथ्यात्व के कारण ही तूने इसे अपना घर माना है। सद्गुरु के वचन रूपी दीपक का प्रकाश मिलने पर यह तेरा अज्ञान अंधकार अपने प्राय ध्वस्त हो जायेगा । 4
मैया भगवतीदास आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए चेतन को सम्बोधते हुए कहते हैं-रे मूढ, पाल्मा को पहिचान । वह ज्ञान में है और ध्यान में है । न वह मरता है और न उत्पन्न होता है, न राव है न रंक । वह तो ज्ञान निधान है । श्रात्मप्रकाश करता है मोर प्रष्ट कर्मों का नाश करता है । सुनो राय चिदानन्द, तुम अनंत काल से इन्द्रिय सुख में रमण कर रहे हो फिर भी तृप्त
नहीं हुए ।"
साधक श्रात्मसम्बोधन के माध्यम से अपने कृत कर्मों पर पश्चात्ताप करता है जिसे रहस्य भावना की एक विशिष्ट सीढ़ी कही जा सकती है। उसकी यही मानसिक जागरूकता उसे साधना पथ से विमुख नहीं होने देती । चित्त विशुद्ध हो जाने से सांसारिक प्रासक्ति कोसों दूर हो जाती है । फलतः वह श्रात्मचिन्तन में अधिक सघनता के साथ जूट जाता है ।
4. प्रात्मचिन्तन :
जैन दर्शन में सप्त तत्वों में जीव अथवा श्रात्मा को सर्व प्रमुख स्थान दिया गया है। वहां जीव के दो स्वरूपों वर्णन का मिलता है-संसारी और मुक्त | संसार
1
2.
3.
4.
5.
6.
सहज सुख बिन, विषय सुख रस, भोगवत न प्रघात । रूपचन्द चित चेत प्रोसनि, प्यास तों न बुझात ॥
हिन्दी पद संग्रह, पद 37.
वही, पद, 38.
बुधजन विलास, पद 85.
हिन्दी पद संग्रह, पद 352.
ब्रह्मविलास, पुण्यपचीसिका, 13, 23.
वही, 14-15, पृ. 11.
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की free - भिन्न पर्यायों में भ्रमण करने वाला सकर्म जीव संसारी कहलाता है और जब वह अपने कर्मों से विमुक्त हो जाता है तो उसे मुक्त कहा जाता । जीव की इन दोनों पर्यायों कों क्रमशः प्रात्मा और परमात्मा भी कहा गया है । सामान्यतः जीव के लिए चिदानन्द, चेतन, अलक्ष, जीव, समयसार, बुद्धरूप, भबद्ध, उपयोगी, चिद्रूप, स्वयंभू, चिन्मूर्ति, धर्मवन्त, प्राणवन्त, प्राणी, जन्तु, भूत, भवभोगी, गुणवारी, कुलाधारी, भेषधारी, अंगधारी, संगधारी, योगधारी, योगी, चिन्मय, प्रखण्ड, हंस, अक्षर, आत्माराम, कर्म कर्ता, परमवियोगी प्रादि नामों का प्रयोग किया जाता है। और परमात्मा के लिए परमपुरुष, परमेश्वर, परमज्योति, परब्रह्म, पूर्ण, परम, प्रधान, अनादि, अनन्त, धव्यक्त, अविनाशी, भज, निर्द्वन्द, मुक्त, मुकुन्द, प्रम्लान, निराबाध, निगम, निरंजन, निर्विकार, निराकार, संसार - शिरोमणि, सुज्ञान, सर्वदर्शी, सर्वज्ञ, सिद्ध, स्वामी शिव, धनी, नाथ, ईश, जगदीश, भगवान आदि नाम दिये जाते हैं । '
महात्मा श्रानन्दधन
पौराणिक शब्दों और प्रथों को छोड़कर प्रात्मा के राम प्रादि नये शब्द और उनके नये प्रर्थं दिये हैं । 'राम' वह है जो निज पद में रमे 'रहीम' वह है जो दूसरों पर रहम करे, 'कृष्ण' वह है जो कर्मों का क्षय करे, 'महादेव' वह है जो निर्वाण प्राप्त करे, 'पार्श्व' वह है जो शुद्ध श्रात्मा का स्पर्श करे, ब्रह्म वह है जो ग्रात्मा के सत्य रूप को पहिचाने। वह ब्रह्म निष्कर्म मोर विशुद्ध है :
निज पद रमे राम सौ कहिये, रहिम करे रहिमान री । करशे कर्म कान सो कहिये, महादेव निर्वाण री ॥ परसे रूप पारस सौ कहिए, ब्रह्म चिन्हे सो ब्रह्मरी । इह विध साधी आप आनंदघन, चेतनमय निःकर्म री ||
जैनदर्शन वस्तु के सम्पूर्ण स्वरूप पर विचार करने के लिए नय प्रणाली का उपयोग करता है । तदनुसार वस्तु के मूल अथवा शुद्ध स्वरूप को निश्चय नय और अशुद्ध स्वरूप को व्यवहार नय के अन्तर्गत रखा जाता है । जीव की निष्कर्मावस्था पर शुद्ध प्रथवा निश्चयनय से और सकर्मावस्था पर प्रशुद्ध अथवा व्यवहार नय से विचार किया जाता है । मध्यकालीन हिन्दी जैन काव्य में साधकों ने इन दोनों प्रणालियों को यथासमय अपनाया । मात्मा के स्वरूप पर भी उन्होंने इन्हीं दोनों प्रणालियों के आधार पर विचार किया है ।
1. नाटक समयसार, उत्थानिका, 36-37; नाममाला भी देखिये । 2. जैन शोध मोर समीक्षा, पृ. 72.
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शुद्ध चिदानन्दरूप अपना भाव ही शान है उसी से माया-मोहावि दूर हो जाते . हैं और सिद्धि प्राप्त हो जाती है।
ज्ञान निज भाव शुद्ध चिदानन्द,
चीततो मूको माया मोह गेह देखिए ।। मात्मा का मूल गुण ज्ञान है । वह कर्मों के प्रभाव से प्रच्छन्न भले ही हो जाये पर सुप्त नहीं होता। जिस प्रकार सुवर्ण कुधातु के संयोग से अग्नि में अनेक रूप धारण करता है फिर भी वह अपने स्वर्णत्व की नहीं छोड़ता। जीव की यह शुद्धावस्था चैतन्य रूप है, अनन्त गुण, अनंत पर्याय और अनंत शक्ति सहित है प्रमूर्तिक है, शिव है, अखंडित है, सर्वव्यापी है ।
बनारसीदास के नाम पर पीताम्बर द्वारा लिखी ज्ञानवावनी में जीव के स्वरूप को बहुत अच्छे ढंग से प्रस्तुत किया गया है । उसके अनुसार जीव शुद्ध नय से शुद्ध, सिद्ध, ज्ञायक प्रादि रूप है । परन्तु कर्मादि के कारण वह उन्हें प्राप्त नहीं कर पाता । यहीं चिदानन्द को राजा मानकर कर्म पुद्गलों से उसका संघर्ष भी बताया है । साथ ही चेरी, सेना, परमार्थ, प्रपंच, चौपट प्रादि रूपकों के माध्यम से उसके बाह्म स्वरूप को स्पष्ट किया है। बनारसीदास ने जीव के शुद्ध स्वरूप को शिव और ब्रह्म समाधि माना तथा शरीर में उसके निवास को उसी प्रकार बताया जिस प्रकार फल-फूलादि में सुगन्ध, दही-दूध आदि में घी, काठ पाषाणदि में पावक । इसी प्रकार का कथन मुनि महनन्दि का भी है-वे कहते हैं कि जिस प्रकार दूध में घी, तिल से तेल तथा लकड़ी में अग्नि रहती है उसी प्रकार शरीर में प्रात्मा निवास करती है :
तत्वसार दूहा-भट्टारक शुभचन्द्र, 91; हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि,
पृ. 78. 2. नाटक समयसार, जीवद्वार, 9.
नाटक समयसार, उत्थानिका, 20. बनारसीविलास, ज्ञानवावनी, 4. वही, 16-30. वही, ध्यानवत्तीसी, 1. चेतन पुद्गल सौ मिलें, ज्यों तिल में खलि तेल । प्रगट एक से देखिये, यह अनादि को खेल 11411 ज्यों सुवास फल फूल में, दही दूध में घीव । पावर काठ पाषाण में, त्यों शरीर में जीव ।17। वही. मध्यात्मबत्तीसी 4-7, पृ. 143.
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वीरह मह जैम घिउ, तिलह मंकि जिन तिलु । ries arer जिम वसई, तिस देहहि देहिल्लु ॥
1.
2.
बनारसीदास ने प्रात्मा और शिव को सांगरूपक में प्रस्तुत कर शिव समूचे गुण सिद्ध में घटाये हैं। शिव को उन्होंने ब्रह्म, सिद्ध भौर भगवान भी कहा है । समूची शिवपच्चसी में उनके इस सिद्धान्त की मार्मिक व्याख्या उपलब्ध है । तदनुसार जीव और शिव दोनों एक हैं । व्यवहारतः वह जीव है औौर निश्चय नय से वह शिव रूप है । जीव शिव की पूजा करता है और बाद में शिव रूप को प्राप्त करता है । कवि ने यहां निर्गुण और सगुण दोनों भक्ति धाराओं को एकस्व में समाहित करने का प्रत्यन किया है । जीव शिव रूप जिनेन्द्र की पूजा साध्य की प्राप्ति के लिए करता है । बनारसीदास ने अपनी प्रखर प्रतिमा से उसी शिव को सिद्ध में प्रस्थापित कर दिया है । तनमंडप रूप वेदी है उस पर शुभलेश्या रूप सफेदी है । प्रात्म रुचि रूप कुण्डली बनी है, सद्गुरु की वाणी जल-लहरी है उसके सबुत स्वरूप की पूजा होती है । समरस रूप जल का अभिषेक होता है, उपशम रूप रस का चन्दन घिसा जाता है, सहजानन्द रूप पुष्प की उत्पत्ति होती है, गुण गभित 'जयमाल' चढ़ायी जाती है । ज्ञान दीप की शिखा प्रज्ज्वलित हो उठती है, स्याद्वाद का घंटा झंकारता है, अगम अध्यात्म चवर डुलाते हैं, क्षायक रूप धूप का दहन होता है । दान की अर्थ-विधि, सहजशील गुरण का प्रक्षत, तप का नेवज, विमलभाव का फल आगे रखकर जीव शिव की पूजा करता है और प्रवीण साधक फलतः शिवस्वरूप हो जाता है । जिनेन्द्र की कठरणारस वाणी सुरसरिता है, सुमति प्रषगिनी गोरी है, त्रिगुरणभेद नयन विशेष है, विमलभाव समकित शशि-लेखा है । गुरु-शिक्षा उर मे बंधे श्रृंग हैं । नय व्यवहार कंधे पर रखा बाघाम्बर है। विवेकबैल, शक्ति विभूति मंगच्छवि है । त्रिगुप्ति त्रिशूल है, कंठ में विभावरूप विषय विष हैं, महादिगम्बर योगी भेष है, ब्रह्म समाधि छपन घर है अनाहद रूप डमरू बजता है पंच भेद शुभज्ञान है और ग्यारह प्रतिमायें ग्यारह रुद्र हैं । यह शिव मंगल कारण होने से मोक्ष-पथ देने वाले हैं। इसी को शंकर कहा गया है, यही अक्षय निषि स्वामी, सर्वजग अन्तर्यामी और आदिनाथ हैं । त्रिभुवनों का त्याग कर शिववासी होने से त्रिपुर हरण कहलाये । म्रष्ट कर्मों से अकेले संघर्ष करने के कारण महारा हुए । मनोकामना का दहन करने से कामदहन कर्ता हुए । संसारी उन्हीं को महादेव, भु, मोहहारी हर मादि नाम से पुकारते हैं । यही शिवरूप शुद्धात्मा सिद्ध, नित्य मौर निर्विकार है, उत्कृष्ट सुख का स्थान है । साहजिक शान्ति से सर्वांग सुन्दर है,
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राजस्थानी जैन सन्त, व्यक्तित्व एवं कृतित्व, पृ. 174. बनारसीविलास, शिवपच्चीसी 1-24.
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निर्दोष है, पूर्ण ज्ञानी है, विरोधरहित है, प्रनादि अनंत है इसलिए जगत - शिरोमणि है, मारा जगत उनकी जय के गीत गाता है
अविनासी श्रविकार परमरसधाम है । समाधान सर्वज्ञ सहज प्रभिराम है । सुद्ध बुद्ध प्रविरुद्ध अनादि अनन्त है ।
जगत शिरोमनि सिद्ध सदा जयवंत है ||4|| 1
निहालचन्द ने भी सिद्ध रूप निर्गुण ब्रह्म को धोंकार रूप मानकर स्तुति की है । उन्हें वह रूप श्रगम, अगोचर, अलख, परमेश्वर, परमज्योति स्वरूप दिखा - 'प्रादि प्रकार आप परमेसर परम जोति' अगम अगोचर अलख रूप गायी है ।
यह ओंकार रूप सिद्धों को सिद्धि, सन्तों को ऋद्धि, महन्तों को महिमा, योगियों को योग, देवों और मुनियों को मुक्ति तथा भोगियों को मुक्ति प्रदान करता है । यह चिन्तामणि और कल्पवृक्ष के समान है । इसके समान और कोई भी दूसरा मन्त्र नहीं
सिद्धनको सिद्धि, ऋद्धि देहिसंतन को, महिमा महन्तन को देन दिन माही है, जोगी को जुगति हूं, मुकति देव, मुनिन कू, भोगी कू भुगति गति मतिउन पांही है । चिन्तामन रतन, कल्पवृक्ष, कामधेनु, सुख के समाज सब याकी परछांही है, कहैं मुनि हर्षचन्द निषेदेयज्ञान दृष्टि अंकार, मंत्र सम और मन्त्र नाहीं है ॥ बनारसीदास और तुलसीदास समकालीन हैं । कहा जाता है कि तुलसीदास ने बनारसीदास को अपनी रामायण भेंट की और समीक्षा करने का निवेदन किया । दूसरी बार जब दोनो सन्त मिले तो बनारसीदास ने कहा कि उन्होने रामायण को अध्यात्म रूप मे देखा है। उन्होंने राम को श्रात्मा के अर्थ में लिखा है और उसकी समूची व्याख्या कर दी है। श्रात्मा हमारे शरीर में विद्यमान है । अध्यात्मवादी अथवा रहस्यवादी इस तथ्य को समझता है । मिथ्या दृष्टि उसे स्वीकार नहीं करता | आत्मा राम है, उसका ज्ञान गुण लक्ष्मण है, सीता सुमति है शुभोपयोग वानर दल है विवेक ररणक्षेत्र है, ध्यान धनुषटंकार है जिसकी भावाज सुनकर ही विषयभोगादिक भाग जाते है, मिथ्यामत रूपी लंका भस्म हो जाती है, धारणा रूपी नाग
1. नाटक समयसार, 4, पृ. 5. जीवद्वार 2; ब्रह्मविलास - मैया भगवतीदास, सिझाय पृ. 125, सिद्ध चतुर्दशी 141.
हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि,
2.
पृ. 351.
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उठ जाती है, प्रज्ञान भाव रूप राक्षसकुल उसमें जल जाते हैं, निकांक्षित रूप योद्धा लड़ते हैं, रागद्वेष रूप सेनापति जूझते हैं, संशय का गढ़ चकनाचूर हो जाता है, भवविभ्रम का कुम्भकरण विलखने लगता है मन का दरयाव पुलकित हो उठता है, महिरावण थक जाता है। समभाव का सेतु बंध जाता है, दुराशा की मंदोदरी मूर्छित हो जाती है, चरण (चरित्र) का हनुमान जाग्रत हो जाता है, चतुर्गति की सेना घट जाती है, छयक गुण के बाण झूटने लगते है, आत्मशक्ति के चक्र सुदर्शन को देखकर दीन विभीषण का उदय हो जाता है और रावण का सिरहीन जीवित कबंध मही पर फिरने लगता है। इस प्रकार सहजमाव का संग्राम होता है और अन्तरात्मा शुद्ध बन जाता है । बनारसीदास ने भन्त मे यह निष्कर्ष दिया कि रामायण व्यवहार दृष्टि है और राम निश्चय दृष्टि । ये दोनों सम्यक श्रुतज्ञान के अवयव है
विराज रामायण घट माहिं ।। मरमी होय मरम सो जाने, मूरख माने नाहि, ॥ विराज रामायण ॥ टेक पातम 'राम' ज्ञान गुन लछमन 'सीता' सुमति समेत । शभपयोग 'वानरदल' मंडित, वर विवेक 'रणखेत' ॥2॥ ध्यान धनुष टंकार शौर सुनि, गई विषयदिति भाग । भई भस्म मिथ्यामत लका, उठी धारणा प्राग ॥3॥ जरे अज्ञान भाव राक्षसकुल लरे निकांछित सूर । जूझे रागद्वेष सेनापति संसै गढ चकचूर ॥4॥ वलखत 'कुभकरण' भवविभ्रम, पुलकित मनदरयाव । थकित उदार वीर 'महिरावण' सेतुबंध समभाव ॥5॥ मूछित ‘मंदोदरी' दुराशा, सजग चरन 'हनुमान' । घटी चतुर्गति परणति 'सेना' छुटे छपकगुण 'बान' ॥6॥ निरखि सकतिगुन चक्रसुदर्शन उदय विभीषण दीन । फिर कबंध महीरावरण की प्रारणभाव शिरहीम ।। इह विधि सकल साघु घट अंतर, होय सहज संग्राम ।
यह विवहारदृष्टि 'रामायण' केवल निश्चय 'राम' विराजे रामायण ।।। चेतन लक्षण रूप प्रात्मा की तीन भवस्थायें होती हैं-बहिरात्मा अन्तरात्मा पौर परमात्मा । जो शरीर और प्रात्मा को प्रभिन्न मानते हैं वह बहिरात्मा है । उसी को मिथ्यावृष्टि भी कहा गया है । वह विधिनिषेध से अनभिज्ञ होता है और विषयों में लीन रहता है । जो भेद विज्ञान से शरीर और मात्मा को भिन्न-भिन्न मानता है वह
1. बनारसीविलास, अध्यात्मपद पंक्ति, 16, पृ. 233.
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अन्तरात्मा है । इसी को सम्यक् दृष्टि कहा गया है । बनारसीदास ने इन्हीं को कर्ममा प्रथम, मध्यम प्रोर पंडित कहा है । जिनवाणी पर श्रद्धा करने वाला, भ्रमसंशय को करने वाला, समकितवान प्रसंयमी, जघन्य अथवा अधम, अन्तरात्मा है। वैरागी त्यागी, इन्द्रियदंभी, स्वपरविवेकी और देशसंयमी जीव मध्यम अन्तरात्मा है तमा सातवें से लेकर बारहवें गुरणस्थान तक की श्रेणी को धारण करने वाले सुद्धोपयोगी मात्मध्यानी निस्परिग्रही जीव उत्तम अथवा पंडित अन्तरात्मा है। जी सयोग गुणस्थान पर चढ़कर केवलज्ञान प्राप्त करता है वह परमात्मा है । इसके दो भेद है--सकल (सशरीरी) और निकल (अशरीरी) । इन्हीं को क्रमशः पर्हन्त पोर सिद्ध कहा गया है।
त्रिविधिसकल तनुथर गत पातमा, बहिरातमा धुरि भेद । बोजो प्रतर-प्रातम, तिसरो परमातम प्रविछेद ।। प्रातम बुद्धि कायादिक ग्रयो, बहिरातम अधरूप । कायादिक नो सांखीघर रहयो, तर प्रातम रूप ।। ज्ञानानंद हो पूरण पावनो वरजित सकल उपाध । प्रतिन्द्रिय गुणगणमणि प्रागरु इम परमातम साध ॥ बहिरातम तजि प्रतर मातम रूप धई थिर भाव ।
परमातम हो पातमभावक प्रातम परपण दाव ॥2 पास्मा एक स्थिति पर पहुचकर सगुण मौर बाद में निर्गुण रूप हो जाता है । कविवर बनारसीदास ने उसकी इन दोनों अवस्थामो का वर्णन किया है। प्राचार्य योगीन्दु ने इन्ही को क्रमशः सकल और निकल की संज्ञा दी है। सकल का अर्थ है महन्त और निकल का पर्थ है सिद्ध । एक साकार है और
1. बनारसीविलास अवस्थाष्टक, पृ. 185%; छहढाला-दौलतराम 3-4-6%3B
मध्यात्म पंचासिका दोहा-द्यानतराय, हस्तलिखित ग्रन्थों का पन्द्रहवां
वार्षिक विवरण (खोज विवरण) सन् 1932-34, नागरी प्रचारिणी
सभा, वाराणसी. 2. अपभ्रंश और हिन्दी में रहस्यवाद, पृ. 108; ब्रह्मविलास-(भैया भगवती
दास), परमात्मछत्तीसी, 2-5 पृ. 227; धर्मविलास-द्यानतराय, अध्यात्म पंचासिका, पृ. 192. "निगुण रूप निरंजन देवा, सगुण स्वरूप करें विधिसेवा' । बनारसीविलास,
शिवपच्चीसी, 7, पृ. 150. 4. परमात्मप्रकाश, 1-25, पृ. 32.
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दूसरा निराकार । श्रहन्त के चार घातिया कर्म नष्ट हो जाते हैं और शेष चार
तया कर्मों के नष्ट होने तक संसार में सशरीर रहना पड़ता है । पर मन्त आठ कर्मों का नाश कर चुकते हैं और सिद्ध अवस्था प्राप्त कर लेते हैं। उन्हीं को . सगुण और निर्गुण ब्रह्म भी कहा गया है। हिन्दी के जैन कवियों ने दोनों की बड़े भक्तिभाव से स्तुति की है। उन्होंने सिद्ध को ही ब्रह्म कहा है । दर्शन से उन्हें चारों ओर फैला बसन्त देखने मिला है ।
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हीरानन्द मुकीम ने ग्रात्मा विशुद्ध स्वरूप को अलख प्रगोचर बताया तथा धात्मतत्व के अनुपम रूप को प्राप्त करने का उपदेश दिया । इसका पूर्ण परिचय पाये बिना जप तप श्रादि सब कुछ व्यर्थ है उसी तरह जैसे करणों के बिना
षों का फटकना निरर्थक रहता है । धान्य विरहित खेत में बाढ़ी लगाने का अर्थ ही क्या है ? प्रात्मा विशुद्ध स्वरूप निर्विकार, निश्छल, निकल, निर्मल, ज्योतिर्ज्ञान गम्य और शायक है ।" वह 'देवनि को देव सो तो बसै निज देह मांझ, ताकी भूल सेवत प्रदेव देव मानिक' के कारण संसार भ्रमण करता है ।"
5. श्रात्मा-परमात्मा
जैसा कि हम विगत पृष्ठों में कह चुके हैं कि प्रात्मा की विशुद्धतम अवस्था परमात्मा कहलाती है। इस पर भैया भगवतीदास ने चेतन कर्म चरित्र में जीव के समूचे तत्त्वों के रूप में विशद प्रकाश डाला है। एक अन्य स्थान पर भी कवि ने शुद्ध चेतन के स्वरूप पर विचार किया है । वह एक ही ब्रह्म है जिसके प्रसंख्य प्रदेश है, अनन्त गुरण है, चेतन है, अनन्त दर्शन-ज्ञान, सुख-वीर्यवान है, सिद्ध है, भजरअमर है, निविकार है । इसी को परमात्मा कहा गया है ।" उसका स्वभाव ज्ञान
1.
निराकार चेतना कहावे दरसन गुन साकार चेतना सुद्धज्ञान गुन सार है । नाटक समयसार, मोक्षद्वार, 10.
बनारसीदास, नाममाला, ईश के नाम, ब्रह्मविलास, सिद्धचतुर्दशी, 1-3 खानतपद संग्रह 58, बनारसीविलास, मध्यात्मफागु, पृ. 154. अध्यात्मवावनी, गुर्जर कविप्रो, प्रथम भाग, पृ. 466-67.
5.
पांडे रूपचन्द, परमार्थी दोहाशतक, जैत हितैषी, भाग 6, अंक 5-6. 6. मनरामविलास, 15 ठोलियों के दि. जैन मंदिर, वैष्नट नं. 395 में संकलित हस्तलिखित प्रति मनमोदन पंचशती, 42. पृ. 20.
7. एकहि ब्रह्म असंख्य प्रदेश | गुरण घनंत चेतनता मेश ||
2.
3.
4.
शक्ति अनंत लर्स जिस माहि जासम और दूसरी नाहि ||21| परका परस रंच नहि जहां शुद्ध सरूप कहावं तहां ॥ afaarit after अविकार । सो परमातम है निरधार ||6|| ---ब्रह्मविलास, परमात्मा की जयमाल; पू. 104,
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दर्शन है और राग-द्वेष, मोहादि विभाव भात्म परणतियां है । शिव, ब्रह्म मौर सिद्ध को एक माना है । ब्रह्म और ब्रह्मा मे भी एकरूपता स्थापित की है । जैसे ब्रह्मा के चार मुख होते है, वैसे ब्रह्म के भी चार मुख होते है-मांख, नाक, रसना और श्रवण । हृदय रूपी कमल पर बैठकर यह विविध परिणाम करता रहता है पर प्रातमराम ब्रह्म कर्म का कर्ता नही । वह निर्विकार होता है। अनन्तगुणी होता है। प्रात्मा और परमात्मा में कोई विशेष अन्तर नहीं । अन्तर मात्र इतना है कि मोह मेल दृढ़ लगि रह्यो तातै सूझ नाहिं । शुद्धारमा को ही परमेश्वर परमगुरु परमज्योति, जगदीश और परम कहा है ।
6.मात्मा और पुद्गल पुद्गल रूप कर्मों के कारण प्रात्मा (चेतन) की मूल ज्ञानादिक शक्तियां धूमिल हो जाती है और फलतः उसे संसार मे जन्म मरण करना पड़ता है । यह उसका व्यावहारिक स्वरूप है । स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्द प्रकाश धूप, चांदनी, छाया, पंधकार, शरीर, भाषा, मन श्वासोच्छवास तथा काम, क्रोध, मान-माया, लोभ मादि जो भी इन्द्रिय और मनोगोचर हैं वे सभी पौद्गलिक है । देह भी पौद्गलिक है । मन मे इस प्रकार का विचार साधक को भेदविज्ञान हो जाने पर मालूम पड़ने लगता है और वही बहिरात्मा, अन्तरात्मा बन जाता है। अन्तरात्मा सांसारिक भोगों को तुच्छ समझने लगता है और अपनी अन्तरात्मा को विशुद्धावस्था प्राप्त कराने का प्रयत्न करता है।
अन्तरात्मा विचारता है कि प्रात्मा और पुद्गल वस्तुतः भिन्न-भिन्न है पर परस्पर सम्बन्ध बने रहने के कारण व्यवहारतः उन्हें एक कह दिया जाता है । मात्मा और कर्मों का सम्बन्ध अनादिकाल से रहा है। उनका यह सम्बन्ध उसी प्रकार से है जिस प्रकार तिल का खलि और तेल के साथ रहता है। जिस प्रकार
1. ब्रह्मविलास, मिथ्यात्व विध्वस न चतुर्दशी, जयमाल, पृ. 104. 2. वही, सिद्ध चतुदर्शी, 1-4 पृ. 134; सुबुद्धि चौबीसी 7-9 पृ. 159,
फुटकर कविता; पृ. 273. वही, ब्रह्माब्रह्म निर्णय चतुदर्शी, पृ. 171, फुटकर कविता, 1, पृ.
272-73. 4. वही, जिनधर्मपचीसिका, 13 पृ. 214. 5. वही, परमात्मा छत्तीसी, १ पृ. 228. 6. वही, ईश्वरनिर्णयपचीसी, 1 पृ. 252; परमात्मशतक, पृ. 278-29 1.
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चुम्बक लोहे को भाषित करता है उसी प्रकार कर्म चेतन को अपनी ओर खींचता है। चेतन शरीर में उसी प्रकार रहता है जिस प्रकार फल-फूल में सुगन्ध, दूध में दही और घी, तथा काठ में अग्नि रहा करती है। सहज शुद्ध चेतन भाव कर्म की मोट में रहता है और द्रव्य कर्म रूप शरीर से बंधा रहता है। बनारसीदास ने एक उदाहरण देकर उसे स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। कोठी में धान रखी है, पान के छिलके के अन्दर धान्य करण रखा है। यदि छिलके को धोया जाय तो करण प्राप्त हो जायेगा और यदि कोठी (मिट्टी की) को धोया जाय तो कीचड़ बन जायेगी। यहाँ कोठी के रूप में नोकर्म मख हैं. द्रव्य कर्म में धान्य है, भावकर्ममल के रूप में छिलका (चमी) हैं और कण के रूप में प्रष्ट कर्मों से मुक्त भगवान हैं। इस प्रकार कर्म रूप पुद्गल को दो भेद है-भाव कर्म और द्रव्य कर्म । भाव कर्म की गति ज्ञानादिक होती हैं और द्रव्य कर्म नोकर्म रूप शरीर को धारण करता है। एक ज्ञान का परिणमन हैं और दूसरा कर्म का घेर है । ज्ञानचक्र अन्तर में रहता है पर कर्मचक्र प्रत्यक्ष दिखाई देता है। चेतन के ये दोनों भाव क्रमशः शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष के रूप है । निज गुण-पर्याय में ज्ञानचक्र की भूमिका रहती है और पर पदार्थों के गुणपर्याय में कर्मचक्र कारण रहता है । ज्ञानी सजग सम्यग् दर्शन युक्त कर्मों की निर्जरा करने वाला तथा देव-धर्म गुरु का अनुसरण करने वाला होता है पर कर्मचक्र में रहने वाला घनघोर निद्रालु, मन्धा तथा कर्मों का बन्ध करने वाला देव-धर्म गुरु की ओर से विमुख होता है । कर्मवान् जीव मोही मिथ्यात्वी, भेषधारिकों को गुरु मानने वाला, पुण्यवान् को देव कहने वाला तथा कुल परम्परामों को धर्म बताने वाला होता है, पर ज्ञानी जीव वीतरागी निरंजन को देव, उनके वचनों को धर्म
और साधु पुरुष को गुरु कहता है । कर्मबन्ध से भ्रम बढ़ता है और भ्रम से किसी भी वस्तु का स्पष्टत: भान नहीं हो पाता । मोह का उपशम होते ही विभाव परणितियां समाप्त होती जाती हैं तथा सुमति का उदय होता है । उसी से सम्यक् दर्शक-ज्ञान-चारित्र का प्रकाश माता है । शिव की प्राप्ति के लिए सुमति की प्राप्ति ही मुख्य उपाय है।
1. हिन्दी पद संग्रह, भट्टारक रत्नकीर्ति, पृ. 3. 2. ज्यों कोठी में धान थो. चमी मांहि कनबीच ।
चमी धोय कम राखिये, कोठी धोए कीच ॥11॥ कोठी सम नोकर्म मल, द्रव्य कर्म ज्यों धान । भावकर्ममल ज्यों, चमी, कन समान भगवान ।।12। बनारसी विलास,
प्रध्यातम बत्तीसी 11-12, पृ. 144. 3. वही, अध्यातम बत्तीसी, 13-32.
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श्रात्मा का यही मूल रूप है --मोह कर्म मम नाहीं नाहि भ्रमकूप है, शुद्ध चेतना सिंधु हमारी रूप है।
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जिस प्रकार कोई नटी वस्त्राभूषणों से सजकर नाट्यशाला में परदे की नोट में झाकर जब बड़ी होती है तो किसी को दिखाई नहीं देती पर जब उसके दोनों घर के परदे अलग कर दिये जाते हैं तो दर्शक उसे स्पष्ट रूप से देखने में सक्षम हो जाते हैं। वैसे ही यह ज्ञान का समुद्ररूप प्रारमा मिध्यात्व के प्रावरण से ढंका था । उसके दूर होते ही प्रात्मा ने अपनी मूल ज्ञायक शक्ति प्राप्त कर ली :जैसे कोऊ पातुर बनाय वस्त्र ग्रामरन, प्रावति प्रखारे निसि माड़ी पट करिकै । दुहं कर दीबटि संवारि पट दूरि कीज, सकल सभा के लोग देखें दृष्टि धरिकै ॥ तैसें ग्यान सागर मिध्याति ग्रंथि भेदि करि, उमग्यो प्रकट रह्यो तिहूं लोक भरिकै ॥ ऐसो उपदेस सुनि चाहिए जगत जीव,
शुद्धता संभारे जग जालसो निसरिके ॥ 2
मिथ्यात्व कर्म के उदय से जीव अध्यात्म और रहस्य साधना की ओर उन्मुख नहीं हो पाता । वह देह मौर जीव को अभिन्न मानकर सारी भौतिक साधना करता है। मोह, ममता, परिग्रह, विषय भोग श्रादि संसार के कारणों को दूर कर श्रात्मज्ञानी कर्म-निर्जरा में जुट जाता है । संसारी का मन तृष्णा के कारण धर्म-रूप अंकुश को उसी तरह नहीं स्वीकार करता जैसे महामत्त गजराज प्रकुश से भी वश में नहीं हो पाता । इस मन को वश में करने के लिए ध्यान-समाधि प्रौर सद्गुरु का उपदेश उपयोगी होते हैं। कंचन जिस प्रकार किसी परिस्थिति में अपना स्वभाव नहीं छोड़ता
1.
2.
3.
नाटक समयसार, जीवद्वार, 13.
नाटक समयसार, जीवद्वार, 35 g. 52.
देह मौर जीव के सम्बन्ध की प्रशानता ही मिथ्यात्व है दीघनिकाय के ब्रह्म जाल सुरत में इस प्रकार की 62 मिध्यादृष्टियो का उल्लेख है - 18 प्रादि सम्बन्धी और 44 भन्त सम्बन्धी । इनमें शाश्वतवाद, भ्रमरविक्षेपवाद, उच्छेदवाद, तज्जीवतच्छरीरवाद, संज्ञीवाद, प्रसंज्ञीवाद जैसे वाद अधिक प्रसिद्ध थे । सूभकृतांग में सप्ततत्त्व या नव पदार्थों के प्राधार पर बही संख्या 363 बतायी गई है । क्रियावाद 180, प्रक्रियावाद 84, अज्ञानवाद 67 और daforare 32 | जैन बौद्ध साहित्य में यह परम्परा लगभग समान है । बिशेष देखिए - डॉ. भागचन्द्र भास्कर की पुस्तक बौद्ध संस्कृति का इतिहास, प्रथम अध्याय ।
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उसे पकाने के बाद शुद्ध कर लिया जाता है किसे ही वात्मा का मूल समाव जान पष्ट नहीं हो सकता। उसे भेदविज्ञान के माध्यम से मोहादि के प्रावरण को दूर कर परमात्मपद प्राप्त कर लिया जाता है।
इस प्रकार चेतन और पुद्गल, दोनों पृथक् है । पुद्गल (देह) कर्म की पर्याय है और चेतन शुद्ध बुद्ध रूप है । चेतन मोर पुद्गल के इस अंतर को भैया भगवतीदास ने बड़े साहित्यिक ढंग से स्पष्ट किया है। इन दोनों में वहीं अन्तर है जो शरीर पौर वस्त्र में है। जिस प्रकार शरीर वस्त्र वही हो सकता और न वस्त्र शरीर । लाल वस्त्र पहिनने से शरीर लाल नहीं होता । जिस प्रकार वस्त्र जीर्ण-शीर्ण होने से शरीर जीर्ण-शीर्ण नहीं होता 'उसी तरह शरीर के जीर्ण-शीर्ण होने से प्रात्मा जीणे-शीर्ण नहीं होता । सरीर पुद्गल की पर्याय है और उसमें चिदानन्द रूप मात्मा का निवास रहता है। इसी को कविवर बनारसीदास ने अनेक उदाहरण देकर समझाया है।
सोने की म्यान में रखी हुई लोहे की तलवार सोने की कही जाती है परन्तु जब वह लोहे की तलवार सोने की म्यान से अलग की जाती है तब भी लोग उसे लोहे की ही कहते हैं । इसी प्रकार घी के संयोग से मिट्टी के घड़े को घी का पड़ा कहा जाता है परन्तु वह घड़ा घी रूप नहीं होता, उसी तरह शरीर के सम्बन्ध से जीव छोटा, बड़ा. काला, व गोरा पादि अनेक नाम पाता है परन्तु यह शरीर के समान अचेत नहीं हो जाता।
खांडो कहिये कनकको, कनक-म्यान-सयोग । म्यारो निरखत म्यानसौं, लोह कहैं सब लोग ॥7॥ ज्यों घट कहिये धीव को, घट को रूप न धीव। त्यौं वरनादिक नाम सौं, जड़ता लहै न जीव ॥812
1. लाल वस्त्र पहिरेसों देह तो न लाल होय, लाल देह भये हंस लाल तो न
मानिये। वस्त्र के पुराने भये देह न पुरानी होय, देह के पुराने जीव जीरन न जानिये॥ बसन के नाश भगे देह को न नाश होय, देह के न नाश हंस नाश न बधानिये। देह दर्व पुद्गल की चिदानन्द ज्ञानमयी, दोऊ भिन्न-भिन्न रूप 'भैया' उर मानिये ||lon
(ब्रह्मविलास, पाश्चर्य चतुर्दशी, 10, पृ. 191.) 2. नाटक समयसार, पजीबद्वार, 7-9 पृ. 58-60,
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प्रात्मचिन्तन के सन्दर्भ में साधक मात्मा के मूल स्वरूप पर उक्त प्रकार से विचार कर उसके साथ कर्मों के स्वरूप पर भी विचार करता है। इस विचारणा से उसके प्राra- art की प्रक्रिया ढीली पड़ जाती हैं, रागादिक भाव शिथिल हो जाते हैं तथा संवर- निर्जर का मार्ग प्रशस्त हो जाता है । 7. चित्तशुद्धि
जैन रहस्य साधना मे चित्त शुद्धि का विशेष महत्व है। उसके बिना किसी भी क्रिया का कोई उपयोग नहीं । सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र की प्राप्ति के लिए अन्तः कारण का शुद्ध होना श्रावश्यक है । जो बाह्यलिंग से लिंग से रहित है वह फलतः आत्मपथ से भ्रष्ट और मोक्ष क्योंकि भाव ही प्रथम लिंग है, द्रव्यलिंग कभी भी परमार्थ प्राप्ति में कारणभूत नहीं होता । शुद्ध भाव ही गुण-दोष का कारण होता है। 2 बाह्य क्रिया से श्रात्महित नहीं होता इसलिए उसकी गणना बन्ध पद्धति मे की गई है। वह महादुःखदायी है। योगीन्दुमुनि और मुनिरामसिंह जैसे रहस्य साधकों ने कबीर से पूर्व बाह्य क्रियायें करने वाले योगियों को फटकारा है और अपनी आत्मा को धोखा देने वाले कहा है । चित्त शुद्धि के बिना मोक्ष कदापि प्राप्त नहीं हो सकता । "
4
बनारसीदास ने भी यही कहा कि यदि स्व-पर विवेक जाग्रत नहीं हुआ तो सारी क्रियाये श्रात्मशुद्धि बिना मिथ्या हैं, निरर्थक हैं। * मैया भगवतीदास भी प्रात्म शुद्धि के पक्षपाती थे ।" पांडे हेमराज ने इसी तरह कहा कि शुद्धात्म का अनुभव किये बिना तीर्थ स्थान, शिर मुंडन, तप-तापन श्रादि सब कुछ व्यर्थ है - "शुद्धातम अनुभौ बिना क्यों पावै सिवषेत 16 वही मोक्ष मार्ग का विशेष साधन है-
युक्त है किन्तु प्रभ्यन्तर
पथ का विनाशक है । 1
1.
मोक्ख पाहुड़, 61
2.
भाव पाहुड़, 2.
3. पाहुड़, दोहा 135, परमात्म प्रकाश, 2.70 ॥
4.
बनारसी बिलास, मोक्षपेड़ी, 8 T. 132. ब्रह्मविलास, शत अष्टोत्तरी 11, पृ. 10.
5.
उपदेश दोहाशतक, 5-18.
मदनमोहन पंचशती, छत्रपति, 99, पृ. 48.
6.
7.
भाव बिना द्रव्य नाहि, द्रव्य बिना लोक नाहि,
लोक बिना शून्य सब मूल भूत भाव हैं।"
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शुद्ध भाव की प्राप्ति हो जाने पर पर पदार्थों से भरुचि हो जाती है, संशयादिक दोष दूर हो जाते है, विधि निषेध का ज्ञान हो जाता है, रागादिक वासना दूर होकर निवेद भाव जाग्रत हो जाता है। इसलिए शुद्धभाव और प्रात्मज्ञान के बिना किया गया मिथ्या दृष्टि का करोड़ों जम्मों का बाललप उतने कर्मों का विनाश नहीं कर पाता जितना सम्यग्ज्ञानी जीव क्षण मात्र में कर डालता। इसलिए कवि दौलतराम शुद्ध भाव माहात्म्य को समझकर कह उठते हैं-मेरे कब है वा दिन की सुपरी।
तन विन वसन असन बिन बन में निवसी नास दृष्टि धरि ।। पुण्य पाप परसों कब विरचों, परचों निजविधि चिर-बिखरी। तज उपाधि, सज सहज समाधि सहों धाम-हिम मेघ झरी।। कब थिर-जोग घरों ऐसों मोहि उपल जान मृगखाज हरी । ध्यान-कमान तान अनुभवशर, छेदों किहि दिन मोह परी॥ कव तन कंचन एक गनों प्ररु, मनि जड़ितालय शैल दरी।।
दौलत सदगुरु चरनन सेऊं जो पुरवी प्राश यहै हमारी ॥
भावशून्य बाह्य क्रियानों का निषेधकर साधक अन्तरंग शुद्धि की ओर अग्रसर होता है । वह समझाने लगता है कि अपने आपको जाने बिना देहाश्रित क्रियायें करना तथा-निर्वेद हुए बिना कठिन तप करना व्यर्थ है इसलिए दौलतराम कहते हैं कि यदि तू शिव पद प्राप्त करना चाहता है तो निज भाव को जानो।
यह चित्तविशुद्धि प्रात्मालाचन गभित होती है। प्रात्मालोचन के बिना साधक आत्मविकास की ओर सफलतापूर्वक पग नहीं बढ़ पता। प्रात्मालोचन और प्रात्मशोधन परस्पर गुथे हुए हैं । जैन कवियों ने इन दोनों क्षेत्रों में सहजता और सरलतापूर्वक प्रात्म दोषों को प्रगट कर चित्तविशुद्धि की मोर कदम बढ़ाये हैं-1 रूपचन्द को इस बात का पश्चात्ताप है कि उन्होंने अपना मानुस जन्म व्यर्थ खो दिया 'मानुस जन्म वृथा तें खोयो' (हिन्दी षद संग्रह, पद 46) । द्यानतराय (धानत विलास, पद 21) कवि चिन्ता ग्रस्त है कि उसे वैराग्य भाव कब उदित होगा-"मेरे मन कब हवे है वैराग" (द्यानत पद संग्रह, पद 241) यही सोचते-सोचते वे कह उठते हैं
1. वही, 103-105. 2. अध्यात्म पदावली, पृ. 341.
शिव चाहै तो द्विविध धर्मत, कर निज परनति न्यारी रे। दौलत जिन जिन भाव पिछाण्यो, तिन भवविपति विदारी रे॥ वही, पृ. 332.
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'दुविधा कम जे है या मन की' । कब निजनाथ निरंजन सुमिरौ तज सेवा जन-जन की । कबरुचि सौंपी दूग चातक, द्वन्दा श्रलय पद धन की । कब सुभ ध्यान धरौं समना गहि करूं न ममता तन की। कब घट अन्तर रहे निरन्तर दिढ़ता सुगुरु वचन की । कब सुख ल्हों भेद परमारथ, मिटे धारना धन की । कब घर खांड़ होहु एकांकी, लिये लालसा बन की । ऐसी दसा होय कब मेरी हौं बलि-बलि वा धन की ॥
- (हिन्दी पद, सग्रह, पद 80 ) दौलतराम "हम तो कबहुं न निजगुन आये" कह 'निज घर नाहिं पिछान्यौ रे' कह उठते हैं । विद्यासागर भी "मैं तो या भन व्यक्त कर करते हैं । ये भाव साधक की प्रांतरिक हैं जिनमें परमात्मा के साक्षात्कार की गहन माशा प्राध्यात्मिक प्रगति के सोपान चढ़ता रहता है ।
योंहि गमायो" कहकर यही भाव पवित्रता से उत्पन्न मार्मिक स्वर जुडी हुई है जिसके बल पर वह
इस प्रकार जैन धर्म में अन्तरंग की विशुद्धि पर विशेष जोर दिया गया है । इसलिए बनारसीदास ने ज्ञानी और अज्ञानी की साधना के फल मे अन्तर दिखाते हुए स्पष्ट कहा है-
जाके चित्त जैसी दशा पंडित भव खंडित करें,
ताकी तैसी दृष्टि । मूढ बनावे सृष्टि ॥
स्व-पर का विवेक भेदविज्ञान कहलाता है । उसका प्रकाश आदिकाल से लगे हुए जीव के कर्म और मोह के नष्ट हो जाने पर होता है । सम्यग्दृष्टि ही भेदविज्ञानी होता है । उसे भेदविज्ञान सांसारिक पदार्थों से ऐसे पृथक् कर देता है जैसे प्रग्नि स्वर्ण को किट्टिका आदि से भिन्न कर देती है ।" रूपचन्द इसी को सुप्रभात कहते हैं- "प्रभु मोकौं अब सुप्रभात भयो ।" वह मिथ्याभ्रम, मोहनिद्रा, क्रोधादिक कषाय, कामविकार श्रादि नष्ट होने पर प्राप्त होता है । यही मोक्ष का कारण है 1 3 8. भेदविज्ञान
भेदविज्ञान होने पर चेतन को स्वानुभव होने लगता है अन्य पक्ष के स्थान पर अनेकान्त की किरण प्रस्फुटित हो जाती है, श्रानन्द कन्द ममन्द मूर्ति में मन रमण करने लगता है । इसलिए भेदविज्ञान को 'हिये की प्राखें' कहा गया है ।
बनारसी विलास, कर्म छत्तीसी, 37,
नाटक समयसार, जीवद्वार, 23.
1.
2.
3. हिन्दी पद संग्रह, दु. 36.
4.
वही, पृ. 36-37.
पृ. 139.
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जिसके प्राप्त होने पर अमृतरस बरसने लगता है पौर परमार्थ स्पष्ट दिखाई देने. लगता है। जैसे कोई व्यक्ति धोबी के घर जाकर दूसरे के कपड़े पहन लेता है और यदि इस बीच उन कपड़ों का स्वामी प्राकर कहता है कि मे कपड़े मेरे हैं तो वह मनुष्य अपने वस्त्र का चिन्ह देखकर त्याग बुद्धि करता है, उसी प्रकार यह कर्म संयोगी जीव परिग्रह के ममत्व से विभाव में रहता है अर्थात् शरीरादि को अपना मानता है । परन्तु भेदविज्ञान होने पर जब स्व-पर का विवेक हो जाता है तो वह रागादि भावों से भिन्न अपने स्वस्वभाव को ग्रहण करता है। जिस प्रकार पारा काष्ठ के दो खण्ड कर देता है, अथवा जिस प्रकार राजहंस क्षीर-नारी का पृथक्करण कर देता है उसी प्रकार भेदविज्ञान अपनी भेदन-शक्ति से जीव भोर पुद्गल को जुदाजुदा करता है । पश्चात् यह भेदविज्ञान उन्नति करते-करते अवधिशान मनः पर्ययशान और परमावधि ज्ञान की अवस्था को प्राप्त होता है और इस रीति से वृद्धि करके पूर्ण स्वरूप का प्रकाश अर्थात् केवलज्ञान स्वरूप हो जाता है जिसमें लोकमलोक के सम्पूर्ण पदार्थ प्रतिबिम्बित होते हैं
जैसे करवत एक काठ बीच खण्ड करें, जैसे राजहंस निखारै दूध जलकौं । तंसे भेदग्यान निज भेदक सकतिसेती,
भिन्न-भिन्न कर चिदानन्द पुद्गल कौं ।।3 शुद्ध, स्वतन्त्र, एकरूप, निराबाघ भेदविज्ञान रूप तीक्ष्ण करौंत अन्तःकरण में प्रवेश कर स्वभाव-विभाव और जड़ चेतन को पृथक्-पृथक् कर देता है वह भेदविज्ञान जिनके हृदय में उत्पन होता है उन्हें शरीर प्रादि पर वस्तु का भाव नहीं सुहाता । वे प्रात्मानुभव करके ही प्रसन्न होते हैं और परमात्मा का स्वरूप
1. बही, बनारसीदास, पृ. 59. 2. जैसें कोऊ जन गयो धोबीक सदन तिन,
पहिरयो परायो वस्त्र मेरो मानि रही है। धनि देखि कह्यो भैया यह तो हमारी वस्त्र, तैसे ही मनावि पुद्गलसों संजोगी जीव, संग के ममत्व सौं विभाव तामैं ब्रह्मा है । भेदज्ञान भयो जब पापी पर जान्यौ तब,
न्यारी परभावसौं स्वभाव निज गही है । नाटक समयसार, बीवहार,32. 3. नाटक समयसार, अजीबद्वार, 14 पृ. 64,
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पहचानते हैं। इसलिए भेदविज्ञान को संवर, निर्जग और मोक्ष का कारण माना गया है ।" भेदविज्ञान के बिना शुभ-अशुभ की सारी क्रियायें भागवद् भक्ति, बाह्यतप प्रादि सब कुछ निरर्थक है । भेदविज्ञान अपनी ज्ञान शक्ति से द्रव्य कर्म-भावकर्म को नष्ट कर मोहान्धकार को दूर कर केवल ज्ञान की ज्योति प्राप्ति करता है । कर्म और नोकर्म से न छिप सकने योग्य अनन्त शक्ति प्रकट होती है जिससे वह सीधा मोक्ष प्राप्त करता है
भेदविज्ञान को ही श्रात्मोपलब्धि कहा गया है। इसी से चिदानन्द अपने सहज स्वभाव को प्राप्त कर लेता है । पीताम्बर ने ज्ञानवावनी में इसी तथ्य को काव्यात्मक ढंग से बहुत स्पष्ट किया है। 5 बनारसीदास ने इसी को कामनाशिनी पुण्यपापताहरनी, रामरमणी, विवेकसिंहचरनी, सहज रूपा, जगमाता रूप सुमतिदेवी कहा है । मेया भगवतीदास ने "जैसो शिवखेत तेसो देह में विराजमान, ऐसो लखि सुमति स्वभाव मे पगते है ।"" कहकर "ज्ञान बिना बेर-बेर क्रिया करी फेर-फेर, कियो कोऊ कारज न प्रातम जतन को " कहा है। कवि का चेतन जब श्रनादिकाल से लगे मोहादिक को नष्ट कर अनन्तज्ञान शक्ति को पा जाता है तो कह उठता है
1.
2.
3.
4.
5.
6.
7.
जैसी कोऊ मनुष्य प्रजान महाबलवान, खोदि मूल वृच्छ को उखारं गहि बाहू सौं । तैसे मतिमान दर्व कर्म भावकर्म त्यागि, रहे अतीत मति ग्यान की दशाहू सौं । याही क्रिया अनुसार मिटै मोह अन्धकार जग जोति केवल प्रधान सविताहू सौं । चुके न सुकतीसों लुकं न पुद्गल माहि धुकं मोख थलको रुकं न फिर काहू सौ ॥
8.
बही, संवरद्वार, 3 पृ. 183.
वही, संवरद्वार, 6, पृ. 125.
वही, निर्जराद्वार, 9, पृ. 135
वही, पृ. 210.
बनारसी विलास, ज्ञानवावनी, पृ. 72-90. वही, नवदुर्गा विधान, पृ. 7, पृ. 169-7C. ब्रह्मविलास, शत प्रष्टोत्तरी, 34.
वही, परमार्थं पद पंक्ति, 14, पृ, 114.
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" देखी मेरी सखीये भाज चेतन घर भावं ।
काल अनादि फिरयो परवश ही अब निज सुधहि चितावं ||"
भेदविज्ञान रूपी तरुवर जैसे ही सम्यक्त्वरूपी धरती पर ऊंगता है वैसे ही उसमें सम्यग्दर्शन की मजबूत शाखायें प्रा जाती हैं, चारित्र का का दल लहलहा जाता है, गुरण की मंजरी लग जाती है, यश स्वभावतः चारों दिशाओं में फैल जाता है । दया, वत्सलता, सुजनता, आत्मनिन्दा, समता, भक्ति, विराग, धर्मराग, मनप्रभावना, त्याग, धैर्य, हर्ष, प्रवीणता प्रादि अनेक गुण गुणमंजरी में गुथे रहते हैं । " afa भूवरदास को भेदविज्ञान हो जाने पर प्राश्चर्य होता है कि हर श्रात्मा में जब अनन्तज्ञानादिक शक्तियां हैं तो संसारी जीव को यह बात समझ में क्यों नहीं श्राती । इसलिए वे कहते हैं
161
पानी विन मीन प्यासी, मोहे रह-रह भावं हांसी रे ||
द्यानतराय आत्मा को सम्बोधते हुए स्वयं श्रात्मरमण की ओर झुक जाते हैं और उन्हें प्रत्मविश्वास हो जाता है कि 'अब हम भ्रमर भये न मरेंगे ।' भेदविज्ञान के द्वारा उनका स्वपर विवेक जाग्रत हो जाता है और वे प्रात्मानुभूतिपूर्वक चिन्तन करते हैं । यब उन्हे चर्मचक्षुत्रों की भी प्रावश्यकता नहीं। अब तो मात्र मात्मा की अनन्तशक्ति की ओर उनका ध्यान है । सभी वैभाविक भाव नष्ट हो चुके हैं और आत्मानुभव करके संसार- दुःख से छूटे जा रहे हैं
हम लागे श्रातमराम सौं । विनाशीक पुद्गल की छाया, कौन रमै धन-धान सौं ॥ समता सुख घट में परगार-यो, कौन काज है काम सौं । दुविधाभाव जलांजलि दीनो मेल भयो निज स्वाम सौं । भेदज्ञान करि निज पर देख्यौ, कौन विलौकं चाम सौं । उरं परं की बात न भावे, लौ लागी गुरण -ग्राम सौं ॥ विकलप भाव रंक सब भाजं, भरि चेतन प्रभिराम सौं ।
'द्यान ' मातम अनुभव करि के, छूटे भव-दुख घाम सौं ।
afa छत्रपति ने भी भेदविज्ञान के माहात्म्य का सुन्दर वर्णन किया है ।"
1.
वही, शतप्रष्टोतरी, 64.
2. वही, गुरणमंजरी, 2–6, पृ. 126.
3.
हिन्दी पद संग्रह, पृ.
अध्यात्म पदावली, 47, पृ. 358.
4.
5. मनमोदनपत्र, 76, पृ. 36.
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162
स्वर - विवेक रूप यह भेदविज्ञान साधक के सन में संसार भौर पदार्थ के स्वरूप को स्पष्ट कर देता है और उससे सम्बद्ध रागादिक विकारों को दूर करने में सहायक होता है । उसके मन में रहस्य भावना की प्राप्ति घोर उसकी साधना के प्रति प्रात्मविश्वास बढ़ जाता है और फलतः वह रत्नत्रय की प्राप्ति की और अग्रसर होता है ।
9. रत्नत्रय
रत्नत्रय का तात्पर्य सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का समन्वित रूप है। इन तीनों की प्राप्ति ही मुक्ति का मार्ग है। यह मार्ग भेदविज्ञान के द्वारा प्राप्त होता है । भेदविज्ञान को ही सम्यग्ज्ञान कहा गया है। सम्यग्ज्ञानी वही है जिसे श्रात्मा का यथार्थ ज्ञान हो, परमार्थ से सही प्रेम हो, सत्यवादी और निविरोधी हो, पर पदार्थों में प्रासक्ति न हो, अपने ही हृदय में आत्म हित की सिद्धि, प्रात्मशक्ति की ऋद्धि और प्रात्मगुणों की वृद्धि प्रगट दिखती हो तथा प्रात्मीय सुख से प्रानंदित हो । 2 इसी से आत्मस्वरूप की पहिचान होती है प्रोर साधक समझ लेता है
'अब ग्यान कला जागी भरम की दृष्टि भागी,'
अपनी परायी सब सौज पहिचानी है ।"
सम्यग्ज्ञानी इन्दियजनित सुख-दुख से अभिरुचि हटाकर शुद्धात्मा का अनुभव करता है तथा दर्शन ज्ञान- चरित्र को ग्रहण कर प्रात्मा की भाराधना करता है । 4 ज्ञान रूपी दीपक से उसका मोह रूपी महान्धकार नष्ट हो जाता है । उस दीपक मे fear भी 'ग्रा नहीं रहता, हवा के झकोरों से बुझता नहीं, एक क्षण भर में कर्मपतंगों को जला देता है, बत्ती का भोग नहीं, घृत तेलादि की भी श्रावश्यकता नहीं, मांच नहीं, राग की लालिमा नहीं । उसमें तो समता, समाधि और योग प्रकाशित रहते हैं, निःशंकित, निकांक्षित, निर्विचिकित्सा, प्रमूढदृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सत्य और प्रभावना ये म्राठ श्रंग जाग्रत हो जाते हैं ।" कुल जाति, रूप, ज्ञान, घन, बल, तप, प्रभुता, ये प्राठ मद दूर हो जाते हैं, कुगुरु,
सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग : तत्वार्थ सूत्र 1, 1.
नाटक समयसार, उत्थानिका, 7, पृ. 7.
1.
2.
3. वही, कर्ता कर्म द्वार, 28 पृ. 87.
4.
वही, निर्जराद्वार, 8, 9, 19 संवर द्वार 5. 5. वही, निर्जराद्वार, 38, 60.
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कुदेव, कुधर्म, कुगुरु सेक्क, कुदेवसेवक मोर कुपसेवक ये छह बनायतन, कुमुझसेका, कुदेवसेवा मोर कुमर्मसेवा ये तीन मूख्खायें सम्यक्त्वी के दूर हो जाती हैं।
सम्यग्ज्ञानी जीव, सदैव प्रात्मचिन्तन में लगा रहता है। उसे दुनिया के अन्य किसी कार्य से कोई प्रयोजन नहीं होता। मानस्थन ने एक अच्छा उदाहरण दिया है । जैसे ग्रामवधुएं पांच-साख सहेलियां मिलकर पानी भरके घर की भोर चलीं । रास्ते में हंसती इठलाती चलती हैं पर उनका ध्यान निरन्तर बड़ों में लगा रहता है । गायें भी उदर पूर्ति के लिए जंगल जाती हैं, वास चाटती है, चारों दिशामों में फिरती हैं, पर उनका मन अपने बछड़ों की-मोर लगा रहता है। इसी प्रकार सम्यक्त्वी का भी मन अन्य कार्यों की पोर झुका रहने पर भी ब्रह्म-साधना की ओर से विमुख नहीं होता।
सात पांचसहेलियां रे हिल-मिल पाणीड़े जाय । ताली दिये खल हंस, वाकी सुरत गगरुपामायं । उदर भरण के कारणों रे गउवां बन में जाय ।
चारों पर पहुं दिसि फिरें, वाकी सुरत बछरूमा मायं ॥2 भैया भगवतीदास ने सम्यक्त्व को सुगति का दाता और दुर्गति का विनाशक कहा है। छत्रपति की दृष्टि में जिस प्रकार वृक्ष की जड़ और महल की मींव होती है वैसे ही सम्यक्त्व धर्म का मादि और मूल रूप है। उसके बिना प्रशमभाव, श्रुतज्ञान, व्रत, तप, व्यवहार प्रादि सब कुछ भले ही होता रहे पर उनका सम्बन्ध प्रात्मा से न हो, तो वे व्यर्थ रहती हैं, इस प्रकार सम्यक्त्व के बिना भी सभी क्रियायें सारहीन होती है।
भूधरदास का कवि सम्यक्त्व की प्राप्ति से वैसा ही प्रफुल्लित हो जाता है जैसे कोई रसिक सावन के माने से रसमान हो उठता है। मिथ्यात्वरूपी ग्रीष्म व्यतीत हो गया, पावस बड़ा सुहावना लगने लगा। मात्मानुभव की दामिनि दमकने लगी, सुरति की धनी घटायें छाने लगीं । विमल विक रूप पपीहा बोलने
1. दौलतराम, 3. 11-15. 2. जैनशोध और समीक्षा, पृ. 132, नाटक समवसार, निर्जराद्वार, 34. 3. ब्रह्मविलास, पुण्यपचीसिका, 8-10 पृ. 3-4.
विरच्छ के जर वर महल के नींव जैसे, धरम की मादि से सम्यकदरश है। या बिन प्रशमभाव श्रुतज्ञान त तप, विवहार होत है न मातम परत है। जैसें विन बीज अल साधन न अन्न हेत, रहत हमेश परशेय को तरस है 12711 मनमोदन, 27, पृ. 13.
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लगे, सुमति रूप सुहागिन मन को रमने लगी, साधक भात्र मंकुरित हो गये, हर्षवेग मा गया, समरस का जल झरने लगा। कवि अपने घर में प्रा गये, फिर बाहिर जाने की बात उनके मन से चली गयीं
'अब मेरे समकित सावन मायो ।' बीति कुरीति मिथ्यामति ग्रीषम पावस सहज सुहायो । प्रब ॥1॥ अनुभव दामिनि दमकन लागी, सुरति घटा घन छायो । बोलें विमल विवेक पपीहा, सुमति सुहागिन पायो । अब ॥2॥ गुरुधुनि गरज सुनत सुख उपज, मोर सुमत विहसायो। साधक भाव अकूर उठे बहु, जित तित हरण सवायो । अब ॥3॥ भूल भूलकहि भूल न सूझत, समरस जल झरलायो । भूधर को निकसै अब बाहिर, निज निरचू घर पायो ।। अब 1401
सम्यग्दर्शन के साथ ज्ञान और चारित्र का भी सम्बन्ध है । शुद्धज्ञान के साथ शुद्ध चरित्र का अंश रहता है। इससे ज्ञानी जीव हेय, उपादेय को सही ढंग से समझाता है । उसका वैराग्य पक जाता है, राग, द्वेष, मोह से उसकी निवृति हो जाती है, पूर्वोपार्जित कर्म निजीर्ग हो जाते हैं और वर्तमान तथा भविष्य में उनका बन्ध नहीं होता । ज्ञान और वैराग्य, दोनों एक साथ मिलकर ही मोक्ष के कारण होते हैं । जैसे किसी जगल में दावानल लगने पर लंगड़ा मनुष्य अंधे के कधे पर चढ़े पौर उसे रास्ता बताता जाये तो वे दोनो परस्पर के सहयोग से दावानल से बच जाते हैं । उसी प्रकार ज्ञान और चारित्र मे एकता मुक्ति प्राप्ति के लिए आवश्यक है । ज्ञान आत्मा का स्वरूप जानता है और चारित्र अात्मा में स्थिर होता है ।। रूपचन्द ने दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन तीनो का सामुदायिक रूप ही साध्य की प्राप्ति में कारण बताया है। दर्शन से वस्तु के स्वरूप को देखा जाता है, ज्ञान से उसे जाना जाता है और चारित्र से उस पर स्थिरीकरण होता है। द्रव्यसंग्रह में भी यही बात कही गयी है।
मुक्ति का मार्ग सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की समन्वित अवस्था है। इस अवस्था की प्राप्ति भेदविज्ञान के द्वारा होती है । अन्तरंग और बहिरंग सभी प्रकार
1. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 147. 2. नाटक समयसार, सर्वविशद्धि द्वार, 82-85. 3 दोहा परमार्थ, 58-62, बधीचन्द मंदिर, जयपुर के शास्त्र भण्डार में
सुरक्षित.
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के परिग्रहों से दूर रहकर परिषह सहते हुए सप करने से परम पद प्राप्त होता है। साधक पात्मानुभव करने पर कहने लगता है हम लागे पातमराम स्रो। उसके मात्मा में समता सुख प्रगट हो जाता है, दुविधाभाव नष्ट हो जाता और भेदविज्ञान के द्वारा स्व-पर का विवेक जाग्रत हो जाता है । इसलिए पानतराय कहने लगते मातम अनुभव करना रे भाई।' भेदविज्ञान जब तक उत्पन्न नहीं होता तब तक जन्म-मरण का दुःख सहना पड़ता है । सिद्धान्त ग्रन्थों का अध्ययन, व्रत तप, संयम मादि प्रात्मज्ञान के विना निरर्थक हैं। इसलिए कवि रागादिक परिणामों को त्यामकर समता से लौ लगाने का संकल्प करता है, क्षायक श्रेणी चढ़कर चरित मोह का नाश करना चाहता है, क्रमशः पातिया-अघातिया कर्मों को नष्ट कर महन्त और सिद्ध अवस्था प्राप्त करने की बात करता है । उसकी संकल्प पूति की प्रातुरता 'मातम जानो रे भाई' और कभी 'करकर प्रातम हित रे प्रानी' कह उठता है। जब भेदविज्ञान हो जाने का उसे विश्वास हो जाता है तो 'मब हम मातम को पहिचानी', दुहराकर 'मोहि कब ऐसा दिन प्राय है' कह जाता है । ससार की स्वार्थता देखकर उसे यह भी अनुभव हो जाता है-दुनिया मतलब की गरजी, अब मोहे जान
भया भगवतीदास ने राग द्वेष को जीतना, क्रोध मानादिक माया-लोभ कषामों को दूर करना, मुक्ति प्राप्ति के लिए आवश्यक बताया है । वे भेदविज्ञान को निजनिधि मानते है । उसको पाने वाला ब्रह्म ज्ञानी है और वही शिवलोक की निशानी कही गयी है । विश्वभूषण ने अनेकान्तवाद के जागते ही ममता के भाग जाने की बात कही और उसी को मुक्ति प्राप्ति का मार्ग कहा। वह उस योगी में
1. हिन्दी पद सग्रह, धानतराय, पृ. 109-141. 2. हिन्दी पद संग्रह, द्यानतराय, पृ. 109-141.
जबलों रागद्वेष नहिं जीतय तबलों, मुकति न पावै कोइ । जबलों क्रोधमान मनधारत, तबलों सुगति कहो ते होई॥ जबलों माया लोभ बसे उर, तबलों सुख सुपनै नहिं जोइ । एपरि जीत भयो जो निर्मल, शिव संप्रति विलसत है सोइ ।।451
ब्रह्मबिलास, शत प्रष्टोतरी, 45, पृ. 18. 4. निजनिधि पहिचानी तब भयो ब्रह्मज्ञानी,
शिवलोक की निशानी माप में घरी घरी ॥ वही, सुबुद्धि चौबीसी, 12
पृ. 16.
5. पद संग्रह, दि. जैन मंदिर बडौत, 49, हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि,
पृ. 263.
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श्री
fee लगाना चाहता है जिसने सम्यक्त्व की डोरी से शील के कछोटा को बांध रखा है। ज्ञान रूपी गूदड़ी गले में लपेट ली है। योग रूपी प्रासन पर बैठा है। वह मादि गुरु का बेला है। मोह के काम फड़वाये हैं। उनमें शुक्ल ध्यान की बनी मुद्रा बहती है। क्षयकरूपी सिंगी उसके पास है जिसमें करुणानुयोग का' नाद निकलता है । वह प्रष्ट कर्मों के उपलों की घुमी रमाता हे और की अग्नि जलाता है उपशम के छन्ने से छानकर सम्यक्त्व रूपी जाल से मल-मलकर महाता है । इस प्रकार वह योग रूपी सिंहासन पर बैठकर मोक्षपुरी जाता है। उसने गुरु की सेवा की है जिससे उसे फिर कलियुग में न धाना पड़े ।
इस प्रकार जैन साधक रहस्य- साधना के साधक तत्त्वों पर स्वानुभूतिपूर्वक चलने का उपक्रम करता है । वह सद्गुरु अथवा स्वाध्याय के माध्यम से संसार की क्षणभंगुरता तथा अनित्यशीलता पर गम्भीर चिन्तन कर शनैः-शनैः सम्यक्त्व के सोपन पर चढ़ जाता है । साधनात्मक रहस्य भावना की प्रवृत्तियों का जन्म तथा सांगोपांगता पर विचार करने के साथ ही इन प्रवृत्तियों में सहज योग साधना तथा समरसता के भाव जाग्रत होते है । साधक इन्हीं भावनाओंों के आधार पर स्वात्मा के उतर विकास पर पहुचने का मार्ग प्रशस्त कर लेता है ।
1. वही, पन्ना 49, दि. जैन भक्ति काव्य और कवि, पृ. 263.
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सप्तम परिवर्त रहस्य भावनात्मक प्रवृत्तियाँ
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रहस्य भावना के बाधक तत्त्वों को दूरकर साधक, साधक तत्त्वो को प्राप्त करता है और उनमें रमण करते हुए एक ऐसी स्थिति को प्राप्त कर लेता है जब उसके मन में संसार से वितृष्णा और वैराग्य का भाव जाग्रत हो जाता है । फलतः वह सद्गुरु की प्रेरणा से प्रारमा की विशुद्धावस्था में पहुंच जाता है। इस अवस्था में साधक का प्रात्मा परमात्मा से साक्षात्कार करने के लिए आतुर हो उठता है और उस साक्षात्कार की अभिव्यक्ति के लिए वह रूपक, माध्यात्मिक विवाह, प्राध्यात्मिक होली, फागु मादि साहित्यिक विधामों का अवलम्बन खोज लेता है। मध्यकालीन हिन्दी जैन काव्यों में इन विधानों का विशेष उपयोग हुमा है। उसमें साधनात्मक और भावनात्मक दोनों प्रकार की रहस्य साधनामों के दिग्दर्शन होते है। साधना की चिरन्तनता, मार्मिकता संवेदनशीलता, स्वसवेदनता, भेदविज्ञान मादि तत्वों ने साधक को निरंजन, निराकार, परम वीतराग प्रादि रूपों में पगे हुए साध्य को प्राप्त करने का मार्ग प्रस्तुत किया है और चिदानन्द बैतन्यमय ब्रह्मानन्द रस का खूब पान कराया है। साथ ही परमात्मा को अलख, प्रगम, निराकार, अध्यातमगम्य, परब्रह्म, ज्ञानमय, चिद्रूप, निरंजन, अनक्षर, अशरीरी, गुरुगुसाई, प्रगूड प्रादि शब्दों का प्रयोग कर उसे रहस्यमय बना दिया है। दाम्पत्य लक प्रेम का भी सरल प्रवाह उसकी अभिव्यक्ति के निझर से झरता हुमा दिखाई देता है । इन सब तत्वों के मिलन से जैन-साषकों का रहस्य परम रहस्य बन जाता है।
प्रस्तुत परिवर्त में साधक का पात्मा बहिरास्मा से मुक्त होकर अन्तरात्मा की पौर मुड़ता है । अन्तरात्मा बनने के बाद तथा परमात्मपद प्राप्ति के पूर्व, इन दोनों अवस्थामों के बीच में उत्पन होने वाले स्वाभाविक भावों की अभिव्यक्ति
1. बनारसी विलास, जिनसहननाम
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को ही रहस्यभावनात्मक प्रवृत्तियों का नाम दिया गया है । इन प्रवृत्तियों में मध्यकालीन हिन्दी जैन कवियों ने प्रपत्ति (भक्ति) सहज योग साधना और समरसता तथा रहस्य भावना का विशेष रूप से उपयोग किया है। हम भागे इन्हीं तत्त्वों का विवेचन करेंगे। 1. प्रपत्त मावना :
रहस्य साधना में साधक परमात्मपद पाने के लिए अनेक प्रकार के मार्ग अपनाता है। जब योग साधना का मार्ग साधक को अधिक दुर्गम प्रतीत होता है तो वह प्रपत्ति का सहारा लेता है। रहस्य साधकों के लिए यह मार्ग अधिक सुगम है । इसलिए सर्वप्रथम वह इसी मार्ग का अवलम्बन लेकर क्रमशः रहस्य भावना की चरम सीमा पर पहुंचता है । रहस्य भावना किंवा रहस्यवाद की भूमिका चार प्रमुख तत्त्वों से निर्मित होती है-आस्तिकता, प्रेम और भावना, गुरु की प्रधानता और सहज मार्ग । जैन साधको की प्रास्तिकता पर सन्देह की अावश्यकता नहीं । उन्होंने तीर्थकरों के सगुण
और निर्गुण, दोनो रूपो के प्रति अपनी अनन्य भक्ति-भावना प्रदशित की है। उनकी भगवद प्रेम भावना उन्हे प्रपन्न भक्त बनाकर प्रपत्ति के मार्ग को प्रशस्त करती है।
'प्रपत्ति' का तात्पर्य है-अनन्य शरणागत होने अथवा प्रात्मसमर्पण करने की भावना । भगवद् गीता मे "शिष्यस्तेहं शाधि मां त्वं प्रपन्नम्" कहकर इसे और अधिक स्पष्ट कर दिया है। नवधा भक्ति का भी मूल उत्स प्रपत्ति है। प्रतः हमने यहा 'प्रपत्ति' शब्द को विशेष रूप से चुना है। भागवत्पुराण की नवधा भक्ति के 9 लक्षण माने गये है-श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन (शरण) अर्चना, वन्दना दास्यभाव, सख्यभाव और प्रात्म निवेदन । कविवर बनारसीदास ने इसमें कुछ अंतर किया है। ये तत्त्व हीनाधिक रूप से सगुण और निर्गुण, दोनों प्रकार की भक्ति साधनामो मे उपलब्ध होते है । भक्ति के साधनों मे कृपा, रागात्मक सम्बन्ध, वैराग्य ज्ञान और सत्संग प्रमुख है। प्रपत्ति मे इन साधनो का उपयोग होता है। पांचरात्र लक्ष्मी सहिता मे प्रपत्ति की षड्विधाये दी गई हैं-प्रानुकूल्य का संकल्प, प्रातिकूल्य का विसर्जन, सरक्षण, एतद्रूप विश्वास गोप्तृत्व रूप मे वरण, प्रात्मनिक्षेप और
1. भगवद्गीता, 27.4. 2. श्रवण कीर्तन विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सत्यमात्मनिवेदनम् ॥ 3. श्रवन कीरतन चितवन सेवन बन्दन ध्यान ।
लघुता समता एकता नोधा भक्ति प्रवान ॥ नाटक समयसार, मोक्षद्वार, 8, पृ. 217.
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कार्पण्य भाव ।। प्रपतिभाव के अतिरिक्त नारद भक्तिसूत्र में साध्य रूरा प्रेमाभक्ति । को ग्यारह मासक्तियां बतायी हैं-गुणमाहात्म्यासक्ति, रूपासक्ति, दास्यासक्ति, सख्यासक्ति, पूजासक्ति, स्मरणासक्ति, कान्त्यासक्ति, वात्सल्यासक्ति, प्रात्मनिवेदनासक्ति, तन्मयासक्ति, और परमविरहासक्ति । दास्यासक्ति में विनयभाव का समावेश है। विनय के अन्तर्गत दीनता मानमर्षता, भयदर्शना, मसना, माश्वासन, मनोराज्य
और विचारणा ये सात तत्त्व पाते हैं । पश्चात्ताप, उपालम्भ आदि भाव भी प्रपत्ति मार्ग में सम्मिलित हैं लगभग ये सभी भाव भक्ति साधना में दृष्टिगोचर होते है।
जन साधना में भक्ति का स्थान मुक्ति के लिए सोपानवत् माना गया है। भगवद् भक्ति का तात्पर्य है-अपने इष्टदेव में अनुराग करना । अनुराग के साथ ही विनय, सेवा, उपासना, स्तुति, शरणगमन मादि क्रियायें विकसित हो जाती हैं। इस सन्दर्भ में पर्युपासना शब्द का भी प्रयोग हुमा है । उपासगदसामो में पर्युपासना का क्रम इस प्रकार मिलता है-उपगमन, अभिगमन, पादक्षिणा, प्रदक्षिणा, बंदरण नमस्सरण एवं पर्युपासना । स्तवन, नामस्मरण, पूजा, सामायिक प्रादि के माध्यम से भी साधक अपनी भक्ति प्रदर्शित करता हुमा साधना को विशुद्धतर बनाने में जुटा रहता है हिन्दी जैन कवियों ने इन सभी प्रकारों को अपनाकर भक्ति का माहात्म्य प्रस्थापित किया है।
कविवर बनारसीदास ने भक्ति के माहात्म्य को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि हमारे हृदय में भगवान की ऐसी भक्ति है जो कभी तो सुबद्धि रूप होकर कुबुद्धि को मिटाती है, कभी निर्मल ज्योति होकर हृदय में प्रकाश डालती है। कभी दयालु होकर चित्त को दयालु बनाती है, कभी अनुभव की पिपासा रूप होकर नेत्रों को स्थिर करती है, कभी भारती रूप होकर प्रभु के सन्मुख माती है, कभी सुन्दर वचनों में स्तोत्र बोलती है । जब जैसी अवस्था होती है तब तैसी क्रिया करती है
कबहूं सुमति है कुमतिको निवास करै, कबहूं विमल जोति अन्तर जगति है। कबहूं दया है चित करत दयाल रूप, कबहूं सुलालसा है लोचन लगति है। कबहूं भारती के प्रभु सनमुख प्राव, कबहूं सुभारती व्हं बाहरि बगति है।
1. मानुकूल्यस्य संकल्पः प्रातिकल्पस्य वर्जनम् ।
रक्षिष्यतीति विश्वासो गोप्तृत्ववरणं तथा।
मात्म निक्षेपकार्पण्ये षड्विधा शरणागतिः ॥" 2. इसके विस्तृत विवेचना के लिए देखिये-डॉ. प्रेमसागर जैन के सोष प्रबन्ध
का प्रथम भाग जैन भक्ति काव्य की पृष्ठभूमि।
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घरं दसा जैसी तब करें रीति तैसी ऐसी, हिरवे हमारे भगवंत की भगति है ।"
जैन साधना के क्षेत्र में दस प्रकार की भक्तियाँ प्रसिद्ध हैं-सिद्ध भक्ति, श्रुत भक्ति, चरित्र भक्ति, योगि भक्ति, प्राचार्य भक्ति, पंचमहागुरु भक्ति, वैत्य भक्ति, वीर भक्ति, चतुविशति तीर्थंकर भक्ति और समाधि भक्ति । इनके प्रतिरिक्त निर्वारण भक्ति, नंदीश्वर भक्ति और शांति भक्ति को भी इसमें सम्मिलित किया गया है । भक्ति के दो रूप हैं - निश्चय नय से की गई भक्ति और व्यवहार नय से की गई भक्ति । निश्चय नय से की गई भक्ति का सम्बन्ध वीतराग सम्यग्दृष्टियों के शुद्ध प्रात्म तत्त्व की भावना से है और व्यवहार नय से की गई भक्ति का सम्बन्ध सराग सम्यग्दृष्टियों के पंच परमेष्ठियों की आराधना से है । व्यवहार में उपास्य को कर्म, दुःख मोचक आदि बनाकर भक्ति की जाती है पर वह अन्तरंग भावों के सापेक्ष होने पर ही सार्थक मानी गई है अन्यथा तहीं । नवधा भक्ति प्रादि के माध्यम से साधक निश्चय भक्ति की मोर प्रसारित होता है। इसी को प्रपत्ति मार्ग कहा जाता है ।
उपर्युक्त प्रपत्ति मार्ग के प्रमुख तत्वो के प्राधार पर हम यहाँ मध्यकालीन हिन्दी जैन कवियों द्वारा अभिव्यक्त रहस्य भावनात्मक प्रवृत्तियों का संक्षिप्त प्रव लोकन करेंगे । बनारसीदास ने नवधा भक्ति में सर्वप्रथम श्रवरण को स्थान दिया है। श्रवण का तात्पर्य है अपने प्राराध्य देव के उपदेशों का सम्यक् श्रवरण करना श्रीर तदनुकूल सम्यक्ज्ञान पूर्वक आचरण करना । भक्त के मन में भाराध्य के प्रति श्रद्धा और प्रेम भावना का अतिरेक होता है । श्रतः मात्र उसी के सुनकर अपने जीवन को कृतार्थ माना है । वह अपने अंगो की सार्थकता को तभी स्वीकार करता है जबकि वे प्राराध्य की ओर झुके रहें । मनराम ने इसी मनोवैज्ञानिक तथ्य को इस प्रकार अभिव्यक्त किया है
उपदेश आदि को
चरन सफल मनराम वहे गनि, जे परमारथ के पथ धावहि ॥
इसी को ध्यानतराय ने 'रे जिय जनम लहो लेह' कहकर चरण, जिहवा, श्रोत्र
श्रादि की सार्थकता तभी मानी है जब वे सद्गुरु की विविध उपासना में जुटे रहें । 2
1.
2.
न सफल निरषँ जु निरजन, सीस सफल नमि ईसर भावहि । श्रवन सफल विहि सुनत सिद्धांतहि मुषज सफल जपिय जिन नांवहि । हिर्दो सफल जिहि धर्मवसे ध्रुव, करज सुफल पुन्यहि प्रभु पावहि ।
3.
नाटक समयसार, उत्थानिक, पृ. 11-12.
मनराम विलास, 90, ठोंलियों का वि जैन मन्दिर, जयपुर, वेष्टन नं. 305.
खानत पद संग्रह, 9, पू. 4, कलकत्ता,
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भक्त कवि ने अपने माराध्य को गुण कीर्तन करके अपनी भक्ति प्रकट की है । वह पाराध्य में प्रसीम गुणों को देखता है पर उन्हें अभिव्यक्त करने में असमर्थ होने के कारण कह उठता है--
प्रभु मैं किहि विधि युति कर्रा सेरी। पावर कहत पार नहिं पावै, कहा बुद्धि है मेरी ॥ शक्र जनम भरि सहस जीम धरि तुम जस होत न पूरा । एक जीभ कैसे गुण गावे उछू कहे किमि सूरा ।। चमर छत्र सिंहासन बरनों, ये गुण तुमते न्यारे । तुम गुण कहन वचन बल नाहीं नैन गिनै किमि तारे ॥
भगवत् गुण कीर्तन से भक्त को भोग पद, राज पद, ज्ञान पद, चक्री और इन्द्र पद ही नहीं मिलते बल्कि शाश्वत पद भी मिल जाता है इसलिए विनयप्रभ उपाध्याय ने कहा है-एह माहप्प तुह सयल जगि गज्जए। उन्हें परमाराध्य भगवद् गुण कीर्तन 'पुन्य भंडार भरेसुए, मानव भव सफल करे सुए का कारण प्रतीत होता है । इस गुण कीर्तन से मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है-'बांधित फल बहु दान दातार, सारद सामिण वीन" और भवबंधन क्षीण होता है-'भव बंधन खीणो समरसलीणो, ब्रह्म जिनदास पाय वंदयो ।' भट्टारक ज्ञानभूषण की दृष्टि में ये गुण भगवान में उसी प्रकार भरे हैं जैसे शरदकालीन सरोवर में निर्मल जल भरा रहता है
माहे नयन कमल दल सम किल कोमल बोलइ वाणी।
शरद सरोवर निर्मल सकल प्रकल गुण खानि ॥ भगवान् महावीर कलिकाल के समस्त पापों को नष्ट करने वाले हैं। उनका
1. वही, 45.
सीमन्बर स्वामी स्तवन, 19. मजित शांति स्तवन, जैन लोप्त संदोह, अहमदाबाद, सन् 1932. धमपालरास, मंगलाचरण, मामेर मास्व मंडार, जयपुर में सुरक्षित हस्त
लिखित प्रति. 5. मिथ्या दुकड़, 1(मंतिम) भामेर शास्त्र मंडार जयपुर की हस्तलिखित प्रति. 6. मादीश्वर फागु, 145, मामेर शास्त्र मंगर जमपुर की हस्तलिखित प्रति. 7. मनस्तमित्तनत संधि-हरिचन्द, दि. जैन बड़ा मंदिर जयपुर की हस्तलिखित
प्रति, गटका नं. 171.
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172 स्वरूप निर्विकार, निश्चल, निकल और ज्ञानगम्य है जिसने उसे जान लिया उसे संसार में मौर कुछ करने की प्रावश्यकता नहीं रह जाती।।
कविवर द्यानतराय ने पार्श्वनाथ स्तोत्र में तीर्थकर पार्श्वनाथ की महिमा का अनेक प्रकार से गुणगान किया है
दुखी दुःखहर्ता सुखी सुक्खकर्ता । सदा सेवकों को महानन्द भर्ता ॥ हरे यक्ष राक्षस भूतं पिशाचं । विषं डांकिनी विघ्न के भय प्रवाचं ॥3॥ दरिद्रीन को द्रव्य के दान दीने । अपुत्रीन कों तु भले पुत्र कीने ॥
महासंकटो से निकार विधाता। सबे संपदा सर्व को देहि दाता ॥402
पं. रूपचन्द्र प्रभु की अनन्त गुण गरिमा से प्रभावित होकर कह उठते है'प्रभु तेरी महिमा को पावै ।' कविवर बुधजन भी 'प्रभु तेरी महिमा वरणी न जाई कहकर, इसी भाव को अभिव्यक्त करते हैं। इसीलिए भक्त कवि भावविभोर होकर कह उठते है-गणधर इन्द्र न करि सके तुम विनती भगवान । विनती प्राप निहारिक कीजै पाप समान ।
साधक गुण प्राराध्य कीर्तन कर उसके चिन्तवन मे अपने को लीन कर लेना है। उसके नाम स्मरण से ही उसकी सारी इच्छाये पूर्ण हो जाती हैं। उसके लिए भगवान काम धट-देवमणि और देवतरु के समान लगते हैं। भट्टारक कुमुदचन्द्र ने इसी तथ्य को 'नाम लेत सहू पातक चूरे' कहकर अभिव्यक्त किया है। मुनिचरित्रसेन नेमिनाथ के समाधिमरण का स्मरण करने के लिए कहते हैं जिससे अन्तःकरण का समचा विष नष्ट हो जाता है-'नेमि समाधि सुमरि जिय बिसु नासइ ।' प्रभु का स्मरण करके ब्रह्मरायमल्ल का मन अत्यत उत्साहित होता है-'तोह सुमिरण मन होइ उछाह तो हुआ छ अरु होय जी सी।' इससे पठारह दोष दूर हो जाते हैं और
1. निर्विकार निश्चल निकल निर्मल ज्योति
ग्यानगम्य ग्यायक कहां लो ताहि बरनौं । निहर्च सरूप मन राम जिन जानौ ऐसी, नाको पौर कारिज रहयो न कछ करनी।। मनराम विलास, ठोलियों के दि. जैन मंदिर जयपुर में सुरक्षित हस्तलिखित
प्रति, वेष्टन नं. 395. 2. वहज्जिनवाणी संग्रह, कलकत्ता से प्रकाशित । 3. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 26. 4. वही, पृ. 206. 5. सीमन्धर स्वामी स्तवन-विनयप्रभ उपाध्याय, 6. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 17. 7. जैन पंचायती में दिल्ली में सुरक्षित हस्त. लि. प्र. .
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छयालीस गुरण उत्पन्न हो जाते हैं। भैया भगवतीदास के लिए प्रभु का नामस्मरण कल्पवृक्ष, कामधेनु, चिन्तामणि और अमृत-सा लगता है जो समस्त दुःखों को नष्ट करने वाला और सुख प्राप्ति का कारण है। बानतराय प्रमु के नामस्मरण के लिए मन को सचेत करते हैं जो अघजाल को नष्ट करने में कारण होता है
रे मन भज-भज दीन दयाल ॥ जाके नाम लेत इक खिन में, कट कोटि प्रध जाल || पार ब्रह्म परमेश्वर स्वामी, देखत होत निहास । सुमरण करत परम सुख पावत, सेवत भाजे काल ॥1॥ इन्द्र फणिन्द्र चक्रधर गावै, जाको नाम रसाल । जाके नाम ज्ञान प्रकास, नास मिथ्याजाल ॥3॥ जाके नाम समान नहीं कछु, ऊरष मध्यपताल ।
सोई नाम जपो नित धानत, छांडि विष विकराल ॥4॥ प्रभु का यह नामस्मरण (चितवन) भक्त तब तक करता रहता है जब तक वह तन्मय नहीं हो जाता। 'जैनाचार्यों ने स्मरण और ध्यान को पर्यायवाची कहा है । स्मरण पहले तो रुक-रुककर चलता है, फिर शनैः शनैः उसमें एकान्तता पाती जाती है, और वह ध्यान का रूप धारण कर लेता है । स्मरण में जितनी अधिक तल्ली. नता बढ़ती जायेगी वह उतना ही तद्रूप होता जायेगा । इससे सांसारिक विभूतियों की प्राप्ति होती अवश्य है किन्तु हिन्दी के जैन कवियों ने प्राध्यात्मिक सुख के लिए ही बल दिया है । प्रभु के स्मरण पर तो लगभग सभी कवियों ने जोर दिया है किन्तु ध्यानवाची स्मरण जैन कवियों की अपनी विशेषता है । इस प्रकार के ध्यान से भक्त कवि का दुविधाभाव समाप्त हो जाता है और उसे हरिहर ब्रह्म पुरन्दर की सारी निधियां भी तुच्छ लगने लगती हैं। वह समता रस का पान करने लगता है। समकित दान मे उसकी सारी दीनता चली जाती है और प्रभु के गुणानुभव के रस के मागे भौर किसी भी वस्तु का ध्यान नहीं रहता
हम मगन भये प्रमु ध्यान में विसर गई दुविधा तन मन की, अचिरा सुत गुन गान में ।। हरि-हर-ब्रह्म-पुरन्दर की रिषि, पावत नहिं कोउ मान में ।
1. प्रद्युम्न परिव, 1, भामेर शास्त्र भंडार जयपुर में सुरक्षित हस्तलिखित प्रति. 2. ब्रह्मविलास, कुपंथ पचीसिका, 3, पृ. 180. 3. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 125-26. 4. हिन्दी जैन भक्ति काव्य मोर कवि, पृ. 16-17.
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चिदानन्द की मौज मची है, समता रस के पान में। इतने दिन तू नाहिं पिछान्यो, जन्म गंवायो पजाम में। अब तो अधिकारी है बैठे, प्रभु मुन पखय खजान में । गई दीनता सभी हमारी, प्रभु तुझ समकित दान में।
प्रभु गुन अनुभव के रस मागे, मावत नहिं कोई ध्यान मे ॥ जगजीवन भी प्रभु के ध्यान को बहुत कल्याणकारी मानते हैं। धानतराय मरहन्त देव का स्मरण करने के लिए प्रेरित करते हैं। वे स्यातिलाभ पूजादि छोड़कर प्रभु के निकटतर पहुंचना चाहते हैं। इसी प्रकार एक पद में मन को इधरउपर न भटकाकर जिन नाम के स्मरण की सलाह दी है क्योंकि इस से संसार के पातक कट जाते हैं
जिन नाम सुमरि मन बावरे, कहा इत उत भटके । विषय प्रगट विष बेल है इनमें मत अटके ।। द्यानत उतम भजन है कीजै मन रटके ।
भव भव के पातक सवै बैंहे तो कटके ।।* भक्त कवि अपने इष्टदेव के चरणों में बैठकर उनका उपदेश सुनता है। फलतः उसके राग द्वेष दूर हो जाते हैं और वह सदैव भगवान के चरणों में रहकर उनकी सेवा करना चाहता है । बनारसीदास ने भगवान की स्तुति करते हुए उन्हें देवों का देव कहा है। उनके चरणों की सेवा कर इन्द्रादिक देव भी मुक्ति प्राप्त कर लेते है। कवि मठारह दोषों से मुक्त प्रभु की चरण सेवा करने की माकांक्षा व्यक्त करता है
1. जसविलास-~-यशोविजय उपाध्याय, सज्झाय पद अने स्तबन संग्रह में
मुद्रित । 2. करिये प्रभु ध्यान, पाप कटं भवभव के या मै बहोत भलासे हो ।
हिन्दी पद संग्रह, पृ. 178. प्ररहंत सुमरि मन बावरे ।। ख्याति लाभ पूजा तजि भाई । प्रतर प्रभु लौं जाव रे ॥ वही, पृ. 139. वही, पृ. 138. इसके पतिरिक्त 'सुमिरन प्रभु जी की कट रे प्रानी, पृ. 164, परे मन सुमरि देव जिनराय, पृ. 187 भी दृष्टव्य हैं। सीमन्धर स्वामी स्तवन, 14-15. चतुर्विशति जिनस्तुति, जैन गुर्जर कविमी, तृतीय भाग, पृ. 1479, देखिये चेतन पुद्गल ढमाल, 29, दि. जैन मंदिर नागदा 'दी में सुरक्षित हस्तलिखित प्रति.
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जगत में सौ देवन को देव । जासु चरन परसै इन्द्रादिक होय मुकति स्वमेव । नहीं तन रोग न श्रम नहि चिन्ता, दोष मठारह मेव ।
मिटे सहज जाके ता प्रभु की करत बनारसि सेव ।। कुमुदचन्द्र भी प्रभु के चरण-सेवा की प्रार्थना करते हैं--प्रमु पाय लागों करू', सेव थारी, तू सुनलो अरज श्री जिनराज हमारी।' मैया भगवतीदास प्रमु के चरणों की शरण में जाकर प्रबल कामदेव की निर्दयता का शिकार होने से बचना चाहते हैं। प्रानंदधन संसार के सभी कार्य करते हुए भी प्रभु के चरणों में उसी प्रकार मन लगाना चाहते हैं जिस प्रकार गायों का मन सब जगह घूमते हुए भी उनके बछड़ों में लगा रहता है--
ऐसे जिन चरण चित पद लाउं रे मना,
ऐसे परिहंत के गुण गाऊं रे मना । उदर भरण के कारणे रे गउवां बन में जाय,
चारो चहुं दिसि फिर, बाकी सुरत बछरू मा माय ॥
भगवतीदास पार्श्वजिनेन्द्र की भक्ति में अगाध निष्ठा व्यक्त करते हुए संसारी जीव को कहते है कि उसे इधर-उधर भटकने की प्रावश्यकता नहीं हैं। उसकी रात. दिन की चिन्ता पार्श्वनाथ की सेवा से ही नष्ट हो जायेगी--
काहे को देशदिशांतर धावत, काहे रिझावत इन्द्र नरिद । काहे को देवि प्रो देव मनापत, काहे को शीस नवावत चंद ॥ काहे को सूरज सीं करजोरत, काहे निहोरत मूढ़ मुनिंद।
काहे को सोच करे दिन रैन तू, सेवत क्यों नहिं पार्व जिनंद ॥
जगतराम प्रभु के समक्ष अपनी भूल को स्वीकार करते हुए कहते हैं जिन विषय कषाय रूपी नागों ने उसे उसा है उससे बचने के लिए मात्र भापका भक्ति
1. हिन्दी पद संग्रह, भूमिका, पृ. 16-17. 2. हिन्दी जैन भक्ति काम्य और कवि, पृ. 132. 3. तेरी ही सरण जिम जारे न बसाय याको सुमटा सौ पूजे तोहि-मोहि ऐसी
भायौ है । ब्रह्मविलास, जैन शोष पौर समीक्षा, पृ. 55. 4. पानंदघन पद संग्रह, अध्यात्मज्ञान प्रसारक मंडल बंबई, सं. 1971, पद
95, पृ. 413. 5. ब्रह्माविलास, फुटकर कविता, पृ. 91.
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गड ही सहायक सिद्ध हो सकता है ।" खुशालचन्द काला भगवान् की चरण सेवा का प्राश्रय लेकर संसार सागर से पार होना चाहते हैं 'सुरनर सेस सेवा करें जी चरण कमल की वोर, भमर समान लग्यो रहे जी, निसि-पासर भोर ॥12 कविवर दौलतराम अपने आराध्य के सिवा और किसी की चररण सेवा में नहीं जाना चाहते है
कवि बुधजन को भी जिन पारण में जाने के बाद मरण का कोई भय नहीं दिखाई देता । वह भ्रमविनाशक, तत्त्व प्रकाशक प्रौर भवदधितारक है
1.
सुरपति नरपति ध्यान घरत वर, करि निश्चय दुःख हरन को ||2|| या प्रसाद ज्ञायक निज मान्यौ, जान्यौ तन जड़ परन को । निश्चय सिसौ पे कवायतें, पात्र भयो दुख भरन को 1|3|| प्रभु बिन और नही या जग में, मेरे हित के करन को । बुधजन की अरदास यही है, हर संकट भव फिरन को 114113 मध्यकालीन हिन्दी जैन कवियों ने स्तुति श्रथवा वन्दनापरक सैकड़ों पद श्रौर गीत लिखे हैं । उनमें भक्त कवियों ने विविध प्रकार से अपने आराध्य से rrant की है। भट्टारक कुमुदचन्द्र पार्श्व प्रभु की स्तुति करके ही अपने जन्म
2.
जाउं, कहां शरन तिहारी ॥
चूक अनादि तनी या हमारी, माफ करों करुगा गुन धारं ॥ डुबत हों भवसागर में ब, तुम बिन को मोहि पार निकारं || सुन सम देव सबर नहि कोई, तातें हम यह हाथ पसारे || मौसम प्रघम अनेक ऊबारे, बरनत हैं गुरु शास्त्र अपारे । दौलत को भवपार करो प्रब. प्रायो है शरनागत थारे । 3
3.
4.
हम शरन गह्यो जिन चरन को ।
बौरन की मान न मेरे, डर हुरह्यो नहि मरनको ||1|| भरम विनाशन तत्त्व प्रकाशन, भवदधि तारन तरन को ।
प्रभु बिन कौन हमारी सहाई । ........
जैन पदावली, काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिका 15वां त्रैवार्षिक विवरण, संख्या 95; हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि, पृ. 256.
चौबीस स्तुति पाठ, दि. जैन पंचायती मंदिर बड़ौत, संभवनाथजी की विनती, गुटका नं. 47, हिन्दी जन भक्ति काव्य और कवि, पृ. 335.
दौलत जैन पद संग्रह, पद 18, पृ. 11, इसी तरह का एक अन्य पद नं. 34 भी देखिये, हिन्दी पद संग्रह - द्यानतराय, पृ. 140.
बुधजन विलास, पृ. 28-29.
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सफलता मानते हैं। उसी से उनके तन-मन की माषि-व्याधि भी दूर हो जाती है'जनम सफलभयो भयौ सुकाज रे । तन की तपत टरी सब मेरी, देखत लोडए पास माज रे ।। लावण्य समय ने भगवान ऋषभदेव की वन्दना करते हुए उन्हें भवतारक भौर सुखकारक कहा है। श्री शान्तिरंग गरिण को पूर्ण विश्वास है कि पार्श्व जिनेन्द्र की वन्दना करने से प्रज्ञान ही नष्ट नहीं होता वरन् मनवांछित फल की भी प्राप्ति होती है
पास जिणंद खइराबाद मंडण, हरष घरी नितु नमस्यं हो ॥
रोर तिमिर सब हेलेहि हरस्यू, मनवांछित फलवरस्यं ॥
कुशललाभ कवि सरस्वती की वन्दना करते हए उसे सुराणी, स्वामिनी और वचन विलासणी मानते हैं । वह समस्त संसार में व्याप्त एक ज्योति है। रामचन्द तीर्थंकर वर्धमान को प्रणाम करते हैं और लोकालोक प्रकाशक उनके स्तवन से मोहतम को दूर करते हैं-'प्रणामो परम पुनीत नर, वरधमान जिनदेव ।' कविवर बनारसीदास ने तीर्थंकर पार्श्वनाथ की अनेक प्रकार से स्तुति की है जिसमें भाव और भाषा का सुन्दर समन्वय हुआ हैं
करम भरम जग तिमिर हरनखग, उरन लखन रग सिवमगदरसी । निरखत नयन भविकजल वरसत, हरखत अमित भविक जन सरसी।। मदन कदन-जिन परम धरम हित, सुमिरत भगति भगति सब डरसी। सजल-जलद तन मुकुट सपत फन,
कमठ-दलन जिन नमत बनरसी ॥1॥ कविवर दौलतराम अपने प्राराध्य से अब दुःख को हरण करने की प्रार्थना करते हैं, और उनका मुणगान करते हुए कहते हैं कि हे परमेश, तुम मोक्षमार्ग दर्शक
1. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 19. 2. वैराग्यविनती, जैन गुर्जर कविमो, प्रथम भाग. पृ. 71-78. 3. पार्वजिनस्तवन, खैराबाद स्थित गुटके में निबद्ध हस्तलिखित प्रति. 4. गोडी पाश्वनाथ स्तवनम्, जन गुर्जर कविप्रो, पहला भाग, पृ. 216. 5. सीताचरित, का. ना. प्र. प्रत्रिका का बारहवां वार्षिक विवरण, ऐपेन्डिक्स
2, पृ. 1261, बाराबंकी के जैन मन्दिर से उपलब्ध प्रति । 6. नाटक समयसार, मंगलाचरण, पृ. 2.
क
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हो और मोह रूपी दावानल के लिए नीर हो । मेरी वेदना को दूर करो और कर्म-जंजीर से मुझे मुक्त करो
हमारी वीर हरो भव पीर ॥
मैं दु:ख तपित दयामृतसर तुम, लखि प्रायो तुम तोर । तुम परमेश मोखमगदर्शक, मोहदवानलचीर ॥1॥ तुम विनहेत जगत उपगारी शुद्ध चिदानन्द धीर । गनपतिज्ञान समुद्र न लंघे, तुम गुनसिन्धु गहीर ||2|| याद नहीं में विपति सही जो, घर घर अमित शरीर । तुम गुन चिंतत नशत तथा भव ज्यौ धन चलत समीर ||3|| कोटवार की अरज यही है, मैं दुःख सह अधीर । हरहु वेदना फन्द दौल की, कतर कर्म जंजीर ||4||
जगजीवन के पद भी बड़े हृदयहारी हैं । कवि अपने प्राराध्य से जन्म-मरण
का चक्कर दूर करने का निवेदन करता है और 'दीनबन्धु' जैसे विरद को निर्वाह करने की प्रार्थना करता है।" बुधजन भी प्रभु की महिमा को अच्छी तरह जानते हैं। वे उनके दर्शन मात्र से ही अपने राग-द्वेष को भूल जाते हैं -
प्रभु तेरी महिमा वरणी न जाई ॥
इन्द्रादिक सब तुम गुरण गावत, में कछु पार न पाई ॥ ॥ ॥ पटू द्रव्य मे गुण व्यापत जैते, एक समय में लखाई । ताकी कथनी विधि निषेधकर, द्वादस अंग सवाई | क्षायिक समकित तुम ढिग पावत श्रौर ठौर नहि पाई जिन पाई तिन भव तिथि गाही, ज्ञान की रीति बढ़ाई ॥3॥ मोसे अल्प बुधि तुम उपावत, श्रावक पदवी पाई । तुम ही तं प्रभिराम लखू निज राग दोष विसराई ॥14॥13
भक्त कवि श्राराध्य से अपने प्रापको अत्यन्त हीन समझता है और लघुता व्यक्त करते हुए दास्य भाव को प्रकट करता है। भ. कुमुदचन्द के भक्तिराग ने उन्हें अनाथ बना दिया और फलतः स्वयं को भगवान के चरण-शरण में छोड़ दिया ।
1.
दौलत जनपद संग्रह, कलकत्ता, पद 31, पृ. 19.
2. तेरहपन्थी मन्दिर, जयपुर, पद सग्रह 946. पत्र 90, हिन्दी जैन भक्त कवि
और काव्य पृ. 214.
3. हिन्दी पद संग्रह. 206.
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are अनाथनि फू कछु दीजे ॥ विरद संभारी धारी हठ मन तें, काहे स जग जस लीजे ॥11॥ तुम्ही निवाज कियो हूं मानव गुण अवगुण न गणीजे । व्याल वाल प्रतिपाल सविषतर, सौ नहीं प्राप हणीजे ॥12॥ में तो सोई जो ता दीन हूतो जा दिन को न ईजे । जो तुम जानत और भयो है बाधि बाजार बेचीजे ||3||
मेरे तो जीवन धन सब तुमहि नाच तिहारे जीजे । कहत कुमुदचन्द चरण शरण मोहि, जे भावे सो कीजे ॥ 4 |
कविवर बनारसीदास ने माराध्य के प्रति लघुता व्यक्त करते हुए उसके स्वरूप को भागम और प्रवाह माना है उसके स्वरूप का वर्णन करना उसी प्रकार कठिन है जिस प्रकार उलूकपोत रवि किरण के उद्योत का वर्णन नहीं कर सकता और बालक अपनी बाहों से सागर पार नहीं कर सकता ।
1.
2.
प्रभुस्वरूव प्रति भगम प्रथाह । क्यों हमसे इह होय निवाह । उलूको पोत । कहि न सके रवि किरन उदोत ||4|| तुम प्रसंग निर्मलगुणखानि । में मतिहीन कहो निजबानि ।
जिन
बालक निजबांह पसार । सागर परिमित कहै विचार 116112
जगतराम प्रभु का अनुग्रह पाने के लिए हाथ जोडकर बैठे हैं और प्रवसुणों को अनदेखा करने की प्रार्थना कर रहे हैं। कवि का यह 'चेरा' का स्वरूप दृष्टव्य है
179
तुम साहित्र में चेरा, मेरा प्रभु जी हो ॥
चूक चाकरी मो वेरा की, साहिब सी जिन मेरा ॥1॥ टहल यथाविधि बन नहीं प्रावे, करम रहे कर बेरा । मेरो भवगुण इतनो ही लीजे, निशदिन सुमरन तेरा ॥2॥ करो धनुग्रह अब मुझ ऊपर मेरो अब उरभेरा । 'जगतराम' कह जोड़ वीनवं राखी चरणन नेरा || 3 || 3
वही, पृ. 15, रूपचन्द भी लघुमंगल में 'अद्भुत है प्रभु महिमा तेरी, वरनी न जाय प्रलिप मति मेरी' कहकर लघुता व्यक्त करते हैं । बनारसीविलास, कल्याण मन्दिर स्तोत्र, भाषानुवाद, पद्म 4 और 6 T. 124.
3. वही, पृ. 100.
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180
बखत राम साह भी इसी तरह -- "दीनानाथ दया मो पे कीजी" कहकर अपने treat म मर पातिक बताते हैं । बुधजन भी चेरा' बनकर भ्रष्टकर्मों को नष्ट
करना चाहते हैं --
साधक भक्त कवि की समता और एकता की प्रतीति के सन्दर्भ में मैं पहले विस्तार से लिख चुकी हूँ' । 'समता भाव भये हैं मेरे प्रांन भाव सब त्यागोजी' जैसे भाव उसके मन में उदित होते हैं और वह एकाकारता की अनुभूति करने लगता है। वह प्रद रागात्मक सम्बन्ध भी स्थापित कर संसार सागर से पार करने की प्रार्थना करता है
1.
2.
3.
4.
तुम माता तुम तात तुम ही परम धरणीजी ।
तुम जग सांचा देव तुम सम तुम प्रभु दीनदयालु मुन्द दुष लीजै मोहि उबारि मैं तुम सरण मही जी ॥2॥ संसार अनंतन ही तुम ध्यान घरो जी |
तुम दरसन बिन देव दुरगति मांहि सत्योजी ॥3॥ 4
भक्त कवि आराध्य के रूप पर श्रासक्त होकर उसके दर्शन की प्राकांक्षा लिये रहता है । सीमान्वर स्वामी के स्तवन में भेरुतन्द उपाध्याय ने प्रभु के रूप का बड़ा सुन्दर चित्रांकन किया है जिसमें उपमान- उपमेय का स्वाभाविक संयोजन हुआ है ।" भट्टारक ज्ञानभूषण (वि. सं. 1572) ने तीर्थकर ऋषभ की बाल्यावस्था का का चित्रण करते समय उनके मुख को पूर्णमासी के समान बताया और हाथों को कल्पवृक्ष की उपमा दी। उनके काव्य में बालक का चित्र प्रत्यन्त स्वाभाविक ढंग से उभरा हुआ है जिसमे अनेक उपमानों का प्रयोग है ।"
6.
श्रौर नहीं जी ॥1 ॥ दूरि करो जी ।
वही, पृ. 163.
बुधजनविलास, पद 52, पृ. 29.
हिन्दी पद संग्रह, नवलराम, पृ. 182.
कर्मघटावलि, कनक कीर्ति, बधीचन्द दि जैन मन्दिर, जयपुर में सुरक्षित हस्तलिखित प्रति, गुटका नं. 108.
5. सीमान्धर स्वामी स्तवन, 9 जैन स्तोत्र संदोह प्रथम भाग, अहमदाबाद,
1932, q. 340-345.
प्राहे मुख जिस पुनिम चन्द नरिदनमित पद पीठ । त्रिभुवन भवन मंभारि सरीखउ कोई न दीठ ॥
आहे कर सुरतरु वरं शाख समान सजानु प्रमाण । तेह सरीखउ लकड़ी भूप सरूपहिं जांरिण ||
दीश्वर फागु, 144, 146, श्रमेरशास्त्र भण्डार, जयपुर में सुरक्षित हस्त
लिखित प्रति क्रमसंख्या, 95.
,
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181
पांडे रूपचन्द की काव्य सौष्ठव देखिये जिसमें बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव का समुचित प्रयोग हुमा है
प्रभु तेरी परम विचित्र मनोहर, मुरति रूप बनी। मंग-मंग की अनुपम सोभा, बरनि न सकति फनी ।। सकल बिकार रहित बिनु अम्बर, सुन्दर सुभ करनी। निराभरन भासुर छबि सोहत, कोटि तरुन तरनी॥ वसु रस रहित सांत रस राजत, खलि इहि साधुपनी । जाति विरोधि जन्तु जिहि देखत, तजत प्रकृति अपनी।। दरिसनु दुरित हरै चिर संचितु, सुरनरफनि मुहनी।
रूपचन्द कह कहौ महिमा, त्रिभुवन मुकुट-मनी ॥1 कविवर बनारसीदास ने नाटक समयसार में पंचपमेष्ठियों की जो स्तुतियां की हैं उनमें तीर्थकर के शरीर की स्तुति यहा उल्लेखनीय है । जगतराम ने भी इसी प्रकार पाराध्य की छवि देखकर शाश्वत सुख की प्राप्ति की प्राशा की है। नवलराम के नेत्रों में उसकी छाया सुखद प्रतीत होती है-'म्हारा तो नैना में रही छाय, हो जी हो जिनन्द थांकी भूरति ।" दौलतराम को भी ऐसा ही सुखद अनुभव होता है और साथ ही उनके मोह महातम का नाश हुमा है-'निरखत सुख पायो जिन मुख चन्द मोह महातम नाश भयो है, उर अम्बुज प्रफुलायो। ताप नस्यौ बढि उदधि अनन्द । बुधजन भी 'छवि जिनराई राजे छै' कहकर भगवान की स्तुति करते हैं।
1. रूपचन्द शतक (परमार्थी दोहाशतक, जैन हितेषी, भाग 6, अक 5-6. 2. जाके देह-द्युति सौ दशो दिशा पवित्र भई-ना. स., जीवद्वार, 25. 3. अद्भुत रूप अनूपम महिमा तीन लोक में छाजे।
जाकी छवि देखत इन्द्रादिक चन्द्र सूर्य गण लाजै ॥ परि अनुराग विलोकत जाकों अशुभ करम तजि भागे । जो जगराम बने सुमरन तो अनहद बाजा बाज ।। दि. जैन मन्दिर, बड़ौत में सुरक्षित पद संग्रह, हिन्दी जन भक्ति काव्य मोर
कवि, पृ. 257. 4. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 184. 5. दौलत जैन पद संग्रह, 43 वां पद, पृ. 25.
बुधजन विलास, 57 वां पद, पृ. 30.
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रूपासक्तिमय भक्ति के माध्यम से भक्त भगवद दर्शन के लिए लालायित रहता है। वह जिनेन्द्र का दर्शन करने में अपना जन्म सफल मामता है और ध्यान धारण करने से संसिद्धि प्राप्त करता है । उपाध्याय जयसागर को मादिनाथ के दर्शनों से अनिर्वचनीय मानन्द की प्राप्ति होती है। पद्म तिलक ने भी भाविनाथ को स्तुति की है जिससे समस्त मनोवांछित अभिलाषायें पूर्ण हो जाती हैं। मुनि जयलाल का मन प्रभु के दर्शन से हर्षित हो जाता है। वह राज ऋद्धि की आकांक्षा नहीं करता, बस, उसे तो पाराध्य के दर्शनों की ही प्यास लगी है। यह दर्शन सभी प्रकार के संकट मोर दुरित का निवारक है-'उपसमै संकट विकट कष्टक दुरित पाप निवारणा ।' मनोवांडिस चिन्तामरिण है। जिसे वह अच्छा नहीं लगता वह मिथ्या दृष्टि है । जिन प्रतिमा जिनेन्द्र के समान है । उसके दर्शन करने से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं
जिन प्रतिमा जिन सम लेखीयइ । ताको निमित्त पाय उर अन्तर राग दोष नहि देखीयइ ।। सम्यग्दृष्टि होइ जीव जे, जिस मन ए मति रेखीयइ । यहु दरसन जांतून सुहावइ, मिथ्यामत सेखीयइ । चितवत चित चेतना चतुर नर नयन मेष जे मेखीयइ । उपशम कृपा ऊपजी अनुपम, कर्म करइ न सेखीयह ।। वीतराग कारण जिन भावन, ठवणा तिरण ही पेखीयइ ।
चेतन कवर भये निज परिणति, पाप पुन्न दुइ लेखीयइ ।' विद्यासागर ने 'निरख्यो नयने जब रसायन मन्दिर सुखकर' लिखकर भगवान के दर्शन का मानन्द लिया है। बनारसीदास ने जिन बिम्ब प्रतिमा के माहात्म्य का इस प्रकार वर्णन किया है
1. सीमन्धर स्वामी स्तवन, विनयप्रभ उपाध्याय, पृ. 120-24. 2. चतुर्विशती जिनस्तुति, जेन गुर्जर कविप्रो, तृतीय भाग, पृ. 1479. 3. गर्भ विचार स्तोत्र, 27 वां पद्य 4. विमलनाथ, जैन भक्ति काव्य और कवि, पृ. 94. 5. पार्वजिनस्तवन-गुणसागर, जैन भक्ति काव्य और कवि, पृ. 95. 6. गोड़ी पार्श्वनाथ स्तवन-कुशललाभ, जैन गुर्जर कविमो, प्रथम भाग, पृ. 216
अन्तिम कलश. 7. कुअरपाल का पद । कवि की अनेक रचनायें सं. 1684-1685 में लिखे
एक गुटके में निबद्ध हैं जो की श्री भगरचन्द नाहटा को उपलब्ध हमा था। भूपाल स्तोत्र छप्पय, दूर्णी, जयपुर का जैन शास्त्र भण्डार, हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि, तु. 389.
x.
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जाके मुख दरसों भगत के नैननिकों, थिरता की बानि बढे चंचलता विमसी । मुद्रा देखि केवली की मुद्रा याद मावं जहां, जाके धागे इन्द्र ही विभूति दीसं तिनसी || जाको जस जपत प्रकाश जगे हिरदे में, सोइ सुद्धमति होई हुती जु मलिन सी । कहत बनारसी सुमहिमा प्रगट जाकी, सो है जिनकी छवि सुविद्यमान जिनसी ||
कविवर दौलतराम ने जिन दर्शन करके भरपूर सुख पाया 'निरखत सुख पायौ, जिन मुखचन्द' | उन्हें जिन छवि त्रिभुवन मानन्दकारिणी भोर जगतारिणी प्रतीत हुई है । 2 बुषजन के नयन नाभिकुद्मर दर्शन करते ही सफल हो गये'तिरखे नाभिकुरजी, मेरे नैन सफल भये ।' जिनेन्द्र के दर्शन करते ही उनका मिध्यातम भाग गया, अनादिकालीन संताप मिट गया धीर निजानुभव पाकर अनन्त हर्ष पा लिया-
लखे जी प्रज चन्द जिनन्द प्रभु को मिध्यातम मम भागौ ॥ टेक ॥ श्रनादिकाल की तपत मिटी सब, सूतो जियरी जागौ ॥1॥ निज संपति निज ही में पाई, तब निज अनुभव लागौ ।
बुधजन हरषत श्रानन्द वरषत, अमृत भर मैं पागो ||2|| 3
1.
2.
3.
4.
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भक्त कवि प्राराध्य का दर्शन कर भक्तिवशात् उनके समक्ष अपने पूर्वकृत कर्मों
का पश्चात्ताप करता है जिससे उसका मन हल्का होकर भक्ति भाव में और afte लीन हो जाता है । भट्टारक कुमुदचन्द्र 'मैं तो नरभव बाधि गवायो । न कियो जपतप व्रत विधि सुन्दर, काम भलो न कमायो ।' तथा " चेतन चेतत क्यूं बावरे । विषय विषे लपटाय रहियो कहा, दिन दिन छीजत जात प्रापरे' जैसे पद्यों में अपना भक्ति-सिक्त पश्चाताप व्यक्त करते हैं । " रूपचन्द 'जनमु प्रकारथ ही जु गयी ॥ धरम अकारथ काम पद तीनो, एकोकरि न लयो । यानतरण्य तो 'कबहू' न निज वर माये || परवर फिरत बहुत दिन बीते नांव अनेक धराये ॥ '6 व नवलराम 'प्रभु चूक
नाटक समयसार, चतुर्दश गुणस्थानाधिकार, पृ. 365.
दौलत जैन पद संग्रह, 43, 111, 112 वें पथ.
बुधजन विलास, 117, पृ. 60.
हिन्दी पद संग्रह, पृ. 14 और 20.
5.
वही, पृ. 40.
6. वही, पृ. 109.
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तकसीर मेरी माफ करिये' कहकर मिथ्यात्व कोध-मान माया लोभ इत्यादि विकार भावों के कारण किये गये कर्मों की भत्सना करते हैं और प्राराध्य से भवसागर पार कराने की प्रार्थना करते है 1--"प्रभु बूक तकसीर मेरी माफ करिये।"
साधक पश्चात्ताप के साथ भक्ति के वश पाराध्य को उपालम्भ देता है कि 'जो तुम दीनदयाल कहावत । हमसे मनाथनि हीन दीन कू काहे न नाथ निवाजत ।' प्रभु, तुम्हें प्रनेक विधानों से घिरे सेवक के प्रति मौन धारण नहीं करना चाहिए । तुम विधनहारक, कृपा सिन्धु जैसे विरुदों को धारण करते हो तब उनका पूरा निर्वाह करना चाहिए। द्यानतराय उपालम्भ देते हुए कुछ मुखर हो उठते हैं। और कह देते हैं कि पाप स्वयं तो मुक्ति में जाकर बैठ गये पर मैं अभी भी संसार में भटक रहा हूं। तुम्हारा नाम हमेशा मैं जपता हूँ पर मुझे उससे कुछ मिलता नहीं । और कुछ नहीं, तो कम से कम राग-द्वेष को तो दूर कर ही दीजिए--
तुम प्रभु कहियत दीनदयाल । प्रापन जाय मुकति में बैठे, हम जु रुलत जग जाल ॥11 तुमरो नाम जपं हम नीके, मनवच तीनों काल ।। तुम तो हमको कछु देत नहिं, हमरो कौन हवाल ॥2॥ बुरे भले हम भगत तिहारे जानत हो हम चाल । और कछु नहिं यह चाहत हैं, राग-दोष को टाल ॥31॥ हम सौ चूक परी सो वकसो, तुम तो कृपा विशाल ।
धानत एक बार प्रभु जगतै, हमको लेहु निकाल 14113
एक अन्यत्र स्थान पर कवि का उपालम्भ देखिये वह उद्धार किये गये व्यक्तियों का नाम गिनाता है और फिर अपने इष्ट को उलाहना देता है कि मेरे लिए माप इतना विलम्ब क्यों कर रहे है।
मेरी बेर कहा ढील करी जी। सूली सो सिंहासन कीना, सेठ सुदर्शन विपति हरी जी ।।
1. वही, पृ. 181-92. 2. प्रमु मेरे तुमकू ऐसी न चाहिए
सधन विधन घेरत सेवक कु, मौन धरी किऊं रहिये ॥1॥ विधन हरन सुखकरन सबनिकुचित चिन्तामनि कहिये । प्रसरण शरण प्रबंधुबंधु कृपासिन्धु को विरद निबहिये । हिन्दी पद सग्रह, भ. कुमुदचन्द्र, पृ. 14, लूणकरणजी पाण्डया मन्दिर,
जयपुर के गुटक नं. 114 मे सुरक्षित पद । 3. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 114-15.
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सीता सती प्रगति में बैठी पावक नीर करी सगरी जी । वारिषेण पे खडक चलायो, फूलमाल कीनी सुथरी जी ॥ धन्या वाणी परलो निकाल्यौ ता घर रिद्ध अनेक भरी जी । सिरीपाल सागर तैं तारयो, राजभोग के सांप किय फूलन की माला, सोमा पर 'द्यानत' में कुछ जांचत नाहीं, कर वैराग्य दशा हमरी जी 11
मुकति वरी जी ।। तुम दया घरी जी ।
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दौलतराम भी इस प्रकार उपालम्भ देते है और प्रबगुरणों की क्षमा याचना कर धाराध्य से दुःख दूर करने की प्रार्थना करते हैं
नाथ मोहि तारत क्यों ना, क्या तकसीर हमारी ॥ अंजन चोर महा मध करता सप्त विसन का बारी । वो ही मर सुरलोक गयो है, बाकी कछु न विचारी ॥1॥ शूकर सिंह नकुल वानर से, कौन-कौन व्रत धारी । तिनकी करनी कछु न बिचारी, वे भी भये सुर भारी ||2|| प्रष्ट कर्म बैरी पुरुब के, इन मो करी खुवारी । दर्शन ज्ञान रतन हर लीने, दोने महादुख भारी ॥3॥ गुण माफ करे प्रभु सबके, सबकी सुधि न विसारी । दौलतराम खड़ा कर जोरे, तुम दाता में भिखारी 114 11 2 इस प्रकार प्रपत्तभावना के सहारे साधक अपने आराध्य परमात्मा के सान्निध्य मे पहुंचकर तत्तत् गुणो को स्वात्मा में उतारने का प्रयत्न करता है । प्रपत्ति मे श्रद्धा और प्रेम की विशुद्ध भावना का अतिरेक होने के फलस्वरूप साधक अपने आराध्य के रंग में रंगने लगता है । तद्रूप हो जाने पर उसका दुविधा भाव समाप्त हो जाता है घोर समरसभाव का प्रादुर्भाव हो जाता है । यही सांसारिक दुःखों से त्रस्त जीव शाश्वत शांति की प्राप्ति कर लेता है और वीतरागता शुक्लध्यान के रूप में स्फुरित हो जाती है। मध्यकालीन हिन्दी जैन भक्तो की भावाभिव्यक्ति में इसी प्रकार की शान्ता भक्ति का प्राधान्य रहा है ।
2. सहज - साधना प्रौर समरसता
योग साधना भारतीय साधनाओं का अभिल प्रांग है। इसमें साधारणतः मन को एकाग्र करने की प्रक्रिया का समावेश किया गया है। उत्तर काल में यह
1.
धर्मविलास, 54वां पद्म ।
2. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 216 - 7. खुशालचन्द काला भी इसी प्रकार उलाहना देते हुए भक्ति व्यक्त करते हैं- 'तुम प्रभु प्रथम प्रनेक उधारं ढील कहा हम बारो जी ।'
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परम्परा हठयोग की प्रस्थापना में मूलकारण रही। इसमें सूर्य और चन्द्र के योग से श्वासोच्छवास का निरोध किया जाता है अथवा सूर्य ( इडा नाड़ी) और चन्द्र (पिंगला) को रोककर सुषुम्णा मार्ग से प्राणवायु का संचार किया जाता है । उत्तर कालीन वैदिक और बौद्ध सम्प्रदाय में हठयोग साधना का बहुत प्रचार हुआ । जैन साधना में मुनि योगीन्दु, मुनि' रामसिंह और आनंदघन में इसके प्रारंभिक तस्व अवश्य मिलते हैं । पर उसका वह वीभत्स रूप नहीं मिलता जो उत्तरकालीन after meet बौद्ध सम्प्रदाय में मिलता रहा है। जैन साधना का हठयोग जैन धर्म के मूल भाव से पतित नहीं हो सका । उसे जैनाचार्यों ने अपने रंग में रंगकर अन्तभूत कर लिया। योग-साधना सम्बन्धी प्रचुर साहित्य भी जैन साधकों ने लिखा है । उसमें योगदृष्टिसमुच्चय, योगविन्दु, योगविंशति, योगशास्त्र श्रादि ग्रन्थ विशेष उल्लेखनीय हैं ।
योग का तात्पर्य है यम-नियम का पालन करना । यम का अर्थ है इन्द्रियों का निग्रह और नियम का अर्थ है महाव्रतों का पालन । पचेन्द्रियों के निग्रह के साथ ही 'अन्तर विजय' का विशेष महत्व है । उसे ही सत्य ब्रह्म का दर्शन माना जाता है - 'अन्तर विजय सूरता सांची सत्य ब्रह्म दर्शन निरवाची ।" इसी से योगी के मन की परख की जाती है। ऐसा ही योगी धर्मध्यान श्रौर शुक्लध्यान को पाता है । दौलतराम ने ऐसे ही योगी के लिए कहा है
'ऐसा योगी क्यों न अभयपद पाव, सो फेर न भव में भावं ।
बनारसीदास का चिन्तामणि योगी आत्मा सत्य रूप है जो त्रिलोक का शोक हरण करने वाला है और सूर्य के समान उद्योतकारी है ।" कवि द्यानतराय को उज्जवल दर्पण के समान निरजन ग्रात्मा का उद्योत दिखाई देता है । वही निर्विकल्प शुद्धात्मा चिदानन्द रूप परमात्मा है जो सहज साधना के द्वारा प्राप्त हुना है इसीलिए कवि कह उठता है- 'देखो भाई प्रातमरामविराजे । साधक अवस्था के प्राप्त करने के बाद साधक के मन में दृढ़ता प्रा जाती है और वह कह उठता है
1.
पाड़ दोहा, 168.
2. योगसार, पृ. 384.
3.
पाहुड़ वोहा, पृ. 6.
4.
5.
बनारसी विलास, प्रश्नोत्तर माला, 12, पृ. 183.
मन रामविलास, 72-73 ठोलियों का दि जैन मंदिर, जयपुर, बैष्टन नं. 395.
6.
दौलत जैन पद संग्रह, 65, जिनवाणी प्रचारक कार्यालय, कलकत्ता. बनारसीविलास, अध्यात्मपद पंक्ति, 21, पृ. 236.
7.
8. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 114.
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'प्रब हम भमर भये न मरेंगे।" शुद्धामावस्था की प्राप्ति में समरसता भोर तज्जन्य अनुभूति का मानंद जैनेतर कवियों की तरह न कवियों ने भी लिया है। उसकी प्राप्ति में सर्वप्रथम द्विविधा का अन्त होना चाहिए जिसे बनारसीदास और मंया भगवतीदास ने दूर करने की बात कही है । प्रानन्दतिलक की आत्मा समरस में रंग गई.--
समरस भावे रंगिया अप्पा देखई सोई,
अप्पउ जाणइ परगई पाणंद करई रिणराव होई। यशोविजय ने भी उनका साथ दिया । बनारसीदास को वह कामधेन चित्रावेलि और पंचामृत भोजन जैसा लगा। उन्होंने ऐसी ही पात्मा को समरसी कहा है जो नय-पक्षों को छोड़कर समतारस ग्रहण करके प्रात्म स्वरूप की एकता को नहीं छोड़ते और अनुभव के अभ्यास से पूर्ण प्रानंद में लीन हो जाते हैं। ये समरसी सांसारिक पदार्थों की चाह से मुक्त रहते हैं-'जे समरसी सदैव तिनकों कछ न चाहिए। ऐसा समरसी ब्रह्म ही परम महारस का स्वाद चख पाता है। उसमें ब्रह्म, जाति, वर्ण, लिंग, रूप प्रादि का भेद अब नहीं रहता।।
भूधरदासजी को सम्यक्त्व की प्राप्ति के बाद कैसी प्रात्मानुभूति हुई और कैसा समरस रूपी जल झरने लगा, यह उल्लेखनीय है
अब मेरे समकित सावन आयो ।। बीति कुरीति मिथ्यामति ग्रीषम, पावस सहज सुहायो । अनुभव दामिनि दमकन लागी, सुरति घटा धन छायो । बोल विमल विवेक पपीहा, सुमति सुहागिन भाषो ।। भूल धूलकहि मूल न सूझत, समरस जल झर लायो। भूषर को निकस प्रब बाहिर, निज निरखू घर पायो ।"
पाणंदा, पामेरशास्त्र भंडार जयपुर की हस्तलिखित प्रति. हि. जैन भक्ति काव्य और कवि, पृ. 202, जलविलास. नाटक समयसार, उत्थानिका, 19. नाटक-समपसार, कर्ताकर्म क्रिया द्वार, 27, पृ. 86. ऐसी नयकक्ष ताको पक्ष तजि. ग्यानी जीव'
समरसी भए एकता सों नहि टने हैं। महामोह नासि सुद्ध-अनुभौ अभ्यासि निज,
बल परगति सुखरासि मांहि टले हैं। 5. साध्य-साधक द्वार, 10, पृ 340. 6. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 147.
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पानंदधन पर हठयोग की जिस साधना का किंचित् प्रभाव दिखाई देता है बह उत्तरकालीन अन्य जंनाचार्यों में नहीं मिलता
मातम भनुभव-रसिक कौ, मजब सुन्यौ बिरतंत । निर्वेदी वेदन कर वेदन कर अनन्त ॥ माहारो बालुडो सन्यासी, देह देवल मठवासी । इड़ा-पिंगला मारग तजि जोगी, सुषमना घर बासी ।। ब्रह्मरंध्र मघि सांसन पूरी, बाऊ अनहद नाद बजासी। यम नीयम प्रासन जयकारी, प्राणायाम अभ्यासी ॥ प्रत्याहार धारणाघारी, ध्यान समाधि समासी । मुल उत्तर गुण मुद्राधारी, पर्यंकासन वासी ॥1
धानतराय ने उसे गूगे का गुड़ माना । इस रसायन का पान करने के उपरान्त ही प्रात्मा निरजन और परमानन्द बनता है। उसे हरि-हर-ब्रह्मा भी कहा जाता है। मात्मा और परमात्मा के एकत्व की प्रतीति को ही दौलतराम ने "शिवपुर की डगर समरस सौं भरी, सो विषय विरस रुचि चिरविसरी" कहा है।
मध्यकाल में जिस सहज-साधना के दर्शन होते हैं उससे हिन्दी जैन कवि भी प्रभावित हुए हैं पर उन्होंने उसका उपयोग प्रात्मा के सहज स्वाभाविक और परम विशुद्धावस्था को प्राप्त करने के अर्थ में किया है। बाह्यचार का विरोध भी इसी सन्दर्भ में किया है। जैन साधक अपने ढंग की सहज साधना दारा ब्रह्म पद प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहे हैं। कभी कभी योग की चर्चा उन्होंने अवश्य की पर हठयोग की नहीं । ब्रह्मानुभूति और तज्जन्य आनंद को प्राप्ति का उद्घाटन करने में जैनसाधको की उक्तियां न अधिक जटिल और रहस्यमय बनी और न ही उनके काव्य में अधिक अस्पष्टता आ पाई । जैन काव्य में सहज शब्द मुख्य रूप से तीन रूपों में प्रयुक्त हुमा है
1. मानंदधन बहोत्तरी, पृ. 358. 2. पानत विलास, कलकत्ता. 3. पाणंदा, मानंदतिलक, जयपुर भामेर शास्त्र भंडार की हस्तलिखित प्रति 2, 4. दौलत जैन पव संग्रह, 73 पृ. 40.
भेषधार रहे भैया, भेस ही में भगवान । भेष मे न भगवान, भगवान तो भाव में।। (बनारसीविलास, ज्ञानबावनी, 43 पृ. 87)
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1. सहज-समाधि के रूप में 2. सहज-सुख के रूप में और 3. परमतत्व के रूप में।
पीताम्बर ने सहज समाधि को अगम और प्रकथ्य कहा है । यह समाधि सरल नहीं हैं । वह तो नेत्र और वाणी से भी अगम है जिसे साधक ही जान पाते हैं
"नैनन ते प्रगम अगम याही बैनन ते, उलट 'पुलट बहे कालकूटह कह री। मूल बिन पाए मूढ़ कैसे जोग साधि पावें,
सहज समाधि की प्रगम गति गहरी ॥3402 ___ बनारसीदास ने उसे निर्विकल्प और निरुपाधि का प्रतीक माना । वही प्रात्मा केवलज्ञानी और परमात्मा कहलाता है । इसी को प्रातम समाधि कहा गया है जिसमें राग, द्वेष, मोह विरहित वीतराग अवस्था की कल्पना की गई है
पंडित विवेक लहि एकता की टेक गहि, दुदज अवस्था की अनेकता हरतु है। मति श्रूति अवधि इत्यादि विकलप मेंटि, निरविकलप ग्यान मन में धरतु है ।। इन्द्रियजनित सुख-दुख सौं विमुख है के । परम के रूप है करम निर्जरतु है । सहज समाधि साधि त्यागि परकी उपाधि, प्रातम पराधि परमातम करतु है ॥ रागद्वेष मोह की दसासों भिन्न रहे याते. सर्वथा त्रिकाल कर्भ जाल कों विधुसहै। निरूपाधि प्रातम समाधि मैं विराजे ताने,
कहिए प्रगट पूरन परम हंस है ॥
जैन साधकों ने नाम सुमिरन और अजपा जाप को अपनी सहज साधना का विषय बनाया है । साधारण रूप से परमात्मा और तीर्थकरों का नाम लेना सुमिरन है तथा माला लेकर उनके उनके नाम का जप करना भी सुमिरन है।ग.
1. अपनश और हिन्दी में जैन रहस्यवाद, पृ. 244. 2. बनारसीविलास, ज्ञानवावनी, 34, पृ. 84. 3. नाटक समयसार, निर्जरा द्वार, पृ. 141. 4. नाटक समयसार, सर्वविशुद्धिवार, 82, पृ. 285.
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पीताम्बर दत्त बडपवाल ने सुमिरन के जो तीन भेद माने हैं। उन्हें जैन साधकों ने अपनी साधना में अपनाया है । उन्होंने बाह्यसाधन का खंडनकर अन्तः साधना पर वल दिया है । व्यवहार नय की दृष्टि से जाप करना अनुचित नहीं है पर निश्चय नय की दृष्टि से उसे बाह्य क्रिया माना है। तभी तो द्यानतराय जी ऐसें सुमिरन को महत्व देते हैं जिसमें -
प्रत्याहार चारना कीजै । ध्यान समाधि महारस बीजं ॥12 मनहृद को ध्यान की सर्वोच्च प्रवस्था कहा जा सकता है जहां साधक घन्तरतम में प्रवेश कर राग-द्वेषादिक विकारी भावों से शून्य हो जाता है। वहां शब्द प्रतीत हो जाते हैं और अन्त में आत्मा का ही भाव घोष रह जाता है । कान भी अपना कार्य करना बंद कर देता है । केवल भ्रमरगुज्जन-सा शब्द कानों में गूंजता रहता है ।
सो सुमरन करिये रे भाई । पवन में मन कितहु न जाई ॥ परमेसुर सौं साचों रहिजे । लोक रंजना भय तजि दीजै ॥ यम अरु नियम दोऊविधि घारौ । श्रासन प्राणायाम समारो |
1.
2.
3.
अनहद सबद सदा सुन रे ॥ प्राप ही जाने प्रौर न जानें,
कान बिना सुनिये घुन रे ॥
इसीलिए द्यानतराय जी ने सोहं को तीन लोक का सार कहा है । जिन साधकों के श्वासोच्छवास के साथ सदैव ही सोहं सोहं की ध्वनि होती रहती है और जो सोहं के अर्थ को समझकर, प्रजपा की साधना करते हैं, वे श्रेष्ठ हैं
भमर गुंज सम होत निरन्तर, ता प्रतर गति चितवन रे ||
सोहं सोहं होत नित, सांस उसास मकार ।
ताको अरथ विचारिर्य, तीन लोक में सार ॥
1. जाप-जो कि बाह्य क्रिया होती है। 2. अजपाजाप-जिसके अनुसार साधक बाहरी जीवन का परित्याग कर आभ्यांतरित जीवन में प्रवेश करता है, 3. अनहद जिसके द्वारा साधक अपनी श्रात्मा के गूढ़तम भ्रंश में प्रवेश करता है, जहां पर अपने आप की पहिचान के सहारे वह सभी स्थितियों को पार कर प्रांत में कारणातीत हो जाता है ।
हिन्दी पद संग्रह, पृ. 119.
वही, पृ. 118, श्राश्रो सहजवसन्त खेलें सब होरी होरा ॥
अनहद शबद होत घनघोरा । (वही, पृ. 119-20 )
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तीन लोक में सार, घार सिव खेत निवासी । अष्ट कर्म सौं रहित, सहित गुण प्रष्ट विलांसी ॥
जंसो तेसो प्राप, थाप निहचं तजि सोहं ।
अजपा जाप संभार, सार सुख सोहं सोहं ॥
आनंदघन का भी यही मत है कि जो साधक ग्राशाओंों को मारकर अपने अंतः कारण में अजपा जाप को जगाते हैं वे चेतन मूर्ति निरंजन का साक्षात्कार करते हैं ।" इसीलिए संत मानंदघन भी सोहं को संसार का सार मानते हैं
चेतन ऐसा ज्ञान बिचारो।
सोहं सोहं सोहं सोहं सोहं अणु नबी या सारो ॥। 3
इस प्रजपा की अनहद ध्वनि उत्पन्न होने पर आनंद के मेघ की झड़ी लग जाती है और जीवात्मा सौभाग्यवती नारी के सदृश्य भावविभोर हो उठती हैं
2.
"उपजी घुनि श्रजपा की अनहद, जीत नगारेवारी । झड़ी सदा श्रानंदधन बरखत, बन मोर एकनतारी ॥
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि सहज योग साधनाजन्य रहस्यभावना से साधक प्राध्यात्मिक क्षेत्र को अधिकाधिक विशुद्ध करता है तथा ब्रह्म (परमात्मा ) और आत्मा के सम्मिलन अथवा एकात्मकता की अनुभूति तथा तज्जन्य प्रनिर्वचनीय परमसुख का अनुभव करता है। इन्हीं साधनात्मक अभिव्यक्तियों के चित्ररण में वह जब कभी अपनी साधना के सिद्धान्तों प्रथवा पारिभाषिक शब्दों का भी प्रयोग करता है। इस शैली को डॉ० त्रिगुणायत ने शब्द मूलक रहस्यवाद और अध्यात्म मूलक रहस्यवाद कहा है ।" इस तरह मध्यकालीन जैन साधकों की रहस्य साघना अध्यात्ममूलक साधनात्मक रहस्यभावना की सृष्टि करती है ।
1. धर्मविलास, पृ. 65, सोहं निज जपं, पूजा श्रागमसार ।
3.
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uter] मारि भासन घरि घट में, अजपा जाप जगावं ।
ग्रानंदधन चेतनमयमूरति नाहि निरंजन पावे ॥ ॥ (भानंदधन बहोत्तरी, पृ. 359.
ग्रानंदघन बहोत्तरी, पृ. 395; अपभ्रंश और हिन्दी जैन रहस्यवाद, T. 255.
4. वही, पृ. 365.
5.
सत्संग में बैठना, यही करें व्यौहार || (प्रध्यात्म पंचासिका दोहा, 49.
कबीर की विचारधारा --- डॉ. गोविन्द त्रिगुणायत, पृ. 226-228.
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3 भावनात्मक रहस्य भावना साधक की प्रात्मा के ऊपर से जब अष्ट कर्मों का प्रावरण हट जाता है, और संसार के मागजाल से उसकी प्रात्मा मुक्त होकर विशुद्धावस्था को प्राप्त कर लेती है तो उसकी भाव दशा भंग हो जाती है। फलतः साधक विरह-विधुर हो तड़प उठता है । यह माध्यात्मिक विरह एक ओर तो साधक को सत्य की खोज अर्थात् परमपद की प्राप्ति की मोर प्रेरित करता है और दूसरी ओर उसे साधना में संलग्न रखता है । साधक की अतरात्मा विशुद्धतम होकर अपने में ही परमात्मा का रूप देखती है तब वह प्रेम और श्रद्धा की प्रतिरकता के कारण उससे अपना घनिष्ठ संबंध स्थापित करने लगती है। यही कारण है कि कभी साधक उसे पति के रूप में देखता है और कभी पत्नी के रूप में । क्योंकि प्रेम की चरम परिणति दाम्यत्यरति में देखी जाती है । अतः रहस्यभावना की अभिव्यक्ति सदा प्रियतम और प्रिया के प्राधय में होती रही है।
आध्यात्मिक साधना करने वाले जैन एवं जैनेतर सन्तों एवं कवियों ने इसी दाम्पत्यमूलक रतिभाव का अवलम्बन परमात्मा का साक्षात्कार करने के लिए लिया है। प्रात्मा परमात्मा का प्रिय-प्रेमी के रूप में चित्रण किया गया है । श्री पुरुषोत्तमलाल श्रीवास्तव का यह कथन इस सन्दर्भ में उपयुक्त है कि लोक में प्रानंदशक्ति का सबसे अधिक स्फुरण दाम्यत्य संयोग मे होता है, जिसमें दो की पृथक सत्ता कुछ समय के लिए एक ही अनुभूति में विलीन हो जाती है। मानंद स्वरूप विश्वसत्ता के साक्षा• स्कार का मानंद इसी कारण अनायास लौकिक दाम्यत्य प्रेम के रूपकों में प्रकट हो जाता है । मलौकिक प्रेमजन्य तल्लीनता ऐमी विलक्षण होती है कि द्वैध भाव ही समाप्त हो जाता है । मध्यकालीन कवियो ने माध्यात्मिक प्रेम के सम्बन्ध में प्राध्यात्मिक विवाहों का चित्रण किया है । प्रायः इन्हें विवाहला, विवाह, विवाहलउ और विवाहला मादि नामों से जाना जा सकता है। विवाह भी दो प्रकार के मिलते हैं। रहस्यसाधको की रहस्यभावना से जिन विवाहों का सम्बन्ध है उनमें जिन प्रभसूरि का 'अंतरंग विवाह' अतिमनोरम है। सुमति और चेतन प्रिय-प्रेमी रूप हैं। मजयराज पाटणी ने शिवरमणी विवाह रचा जिसमें प्रात्मा वर (शिव) और मुक्ति वधू (रमणी) हैं । मारमा मुक्ति वधू के साथ विवाह करता है।
बनारसीदास ने भगवान शान्तिनाथ का शिवरमणी से परिणय रचाया। परिणय होने के पूर्व ही शिवरमणी की उत्सुकता का चित्रण देखिये-कितना मनूठा
1. कबीर साहित्य का अध्ययन, पृ. 372.
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है-री सखि, माज मेरे सौभाग्य का दिन है कि जब मेरा प्रिय से विवाह होने वाला है पर दु.स यह है कि वह अभी तक नहीं पाया। मेरे प्रिय सुख कन्द हैं, उनका शरीर चन्द्र के समान है इसलिए मेग प्रानंद मन सागर में लहरें ले रहा है। मेरे नेत्र-चकोर सुख का अनुभव कर रहे हैं जग में उनकी सुहावनी ज्योति फैली है, कीति भी छायी है, वह ज्योति दुःख रूप अन्धकार दूर करने वाली है, वाणी से अमृत झरता है । मुझे सौभाग्य से ऐसा पति मिल गया ।
एक अन्य कृति प्रध्यात्मगीत में बनारसीदास को मन का प्यारा परमात्मा रूप प्रिय मिल जाता है। प्रतः उनकी आत्मा अपने प्रिय (परमात्मा) से मिलने के लिए उत्सुक है । वह अपने प्रिय के वियोग में ऐसी तड़प रही है जैसे जल के बिना मछली तड़पती है । मन मे पति से मिलने की तीव्र उत्कंठा बढ़ती ही जाती है तब वह अपनी समता नाम की सखी से अपने मन में उठे भावों को व्यक्त करती है यदि मुझे प्रिय के दर्शन हो गये तो मे उसी तरह मग्न हो जाऊंगी जिस तरह दरिया में बूद समा जाती है। मैं अहंभाव को तजकर प्रिय से मिल जाऊंगी । जैसे प्रोला गलकर पानी में मिल जाता है वैसे ही मैं अपने को प्रिय में लीन कर दूंगी। माखिरकार उसका प्रिय उसके अन्तर्मन मे ही मिल गया और वह उससे मिलकर एकाकार हो गई । पहले उसके मन में जो दुविधाभाव था वह भी दूर हो गया।
दुविधाभाव का नाश होने पर उसे ज्ञान होता है कि बह और उसका प्रियतम एक ही है। कवि ने अनेक सुन्दर दृष्टान्तों से इस एकत्व भावको और अभिव्यक्त किया है । वह और उसके प्रिय, दोनों की एक ही जाति है । प्रिय उसके
1. सहि एरी ! दिन प्राज सुहाया मुझ भाया प्राया नही घरे ।
सहि एरी! मन उदधि अनंदा सुख-कन्दा चन्दा धरे । चन्द जिवां मेरा बल्लभ सोहे, नैन चकोरहि सुक्ख करे । जग ज्योति सुहाई कीरति छाई, बहुदुख तिमिर वितान हरे । सहु काल विनानी अमृतवानी, प्रक मृग का लांछन कहिये। श्री शांति जिनेश नरोत्तम को प्रभु, माज अाज मिला मेरी सहिये ।
बनारसीविलास, श्री शांतिजिन स्तुति, पद्य 1, पृ. 189. 2. मेरा मन का प्यारा जो मिल । मेरा सहज सनेही जो मिल ॥1॥
उपज्यो कंत मिलन को चाव । समता सखी सों कहै इस भाव ।।3।। मैं विरहिन पिय के माधीन । यों तलफों ज्यों जलबिन मीन ।।3।। बाहिर देखू तो पिय दूर । बट देखे घट में भरपूर ।।4।। होहं मगन में दरशन पाय । ज्यों दरिया में बूंद समाय ॥9॥ पिय को मिलों अपनपो खोय। प्रोला गलपाणी ज्यों होय ॥10॥ बनारसीविलास, प्रध्यातम गीत, 1-10, पृ. 159-160.
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घट में विराजमान है और वह प्रिय में। दोनों का जल और लहरों के समान अभिन सम्बन्ध है । प्रियकर्ता है और वह करतूति, प्रिय सुख का सागर है और वह सुख सींव है। यदि प्रिय शिव मंदिर है तो वह शिवनींव, प्रिय ब्रह्मा है तो वह सरस्वती, प्रिय माधव है तो वह कमला, प्रिय शंकर है तो वह भवानी, प्रिय जिनेन्द्र हैं तो वह उनकी वाणी है । इस प्रकार जहां प्रिय हैं-वहां वह भी प्रिय के साथ में है । दोनों उसी प्रकार से हैं- 'क्यों शशि हरि में ज्योति प्रभंग ।'
जो प्रिय जाति सम सोइ । जातहि जात मिलै सब कोइ ॥ 18 ॥ प्रिय मोरे घट, मैं पियमहि । जलतरंग ज्यों द्विविधा नाहिं ॥19॥ पिय मो करता मैं करतुति । पिय ज्ञानी में ज्ञानविभूति ||201 for सुखसागर में सुखसव । पिय शिवमन्दिर में शिवनींव ॥21॥ for ब्रह्मा मैं सरस्वति नाम । पिय माधव मो कमला नाम ॥22॥ पिय शंकर मैं देवि भवानि । पिय जिनवर में केवलबानि ॥23॥
जहं पिय तह मैं पिय के संग। ज्यों शशि हरि में जोति प्रभंग ||29111 afaar बनारसीदास ने सुमति और चेतन के बीच प्रद्वैत भाव की स्थापना करते हुए रहस्यभावना की साधना की है। चेतन को देखते ही सुमति कह उठती है, चेतन, तुमको निहारते ही मेरे मन से परायेपन की गागर फूट गयी। दुविधा का अचल फट गया और शर्म का भाव दूर हो गया। हे प्रिय, तुम्हारा स्मरण आते ही मैं राजपथ को छोड़कर भयावह जंगल में तुम्हें खोजने निकल पड़ी। वहां हमने तुम्हें देखा कि तुम शरीर की नगरी के अतः भाग में अनन्त शक्ति सम्पन्न होते हुए भी कर्मों के लेप में लिपटे हुये हो । अब तुम्हें मोह निद्रा को भंग कर और रागद्वेष को दूर कर परमार्थ प्राप्त करना चाहिए ।
फूटि ।
बालम || ||
बालम तहुं तन चितवन गागर प्रचरा गो फहराय सम गै छूटि तिक रहूं जे सजनी रजनी घोर । घर करकेउ न जानं चहुदिसि चोर, बालम ||21 पिउ सुधि पावत वन मैं पैसिउ पेलि ।
छाउ राज डगरिया भयउ अकेलि, बालम ||३|| काय नगरिया भीतर चैतन भूप । करम लेप लिपटा बल ज्योति स्वरूप, बालम |15|| चेतन बूझि विचार घरहु सन्तोष । राग द्वेष दुइ बंधन छूटत मोष, बालम 11131 1 2
1.
वही, प्रध्यातम गीत, 18-29, पृ. 161-162.
2. बनारसीविलास, प्रध्यातम पद पंक्ति, 10, पृ. 228 - 29.
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पत्नी सुमति पति बेतन के वियोग में जल 'विन मीन के समान तड़पती है (वही, अध्यात्म गीत पृ. 159-60) और ऐसे मग्न होना चाहती है जैसे दरिया में दूद समा जाती है। अपने ही अथक प्रयत्नों से बह पन्ततः प्रिय चेतन को पाने में सफल हो जाती है-पिय मेरे घट में पिय माहि जलतरंग ज्यों दुविषा नाही (वही पृ. 161)। इसलिए वह कह उठती है-देखो मेरी सखिन ये माज चेतन घर मावे । (ब्रह्मविलास पद 14) । सतगुरु ने कृपा कर इस विछुरे कंत को सुमति. से मिला दिया (हिन्दी पद संग्रह, पद 379)।
साधक की प्रात्मा रूप सुमति के पास परमात्मा स्वयं ही पहुंच जाते हैं क्योकि वह प्रिय के विरह में बहुत क्षीण काय हो गई थी। विरह के कारण उसकी देचैनी तथा मिलने के लिए आतुरता बढ़ती ही गई । उसका प्रेम सच्चा था इसलिए भटका हुआ पति स्वयं वापिस पा गया। उसके आते ही सुमति के खंजन जैसे नेत्रों में खुशी छा गया। और वह अपने चपल नयनों को स्थिर करके प्रियतम के सौन्दर्य को निरखती रह गयी । मधुर गीतों की ध्वनि से प्रकृति भर गयी । अन्त: का भय मोर पाप रूपी मल न जाने कहाँ विलीन हो गये क्योंकि उसका परमात्मा जैसा साजन साधारण नहीं । वह तो कामदेव जैसा सुन्दर और अमृत रस जैसा मधुर है । वह अन्य बाह्य क्रियायें करने से प्राप्त नहीं होता । बनारसीदास कहते हैं वह तो समस्त कर्मों का क्षय करने से मिलता है ।
म्हारे प्रगटे देव निरंजन ।। प्रटको कहां-कहां सिर भटकत कहा कहूं जन-रंजन म्हारे. ॥1॥ खंजन दृग, दृग नयनन गाऊ वाऊ चितवत रंजन । सजन घर अन्तर परमात्मा सकल दुरित भय रंजन ॥ म्हारे. ।। वो ही कामदेव होय, कामघट वो ही मंजन ।
और उपाय न मिले बनारसो सकल करम पय खंजन ।। म्हारे. ।।।
भूधरदास की सुमति अपनी विरह-व्यथा का कारण कुमति को मानती है पौर इसलिए उसे "जह्यो नाश कुमति कुलटा को, बिरमायो पति प्यारो" (भूधरविलास, पद 29) जैसे दुर्वचन कहकर अपना दुःख व्यक्त करती है तथा पाशा करती है कि एक न एक दिन काल लब्धि प्रायेगी जब उसका चेतनराव पति दुरमति का साथ छोड़कर घर वापिस भायेगी (वही, पद 69)।
जैन साधकों एवं कवियों ने रहस्यभावनात्मक प्रवृत्तियों का उद्घाटन करने के लिए राजुल भोर तीपंकर नेमिनाथ के परिणय कथानक को विशेष रूप से चुना
1. बनारसीविलास, पृ. 241.
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है । राजुल भात्मा का प्रतीक है और नेमिनाथ परमात्मा का । राजुल रूप धारमा नेमिनाथ रूप परमात्मा से मिलने के लिए कितनी धातुर है यह देखते ही बनता है । यहाँ कवियों में कबीर और जायसी एवं मीरा से कहीं अधिक भावोदवेग दिखाई देता है । संयोग और वियोग दोनों के चित्ररण भी बड़े मनोहर और सरस हैं ।
भट्टारक रत्नकीर्ति की राजुल से नेमिनाथ विरक्त होकर किस प्रकार गिरिनार चले जाते हैं, यह श्राश्चर्य का विषय है उन्हें तो नेमिनाथ पर तन्त्र-मन्त्र मोहन को प्रभाव लगता है—''उन पे तंत मंत मोहन है, वैसो नेम हमारी ।" सच तो यह है कि "कारण कोउ पिया को न जाने ।" पिया 'विरह से राजुल का संताप बढ़ता चला जाता है और एक समय आता है जब वह अपनी सखी से कहने लगती है"सखी री नेम न जानी पीर' 'सखी को मिलावो नेम नरिन्दा', 'सखी री सावनि घटाई सतावे | "
भट्टारक कुमुदचन्द्र और अधिक भावुक दिखाई देते हैं । प्रसह्य विरह-वेदना से सन्तप्त होकर वे कह उठते है- सखी री अब तो रह्यो नही जात 12 हेमविजय की राजुल भी प्रिय के वियोग में अकेली चल पडती है उसे लोक मर्यादा का बंधन तोडना पड़ता है । घनघोर घटायें छायी हुई हैं, चारों तरफ बिजली चमक रही है, पिउरे पिउ रे की आवाज पपीहा कर रहा है, मोरें कंगारों पर बैठकर अवाजें कर रही हैं । श्राकाश से दू दें टपक रही हैं, राजुल के नेत्रों से प्रांसुनों की झड़ी लग जाती है । " भूधरदास की राजुल को तो चारों और अपने प्रिय के बिना अंधेरा दिखाई देता है । उनके बिना उसका हृदय रूपी धरविन्द मुरझाया पड़ा है। इस वेदना को वह अपनी मां से भी व्यक्त कर देती है, सखी तो ठीक ही है- "बिन पिय देखें मुरझाय रह्ययो है, उर अरविन्द हमागे री ॥ राजुल के विरह की स्वाभाविकता वहां और अधिक दिखाई देती है जहां वह अपनी सखी से कह उठती है - "तहाँ ले चल री जहाँ
1.
हिन्दी पद संग्रह,
पृ. 3-5.
2. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 16, जिनहर्ष का नेमि राजीमती बार समास सवैया 1. जैन गुर्जर कवियों, खंड 2, भाग, पृ. 1180; विनोदीलाल का नेमि राजुल बारहमासा, बारहमासा संग्रह, जैन पुस्तक भवन कलकत्ता, तुलनार्थ देखिये ।
3. नेमिनाथ के पद, हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि, पृ. 157; लक्ष्मी बालम का भी वियोग वर्णन देखिये जहाँ साधक की परमात्मा के प्रति दाम्पत्यमूलक रति दिखाई देती है, वही, नेमिराजुल बारहमासा, 14, पृ. 309. भूधर विलास, 13, पृ. 8.
4.
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जादोपति प्यारो | "नमि बिना न रहे मेरी जियरा," मां विलंवन लाव पठाव तहां दी जहाँ जगपति पिय प्यारौ' ?
जगतराम ने "सखी री विन देखे रायो न जाय" श्रौर द्यानतराय ने 'तैं देखे नेमिकुमार" कहकर राजुल की प्रांतरिक वेदना मे समरसता का सिंचन कर दिया । उनकी राजुल अपनी सखि से नेमिनाथ के साथ मिलाने का आग्रह करती हैएरी सखि नेमिजी को मोहि मिलावो " और कहती है---"सुनरी सखि, जहाँ नेमि गये तहां मो कहँ ले पहुंचावो री हां" (द्यानत पद संग्रह, 208 ) । पर उसे जब यह समझ में आ जाता है कि नेमिनाथ तो वैरागी हैं मुक्ति गामी हैं, तो वह कहने लगती है कि उनसे मिलना तभी सम्भव है जब वह भी वैरागिन हो जाय --- पिय वैराग्य लियो है किस मिस देखन जाऊँ । व्याहन श्राये पशु छुटकाये तजि रथ जनपुर गाऊँ ।। मैं सिंगारी वे अविकारी ज्यो नम मुठिय समाऊँ ।
द्यानत जो गिनि हवे विरमाऊँ कृपा करें निज ठाऊँ || (वही, पद 191)
इस सन्दर्भ में पंच सहेली गीत का उल्लेख करना श्रावश्यक है जिसमें बीहल
ने मालिन, तम्बोलनी, छीपनी, कलालनी और सुनारिन नामक पांच सहेलियों को पांच जीवों के रूप में व्यजित किया है । पाचों जीव रूप सहेलियों ने अपने-अपने प्रिय ( परमात्मा) का विरह वर्णन किया है। जब उन्हें ब्रह्मरूप पति की प्राप्ति नहीं हो पाती है तो वे उसके विरह से पीड़ित हो जाती हैं। कुछ दिनों के बाद प्रिय (ब्रह्म) मिल जाता है। उससे उन्हे परम आनन्द की प्राप्ति होती है । उनका प्रिय मिलन ब्रह्म मिलन ही है । पति के मिलन होने पर उनकी सभी श्राशाएं पूर्ण हो गयीं । पति के साथ समत्व प्रालिंगन साधक जीव जब ब्रह्म से मिलता है तो एकाकार हुए बिना नहीं रहता । इसी को परममुख की प्राप्ति कहते है । ब्रह्म मिलन का चित्ररण दृष्टव्य है :
काढया गात्र अपार ।
चोली खोल तम्बोलनी रंग कीया बहु प्रीयसु नयन मिलाई तार ||
भैया भगवतीदास का 'लाल' उनसे कहीं दूर चला गया इसलिए उसको पुकारते हुए वे कहते हैं-हे लाल, तुम किसके साथ घूम रहे हो ? तुम अपने ज्ञान के महल में क्यों नहीं आते ? तुमने अपने अन्तर में झांक कर कभी नहीं देखा कि वहाँ दया, क्षमा, समता और शांति जैसी सुन्दर नारियाँ तुम्हारे लिए खड़ी हुई हैं। वे धनुपम रूप सम्पन्न हैं ।
1.
2.
वही, 45, पृ. 25; पद 13.
पंचसहेली गीत, लुणकरजी पाण्डया मन्दिर, जयपुर के गुटका नं. 144 में अंकित है; हिम्दी जैन भक्ति काव्य और कवि, पृ. 101-103.
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कहां-कहां कौन संग लागे ही फिरत लाल, प्रावो क्यो न भाज तुम ज्ञान के महल में । नेक बिलोकि देखt अन्तर सुदृष्टि सेती, कैसी-कैसी नीकि नारी ठाड़ी है टहल में । एक ते एक बनी, सुन्दर स्वरूप घनी, उपमा ने जाय बाम को चहल में । 2 महात्मा मानन्दघन की आत्मा भी अपने प्रियतम के वियोग में तड़पती दिखाई देती है । इसी स्थिति मे कभी वह मान करती है तो कभी प्रतीक्षा, कभी उपालम्भ देती है तो कभी भक्ति के प्रवाह मे बहती है, कभी प्रिय के वियोग में सुध बुध खो देती है- 'पिया बिन सुधि-बुधि भूली हो ।" विरह - भुजंग उसकी शैय्या को रात भर खूं देता रहता है, भोजन-पान करने की तो बात की क्या ? अपनी इस दशा का वर्णन किससे कहा जाय ? उसका प्रिय इतना अधिक निष्ठुर हो जाता है कि वह उपालम्भ दिये बिना नही रहती । वह कहती है कि मैं मन, वचन और कर्म से तुम्हारी हो चुकी, पर तुम्हारी यह निष्ठुरता और उपेक्षा क्यों ? तुम्हारी प्रवृत्ति फूल-फूल पर मडराने वाले भ्रमर जैसी है तो फिर हमारी प्रीति का निर्वाह कैसे हो सकता है ? जो भी हो, मै तो प्रिय से उसी प्रकार एकाकार हो चुकी हूं जिस प्रकार पुष्प में उसकी सुगन्ध मिल जाती है। मेरी जाति भले ही निम्न कोटि की हो पर तुम्हें किसी भी प्रकार के गुण-अवगुण का विचार नहीं करना चाहिए ।
पिया तुम निठुर भए क्यू ऐसे ।
मै मन बच क्रम करी राजरी, राउरी रीति मनसें ॥
फूल-फूल मंबर कैसी भाउंरी भरत हो निब है प्रीति क्यूं ऐसें । मैं तो पियते ऐसि मिली घाली कुसुम वास संग जैसें ॥ प्रोछी जात कहा पर ऐती, नीर न हैयँ भैसें । गुनगुन न विचारी श्रानन्दधन कीजिये तुम हो तसे ||
"सुहागरण जागी अनुभव प्रीति" में पगी और अन्तः करण में अध्यात्म दीपक से जगी प्रानन्दधन की प्रात्मा एक दिन सौभाग्यवती हो जाती है । उसे उसका प्रिय
1. ब्रह्मविलास, शत प्रष्टोत्तरी, 27 वां पद्य, पृ. 14. प्रानन्दघन बहोत्तरी, 32-41.
2.
3.
पिया बिन सुधि-बुधि मूंदी हो ।
विरह भुजंग निसा समै. मेरी सेजड़ी खूदी हो ।
atanपान कथा मिटी. किसकूं कहूं सुद्धी हो । वही, 62
4. मानन्दघन महोत्तरी, 32.
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(परमात्मा) मिल जाता है । अतएव वह सौलहों शृंगार करती है । पहनी हुई झीनी साड़ी में प्रतीति का राग झलक रहा है। भक्ति की मेंहदी लगी हुई है, शुभ भावों का सुखकारी अंजन लगा हुआ है। सहजस्वभाव की चूड़ियाँ और स्थिरता का कंकन पहन लिया है। ध्यान की उर्वशी को हृदय में रखा और प्रिय की गुणमाला को धारण किया । सुरति के सिन्दूर से मांग संवारी, निरति की वेणी सजाई । फलतः उसके हृदय में प्रकाश की ज्योति उदित हुई । अन्त:करण में अजपा की मनहद ध्वनि गुंजित होती है भोर अविरल मानन्द की सुखद वर्षा होने लग लग जाती है।
प्राज सुहागन नारी, अवधू पाज । मेरे नाथ पाप सुध, कीनी निज भंगचारी। प्रेम प्रतीति राग रुचि रंगत, गहिरे झीरी सारी । मंहिदी भक्ति रंग की राची, भाव मंजन सुखकारी। सहज सुभाव चुरी मैं पन्ही, थिरता कंकन भारी। ध्यान उरबसी उर में राखी, पिय गुनमाल प्रधारी । सुरत सिन्दूर मांग रंगराती, निरत बैनि समारी। उपजी ज्योति उद्योत घट त्रिभुवन पारसी केवलकारी । उपजी धुनि प्रजपा की अनहद, जीत नगारेवारी।
झड़ी सदा मानन्दघन बरसत, बन मोर एकनतारी॥ जैन साधकों ने एक और प्रकार के प्राध्यात्मिक प्रेम का वर्णन किया है। साधक जब प्रनगार दीक्षा लेता है तब उसका दीक्षा कुमारी अथवा संयमश्री के साथ विवाह सम्पन्न होता है। प्रात्मा रूप पति का मन शिवरमणा रूप पत्नी ने पाकषित कर लिया 'शिवरमणी मन मोहियो जी जेठे रहे जी लुभाव ।
कवि भगवतीदास अपनी चूनरी को अपने इष्ट देव के रंग में रंगने के लिए प्रातुर दिखाई देते हैं । उसमें प्रात्मा रूपी सुन्दरी शिव रूप प्रीतम को प्राप्त करने का प्रयत्न करती है । वह सम्यक्त्व रूपी वस्त्र को धारण कर ज्ञान रूपी जल के द्वारा सभी प्रकार का मल धोकर सुन्दरी शिव से विवाह करती है । इस उपलक्ष्य में एक सरस ज्योनार होती है जिसमें गणधर परोसने वाले होते है जिसके खाने से मनन्त चतुष्टय की प्राप्ति होती है।
1. वही. पृ. 20. 2. शिव-रमणी विवाह, 16 अजयराज पाटणी, बधीचन्द मन्दिर, जयपुर
गुटका नं. 158 वेष्टन नं 1273.
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तुम्ह जिनवर देहि रंगाई हो, विनवड़ सषी पिया शिव सुन्दरी । अरुण अनुपम माल हो मेरो भव जलतारण चुनड़ी ||2|| समकित वस्त्र विसाहिले ज्ञान सलिल सग सेइ हो ।
मल पचीस उतारि के, दिढिपन साजी देइ जी || मेरी ||3|| बड़ जानी गरणधर तहा भले, परोसंग हार हो । शिव सुन्दरी के बयाह की, सरस भई ज्योंणार हो ॥30॥ मुक्ति रमरिण रंग त्यौ रमैं, वसु गुरणमंडित सेइ हो । अनन्त चतुष्टय सुष घरणां जन्म मरण नहि होइ हो ||32||
6. प्राध्यात्मिक होली
जैन साधकों और कवियों ने प्राध्यात्मिक विवाह की तरह प्राध्यात्मिक होलियों की भी सर्जना की है। इसको फागु भी कहा गया है। यहां होलियों और फागों में उपयोगी पदार्थों (रंग, पिचकारी, केशर, गुलाल, विवध वाद्य मादि ) को प्रतीकात्मक ढंग से अभिव्यंजित किया गया है। इसके पीछे आत्मा-परमात्मा के साक्षात्कार से सम्बद्ध श्रानन्दोपलिन्धि करने का उद्देश्य रहा है । यह होली अथवा फाग प्रागा रूपी नायक शिवसुन्दरी रूपी नायिका के साथ खेलता है । कविवर बनारसीदास ने 'मध्यातम फाग' में अध्यातम बिन क्यों पाइये हो, परम पुरुष को रूप | अट मांग घट मिल रद्यो हो महिमा अगम अनूप की भावना से वसन्त को बुलाकर विविध अंग-प्रत्यंगों के माध्यम से फाग खेली और होलिका का दहन किया 'विषम विरस' दूर होते ही 'सहज वसन्त' का श्रागमन हुआ । 'सुरुचि सुगषिता' प्रकट हुई । 'मन-मधुकर' प्रसन्न हुआ । 'सुमति कोकिला' का गान प्रारम्भ हुआ । पूर्व वायु बहने लगी । 'भरम-कुहर' दूर होने लगा । 'जड-वाडा' घटने लगा । मायारजनी छोटी हो गई । समरस-राशि का उदय हो गया । 'मोह-पंक की स्थिति कम हो गई। संशय- शिशिर समाप्त हो गया । शुभ - पल्लवदल' लहलहा उठे । 'प्रशुभ पतझर' होने लगी । 'मलिन - विषयरति दूर हो गई, 'विरति-बेलि' फैलने लगी, 'शशिविवेक निर्मल हो गया, विरता-अमृत हिलोरे लेने लगा शक्ति सुचन्द्रिका फैल गई, 'नयन-चकोर' प्रमुदित हो उठे, सुरति श्रग्निज्वाला' भभक उठी समकित सूर्य, उदित हो गया, 'हृदय-कमल' विकसित हुम्रा, 'सुयश-मकरन्द' प्रगट हो गया, दृढ़ कषाय हिमगिरी जल गया, 'निर्जरा नदी' में धारणाधार 'शिव-सागर' की प्रोर बहने लगी
1
1.
श्री चूनरी, इसकी हस्तलिखित प्रति मंगोरा (मथुरा) निवासी प. क्ल्लभ राम जी के पास सुरक्षित है, प्रपभ्रंश और हिन्दी में जैन रहस्यवाद, पृ. 90
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fare वात- प्रभूता मिट गई, यथार्थ कार्य जाग्रत हो गया, बसन्तकाल में जंगल भूमि सुहावनी लगने लगी । 1
बसन्त ऋतु के आने के बाद भलख अमूर्त भात्मा प्रध्यात्म की भोर पूरी तरह से झुक गयी । कवि ने फिर यहां फाग और होलिका का रूपक खड़ा किया और उसके अंग-प्रत्यंगों का सामंजस्य अध्यात्म क्षेत्र से किया । 'नय वाचरि पंक्ति' मिल गई, 'ज्ञान ध्यान' उफताल बन गया, 'पिचकारी पद भी साधना हुई, 'संवरभाव गुलाल' बन गया, 'शुभ भाव भक्ति तान' मे 'राग विराम' अलापने लगा, परम रस में लीन होकर दस प्रकार के दान देने लगा ।" दया की रस भरी मिठाई, तप का मेवा, शील का शीतल जल, संयम का नागर पान खाकर निर्लज्ज होकर गुप्ति-मंग प्रकट होने लगा, अकथ कथा प्रारम्भ हो गई, उद्धत गुण रसिया मिलकर ममल विमल रसप्रेम में सुरति की तरंगे हिलोरने लगी। रहस्यभावना की पराकाष्ठा हो जाने पर परम ज्योति प्रगट हुई । भ्रष्ट कर्म रूप काष्ठ जलकर होलिका की बाग
1.
2.
विशम विरण पूरो भयो हो, प्रायो सहज वसंत । प्रगटी सुरूचि सुगन्धिता हो, मन मधुकर मयत ॥ अध्यातम विन क्यो पाइये हो ॥2॥
201
सुमति कोकिला गह गही हो बही अपूरब वाउ ।
भरम कुहर बादर फटे हो' घट जाडो जड़ ताउ || प्रध्यातम || 3 || मायारजनी लघु भई हो' समरस दिवशशि जीत ।
मोह पंक की थिति घटी हो' संशय शिशिर व्यतीत || अध्यातम || 4 ||
शुभ दल पल्लव लहलहे हो' होहि प्रशुभ पतकार ।
मलिन विषय रति मालती हो' विरति वेलि विस्तार ॥ म्रध्यातम ॥5॥ शशिविवेक निर्मल भयो हो, थिरता प्रभिय झकोर ।
फैली शक्ति सुचन्द्रिका हो' प्रमुदित नंम चकोर ॥ श्रध्यातम ||6||
सुरति अग्नि ज्वालागी हो' समकित भानु श्रमन्द |
हृदय कमल विकसित भयो हो' प्रगट सुजश मकरन्द। मध्यातम || 7 || दिढ कषाय हिमगिर गये हो नदी निर्जरा जोर ।
धार धारणा बह चली हो शिवसागर मुख औौर || ध्यातम ||8|| वितथ वात प्रभूता मिटी हो जग्यो जथारथ काज ।
जंगलभूमि सुहावनी हो तुप वसन्त के राज || अध्यातम ||9|| बनारसीविलास, मध्यातम फाग 2-6 पं. 154
गौ सुवर्ण दासी भवन गज तुरंगे परधान ।
कुलकलच तिल भूमि रथ ये पुनीत दशदान । वही, बसवा 1 पं. 177.
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202.
बुझ गई, पचासी प्रकृतियों की भस्म को भी स्नानादि करके धो दिया और स्वयं उज्जवल हो गया । इसके उपरान्त फाग का खेल बन्द हो जाता है, फिर तो मोहपाक्ष के नष्ट होने पर सहज श्रात्मशक्ति के साथ खेलना प्रारम्भ हो जाता है'नय पंकति चाचरि मिलि हो ज्ञान ध्यान डफताल । संवर भाव गुलाल || अध्यातम ||11||
पिचकारीपद साधना हो राम विराम प्रलापिये हो
भावभगति थुमतान ।
रीझ परम रसलीनता दीजे दश विधिदान || अध्यातम ||12।।
1.
2.
दया मिठाई रसभरी हो तप मेवा परधान ।
शील सलिल प्रति सीयलो हो संजम नागर पान || अध्यातम ||1311
गुपति अंग परगासिये हो यह निलज्जता रीति ।
यह गारी निरनीति ॥ म्रध्यातम ||14|
ree कथा मुखभ लिये हो उद्धत गुण रसिया मिले हो सुरत तरंगमह छकि रहे हो, मनसा वाचा नेन ||अध्यातम ||1||
भ्रमल विमल रस प्र ेम ।
परम ज्योति परगट भई हो, लगी होलिका आग |
पाठ काठ सब जरि बुझ हो, गई तताई भाग ॥ श्रध्यातम ||16||
प्रकृति पचासी लगि रही हो, भस्म लेख है सोय ।
न्हाय धोय उज्जवल भये हो, फिर तह खेल न कोय ॥ म्रध्यातम ||17||
सहज शक्ति गुण खेलिये हो चेत बनारसीदास ।
सगे सखा ऐसे कहे हो, मिटे मोह दधि फास || अध्यातम ||18|| 1
जगतराम ने जिन राजा और शुद्ध परिणति-रानी के बीच खेली जाने वाली होली का मनोरम दृश्य उपस्थित किया है । वे स्वयं उस रंग में रंग गये हैं और होली खेलना चाहते है पर उन्हे खेलना नहीं आ रहा है- कैसे होरी खेली खेलि न भावं । क्योकि हिंसा झूठ चोरी कुशील, तृष्णा प्रादि पापों के कारण चित्त चपल हो गया। ब्रह्म ही एक ऐसा प्रक्षर है जिसके साथ खेलते ही मन प्रसन्न हो जाता है । उन्होंने एक अन्यत्र स्थान पर 'सुध बुध गोरी' के साथ 'सुरूचि गुलाल' लगाकर फाग भी खेली है। उनके पास 'समता जल' की पिचकारी है जिससे 'करुणा - केसर' का गुरग छिटकाया है । इसके बाद अनुभव की पान-सुपारी और सरस रंग लगाया ।
सुध बुध गोरी संग लेय कर, सुरूचि गलाल लगा रे तेरे । समता जल पिचकारी, करुणा केसर गुरण छिरकाय रे तेरे ॥
बनारसीविलास, मध्यातम फाग, 18, पं. 155-156.
अक्षर ब्रह्म खेल प्रति नीको खेलत ही हुलसाबै-हिन्दी पद संग्रह, पृ. 92.
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2031
अनुभव पानि सुपारी घरचानि, सरस रंग लगाय रे तेरे,।
राम कहै जै'इह विधि पेले, मोक्ष महल में जाप रे ॥
धानतराय ने होली का सरस चित्रण प्रस्तुत किया है। वे-सहज, बसन्तकान में होली खेलने का माहवान करते हैं। दो दल एक दूसरे के सामने खड़े हैं। एक दल में बुद्धि, दया, भमा रूप नारी वर्ग खड़ा हुमा है और दूसरे दल में रलत्रयादि गुणों से सजा प्रात्मा रूप पुरुष वर्ग है। ज्ञान, ध्यान, रूप, डफ, ताल मादि वाघ बजते हैं, घनघोर अनहद नाद होता है, धर्म रूपी लाल वर्ण का गुलाल उड़ता है, समता का रंग घोर लिया जाता है, प्रश्नोत्तर की तरह पिचकारियाँ चलती है। एक मोर से प्रश्न होता है-तुम किसकी नारी हो, तो दूसरी ओर से प्रश्न होता है, तुम किसके लड़के हो? बाद में होली के रूप में प्रष्ट कर्म रूप ईधन को अनुभव रूप अग्नि में जला देते है और फलतः चारों ओर शान्ति हो जाती है इसी शिवानन्द को प्राप्त करने के लिए कवि ने प्रेरित किया है।
जिस समय सारा नगर होली के खेल में मस्त है, सुमति अपने पति चेतन के प्रभाव में खेद खिन्न है। उसे इस बात का अन्यन्त दुःख है कि उसका पति अपनी सौत कुमति के साथ होली खेल रहा है । इसलिए सोचती है 'पिमा विन कासों खेलों होरी' (धानत पद संग्रह, पद (93)। संयोग वश चेतनराय घर वापिस माते हैं और सुमति तल्लीन होकर उनके साय होली खेलती है-भली भई यह होरी माई माये चेतनगय (वही,फ्द 193)।
इसी प्रकार वे चेतन से समता रूप प्राणप्रिया के साथ 'छिमा वसन्त' में होली खेलने का प्राग्रह करते है। प्रेम के पानी में करुणा की केसर घोलकर ज्ञान
1. महावीरजी अतिशय क्षेत्र का एक प्राचीन गुटका, साइज 8-6, पृ. 160%;
हिन्दी जन भक्ति काव्य और कवि, पं. 256. 2. भायो सहज बसन्त खेलें, सब होरी होरा ।।
उत बुधि देया छिमा बहुगढ़ी, इत जियं रतन सजे गुन जोरा ॥ ज्ञान ध्यान डफ ताल बजत हैं. अनहद शब्द होत धनयोरा॥ घरम सुराग गुलाल उड़त हैं, समता रंग दुई ने घोरा ॥मायो0021.. परसल उत्तर भरि पिचकारी, छोरत दोनों कटि कटि जोरा। इततें कह नारि तुम काकी. उतते कहें कोन को छोरा ।। माठ काठ अनुभव पावक में, जल बुझ शांत भई सब मोरा ।। चानत शिव मानन्द चन्द छबि, देखे सज्जन नैन चकोरा 141 हिन्दी पद संग्रह, पृ. 119.
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ध्यान की पिचकारी से होली खेलते हैं। उस समय गुरु के वचन ही मदंग है, निश्चय व्यवहार नय ही ताल हैं, संयम ही इत्र है, विमल व्रत ही चौला है, भाव ही गुलाल है जिसे अपनी झोरी में भर लेते हैं, धरम ही मिठाई है, तप ही मेवा है, समरस से प्रानन्दित होकर दोनों होली खेलते हैं । ऐसे ही चेतन और समता की जोड़ी चिरकाल तक बनी रहे, यह भावना सुमति अपनी सखियों से अभिव्यक्त करती है
चेतन खलो होरी ।। समता भूमि छिमा बसन्त में, समता प्रान प्रिया संग गौरी ॥1॥ मन को माट प्रेम को पानो, तामें करुना केसरधोरी, जान ध्यान पिचकारी भरि भरि, भाप में छारं होरा होरी ।।2।। गुरु के वचन मृदंग बजत हैं, नय दोनो, डफ ताल टकोरी. संजम प्रतर विमल व्रत चौवा, भाव गुलाल भर भर झोरी ।। परम मिठाई तप बहुमेवा, समरस पानन्द अमल कटोरी,
द्यानत सुमनि कहें सखियन सो, चिरजीबो यह जुग जुग जोरी॥ इसी प्रकार कविवर भूधरदास का भी आध्यात्मिक होलो का वर्णन देखिये___ "महो दोऊ रंग भरे खेलत होरी ।।1।।
मलख प्रमूरति की जोरी ॥ इनमे मातमराम रगीले, उतते सुबुद्धि किसोरी। या के ज्ञान सखा संग सुन्दर, वाके संग समता गौरी ।12।। सुचि मन सलिल दया रस केसरि, उदै कलस में धोरी । सुधि समझि सरल पिचकारी, सखिय प्यारी भरि भरि छोटी ॥3॥ सतगुरु सीख तान घर पद की, गावत होरा होरी। पूरव बंध प्रबीर उड़ावत, दान गुलाल भर झोरी ॥4॥ भूधर प्राज बड़े भागिन, सुमति सुहागिन मोरी।
सौ ही नारि सुलछिनी जन मैं, जासौं पति ने रनि जोरी। 512
एक अन्य कृति में भूधरदास अभिव्यक्त करते हैं, कि उसका चिदानन्द जो अभी तक संसार में भटक रहा था, घर वापिस मा गया है। यहां भूधर स्वयं को प्रिया मानकर और चिदानन्द को प्रीतम मानकर उसके साथ होली खेलने का निश्चय करते हैं- "होरी खेलूगी घर पाये चिदानन्द ।" क्योंकि मिथ्यात्व की शिशिर समाप्त हो गई, काललब्धि का वसन्त पाया, बहुत समय से जिस अवसर की
1. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 121. 2. वही, पृष्ठ 149.
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प्रतीक्षा थी, सौभाग्य से वह समय आ गया, प्रिय के विरह का अन्त हो गया अब उसके साथ फाग खेलना है। कवि ने यहां श्रद्धा को गगरी बनाया उसमें रुचि का केशर घोला, मानन्द का जल डाला और फिर उमंग भर प्रिय पर पिचकारी छोड़ी कवि मत्यन्त प्रसन्न है कि उसकी कुमति रूप सौत का वियोग हो गया । वह चाहता है कि इसी प्रकार सुमति बनी रहे
____ 'होरी खेलूगी घर पाए चिदानन्द ।। गिरा मिथ्यात गई प्रब, माई काल की लविध वसंत होरी।। पीय संग खेलनि कों, हय सइये तरसी काल अनन्त ।। भाग जग्यो मब माग रचानी, पायो विरह को अंत ॥ सरधा गागरि में रुचि रूपी केसर घोरी तुरन्त ॥ प्रानन्द नीर उमंग पिचकारी, छोडूगी नीकी भंत ॥ आज वियोग कुमति सोननिकों, मेरे हरष अनन्त ॥
भूघर धनि एही दिन दुर्लभ सुमति राखी विहसंत ॥1
नवलराम ने भी एसी ही होली खेलने का प्राग्रह किया है। उन्होंने निज परणति रूप सुहागनि भीर सुमतिरूप किशोरी के साथ यह खेल खेलने के लिए कहा है । ज्ञान का जल भरकर पिचकारी छोडी, क्रोध मान का अबीर उड़ाया, राग गुलाल की झोरी ली, संतोष पूर्वक शुम भावों का चन्दन लिया, समता की केसर घोरी प्रात्मा की चर्चा की, 'मगनता' का त्यागकर करुणा का पान खाया और पवित्र मन से निर्मल रंग बनाकर कर्म मल को नष्ट किया । एक अन्यत्र होली में वे पुनः कहते हैं-"पैसे खेल होरी को खेलिरे' जिसमें कुमति ठगोरी को त्यागकर सुमति-गोरी के साथ होली खेल ।" प्रागे नवलराम यह भाव दर्शाते हैं कि उन्होंने इसी प्रकार होली खेली जिससे उन्हें शिव पेठी का मार्ग मिल गया।
जैसे खेल होरी को खेलिरे ।। कुमति ठगोरी की प्रब तजि करि, तु साथ सुमति गोरी को ॥ नवल हसी विधि खेलत है, ते पावत हैं मग शिव पोरी को ।।
1. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 158. 2. इह विधि खेलिये होरी हो चतुर नर ॥
निज परनति संगि लैह सुहागिन, अरू फुनि सुमति किशोरी हो ॥1॥ ग्यान मइ जल सौ भरि भरि के, सबद पिचरिका छोरी क्रोध मान प्रबीर उड़ावो राग गुलाल की झोरी ही ।।3। हिन्द पद
संग्रह, पृ. 177 3. वही, पृ. 176.
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दुवजन भी चेतन को सुमति के साथ होली खेलने की सलाह देते है-चेतन खेल सुमति रंग होरी ।' कषायादि को त्यागकर, समकित की केशर घोलकर मिया की शिल को चूर-चूरकर निज गुलाल की झोरी धारणकर शिव-मीरी को प्राप्त करने की बात कही है। कवि को विशुद्धात्मा की अनुभूति होने पर यह भी कह देते हैं
निजपुर में प्राज मची होरी । उमगि चिदानन्द जी इत पाये, इत प्राई सुमती गोरी । लोक लाज कुलकानि गमाई, ज्ञान गुलाल भरी झोरी । समकित केसर रंग बनायो, चारित की पिचुकी छोरी । गावत मजपा गान मनोहर, अनहद झरसौं वरस्यो री।
देखन माये बुधजन भीगे, निरख्यो ख्याल अनोखी री॥ सर्वत्र होली देखकर सुमनि परेशान हो कह उठती है-'और सबै मिलि होरि रचावें हूं, करके संग खेलूगी होरी' (बुधजन विलास, पद 43) । इसलिए बुधजन 'वेतन खेल सुमति संग होरी कहकर सत्गुरु की सहायता से चेतन को सुमति के पास वापस पाने की सलाह देते हैं--(बुधजन विलास, पद 43) । प्राध्यात्मिक रहस्य भावना से मोतप्रोत होने पर कवि का चेतनराय उपके घर वापस पा जाता है पोर फिर वह उसके साथ होली खेलने का निश्चय करता है-'अब घर माये चेतनराय, सजनी खेलौंगी मैं होरी। कुमति को दूरकर सुमति को प्राप्त करता है, विज स्वभाव के जल से हौज भरकर निजरंग की रोरी घोलता है, शुद्ध पिचकारी लेकर निज मति पर छिड़कता है और अपनी अपूर्व सक्ति को पहचान लेता है
अब घर भाये बेतनराय, सजनी खेलौंगी मैं होरी ।। पारस सोच कानि कुल हरिक, धरि धीरज बरजोरी। बुरी कुमति की बात न बूझ, चितवत है मोमोरी, वा गुरुजन की बलि-वलि जाऊं, दूरि करी मति भोरी ।। निज सुभाव जल हौज भराऊं, घोरू निजरंग रोरी। निज त्यौं ल्याय शुद्ध पिचकारी, छिरकन निज मति दोरी॥ गाय रिझाय माप वश करिक, जावन धौं नहि पोरी। बुधजन रचि मति रहूं निरंतर, शक्ति अपूरब मोरी। सजनी॥
1. छार कषाय त्यागी या गहि ले समकित केशर घोरी।
मिथ्या पत्थर गरि धारि लै, निज गुलाल की मोरी ॥ 'बुधजनविलास', 40 2. वही, पृ. 49.
छार कषाय त्यागी या गहि ले समकित केशर घोरी। मिथ्या पत्थर डारि पारि लै, निज गुलाल की झोरी ।। 'बुधजनविलास',49.
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aterरामजी का मन भी ऐसी ही होली खेलता है। उन्होंने मन के मृदंग सजाकर, तन को तंबूरा बनाकर, सुमति की सारंगी बजाकर, सम्यक्त्व का नीर भरकर करुणा की केशर धोलकर ज्ञान की पिचकारी से पंचेन्द्रिय- सखियों के साथ होली खेली। माहारादिक चतुर्दान की गुलाल लगाई, तप के मेवा को अपनी झोली में रखकर यश की अबीर उड़ाई और अंत में भव-भव के दुःखों को दूर करने के लिए 'फागुमा शिव होरी' के मिलन की कामना करते हैं । कवि ने इसी प्रसंग में बड़े ही सुन्दर ढंग से यह बताने का प्रयत्न किया है कि सम्यग्ज्ञानी जीव कर्मों की होली किस प्रकार खेलता है
1.
ज्ञानी ऐसी होली मचाई ||
राग कियो विपरीत विपन घर, कुमति कुसौति सुहाई । धार दिगम्बर कीन्ह सु संवर निज परभेद लखाई । घात विषदिनकी बचाई || ज्ञानी ऐसी ॥11॥ कुमति सखा भजि ध्यानभेद सम, तन में तान उडाई । कुम्भक ताल मृदंगसी पूरक रेचकवीन बजाई । लगन अनुभव सौं लगाई || ज्ञानी ऐसी 1121
कर्म बतीता रसानाम घरि वेद सुइन्द्रि गनाई । दे तप अग्नि भस्म करि तिनको, धूल प्रधाति उड़ाई । करी शिवतिय की तिताई || ज्ञानी ॥3॥
मेरो मन ऐसी खेलत होरी ॥
मन मिरदंग साजकरि त्यागी, तन को तमूरा बनोरी । सुमति सुरंग सारंगी बजाई, ताल दोउ करजोरी | राग पांचों पद कोरी, मेरो मन ॥1॥ समकिति रूप नीर भर भारी, करुना केशर घोरी । ज्ञानमई लेकर पिचकारी, दोउ करमाहि सम्होरी । इन्द्र पांचों सखि बोरी, मेरे मन. ॥2॥
चतुरदान को है गुल्लाल सो, भरि भरि सुठि चलोरी । तप मेवाकी भरि निज कोरी, यश की अबीर उड़ोरी । रंग जिनधाम मचोरी, मेरे मन. ॥13॥
दौलत बाल खेलें इस होरी, भवभव दुःख टलोरी ।
शरना ले इक वजन को री, जग में लाज हो तोरी ।
मिले फगुमा शिव होरी। मेरे मन. ॥4॥ दौलत जैन पद संग्रह . 26.
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सो
ज्ञान को फाग भाग वश भाव लाख करो चतुराई । गुरु दीनदयाल कृपा करि दौलत तोहि बताई । नही चित्त से विसराई, ज्ञानी ||4|| 2
7. पंच कल्यारक
विवाह, फागु भोर होलियो के साथ ही जैन साधकों ने अपने इष्टदेव के पंच कल्याणकों का भी काव्यमय प्राध्यात्मिक वर्णन किया है । परम्पराम्रों को starrer मे गूंथ देना उनकी विशेषता है। देवी-देवताओं द्वारा भगवान के मातापिता की सेवा सुश्रुषा श्रर्चा-पूजा, उनके गर्भ में आते ही प्रारम्भ कर दी जाती है । जन्म होने पर कुबेर द्वारा निर्मित मायामयी ऐरावत पर बैठकर इन्द्र-इन्द्राणी भगवान के माता-पिता के पास आते हैं और मायामयी बालकको मां के पास लिटाकर भगवान को पांडुक शिला पर ले जाकर एक हजार आठ कलशो से स्नान करते हैं । इसी तरह दीक्षा तप और निर्वाण का वर्णन भी जैन कवियों ने पारम्परिक मान्यताम्रों के साथ काव्यमयी वाणी में किया है । भूधरदास उसे वचनमगोचर मानते हैं -- कहि थर्क लोक लख जीभ न सके बरन (भूधरविलाम, पद 39) और दौलतराम तृप्त होकर मुक्ति राह की ओर बढते है - 'दौलत नाहि लेखे चख तृप्तहि सूभत शिववटवा' (दौलत विलास, पद 39) कविवर बनारसीदास ने शुद्धो योग को मूल नक्षत्र में उत्पन्न 'बेटा' का रूप देकर बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है । उन्होने कहा है कि जिस प्रकार मूल नक्षत्र मे उत्पन्न बालक परिवार के विनाश का कारण होता है उसी प्रकार शुद्धोपयोग के उत्पन्न होने पर ममता, मोह, लोभ, काम, कोष श्रादि सारे विकार भाव ध्वस्त हो जाते हैं ।
'मूलन बेटा जायो रे साधौ, जाने खोज कुटुम्ब सब खायो रे साधो । जन्मत माता ममता खाइ मोह लोक व दोई भाई ||
काम, क्रोध दोई काका खाये, खाई तृषना दाई । पापी पाप परोसी खायो अशुभ करम दोई मामा । मान नगर को राजा खायो, फैल परौ सब गामा ॥ दुरमति दादी खाई दादी, मुख देखत ही मूम्रो । मंगलाचार बाजाये बाजे जब यों बालक हुनो । नाम धरयो बालक को भौंदू, रूप वरन कुछ नाहीं । नाम घरतें पांडे खाये, कहत बनारसी भाई ।
1. वही, पृ. 20.
( बनारसीविलास, पृ 238 )
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इस प्रकार मध्यकालीन हिन्दी के जैन साधकों द्वारा लिखित विवाह, फागु और होलियां प्रादि प्राध्यात्मरस से सिक्त ऐसी दार्शनिक कृतियाँ हैं जिनमें एक घोर उपमा, उत्पेक्षा, रूपक, प्रतीक प्रादि के माध्यम से जंन दार्शनिक सिद्धान्तों को प्रस्तुत किया गया है वहीं दूसरी भोर तात्कालीन परम्परामों का भी सुन्दर चित्रण हुमा है । दोनों के समन्वित रूप से साहित्य की छटा कुछ अनुपम-सी प्रतीत होती है । साधक की रहस्यभावना की अभिव्यक्ति का इसे एक सुन्दर माध्यम कहा जा सकता है। विशुद्धावस्था की प्राप्ति, चिदानन्द चैतन्यरस का पान, परम सुख का अनुभव तथा रहस्य की उपलकि का भी परिपूर्ण ज्ञान इन विधायों से झलकता है ।
जैन साधकों की रहस्य-साधना में भक्ति, योग, सहज भावना और प्रेमभावना का समन्वय हुआ है । इन सभी मार्गों का अवलम्बन लेकर साधक अपने परम लक्ष्य पर पहुंचा है प्रौर उसने परम सत्य के दर्शन किये हैं । उसके और परमात्मा के बीच बनी खाई पट गई है। दोनों मिलकर वैसे ही एकाकार और समरस हो गये जैसे जल और तरंग | यह एकाकारता भक्त साधक के सहज स्वरूप का परिणाम है जिससे उसका भावभीना हृदय सुख-सागर में लहराता रहता है घौर अनिर्वचनीय मानंद का उपभोग करता रहता है।
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अष्टम परिवर्त रहस्य भावनात्मक प्रवृत्तियों का तुलनात्मक अध्ययन
जैसा हम पिछले पृष्ठों में देख चुके हैं, रहस्यभावना प्राध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में एक ऐसा असीमित तत्त्व है जिसमें संसार से लेकर संसार से विनिमुक्त होने की स्थिति तक साधक अनुचिन्तन और अनुप्रेक्षण करता रहता है । प्रस्तुत प्रध्याय में हम रहस्यभावना के प्रमुख बाधक तत्वों से लेकर साधक तत्त्वों और रहस्यभावनात्मक प्रवृत्तियों का सक्षिप्त तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत कर रहे हैं । इस सन्दर्भ में हमने मध्यकालीन हिन्दी साहित्य के जायसी कबीर, सूर, तुलसी, मीरा प्रादि जैसे रहस्यवादी
नेतर कवियों के विचार देखे हैं और उनके तथा जैन कवियों के विचारों में साम्य-वैषम्य खोजने का भी प्रयत्न किया है।
1. वाधक तत्त्व 1. संसार-चिन्तन :
संसार की क्षणभंगुरता और अनित्यशीलता पर सभी प्राध्यात्मिक सन्तो ने चिन्तन किया है । संसार का अर्थ है संसरण अर्थात् जन्म-मरण । यह जन्म-मरण शुभाशुभ कर्मों के कारण होता है-'एवं भवसंसारइ सुहासु होहिं कम्मेहि ।। उपनिषद्, त्रिपिटक, पागम मादि ग्रन्थों में एतत् सम्बन्धी अनेक उदाहरण मिलते हैं । प्राचार्यों ने शरीर और सांसारिक विषयों को मोह का कारण माना है । उन्होंने यह भी अनुभव किया है कि जिस प्रकार जीव पौर शरीर का सम्बन्ध समाप्त हो जाता है उसी प्रकार सभी प्रात्मीय जन भी बिछुड़ जाते हैं । माता-पिता, पत्नी, पुत्र, भाई मादि सभी लोग मृत व्यक्ति को जलाकर रोते-चिल्लाते वापिस चले जाते हैं परन्तु
1.
उत्तराध्ययन, पृ. 10, 15.
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उसके साथ जाता कोई नहीं।' जगजीवन ने इसलिए संसार को 'पन की छाया बताकर पुत्र, कलत्र, मित्र प्रादि को 'उदय पुद्गल बुरि माया' कहा है । कबीर ने उसे सेमर के फूल-सा और दादू ने उसे सेमर के फूल तथा बकरी की भांति कहकर खणा-खण्ड वाटी जाने वाली पांखरी बताया है। जायसी ने संसार को स्वप्नवद, मिथ्या और मायामय बतलाया है। सूर ने इसी तथ्य को निम्नांकित रूप में व्यक्त किया है :
जा दिन मन पंछी उडि जैहै। जिन लोगन सौं नेह करत हैं तेई देखि घिन हैं।
घर के कहत सकारे काठी भूत होई धरि खैहैं।' नानक ने भी 'प्राध घड़ी को नहिं राखत घर ते देत निकार' कहकर इसी भाव को व्यक्त किया है। जैन कवियों ने तो भनित्य भावना के माध्यम से इसे मौर भी अधिक तीव्र स्वर दिया है। पं. दौलतराम ने इन भौतिक पदार्थों के स्वभाव को 'सुरधनु चपला चपलाई कहा है ।10'
तुलसीदास ने भी संसार की प्रसारता को निम्न शब्दों में चित्रित किया है
1. संत वाणी संग्रह, भाग-2, पृ. 4. 2. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 77. 3. 'ऐसा यह संसार है जैसा सेमर फूल ।
दिन दस के व्यवहार में झूठे रे मन भूल ।।' कबीर साखी संग्रह, पृ. 61. __ यह संसार सेंवल के फूल ज्यों तापर तू जिनि फूल, दादूवानी, भाग-2,
पृ. 14. सब जग छली काल कसाई, कर्द लिए कंठ काटे। पच तत्त्व की पंच पंखरी खण्ड-खण्ड करि वाट ॥ दादूवानी, भाग-1, पृ. 229. जायसी का पदमावत : काव्य और दर्शन डॉ. गोविन्द त्रिगुणायत, पृ.
213-214. 7. सूरसागर,
सन्त वाणी संग्रह, भाग-2, पृ. 46. देखिये, इसी प्रबन्ध का द्वितीय-पंचम परिवर्त, वृहद् जिनवाणी संग्रह, बारह
भावना भूधरदास, बुधजन, प्रादि कवियों की। 10. जोवन गृह गो धन नारी, हय गयजन माशाकारी ।
इन्द्रीय भोग छिन थाई, सुरपनु चपला चपलाई । छहढाला, 5-3
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में तोहि अब जान्यो, मंसार । बांधि न सकहि मोहिं हरि के बल प्रगट कपट-धागार ।। देखत ही कमनीय, कछु नाहिंन पुनि किए विचार । ज्यों बदली तरु मध्य निहारत कबहू न निकसत सार । तेरे लिए जन्म अनेक में फिरत न पायों पार ।
महा मोह-मृग जल सरिता मह बोरयो हो बारहिं बार ।।
इसी प्रकार सूर ने भी संसार को सेंमल के समान निस्सार पोर जीव को उस पर मुग्ध होने वाले सुप्रा के समान कहा है -
रे मन मूरख जनम गंवायो। करि प्रभिमान विषय रस गोध्यो, स्याम सरन नहि प्रायो। यह संसार सुभा सेमर ज्यों, सुन्दर देखि लुभायो।
चाखन लाग्यो कई गई उड़ि, हाथ कछु नहिं प्रायो॥
द्यानतराय ने उसे 'झूठा सुपना यह संसार । दीसत है विनसत नहीं हो बार"3 कहा और भूधरदास ने उसे 'रेन का सपना' तथा 'वारि-बबूल' माना । जगजीवन ने धन 'धन की छाया' के साथ ही राग-द्वेष को 'वगु पंकति दीरघ' कहा । बनारसी. दास ने तो संसार के स्वभाव को नदी-नाव का संयोग जैसा चित्रित किया है
चेतन तू तिहुकाल अकेला । नदी नाव संयोग मिले ज्यों त्यों कुट्रम्ब का मेला। यह संसार प्रसार रूप सब ज्यों पटखेलन खेला।
सुख सम्पत्ति शारीर जल बुद बुद विनसत नाही बेला ॥ इसी भाव से मिलता-जुलता सूर का पद भी दृष्टव्य है :
हरि विन अपनी को संसार । माया लोभ मोह हैं छांडे काल नदी की धार । ज्यों जन संगति होत नाव में रहिति न परल पार । तस धन-दारा-सुख सम्पति, विठुरत लग न बार। मानुष-जनम नाम नरहरि को, मिले न बारम्बार ॥
1. विनय पत्रिका, 188. वो पद, 2. सूरसागर, 335. 3. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 133. 4. वही, पृ. 157. 5. वही, पृ. 70. 6. कविता रत्न, पृ. 24.
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एक अन्यत्र पद में सूरदास संसार और संसार की माया को मिया मानते हैं
'मिथ्या यह संसार और मिय्या यह माया
मिथ्या है यह देह कही क्यों हरि बिसराया ॥' जैन कवि बनारसीदास जन्म गंवाने के कारणों को भी गिना देते हैं । उनके भावों में जो गहराई और अनुभूति झलकती है वह सूर के उक्त पय में नहीं दिखाई देती है
वा दिन को कर सोच जिये मन में ॥ बनज किया व्यापारी तूने, टांडा लादा भारी रे। मोछी पूजी जूमा खेला, माखिर बाजी हारी रे ॥.... झूठे नैना उलफत बांधी, किसका सोना किसकी चांदी॥ इक दिन पवन चलेगी मांधी किसकी बीबी किसकी बांदी॥
नाहक चित्त लगावै धन में । 2. शरीर से ममत्व
साधकों ने शरीर की विनश्वरता पर भी विचार किया है। बाल्यावस्था पोर युवावस्था यों ही निकल जाती है। युवावस्था में वह विषय वासना की मोर दौड़ता है और जब वृद्धावस्था मा जाती है तब वह पश्चात्ताप करता है कि क्यों वह अध्यात्म की मोर से विमुख रहा । कबीर ने वृद्धावस्था का चित्रण करते हुए बड़े मामिक शब्दों में कहा है
तरुनापन गइ बीत बुढ़ापा आनि तुलाने । कांपन लागे सीस चलत दोउ चरन पिराने । नैन नासिका चूवन लागे मुखतें प्रावत वास ।
कफ पित कठे घेरि लियो है छूटि गई घर की प्रास ॥ सूर ने भी इन्द्रियों की बढ़ती हुई कमजोरी का इसी प्रकार वर्णन किया है
बालापन खेलत खोयो, जुमा विषय रस माते । वृद्ध भये सुधि प्रगटी, मो को, दुखित पुकारत तातें। सुतन तज्यो त्रिय भ्रात तज्यो सब, तनतें तुचा भई न्यारी। श्रवन न सुनत चरन गति थाकी, नैन बहे जलधारी। पलित केस कण्ठ कण्ठ भब रुध्यो कल न परं दिन राती ॥
1. सूरसागर, 1110. 2. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 55. 3. संत वाणी संग्रह, भाग 2, पृ. 21. 4. संत वाणी संग्रह, भाग 2, पृ. 64,
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बनारसीदास ने जीवन को ग्यारह अवस्थानों में विभाजित किया है और प्रत्येक वस्था को अवधि दस वर्ष मानी है । भूषरदास ने वृद्धावस्था को जीर्णशीर्ण चरखे की उपमा देकर उस को श्रीर भी मार्मिक बना दिया -- चरखा चलता नाही (रे चरखा हुम्रा पुराना (वे ) 2 दादू ने कबीर और सूर के समान श्रवरण, नयन और केस की थकान की बात की पर उन्होंने शब्द- कपन का विशेष वर्णन किया- 'मुख तै शब्द विकल भइ वाणी" । भूधरदास ने तो दादू के चित्ररण को भी मात कर दिया जहाँ वे कहते हैं
एक अन्य चित्ररण में उन्होंने शरीर की जीर्णावस्था का यथार्थ चित्रण देकर अन्त मे यह गति है । जब तक पछते हैं प्राणी' कहकर पश्चात्ताप की बात कही है । इसी प्रकार के पश्चात्ताप की बात दाबू ने 'प्रारण पुरिस पछितावण लगा। दादू मौसर काहै न जागा "" कहकर की और कबीर ने 'कहै एक राम भजन चिन बड़े बहुत बहुत संयान्त"" लिखकर उसे व्यक्त किया । दौलतराम ने सुन्दरदास के समान ही शरीर की अपवित्रता का वर्णन किया है। उन्होंने उसे " अस्थिनाल पलनसाजाल की लाल-लाल जल क्यारी" बताया मौर सुन्दरदास ने "हाथ पांव सोऊ सब हाड़न की गली है" कहा । "
रसना तकली ने बल खाया, सो अब कैसे खुटं । शब्द सूत सुधा नहि निकसं घड़ी घड़ी पल टूट 14
शरीर की विनश्वरता के सन्दर्भ मे सोचते-सोचते साधक संसार की क्षणमगुरता पर चिन्तन करने लगता है । जैन-जनेतर साधको ने एक स्वर से जीवन को क्षणिक माना है । तुलसीदास ने जीवन की क्षणिकता को बड़े काव्यात्मक ढंग
5.
6.
7.
1.
2. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 152.
3. दादू की वानी, भाग 2, पू. 94.
4.
हिन्दी पद संग्रह, पृ. 152.
वही, 158.
8.
9.
बनारसीविलास, प्रास्ताविक फुटकर कवित्त,
दादू की बानी, भाग 2, पृ. 94.
कबीर प्रथावली, पृ. 346.
दौलत जैन पद संग्रह, पृ. 11. पद 17 वां.
संत वाणी संग्रह, भाग 2, पृ. 124.
पृ. 12.
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से "कलिकाल कुठार लिये फिरतां तनु नम्र है चोर झिली न झिली" रूप में कहा ।। और भूधरदास ने उसे "कालकुठार लिए सिर ठाड़ा क्या समझे मन फूला रे" रूप से सम्बोधित किया। कबीर ने शरीर को कागज का पुतला कहा जो सहज में ही घुल जाता है
मन रे तन कागद का पुतला। लाग बूद बिनसि जाइ छिन में, गरब कर क्या इतना । माटी खोदहिं भींत उसार, मंध कहै घर मेरा । प्राव तलव बाधि ले चाल, बहुरि न करिहै फेरा। खोट कपट करि यहु धन जोयो, लै धरती में गाड्यो । रोक्यो घटि सांस नही निकस, ठौर-ठौर सब छाड्यो । कहै कबीर नट नाटिक थाके, मदला कौन बजावै। गये पषनियां उझरी बाजी, को कार के प्रावै ॥
इसी तथ्य को भगवतीदास ने 'घटे तेरी प्राव कछे त्राहि को उपावरे' कहकर मभिव्यक्त किया है । कबीर ने संसार को 'कागद की पुड़िया' भी कहा है जो बूद पड़े धूल जाती है। माता, पिता, परिवार जन सभी स्वार्थ के साथी हैं जो शरीर के नष्ट होने पर उसे जलाकर वापिस पा जाते हैं।
1. क्षणभंगुर जीवन की कलियाँ कल प्रात को जान खिली न खिलीं।
मलयाचल की शुचि शीतल मन्द सुगन्ध समीर मिली न मिली। कलि काल कुठार लिए फिरता तनु नम्र है चोट झिली न झिली।
करि ले हरि नाम परी रसना फिर अंत समे पै हिली न हिली ॥ 2. भगवंत भजन क्यो भूला रे ॥
यह ससार रैन का सुपना, तन धनवारि-बबूला रे ॥ इस जीवन का कौन भरोसा, पावक में तृण फूला रे । स्वारथ साधं पांच पांव तू, परमारथ को भूला रे। कह कैसे सुख पैहे प्राणी काम करै दुखमूला रे ॥ मोह पिशाच छल्यो मति मारै निजकर कंध वसूला रे। भज श्री राजमतीवर 'भूधर' दो दुरमति सिर धूला रे ॥ हिन्दी पद संग्रह,
पृ. 157. 3. कबीर ग्रंथावली, पदावली भाग, 92 वां पद, पृ. 346. 4. ब्रह्मविलास, अनित्य पचीसिका, 41, पृ. 176. जैन साधकों द्वारा शरीर
चिन्तन को विस्तार से इसी प्रबन्ध के द्वितीय-पंचम परिवर्त में देखिए । 5. कबीर-हॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी, पछ 130, पृ. 309.
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कैसा नाता रे ।
कहै
बिर मेरा ।
मन फला-फूला फिर जगत में माता कहे यह पुत्र हमारा वहन भाई कहै यह मुजा हमारी नारी कहै नर मेरा । पेट पकरि के माता रोवे बांह पकरि के भाई । लपटि पटि के तिरिया रोवं हंस अकेला जाई । चार गजी चरगजी मंगाया चढ़ा काठ की घोड़ी । चारों कोने माग लगाया फूंक दियो जस होरी | हाड़ जर जस लाह कड़ी को केस नरं जस घासा ।
सोना ऐसी काया जरि गई कोई न भायो पासा ॥
कविवर द्यानतराय ने भी इन सांसारिक सम्बन्धो को इसी प्रकार मिथ्या और झूठा माना है। मज्ञानी जीव उनको मेरा-मेरा कहकर प्रात्मज्ञान से दूर रहता है ।
मिथ्या यह संसार है रे, झूठा यह संसार है रे ॥ जो देही वह रस सौं पोष, सो नहि संग चलै रे, प्रोरन को तौहि कौन मरोसी, नाहक मोह करं रे ।। सुख की बातें बू नाहीं, दुख को सुख लेखें रे । मूढो मांही माता डोले, साधी ना झूठ कमाता झूठी खाता झूठी श्राप सच्छा सांई सू नाहीं, क्यों कर पार लगे ₹ ॥
डरे रे ।
जपें है
3. मिध्यात्व, मोह और माया :
जम सौं डरता फूला फिरता करता मैं मैं मैरे ।
,
धानत स्यात सोई जाना, जो जप तप ध्यान धरं रं ||
4.
1
जब से दर्शन की उत्पत्ति हुई है तभी से मिथ्यात्व, मोह मोर माया का
शब्द का प्रयोग विशेष रूप से
सबन्ध उसके साथ जुड़ा हुआ है। ऋग्वेद में 'माया' बेश बदलने के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। 3 उपनिषद् काल में इसने दर्शन का रूप ग्रहण किया और इसे परमात्मा की सृजन का प्रतीक कहा गया । संसारी प्रात्मा इसी माया से श्राबद्ध बनी रहती है ।" जैनधर्म इसे मिथ्यात्व, मोह प्रौर कर्म कहता
1
सन्त वाणी संग्रह, भाग 2, पृ. 4
2. हिन्दी पद संग्रह, पद 156, पृ. 130.
3.
इन्द्रो मायाभिः पुरुरूप ईयते, ऋग्वेद 6. 47. 18.
अस्मान्मायी सृजते विश्व मेतत्, तस्मिश्वान्यो मायया संनिरुद्धः श्वेताश्वतरोपनिषद 4. 9.
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है जिसके कारण जीव संसार भ्रमण करता रहता है। बौद्धों ने भी इसे इन्हीं शब्दों के माध्यम से व्यक्त किया है। उन्होंने इसके प्रनेक रूप बताये हैं- स्वप्नवाद, aftycare aौर शुन्यवाद । इन्हीं को ऋषियों ने प्रध्यास, अनिर्वचनीय, स्थातिवाद आदि के सहारे स्पष्ट किया है । प्रद्धत वेदान्त के अनुसार मात्मा माया द्वारा ही सृष्टि का निमित्तोपादान कारण है और उसके दूर होने से एक प्रात्मा अथवा ब्रह्म ही शेष रह जाता है । इसके विपरीत तांत्रिकों का मायाबाद है । जहाँ माया मिथ्या रूप नहीं बल्कि सद्रूप है ।
मध्यकालीन हिन्दी जैन कवियों ने मिथ्यात्व, मोह और कर्म को अपने काव्य में प्रस्तुत किया है जिसे हम पंचम परिवर्त मे देख चुके है। सगुण-निर्गुण हिन्दी के अन्य कवियों ने भी माया के इसी रूप का वर्णन किया है जायसी ने ब्रह्मविलास में माया और शैतान ये दो तत्व बाधक माने हैं। अलाउद्दीन और राघव को चेतन के संतान के रूप में चित्रित किया है । रत्नसेन जैसा सिद्ध साधक उसकी प्रचिन्त्य शक्ति के सामने घुटने टेक देता है । माया को कवि ने नारी का प्रतिरूप माना है । अहंकार और जड़ता को भी व्यजित करती है। अलाउद्दीन को महंकार का अवतार बताया गया है । 'नागमती यह दुनियां धंधा' कहकर नागमती को भी माया का प्रतीक माना है । माया, छल, कपट, स्त्री प्रादि शब्द समानार्थक हैं। जायसी ने इसीलिए नारी (नागमती) के स्वभाव को प्रस्तुत कर मिथ्यात्व, माया और मोह को अभिव्यंजित किया है ।
जो तिरियां के काज न जाना । परे घोख पीछे पछताना || नागमति नागिनि बुषि ताऊ । सुधा मयूर होइ नहि काऊ ||
1. मित वेदतो जीवो, विवरीयदंसरगो होई ।
गय धम्मं रोचेदि हु, महुरं पि रसं जहा जरिदो, पंचसंग्रह, 1.6 : तु.
उत्तराध्ययन, 7. 24.
2.
3.
ब्रह्मसूत्र भाष्य, 2. 1. 9, 1.1. 21, 2.1. 28.
ब्रह्म सत्यम् जगत् इदमनृतं मायया भासमानं ।
जीवो ब्रह्म स्वरूपी ग्रहमिति ममचेत् अस्ति देहेभिमान ।
श्रुत्वा ब्रह्ममहमनुयभवमुदिते नष्ट कर्माभिमानात् ।
माया संसार मुक्ते इह भवति सदा सच्चिदानन्द रूप: । भक्तिकाव्य में रहस्यवाद, पू. 63.
राघवदूत सोइ सैतानू । माया पलाउद्दीन सुलतानु || जायसी ग्रन्थावली, g. 301.
वही, पृ. 224-226.
5.
6. वही, पु. 205.
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।
सूर ने बल्लभाचार्य का अनुकरण करते हुए माया को ईश्वर की ही शक्ति का प्रतीक माना है । वह सत्य और भ्रम दोनों रूप है । शंकराचार्य की दृष्टि में विद्या के दूर होने पर जीव प्रौर जगत् का भी नाश हो जाता है पर बल्लभाचार्य उसे नही मानते । वे केवल संसार का नाश मानते हैं माया तो उनकी दृष्टि में परमात्मा की ही शक्ति है 1 जिसके चक्कर से शंकर, ब्रह्म प्रादि जैसे महामानव भी नहीं बच सके 12 सूर ने माया को मुजंगिनी, नटिनी, मोहनी भी कहा । काम, कोष, तृष्णा मादि विकार भी मायाजन्य ही हैं। माया ही अविद्या अथवा मिथ्यात्व है जिसके कारण भौतिक ससार सत्यवत् प्रतीत होता है । यही संसार भ्रमण का कारण है।
मीरा पुनर्जन्म में विश्वास करती थीं । पुनर्जन्म का कारण श्रविद्या, मोह अथवा कर्म है । संचित (प्रतीत), संचीयमान (भावी) और प्रारब्ध (वर्तमान) कर्मों में संचित कर्म ही पुनर्जन्म के कारण हैं मीरा के विविध रूप उसके प्रतीक हैं । कर्म की शक्ति का वर्णन मीरा ने निम्नलिखित पद्य मे स्पष्ट किया है
करम गति द्वारां ना री टरां । सतबादी हरचन्द्रा राजां होम घर नीरां भरां ॥ पांच पांडुरी रानी दुपदा हाड़ हिमालो गरां । जग्य किया बलि लेन इन्द्रासन जायां पताल परां । मीरा रे प्रभु गिरधर नागर बिखरू भ्रमरित करां ॥
तुलसी किस दर्शन के अनुयायी थे यह श्राज भी है । " मुझे ऐसा लगता है कि वे बल्लभाचार्य के विशेष भाचार्य के समान ही उन्होंने भी माया को राम की
1. गोपाल तुम्हारी माया महाप्रबल निहि सब पद, 44.
2. माधौजू नैकु हटको गाइ ।
3.
विवाद का विषय बना हुआ अनुयायी रहे होगे । बल्लशक्ति माना है - 'मन माया
4. मीराबाई, पृ. 327-28.
5. तुलसी, सं. उदयभानु सिंह, पृ. 178-9.
जग बस कीन्हो, सूरसागर
भ्रमत निसि वासर प्रपथ-पथ अगह गहि गहि जाइ । षुधिन प्रति न प्रधाति कबहू, निगम दुमदल खाइ ।
अष्ट दस-घट नीर पंचवति तृषा तऊ न बुझाइ । सूरसागर, पद 56.
सूरसागर, 42-43, तुलनार्थ दृष्टव्य, मलूकदास, भाग 2, पृ. 9, पलटू,
संतवारणी संग्रह, भाग 2, पृ. 238.
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सम्भव संसारा । जाव चराचर विविध प्रकारा' तथा 'परु मोर तोर खै माया । जहि बस कीन्हें जीव निकाया।' कवि के एक अन्य दोहे से भी यह स्पष्ट है
माया जीव सुभाव गुन काल करम महदादि ।
ईस अंक ते बढ़त सब ईस अंक बिनु बादि । जैन साधकों और कबीर के माया सम्बन्धी विचार मिलते-जुलते से हैं। कबीर ने माया को छाया के समान माना है जो प्रयत्न करने पर भी ग्रहण नहीं की जा सकती। फिर भी जीव उसके पीछे दौड़ता है। बनारसीदास ने भी उसे छाया' कहकर सुन्दर शय्या कहा है जिस पर मोही मोह-निद्रा से प्रस्त हो जाता है । कबीर और भूधरदास दोनों ने माया को ठगिनी कहा है । कबीर ने इस माया के विभिन्न रूप पोर नाम बताये हैं और उसे कथनीय कहा है
माया महा ठगिनी हम जानी।। निरगुन फांस लिये कर डोले, बोले मधुरी वानी, केशव के कमला हवे बैठी, शिव के भवन शिवानी । पंडा के मूरति हवै बैठी तीरथ में भई पानी, जोगी के जोगिन हवं बैठी राजा के घर रानी॥ काहू के हीरा हवं बैठी, काहू के कोड़ी कानी, भगतन के भगतिन हवै बैठी ब्रह्मा के ब्रह्मानी। कहत कबीर सुनो हो संतो, यह सब अकथ कहानी।
कबीर के समान ही भूधरदास ने माया को 'ठगनी' शब्द से सम्बोधित किया है और उसे बिजली की प्रात्मा के समान माना है जो अज्ञानी प्राणियों को ललचाती रहती है । इसका जरा भी विश्वास करने पर पछताना ही हाथ लगता है । मागे भूधरदास जी केते कंथ किये ते कुलटा, तो भी मन न मधाया' कहकर उसके रहस्य को स्पष्ट कर देते हैं परन्तु कबीर उसे कथनीय कहकर ही रह जाते हैं।
1. तुलसी ग्रन्थावली, पृ. 100. 2. माया छाया एक सी विरला जाने कोय ।
माता के पीछे फिरे सनमुख भाग सोय । संत वाणी संग्रह, भाग 1, पृ. 57. माया छाया एक है घट बढ़े छिन माहि । इनकी संगति जे लग तिनहिं कटी सुख नाहिं ॥बनारसीविलास, प 75. माया की संवारी सेज चादरि कलपना....."नाटक समयसार, निर्जराद्वार 14, पृ. 138.
माया तो ठगिनी भई ठगत फिर सब देस, संतवाणी संग्रह, भाग 1, पृ. 57. 6. कबीर-को. हजारीप्रसाद द्विवेदी, पड़ 134, पृ. 311.
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सुनि ठगनी माया, तैं सबै जग ठगे खांया | टुक विश्वास किया जिन तेरा, सो मूरख पछताया || ग्रामा तनक दिखाय बिज्जु, ज्यों मूढमती ललचाया । करि मद अंध धर्म हर लीनों, प्रन्त नरक पहुंचाया ॥ केते कंथ किये तें कुलटा, तो भीं मन न प्रधाया । किस ही सौं नहि प्रीति निभाई, वह तजि धौर लुभाया ॥ भूधर चलत फिरत यह सबकों, भौंदू करि जय पाया । जो इस ठगनी को ठग बैठे, मैं तिनको शिर नाया ||
अन्यत्र पदों में कबीर ने माया को सारे संसार को नागपाश में बाधने वाली चण्डालिनि, डोमिनि और सापिन भादि कहा है। संत प्रानन्दघन भी माया को ऐसे ही रूप में मानते हैं और उससे सावधान रहने का उपदेश देते हैं। कबीर का भी इसी प्राशय से युक्त पद है
भवधू ऐसो ज्ञान विचारी, तार्थं नांहू पत्नीं नांहू क्वारी, काली मूण्ड की एक न छोडयो बाम्हन के बम्हनेटी कहियो, कलमा पढि पढि भई
भाई पुरिष थे नारी ॥ पूत जन्यू घो हारी । प्रजहू अकन कुवारी ॥ जोगी के घर चेली । तुरकनी, प्रजहू फिरी अकेली ॥
1. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 154.
2.
वधू ऐसो ज्ञान विचारी, वामें कोण पुरुष कोण नारी । बाम्हन के घर न्हाती धोती, बाम्हन के घर वेली । कलमा पढ़ पढ़ भई रे तुरकड़ी, तो भाप ही प्राप अकेली ॥ ससरो हमारी बालो भोलो, सासू बाल कुंवारी ।
पियजू हमारे होढ़े पारणिय, तो मैं हूं भुलावनहारी ॥ नहीं हूं पटणी, नहीं हूं कुंवारी, पुत्र जरगावन हारी ।
काली दाढ़ी को मैं कोई नही छोड्यो, तो हजुए हूं बाल कुंवारी ॥ द्वीप में खाट खटूली, गगन उशीकु तलाई ।
धरती को छेड़ो, श्राम की पिछोड़ी, तोमन सोड भराई ॥
गगन मंडल में गाय बिभारणी, वसुधा दूध जमाई |
सउ रे सुनो माइ बलोणू बलोवे, तो तत्व प्रमृत कोई पाई ||
नहीं जाऊं सासरिये ने नहीं जाऊं पीहरिये, पियजू की सेज बिछाई ।
धानन्दधन कहे सुना भाई साधु, तो ज्योत से ज्योत मिलाई । मानन्दधन बहोसरी, पु. 403 - 405.
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पीहरि जांउ न रहू सासुरं पुरबहि प्रेमि न लांऊं । कहै कबीर सुनहु रे सन्ती, अंगहि अंग न घुबाऊं ॥1
तुलसीदास ने माया को बमन की भांति स्थाज्य बताया ।" मलूकदास ने उसे काली नागिनी मोर दादू ने सर्पिणी कहा । जायसी, सूर और तुलसी' ने इस संसार को स्वप्नवत् कहा जिसमें संसारी निरर्थक ही मोही बना रहता है । भूधरदास ने भी संसार के तमाशे को स्वप्न के समान देखा है ।
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" देख्या बीच जहान के स्वपने का अजब तमाशा वे ।। एकके घर मंगल गावें पूगी मन की प्रासा । एक वियोग भरे बहु री, भरि भरि नेन निरासा ॥1॥ तेज तुरंगनिप चढ़ि चलते पहरें मलमल खासा || रंग भये नागे प्रति डोलें, ना कोई देय दिलासा || तरकै राज तखत पर बैठा था खुशवक्त खुलासा । ठीक दुपहरी मूदत प्राई, जंगल कीना वासा ॥13॥ तन धन थिर निहायत जग में, पानी मांहि पतासा । भूषर इनका गरव करें जे फिट तिनका जनमासा ॥14॥ 8
6.
7.
8.
9.
द्वेषा
मिथ्यात्व, मोह और माया के कारण ही जीव में क्रोध, लोभ राग, दिक विकारों का जन्म होता है। तुलसी ने इनको प्रत्यन्त उपद्रव करने वाले मानसिक रोगों के रूप में चित्रित किया है। सूर ने इनको परिधान मानकर संसार का कारण माना है
1. कबीर ग्रंथावली, पद 231, पृ. 427-28.
2. तुलसी रामायण, प्रयोध्याकाण्ड, 323-4.
3. मलूकदास, भाग 2, पृ. 16.
4.
दादू, भाग 1, पृ. 131.
5.
यह संसार सपन कर लेखा, विवरि गये जानों नहिं देखा, जायसी ग्रन्थावली, पृ. 55.
जैसे सुपने सोई नेखियत तेसे यह संसार, सुरसार, पृ. 200.
मोह निसा सब सोवनि द्वारा, देखिन सपन अनेक प्रकारा, मानस, पृ. 458. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 154.
तम मोह लोग अहंकारा, मद, क्रोध बोध रिपु भारा । प्रति करहि उपद्रव नाथा, मर्दहि मोहिं जानि मनाया। सन्तवारणी संग्रह भाग 2, पृ. 86, तुल
नार्थ देखिये, कबीर ग्रन्थावली, पृ. 311.
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222
अब में नाच्यो बहुत गोपाल । कामक्रोध को पहिरि चोलना कण्ठ विषय की माल । महामोह के नूपुर बाजत निदा-शब्द रसाल । भ्रम-मायो मन भयो षखावज चलत असंगत चाल । तृष्णा नाद करति घट भीतर, नाना विधि दे ताल | माया को कटि फेटा बांध्यों लोभ तिलक दियो भाल ।
कोटिक कला काछि दिखराई जल थल सुधि नहि काल । सूरदास की सबै अविद्या दूरि करी नन्दलाल ||
इसीलिए मैया भगवतीदास इन विकारों से दूर रहने की सलाह देते हैं । 2 कर्म भी मिथ्यात्व का कारण है। तुलसी ने उन्हें सुख-दुःख का हेतु माना है- 'काहू न कोऊ सुख दुःखकर दाता । निज कृत कर्म भोग सुख भ्राता ।" तूर भी " जनम जनम बहु करम किए हैं तिनमें ग्राम प्राप बधापे । " कहकर यह बताया है कि उन्हें भोगे बिना कोई भी उनसे मुक्त नहीं हो सकता। भैया भगवतीदास ने " कर्मन के हाथ दे बिकाये जग जीव सबै कर्म जोई करे सोई इनके प्रभात हैं 'लिखकर कर्म की महत्ता को प्रकट किया है। मीरा ने कर्मों की प्रबल शक्ति को इसी प्रकार प्रकट किया है । बुधजन भी इसी प्रकार कर्मों की अनिवार्य शक्ति का व्याख्यान कर उसे पुराणों से उदाहरण देकर स्पष्ट करते हैं-
3.
कर्मन की रेखा न्यारी रे विधिना टारी नाँहि टरं । रावण तीन खण्ड को राजा छिन में नरक पडे ।
छप्पन कोट परिवार कृष्ण के वन में जाय मरे ||||| हनुमान की मात अन्जना वन वन रुदन करें ।
1.
सूरसागर 153, पृ. 8 1
"
2. काहे को क्रूर तू क्रोध करे प्रति तोहि रहें दुख संकट घेरे । काहे को मान महाश रखावत, आवत काल छिने छिन तेरे ॥ काहे को संघ तु बधन माया सौ, ये नरकादिक में तुहै गेरे । लोभ महादुख मूल है भैया, तु चेतत क्यों नहि चेत सवेरे ॥ ब्रह्मविलास, पुण्य पचीसिका 11 पृ. 4.
रामचरित मानस, गीता प्र ेस, पृ. 458. सूरसागर, पृ. 173.
4.
5.
थकित होय रथ चक्रहीन ज्यौं विरचि कर्मगुन फंद, वही, पृ. 105 6. ब्रह्मविलास, पुण्य पाप जगमूल पचीसी, 20, पृ. 199
7.
मीरा बाई, पृ. 327.
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भरत बाहुबलि दोऊ भाई कसा युद्ध करै ।।2।। राम पर लक्ष्मण दोनों भाई कैसा सिय के संग वन मांहि फिरें । सीता महासती पतिव्रता जलती प्रगनि परे ।।3।। पांडव महाबली से योद्धा तिनकी त्रिया को हरे । कृष्ण रुक्मणी के सुत प्रच म्न जनमत देव हरै ।140 को लग कथनी कीजै इनकी लिखता ग्रन्थ भरे ।।
धर्म सहित ये करम कौन सा 'बुधजन' यों उचरे 51 4. मनः
साधना में मन की शक्ति अचिन्त्य है । वह संसार के बन्ध और मोक्ष दोनों का कारण होता है। मन को विषय वासनामों की अोर से हटाकर जब उसे मारमा में ही स्थिर कर लेते हैं तो वह योगयुक्त अवस्था कही जाती है। कठोपनिषद् में इसी को परमगति कहा गया है। ' मन, वचन और काय से युक्त जीव का वीर्य परिणाम रूप प्राणियोग कहलाता है । और यही योग मोक्ष का कारण है । दूइ. लिए योगीन्दु ने उसे पंचेन्द्रियों का स्वामी बताया है और उसे वश में करना
आवश्वक कहा है। गौडपाद ने उसकी शक्ति को पहिचानकर संसार को मन का प्रपंच मात्र कहा है ।' कबीर ने माया और मन के सम्बन्ध को अविच्छिन्न कहकर उसे सर्वत्र दुःख और पीडा का कारण कहा है। माया मन को उसी प्रकार विगाड़ देती है जिस प्रकार काजी दूध को विगाड़ देती है ।। मन से मन की साधना भी की
1. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 201. 2. यदा विनियतं चित्तं मात्मन्येवावतिष्ठते ।
निःस्पृह सर्वकामेभ्यो योग इत्युच्यते तदा ॥ गीता, 6. 18. कठोपनिषद. 2.3.10. मणसा वाया वा वि जुत्तस्य वीरिय परिणामो ।
जीवस्स विरिय जोगो, जोगोत्ति जिणोहिं रिणट्ठिो , पंच सग्रह, 1.88. 5. चतुर्वगे ग्रही मोक्षो योगस्तस्य च कारणम्-योगशास्त्र, 1. 15.
पंचह णायकु वसिकरहु जेण होती वसि अण्ण । मूल विणट्ठइ तरुवरह अवसइ सुक्कहिं पण्ण ।। परमात्मप्रकाश, 140, पृ. 285.
मनोदृश्यमिद द्वतम् , माण्डूक्य कारिका, 3.31. 8. मन पांचों के वसि परा मन के वस नहि पांच ।
जित देखूतित दो लगि जित भाखू तित पाच ॥ कबीर वाणी, पृ. 67. 9. माया सों मन वीगडया, ज्यों कांजी करि दूध ।
है कोई संसार में मन करि देवे सूध ।।दादू, भाग 1, पृ. 118.
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जाती है । मन द्वारा मन के समझाने पर चरम सत्य की उपलब्धि हो जाती है ।" चंचल चित्त को निश्चल करने पर ही राम-रसायन का पान किया जा सकता है'
यह काचा खेल न होई जन घटतर खेले कोई ।
fan चंबल निश्चल कीजे, तब राम रसायन पीजे ॥ 2
एक अन्यत्र पद में कबीर मन को संबोधित करते हुए कहते हैं है मन ! तू क्यों ar भ्रमण करता फिरता है ? तू विषयानन्दों में संलिप्त है किन्तु फिर भी तुझे सन्तोष नहीं । तृष्णाओं के पीछे बावला बना हुम्रा फिरता है । मनुष्य जहां भी पग बढ़ाता है उसे माया-मोह का बन्धन जकड़ लेता है । म्रात्मा रूपी स्वच्छ स्वर्ण थाली को उसने पापों से कलुषित कर दिया है। ठीक इसी प्रकार की विश्वार- सरणी बनारसीदास ' और बुधजन जैसे जैन साधकों ने भी अभिव्यक्त की है । मैया भगवती दास ने कबीर के समान ही मन की शक्ति को पहिचाना और उसे शब्दों में इस प्रकार गूंथने का प्रयत्न किया
Б
1.
2.
3.
4.
5.
मन बली न दूसरो, देख्यौ इहि संसार ||
तीन लोक में फिरत ही जातन लागे बार ||8||
मन दासन को दास है, मन भूपन को भूप ॥
मन सब बातनि योग्य है, मन की कथा अनूप ॥ ॥ मन राजा की सेन सब इन्द्रिन उमराव ॥
रात दिना दौरत फिरं, करे अनेक अन्याव ॥10॥ इन्द्रिय से उमराव सिंह, विषय देश विश्चरंत ॥ या तिह मन भूप को, को जीते विन संत ॥ 11 ॥
कबीर ग्रन्थावली, पृ. 146.
वही, पृ. 146.
काहै रे मन वह दिसि घावं, विषिया संगि संतोष न पावे ।।
जहां जहां कल तहां तहां बंधनो, रतन को थाल कियौ ते रंधनां ।
कबीर ग्रंथावली, पद 87, पृ. 343.
रे मन ! कर सदा सन्तोष,
बढ़त परिग्रह मोह बाढत, अधिक तृषना होति ।
बहुत ईंधन जरत जैसे, प्रगनि ऊंची जोति ॥
बनारसीदास, हिन्दी पद संग्रह पृ. 65.
मेरे मन तिरपत क्यों नहि होय,
अनादिकाल ते विषयनराच्यो, अपना सरबत खोय ।। बुधजन, वही, पृ. 197
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मन चंचल मन अपल पति, मन बहु कर्म कमाय ॥ मन जीते बिन पातमा, मुक्ति कहो किम धाम 11211 मन सो जोषा जगत में, भौर दूसरो नाहिं ।। ताहि पछार सो सुभट, जीत लहै जग माहि ।।13।। मन इन्द्रिन को भूप है, ताहि करे जो जेर ॥ सौ सुख पावे मुक्ति के, या में कल न फेर ।।1411 जत तन मूछो ध्यान में, इद्रिय भई निराश ।। तब इह मातम ब्रह्म ने, कीने निज परकाश 11511
कबीर के समान जगतराम भी मन को माया के वश मानते हैं और उ अनर्थ का कारण कहते हैं। जैन कवि ब्रह्मदीप ने मन को करम संबोधन करके उरं भव-वन में विचरण न करने को कहा है क्योंकि यहां अनेक विष वेलें लगी हुई। जिनको खाने से बहुत कष्ट होगा।
मन करहा भव बनिमा परइ, तदि विष बेल्लरी बहुत ।
तहूं चरंतहं बहु दुखु पाइयउ, तब जानहि गौ मीत ।। 5. बागाडम्बर
साधना के प्रान्तरिक और बाह्य स्वरूपों में से कभी कभी साधकों : बाह्याडम्बरों की ओर विशेष ध्यान दिया । ऐसी स्थिति में ज्ञानाराधना की अपेक्ष क्रियाकाण्ड प्रयवा कर्मकाण्ड की लोकप्रियता अधिक हुई। परन्तु वह साधना क वास्तविक स्वरूप नहीं था। जिन साधकों ने उसके वास्तविक स्वरूप को समझ उन्होंने मुण्डन, तीर्थस्थान, यज्ञ, पूजा, प्रादि बाह्य क्रियाकाण्डों का धनघोर विरो किया । यह क्रियाकोड साधारणतः वैदिक संस्कृति का मंग बन चुका था।
जैनाचार्य योगीन्दु ने ज्ञान के बिना तीर्थस्थान को बिल्कुल निरर्षक बताय है। सुनि रामसिह ने भी उससे प्राभ्यंतर मल घुलना असभव माना है ।
1. ब्रह्मविलास, मनवत्तीसी, पृ. 262, 2 मनकरहारास, I, आमेर शास्त्र भंडार, जयपुर में सुरक्षित हस्तलिखित स
तुलनार्थ दृष्टव्य-जनशतक, भूधरदास, 67 पृ. 26. 3. तिस्थई तित्यु भमताहं मूढहं मोक्स ण होइ ।
याण विवजिउ जेग जिय मुणिवरु होइ प सोई 1581
परमात्मप्रकाश, द्वि. महा0, पृ. 227. 4. पतिय पाणिड दम्ब तिल सम्वहं जाणि सवण्णु ।
ज पुणु मोक्सहं जाइबउ तं कारणु कुइ प्राणु ।।-पाहुडदोहा, 159.
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प्राचार्य कुन्दकुन्द से भलीभांति प्रभावित रहे हैं। सिद्ध सरहपाद ने भी तीर्थस्थान प्रादि बाह्याचार का खण्डन कर अचेलावस्था पिच्छि, केशलु बन प्रादि क्रियाओं की निम्न प्रकार से मालोचना की है
कबीर ने भी धार्मिक ग्रन्धविश्वासों, पाखण्डी और बाह्याडम्बरों के विरोध में तीक्ष्ण व्यंग्योक्तियां कसी हैं। मात्र मूर्तिपूजा करने वालों और मूड़ मुड़ाने वालों के ऊपर कटु प्रहार किया है। कबीर का विचार है कि इनसे बाह्याचारों के ग्रहण करने की प्रवृत्ति तो बनी रहती है परन्तु मन निर्विकार नहीं होता इसलिए हाथ की माला को त्यागकर कवि ने मन को वश में करने का आग्रह किया है । 5 जोगी खंड में बाह्याचार विरोध की हल्की भावना जायसी में भी मिलती है जब रत्नसेन ज्योतिषी के कहने पर उत्तर देता है कि प्रेम मार्ग में दिन, घडी आदि बाह्याचार पर दृष्टि नही रखी जाती । प्रन्यत्र स्थलों पर भी उन्होंने झकझोर देने वाले करारे व्यंग्य किये हैं । नग्न रहने से ही यदि योग होता है तो मृग को भी मुक्ति मिल
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यदि नंगाये होड़ मुक्ति तो शुनक श्रृगालहु ।
लोम उपाटे होइ सिद्धि तो युवति नितम्बहु || पिछि गहे देखेउ जो मोक्ष तो मोर चमरहुं । उम्छ- भोजने होइ ज्ञान
तो करिहुं तुरंगहु |
भावइ ।
सरह मने क्षपण की मोक्ष, मोहि तनिक न तत्त्व रहित काया न ताप पर केवल साधइ ||
6.
मोक्खपाड़, 61; भावपाहुड़ 2.
हिन्दी काव्यधारा - सं. राहुल सांकृत्यायन, पाखण्ड-खण्डन (छाया) पृ. 5, तुलनार्थ दृष्टव्य है - ब्रह्मविलास, शतमष्टोत्तरी, 11 पृ. 10.
पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूजू पहार ।
तात चाकी भली पीसि खाय ससार ॥ संतवाणी संग्रह, भाग-1,
पृ. 62.
मूड मुड़ाये हरि मिलें सब कोई लेय मुड़ाय ।
बार-बार के मूड़ते मेड़ न बैकुण्ठ जाय ॥
माला फेरत जुग गया, पाय न मन का फेर ।
करका मनका छोड दे मनका मनका फेर || कबीर ग्रन्थावली, पृ. 45.
जायसी का पद्मावत ---डॉ. गोविन्द त्रिगुणायत, पृ. 157.
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जाती और यदि मुण्डन करने से स्वर्ग मिलता तो भेड़ भी स्वर्ग पहुंचती सुन्दरदास, जगजीवन, भीखा मादि सन्तों ने भी इन बाह्याचारों का खण्डन किया है। तुलसी ने भी कहा कि, जप, तप, तीर्थस्नान प्रादि क्रियायें रामभक्ति के बिना वैसी ही है जैसे हाथी को बांधने के लिए घूल की रस्सी बनाना । अनेक देवताओं की सेवा, श्मशान में तान्त्रिक साधना, प्रयाग में शरीर त्याग प्रादि प्राचार अविद्याजन्य हैं 15
मध्यकालीन जैन सन्तों ने भी अपनी परम्परा के अनुसार बाह्याचारों का cause किया है। जैनधर्म में बिना विशुद्धमन और ज्ञानपूर्वक किया गया प्राचार कर्मबन्ध का कारण माना गया है ।" भैया भगवतीदास ने कबीरादि सन्तों के स्वर से मिलाकर बाह्य क्रियानों में व्यस्त साधुनों की तीखी आलोचना की है। " वृक्ष के मूल में रहना, जटादि धारण करना, तीर्थस्नानादि करना ज्ञान के बिना बेकार हैंकोटि कोटि कष्ट सहे, कष्ट में शरीर दहे,
धूमपान कियो पे न पायो भेद तन को । वृक्षन के मूल रहे जटान में भूलि रहे,
मान मध्य मूलि रहे किये कष्ट तन को ||
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कोरति के काज दियौ दानहू रतनको । ज्ञान बिना बेर-बैर क्रिया करी फेर-फेर,
कियौ कोऊ कारज न भ्रातम जतन को ॥ जैन कवि भगवतीदास ने ऐसी बाह्य क्रियानों का खण्डन किया है जिनमें सम्यक् ज्ञान और प्राचार का समन्वय न हो
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तीरथ अनेक न्हये, तिरत न कहूं भये,
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8.
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नागे फिरें जोग जो होई, बन का मृग मुकति गया कोई । मूड़ मुड़ायें जो सिधि होई, स्वर्ग ही भेड़ न पहुंची कोई ॥
नन्द राखि जे खेल है भाई, तो दुसरे कोण परम गति पाई ||13211
कबीर ग्रन्थावली, पृ. 23.
सुन्दर विलास, पृ. 23.
संत सुधासार, भाग - 2, पृ. 58.
भीखा साहब की वानी, पृ. 5. fareafter, पद 129.
तुलसी ग्रन्थावली, पृ. 200.
नाटक समयसार, सर्वविशुद्धि द्वार, 96-97.
ब्रह्मविलास, शतप्रष्टोत्तरी, 11 पृ. 10 वही; मनित्यपचीसिया, 9 पृ. 174.
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जैनधर्म के अनुसार क्रियाविहीन ज्ञान व्यर्थ है और ज्ञान विहीन क्रिया भी नगर से भाग लगने पर पंगु तो देखता देखता जल गया और श्रधा दौड़ता-दौड़ता । पीताम्बर ने इसीलिए कहा है---भेषधार कहैं भैया भेष ही में भगवान, भेष मे भगवान, भगवान न भाव में । '3 इस सन्दर्भ मे प्रस्तुत प्रबन्ध के चतुर्थं परिवर्त में बाह्याडम्बर के प्रकरण में संकलित और भी अनेक पद देखे जा सकते हैं जिसमे बाह्याचार की कटु आलोचना की गई है ।
जैन साधकों एवं कवियों के साहित्य का विस्तृत परिचय न होने के कारण कुछ आलोचकों ने मात्र कबीर साहित्य को देखकर उनमे ही बाह्याडम्बर के खडन की प्रवृत्ति को स्वीकारा है जबकि उनके ही समान बाह्याचार का खंडन प्रो प्रालोचना जैन साधक बहुत पहले कर चुके थे अतः इस सन्दर्भ में कबीर के बारे में ही मिथ्या श्रारोप लगाना उपयुक्त नहीं ।
S
देह के पवित्र किये श्रात्मा पवित्र होय, ऐसे मूड भूल रहे मिथ्या के भरम में । कुल के प्राचार को विचारं सोई जानं धर्म, कंद मूल खाये पुण्य पाप के करम मे । मूंड के मुंडाये गति देह के दगाये गति, रातन के खाये गति मानत परम में । शस्त्र के घरैया देव शास्त्र को न जाने भेद, ऐसे हैं अबेन श्ररु मानत परम में ।
उपर्युक्त उद्धरणों से यह स्पष्ट है कि जैन और जीनतर दोनो साधक कवियो बाह्याचार की अपेक्षा ग्रान्तरिक शुद्धि पर अधिक बल दिया है । अन्तर इतना
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ब्रह्मविलास, सुपंथ कुपंथपचीतिक, 11 पृ. 182.
हयं नारण क्रियाहीणं हया अन्नागणश्री त्रिया ।
पासंती पंगुली दड्ढो धावमारगो य धमो । विशेषावश्यक भाष्य, जिन भद्ररण, 1159.
बनारसीविलास, ज्ञानवावनी, 43, पृ. 87.
क्या है तेरे न्हाई धोई, प्रातमराम न चीन्हा सोई । क्या घट परि मंजन की भीतरी मैल अपारा ॥ रामनाम बिन नरक न छूटै, जो धोवै सौ बारा ।
ज्यू दादुर सुरसरि जल भीतरि हरि बिन मुकति न होई || कबीर, पृ. 322.
श्रभिन्तर चित्ति वि महलियइ बाहिरि काइ तबेण ।
चित्ति गिरंजणु को वि घरि मुच्चहि जेम मलेरण || पाहुण दोहा, 61 पृ. 18 भितरि भरिउ पाउमलु मूढा करहि सव्हाणु ।
जे मल लाग चित्त महि भन्दा रे ! बिम जाय सम्हाणि ॥ प्रादा, 4.
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है कि जैनतर साधक भक्त थे अतः उन्होंने भक्ति के नाम-स्मरण पर अधिक जोर IT जबकि जैन साधकों ने आत्मा के ही परमात्मतत्त्व को अन्तर में धारण करने बात कही है।
2. साधक तत्व सद्गुरु और सरसंग : ___ साधना की सफलता और साध्य की प्राप्ति के लिए सद्गुरु का सत्संग प्रेरणा स्रोत रहता है । गुरु का उपदेश पापनाशक, कल्याणकारक शान्ति और प्रास्मद्व करने वाला होता है। उसके लिए श्रमण और वैदिक साहित्य मे श्रमण, चार्यो, बुद्ध, पूज्य, धर्माचार्य, उपाध्याय, भन्ते, भदन्त, सद्गुरु, गुरु प्रादि शब्दों का प्ति प्रयोग हुमा है । जैनाचार्यों ने अर्हन्त और सिद्ध को भी गुरु माना है और वेध प्रकार से गुरु भक्ति प्रदर्शित की है। इहलोक और परलोक मे जीवों को जो ई भी कल्याणकारी उपदेश प्राप्त होते हैं वे सब गुगजनो की विनय से ही होते
इसलिए उत्तराप्ययन में गुरु और शिष्यों के पारस्परिक कर्तव्यों का विवेचन गा गया है। इसी सन्दर्भ में सुपात्र और कुपात्र के बीच जैन तथा वैदिक साहित्य करेखा भी खीची गई है।
जैन साधक मुनिरामसिंह और प्रानंदतिलक ने गुरु की महत्ता स्वीकार की पोर कहा है कि गुरु की कृपा से ही व्यक्ति मिथ्यात्व रागादि के बंधन से मुक्त हर भेदविज्ञान द्वारा अपनी आत्मा के मूलविशुद्ध रूप को जान पाता है । इसलिए
. उत्तराध्ययन, 1 27. . जे केइ वि उवएसा, इह पर लोए सुहावहा संति ।
विणएण गुरुजणाणं सवे पाउणइ ते पुरिमा ॥ वसुनन्दि-श्रावकाचार,
339, तुलनार्थ देखिये-घेरंड संहिता, 3, 12-14. . उत्तराध्ययन, प्रथम स्कन्ध । . श्वेताश्वतरोपनिषद् 3-6, 22 आदि पर्व, महाभारत, 131. 34. 58,
ताम कुतित्थइ परिभमइ घुत्तिम ताम करेइ । गुरुहु पसाए जाम रणवि अप्पा देउ मुणे ।। योगसार, 41, पृ. 380. अप्पापरहं परंपरह जो दरिसावइ भेउ । पाहुड़दोहा, 1. गुरु जिरणवरु गुरु सिद्ध सिड, गुरु रयणत्तय सारु । सौ दरिसावइ अप्प परू पाणंदा ! भव जल पावइ पार ॥ पाणंदा, 36.
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उन्होंने गुरु की वन्दना की है । प्रानंदतिलक भी गुरु को जिनवर, सिद्ध, शिव और स्व-पर का भेद दर्शाने वाला मानते है । जैन साधकों के ही समान कबीर ने भी गुरु को ब्रह्म (गोविन्द) से भी श्रेष्ठ माना है । उसी की कृपा से गोविन्द के दर्शन संभव हैं। रागादिक विकारों को दूर कर श्रात्मा ज्ञान से तभी प्रकाशित होती है जब गुरु की प्राप्ति हो जाती है ।" उनका उपदेश संशयहारक और पथप्रदर्शक रहता है | गुरु के अनुग्रह एवं कृपा दृष्टि से शिष्य का जीवन सफल हो जाता है । सद्गुरु स्वर्णकार की भाति शिष्य के मन से दोष भौर दुर्गुणों को दूर कर उसे तप्त स्वर्ण की भांति खरा और निर्मल बना देता है ।4 सूफी कवि जायसी के मन में पीर (गुरु) के प्रति श्रद्धा दृष्टव्य है । वह उनका प्रेम का दीपक है। हीरामन तोता स्वयं गुरु रूप है और ससार को उसने शिष्य बना लिया है ।" उनका बिश्वास है कि गुरु साधक हृदय मे विरह की चिनगारी प्रक्षिप्त कर साधक शिष्य गुरु की दी हुई उस वस्तु को सुलगा देता है । जायसी के भावमूलक रहस्यवाद का प्राणभूततत्त्व प्रेम है और यह प्रेम पीर की महान देन है । पद्मावत के स्तुतिखड में उन्होंने लिखा है-
देता है और सच्चा
सूर की गोपिया तो बिना गुरु के योग मथुरा ले जाने के लिए कहती है जहा जाकर
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"संयद असरफ पीर पिराया । जहि मोहि पथ दीन्ह उजियारा | लेसा हिए प्रेम कर दीया । उठी जौति भा निरमल हीया ।"
8.
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सीख ही नही सकी । वे उद्धव से गुरु श्याम से योग का पाठ ग्रहरण
गुरु गोविन्द दोऊ खड़े काके लागू पाय ।
बलिहारी गुरु प्रापकी जिन्ह गोविन्द दियो दिखाय || संत वाणी संग्रह,
भाग- 1. पृ. 2.
बलिहारी गुरु प्रापणों द्यो हाड़ो के बार ।
जिनि मानिष ते देवता करत न लागी बार || कबीर ग्रन्थावली, पृ. 1.
ससं खाया सकल जग, ससा किनहूं न खद्ध, वही,
वही, पृ. 4.
जायसी ग्रन्थमाला, पृ. 7.
g. 2-3.
गुरु सुझा जेइ पंथ देखावा । बिनु गुरु जगत को निरगुन पावा || पद्मावत.
गुरु होइ प्राप, कीन्ह उचेला, जायसी ग्रन्थावली, पृ. 33.
गुरु विरह चिनगी जो मेला । जो सुलगाइ लेइ सो भेला ॥। वही, पृ. 51. जायसी ग्रंथावली, स्तुतिखण्ड, पृ. 7.
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कर सकें 12 भक्ति-धर्म में सूर ने गुरु की आवश्यकता अनिवार्य बतलाई है और उसका उच्च स्थान माना है । सद्गुरु का उपदेश ही हृदय में धारण करना चाहिए क्योंकि वह सकल भ्रम का नाशक होता है
"सद्गुरु को उपदेश हृदय घरि, जिन भ्रम सकल निवारयो ||2
सूर गुरु महिमा का प्रतिपादन करते हुए करते हैं कि हरि श्रौर गुरु एक ही स्वरूप है और गुरु के प्रसन्न होने से हरि प्रसन्न होते हैं। गुरु के बिना सच्ची कृपा करने वाला कौन है ? गुरु भवसागर में डूबते हुए को बचाने वाला और सत्पथ का दीपक है । 3 सहजोबाई भी कबीर के समान गुरु को भगवान से भी बड़ा मानती हैं 14 दादू लोकिक गुरु को उपलक्ष्य मात्र मानकर असली गुरु भगवान को मानते हैं । नानक भी कबीर के समान गुरु की ही बलिहारी मानते है जिसने ईश्वर को दिखा दिया अन्यथा गोविन्द का मिलना कठिन था । सुन्दरदास भी "गुरुदेव बिना नही मारग सूझय" कहकर इसी तथ्य को प्रकट करते हैं ।" तुलसी ने भी मोह भ्रम दूर होने और राम के रहस्य को प्राप्त करने में गुरु को ही कारण माना है। रामचरितमानस के प्रारम्भ मे ही गुरु वन्दना करके उसे मनुष्य के रूप में करुणासिन्धु भगवान माना है । गुरु का उपदेश अज्ञान के अंधकार को दूर करने के लिए अनेक सूर्यो के समान है
1.
6.
2.
3.
सूरसागर, पद 416, 417; सूर और उनका साहित्य,
4. परमेसुर से गुरु बड़े गावत वेद पुरान - संतसुधासार, पृ. 182
5.
प्राचार्य क्षितिमोहन सेन-दादू और उनकी धर्मसाधना, पाटल सन्त विशेषांक,
7.
बंदऊ गुरुपद कंज कृपा सिन्धु नररूप हरि ।
महामोह तम पुंज जासु वचन रवि कर निकर ॥
8.
जोग विधि मधुबन सिखिहैं जाइ ।
बिनु गुरु निकट सदेसनि कैसे, अवगाह्यौ जाइ ।
सूरसागर (सभा), पद 4328
वही, पद 336.
भाग 1, पृ. 112.
बलिहारी गुरु प्राणों द्यी हांड़ी के बार।
जिनि मानिषतें देवता करत न लागी बार ॥ गुरु ग्रंथ साहिब, म 1, प्रासादीवार, पृ. 1 सुन्दरदास ग्रंथावली, प्रथम खण्ड, पृ. 8 रामचरितमानस, बालकाण्ड 1-5
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कबीर के समान ही तुलसी ने भी संसार को पार करने के लिए गुरु की ति अनिवार्य मानी है । साक्षात् ब्रह्मा और विष्णु के समान व्यक्तित्व भी, गुरु के ना संसार से मुक्त नहीं हो सकता। सद्गुरु ही एक ऐसा दृढ़ कर्णधार है जो के दुर्लभ कामों को भी सुलभ कर देता है
करनधार सद्गुरु दृढ़ नावा, दुर्लभ साज सुलभ करि पाया ।
मध्यकालीन हिन्दी जैन कवियों ने भी गुरु को इससे कम महत्व नहीं दिया। होंने तो गुरु को वही स्थान दिया है जो प्रर्हन्त को दिया है। पंच परमेष्ठियों में 1 को देष माना पोर शेष चारों को गुरु रूप स्वीकारा है । ये सभी "दुरित हरन दारिद दोन" के कारण है । कबीरादि के समान कुशल लाभ ने शाश्वत सुख उपलब्धि को गुरु का प्रसाद कहा है-"श्री गुरु पाय प्रसाद सदा सुख सपजइ * रूपचन्द ने भी यही माना । बनारसीदास ने सद्गुरु के उपदेश को मेघ की मा दी है जो सब जीवों का हितकारी है। मिथ्यात्वी और प्रशानी उसे ग्रहण करते पर सम्यग्दृष्टि जीव उसका प्राश्रय लेकर भव से पार हो जाते है। अन्यत्र स्थल पर बनारसीदास ने उसे "ससार सागर तरन तारन गुरु जहाज खिये" कहा है ।
मीरा ने 'सगुरा' और 'निगुरा' के महत्व को दृष्टि में रखते हुए कहा है कि रा को अमृत की प्राप्ति होती है और निगुरा को सहज जल भी पिपासा की त के लिए उपलब्ध नही होता। सद्गुरु के मिलन से ही परमात्मा की प्राप्ति
गुरु बिनु भवनिधि तरइ न कोई जो विरंचि संकर सम होई । बिन गुरु होहि कि ज्ञान ज्ञान कि होइ विराग विनु । रामचरितमानस उत्तरकाण्ड, 93 वही, उत्तरकाण्ड, 4314 बनारसीविलास, पचपद विधान, 1-10 पृ. 162-163. हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि, पृ. 117. ज्यौं वर५ वरषा समे, मेघ अखंडित धार । त्यो सद्गुरु वानी खिर, जगत जीव हितकार ।। नाटक समयसार, 6, पृ. 338. वही, साध्य साधक द्वार, 15-16 पृ. 242-3. बनारसी विलास, भाषासूक्त म.क्तावली, 14, पृ. 24
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होती है। रूपचन्द का कहना है कि सद्गुरु की प्राप्ति बड़े सौभाग्य से होती है इस लिए वे उसकी प्राप्ति के लिए अपने इष्ट से अभ्यर्थना करते हैं। चानतराय को "जो तज विर्य की प्रासा, बानत पावं सिववासा । यह सद्गुरु सीख बताई, काहूं विरल के जिय जाई" के रूप में अपने सद्गुरु से पथदर्शन मिला । । सन्तों ने गुरु की महिमा को दो प्रकार से व्यक्त किया है- सामान्य गुरु का महत्व और किसी विशिष्ट व्यक्ति का महत्व । कबीर और नानक ने प्रथम प्रकार पलपनाया तथा सहजोबाई मादि अन्य सन्तों ने प्रथम प्रकार के साथ ही द्वितीय प्रकार को भी स्वीकार किया है । जैन सन्तों ने भी इन दोनों प्रकारों को अपनाया है। महत प्रादि सद्गुरुषों का तो महत्वगान प्रायः सभी जैनाचार्यों ने किया है पर कुश लाभ जैसे कुछ भक्तो ने अपने लोकिक गुरुषों की भी पाराधना की है।
। गुरु के इस महत्व को समझकर ही साधक कवियों ने गुरु के सत्संग को प्राप करने की भावना व्यक्त की है। परमात्मा से साक्षात्कार कराने वाला ही सदाह है । सत्संग का प्रभाव ऐसा होता है कि वह मजीठ के समान दूसरों को अपने रंग में रग लेता है। काग भी हस बन जाता है ।' रैदास के जन्म-जन्म के पाश कट
1. सतगुरू मिलिया सुछपिछानौ ऐसा ब्रह्म मैं पाती।
सगुरा सूरा अमृत पीवे निगुरा प्यासा जाती। मगन भया मेरा मन सुख में गोविन्द का गुण गाती । मीरा कहै इक पास मापकी और सू सकुचाती ॥ सन्त वाणी संग्रह, भाग 2, पृ. 69. भब मौहि सद्गुरु कहि समझायो, तौ सौ प्रभू बड़े भागनि पायो। रूपचन्द नटु विनवै तौही, अब दयाल पूरी दे मोही ।।
हिन्दा पद संग्रह, पृ. 49 3., वही, पृ. 127, तुलनार्थ देखिये ।
मन वचकाय जोग थिर करके त्यागो विषय कषाई।
बानत स्वर्ग मोक्ष सुखदाई सतगुरु सीख बताई ॥ वही, पृ, 133. 4. हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि, पृ. 117. 5. भाई कोई सतगुरु सत कहावै, नैनन मलख लखाव-कवीर; भक्ति काव्य में
रहस्यवाद, पृ. 146. 6. दरिया सगत साधु की, सहज पलटे अंग । -- जैसे सं गमजीठ के कपड़ा होय सुरंग । दरिया 8, संत वाणी संग्रह,
भाग 1, पृ. 129 7. सहजोसंगत साष की काग हंस हो जाय । महोबाई, वही, पृ. 158
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जाते हैं । मीरा सत्संग पाकर ही हरि चर्चा करना चाहती है ।" सत्संग से वुष्ट भी वैसे ही सुधर जाते हैं जैसे पारस के स्पर्श से कुधातु लोहा भी स्वर्ण बन जाता है । " इसलिए सूर दुष्ट जनों की संगति से दूर रहने के लिए प्रेरित करते हैं ।'
मध्यकालीन हिन्दी जैन कवियों ने भी है । बनारसीदास ने तुलसी के समान सत्संगति
1.
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सत्संग का ऐसा ही महत्व दिखाया लाभ गिनाये हैं
Ange
कुमति निकद होय महा मोह मंद होय,
जगमगे सुयश विवेक जगं हियसो । नीति को दिव्य होय विनैको बढाव होय,
उपजे उछाह ज्यों प्रधान पद लियेसों || धर्म को प्रकाश होय दुर्गति को नाश होय,
बरते समाधि ज्यों पियूष रस पिये सों । तोष परि पूर होय, दोष दृष्टि दूर होय,
एते गुन होहि सह संगति के किये सौं ||
कह रैदास मिलें निजदास, जनम जनम के काटे पास-रैदास वानी, पृ. 32 तज कुसंग सतसंग बैठ नित, हरि चर्चा सुरण लीजो-सम्तवारणी संग्रह, भाग 2, पृ. 77.
जलचर थलचर नभचर नाना, जे जड़ चेतन जीव जहाना | मीत कीरति गति भूति भलाई, जब जेहि जलन जहां जेहि पाई ।
सौ जानव सतसंग प्रभाऊ, लौकहुं वेद न आन उपाऊ । बिनु सतसंग विवेक न होई, राम कृपा बिनु सुलभ न सोई । सतसंगति मुद मंगलमूला, सोई फल सिधि सब साधन फूला । सठ सुधरहि सतसंगति पाई, पारस परस कुधात सुहाई । तुलसीदास - रामचरितमानस, बालकाण्ड 2-5. तजो मन हरि विमुखन को संग ।
जिनके संग कुमति उपजत है परत भजन में मंग ।
कहा होत पय पान कराये विष नहि तजत भुजंग |
काहि कहा कपूर चुगाए स्वान म्हवाए गंग |
सूरदास खलकारी कामरि, चढ़े न दूजो रंग ॥ सूरसागर, पृ. 176. बनारसीविलास, भाषासुक्त मुक्तावली, पृ. 50.
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धानतराय कवीर के समान उन्हें कृतकृत्य मानते हैं जिन्हें सत्संगति प्राप्त हो गयी है। भूपरमल सत्संगति को दुर्लभ मानकर नरभव को सफल बनामा चाहते हैं
प्रमु गुन गाय रे, यह प्रोसर फेर न पाय रे ॥ मानुष भव जोग दुहेला. दुर्लभ सतसगति मेला ।
सब बात भली बन पाई, अरहन्त भजो रे भाई ॥1॥
दरिया ने सत्सगति को मजीठ के समान बताया और नवल राम ने उसे चन्द्रकान्तमरिण जैसा बताया है । कवि ने और भी दृष्टान्त देकर सत्संगति को सुखदायी
सत संगति जग में सुखदायी ॥ देव रहित दूषण गुरु साची, धर्म दया निश्च चितलाई ॥ सुक मेना संगतिनर की करि, अति परवीन वच नता पाई । चन्द्र कांति मनि प्रकट उपल सौ, जल ससि देखि झरत सरसाई ।। लट घट पलटि होत षट पद सी, मिन को साथ भ्रमर को थाई। विकसत कमल निरखि दिनकर कों, लोह कनक होय पारस छाई ।। बोझ तिरं संजोग नाव कं, नाग दमनि लखि नाग न खोई। पावक तेज प्रचंड महाबल, जल मरता सीतल हो जाई॥ सग प्रताप मुयंगम जै है, चंदन शीतल तरल पटाई। इत्यादिक ये बात धणेरी, कोलो ताहिं कही नु बढ़ाई॥
1. कर कर सपत संगत रे भाई॥
पान परत नर नरपत कर सौ तौ पाननि सौ कर प्रासनाह॥ चन्दन पास नींव चन्दन है काढ चढ़यो लोह तरजाई । पारस परस कुषात कनक है बून्द उर्द्ध पदवी पाई ।। करई तोवर संगति के फल मधुर मधुर सुर कर गाई। विष गुन करत संग प्रोषध के ज्यो बच खात मिट वाई ।। दोष घटे प्रगटे गुन मनसा निरमल है तज चपलाई । चानत धन्न धन्न जिनके घट सत संगति सरधाई॥
हिन्दी पद संग्रह, पु. 137. 2. वही, पृ. 155. 3. वही, पृ. 158-86.
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इसी प्रकार कविवर छत्रपति ने भी संगति का माहात्म्य दिखाते हुए उसके भेद किये हैं-उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य ।।
इस प्रकार मध्यकालीन हिन्दी जन साधकों ने विभिन्न उपमेयों के आधार द्गुरु और उनकी सत्सागति का सुन्दर चित्रण किया है। ये उपमेय एक दूसरे भावित करते हुए दिखाई देते हैं जो निःसन्देह सत्संगति का प्रभाव है। यहां ष्टव्य है कि जनेतर कवियों ने सत्संगति के माध्यम से दर्शन की बात अधिक की जबकि जैन कवियों ने उसे दर्शन मिश्रित रूप में अभिव्यक्त किया है।
त्मि-परमात्म-निरूपण :
प्राध्यात्मिक दार्शनिक क्षेत्र मे प्रात्मतत्त्व सर्वाधिक विवाद का विषय रहा दान्तसार, सूत्रकृतांग और दीघनिकाय में इन विवादो के विविध उल्लेख मिलते कोई शरीर और आत्मा को एक मानते है और कोई मन को प्रात्मा मानते कुछ अधिच्च-समुप्पन्निकवादी थे, कुछ अहेतुवादी थे, कुछ प्रक्रियावादी थे, कुछ वादी थे, कुछ अज्ञानवादी थे, कुछ ज्ञानवादी थे, कुछ शाश्वतवादी थे और कुछ वादी थे । ये सभी सिद्धान्त ऐकान्तिकवादी हैं । इनमे कोई भी सिद्धान्त आत्मा स्तविक स्वरूप पर निष्पक्ष रूप से विचार करते हुए नहीं दिखाई देता । वेदान्त
देखो स्वांति बून्द सीप मुख परी मोती होय : केलि में कपूर बास माहिं बसलोचना । ईख मे मधुर पुनि नीम में कटुक रस, पन्नग के मुख परी होय प्रान मोचना ।। अबुज दलनिपरि परी मोती सम दिप, तपन तबे पे परी नस कछु सोचना । उतकिष्ट मध्यम जघन्य जैसों संग मिल, तैसी फल लहै मति पौच मति पोचना ।।147।। मलय सुवास देखो निंबादि सुगन्ध करे, पारस पखान लोह कञ्चन करत है। रजक प्रसग पट समलते श्वेत कर, भेषज प्रसंग विष रोगन हरत है ॥ पंडित प्रसंग जन मूरखतें बुध कर, काष्ट के प्रसंग लोह पानी में तरत है। जैसी जाको संग ताको तसो फल प्रापति है, सज्जनप्रसंग सब दुख निवरत है ।। 148, मनमोदन पंचशती, पृ. 70-71. वेदान्तसार, पृ. 7. बौद्ध संस्कृति का इतिहास, पृ. 3-5.
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के अनुसार मास्मा स्वप्रकाशक, नित्य, शुद्ध, सत्यस्वभावी और चैतन्ययुक्त है ।। बौद्धदर्शन में प्रात्मा ने प्रध्याकृतवाद से लेकर निरामत्वाव नक की यात्रा की हैं।' जनदर्शन में प्रात्मा ज्ञानदर्शनोपयोगमयी, अमूर्तिक, कर्ता,स् वदेहपरिणामवान्, भोक्ता, संसारस्थ, सिद्ध और ऊर्ध्वस्वभावी है। जीव है सुज्ञानमयी चेतना स्वभाव धरै, जानिबौ जो देखिबौ अनादिनिधि पास है । __ अमूर्तिक सदा रहै और सौ न रूप गहै, निश्चने प्रवान जाके मातम विलास है।। व्योहारनय कर्ता है देह के प्रमान मान, भोक्ता सुम्य दुःखानि को जग में निवास है। शुद्ध है विलोके सिद्ध करम कलक विना, ऊर्द्ध को स्वभाव जाकी लोक अग्रवास है।
____मध्यकालीन हिन्दी सन्त श्रात्मा के इन्हीं विभिन्न स्वरूपों पर विचार करते रहे है । सूफी कवि जायसी के प्रात्मतत्त्व सम्बन्धी विचार वेदान्त, योग, सूफी, इस्लाम और जैन धर्म से प्रभावित रहे हैं । उसमें इन सभी सिद्धान्तों को समन्वित रूप में प्रस्तुत करने की भावना निहित थी। जायसी का ब्रह्मनिरूपण सूफियों से अधिक प्रभावित है । सूफीमत में ब्रह्म की स्थिति हृदय में मानी गयी है और जगत् उसकी प्रतिच्छाया के रूप मे दिग्वाई देता है । कवि का यह कयन दृष्टव्य है जहां वर करता है-काया उदधि सदृश है । उसी में परमात्मा रूपी प्रियतम प्रतिष्ठित है। उसी को शाश्वत माना है। प्रात्मा का साक्षात्कार अन्तर्मुखी माधना का फल है। यह प्रात्मा पिण्डस्थ मानी गई है। योग के अनुसार पिण्डस्थ प्रात्मा दो प्रकार की है-प्रातात्मा और प्राप्तव्यात्मा । सूफियों ने भी प्रात्मा के दो रूप स्वीकार किये है-नफस (मंसारी) और रूह (विवेकी)। रूह आत्मा शरीर के पूर्व विद्यमान रहती है । परमात्मा ही उसे मनुष्य शरीर में भेजता है। इस उच्चतर आत्मा के भी तीन पक्ष है-~कल्ब (दिल) रूह (जान) तथा सिरै अन्त:करण) । वहाँ सिरे ही मन्तरतम रूप है । इसी में पहुंचकर सूफी साधक आत्मा के दर्शन करते हैं। इममात्मद्वयवाद को कवि ने सूर्य-चन्द्र के प्रतीकों से अनेक स्थानो पर व्यंजित किया है। आत्मद्वय
1. प्रतस्तद्भासकं नित्य शुद्धयुक्त सत्यस्वभावं प्रत्यकः ।।
चैतन्य मेवात्मभवस्त्विति वेदान्तविदनुभव: । वेदान्तसार-सं. हरियत्रा, पृ. 8. 2. बौद्ध संस्कृति का इतिहास, पृ. 88. 3. ब्रह्मविलास, द्रव्यसंग्रह, 2, पृ. 33. 4. काया उदधि चितव पिंडा पाहां । देखे रतन सौ हिरदय माहां ॥ जायसी
ग्रन्थावली, पृ. 177. 5. वही, पृ. 3. 6. प्राजु सूर ससि के घर माया । ससि सूरहि जनु होइ मेरावा, वही, पृ. 123.
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में एक शुद्धात्मा है और दूसरी निम्नात्मा । माया के नष्ट हो जाने पर दोनों का द्वैतभाव नष्ट हो जाता है । वेदान्त में माया (नफस) का हनन ज्ञान से होता है पर सूफीमत में ईश्वर प्रेम से साधक उससे मुक्त होता है । जायसी ने भ्रात्मा की ज्ञानरूपता, स्व-पर-प्रकाशकरूपता, ' नित्यशुद्ध, मुक्तरूपता, चैतन्य रूपता परम प्रेमास्पद रूपता, आनन्द रूपता, सदरूपता मीर सूक्ष्मातिसूक्ष्म रूपता स्वीकार की है। जायसी के इस श्रात्मा के सिद्धान्त पर वेदान्त का प्रभाव अधिक बताया जाता है । पर मुझे जैनदर्शन का भी प्रभाव दिखाई देता है ।
1
कबीर के अनुसार जीव और ब्रह्म पृथक नहीं है । वह तो अपने प्रापको भविचा 'काररणा ब्रह्म से पृथक् मानता है । अविद्या और माया के दूर होने पर जीव और ब्रह्म प्रद्वैत हो जाते हैं- 'सब घटि अंतरि तू ही व्यापक घटे सरूपं सोई । 5 मात्मज्ञान शाश्वत सुख की प्राप्ति कराने वाला है ।" सर्वव्यापक है ।' अविनाशी है, निराकार और निरंजन है । सूक्ष्मातिसूक्ष्म तथा ज्योतिस्वरूप है । 11 इसे आत्मा का परमार्थिक स्वरूप कहते हैं । उसका व्यावहारिक स्वरूप माया अथवा श्रविद्या से मात स्थिति में fदाई देखता है । वही संसार मे जन्म-मरण का कारण है । सुन्दरदास का भी यही मन्तव्य है । 22
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सूर ने भी ब्रह्म और जीव में कोई अंतर नहीं माना। माया के कारण ही जीव अपने स्वरूप को विस्मृत हो जाता है- 'प्रापुन आपुन ही विसरयौ ।' माया के 13 दूर होने पर जीव प्रपती विशुद्धावस्था प्राप्त कर लेता है ।" तुलसी ने भी जीवात्मा
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हिय के जोति दीप वह सूझा, जायसी ग्रन्थाबली,
वही, पृ. 50.
वही, पृ. 57.
जायसी का पद्मावत: काव्य और दर्शन, पृ. कबीर ग्रन्थावली, पृ. 105.
प्राप ही श्राप विचारिये तब कैसा होई आनंद रे, कबीर ग्रंथावली,
वही, पृ. 56.
वही, पृ. 323.
निजस्वरूप निरंजना, निराकार अपरंपार, वही, पृ. 227.
वही, पृ. 73.
वही, पृ. 73.
सतवानी संग्रह, पृ. 107.
सूरसागर, पद 369.
वही, पद, 407.
पृ. 61.
194-204.
पृ. 89.
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को परमात्मा से पृथक नहीं माना । मामा के वशीभूत होकर ही वह अपने यथार्थ स्वरूप को भूल गया। कवि का परमात्मा व्यापक है मौर वह कबीर प्रादि के समान केवल निर्गुण नहीं ही कहा, वह भी सगुण होकर भिन्न-भिन्न अवतार धारण करता है। सगुण-निर्गुण राम की शक्ति का विवेचन इस कथ्य को पुष्ट
जैन सन्तों ने भी कबीर आदि सन्तों के समान प्रात्मा के निश्चय और व्यवहार स्वरूप का वर्णन किया है। जैन दर्शन का प्रात्मा निश्चय नय से शुद्ध, बुद्ध और निराकार है पर व्यवहार नय से वह शरीर प्रमाण प्राकार ग्रहण करता है, कर्ता और भोक्ता है। आत्मा और शरीर को भी वहां पृथक् माना गया है । सूफी साधकों ने प्रात्मा से परमात्मा तक पहुंचने मे चार अवस्थाओं का वर्णन किया है-शरीयत (श्रुताभ्यास), तरीकत (नामस्मरण), हकीकत (मात्मज्ञान) और मार. फत (परमात्मा में लीन)। जैनों ने आत्मा की इन्हीं अवस्थाओं को तीन अवस्थामों में अन्तर्भूत कर दिया है-बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा। प्रात्मा ही परमात्मा बन जाता है । इन सभी अवस्थाओं का वर्णन हम पीछे कर चुके हैं ।
योगीन्दु मुनि ने प्रात्मा के स्वरूप पर विचार करते हुए लिखा है कि प्रात्मा न गौर वर्ण का है, न कृष्णा वर्ण का, न सूक्ष्म है, न स्थूल है न ब्राह्मण है, न क्षत्रिय, न वैश्य है, न शूद्र, न पुरुष है, न स्त्री, न नपुंसक है, न तरुण-वृद्ध आदि । वह तो इन सभी सीमानों से परे है। उसका वास्तविक स्वरूप तो शील, तप दर्शन, ज्ञान और चारित्र का समन्वित रूप है।
अप्पा गौरउ किण्हु रणवि, अप्पा रत्तु रा होइ । अप्पा सुहसु वि थूणु ण वि, रणारिणउ जाणे जोइ ।।86। अप्पा बंभणु बइसु ण वि, ण वि खत्तिउण वि सेसु । पुरिसु गाउंसउ इत्थ ण वि, रग रिणउ मुणइ असेसु ।।87।। अप्पा वन्दउ खबणु रग वि, अप्पा गुरउ ए होइ। अप्पा लिगिउ एक्कु ण वि, रण रिणउ जाणइ जोइ ॥88॥
1. जिय जब ते हरि नै बिगान्यो। तब से गेह निज जान्यो।
माया वस सरूप बिसरायो। तेहि भ्रम तें दारुन दुःख पायो । विनय.
पत्रिका, 136. 2. वही, 53. 3. गीतावली, 5, 5-27
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प्रपा पंडित मुक्सुण बि, रवि ईसरु सबि पी ।। तरुणउ बूढ़उ बालु गावि, अण्णु वि कम्म विसेसु ॥9111 अप्पा संजमु सीलु तउ, मप्पा वंसणु पाणु ।
अप्पा सासय मोक्ख पउ, जाणतउ मप्पाणु 19301 मुनि रामसिंह ने भी प्रात्मा के इसी स्वरूप का वर्णन किया है। कबीर भी यही कहा है-'बरन विवरजित हवै रह्या नां सौ स्याम न सेत ।'3 कबीर मात्मा अविनाशी, अविकार और निराकार है। बनारसीदास ने भी मात्म्म इसी रूप को स्वीकार किया हैअविनासी अविकार परमरस धाम है,
समाधान सर्वज्ञ सहज अभिराम है। सुद्ध बुद्ध अविरुद्ध अनादि अनन्त है ।
जगत शिरोमणि सिद्ध सदा जयवन्त है। कबीर की दृष्टि में मिथ्यात्व और माया के नष्ट होने पर प्रात्मा ६ परमात्मा में कोई अंतर नहीं रह जाता।
जल में कुम्भ-कुम्भ में जल है, बाहिर भीतर पानी। फूटा कुभ जल जलहि ममाना, यहु जथ की गियानी ।। ज्यूबिंव हिं प्रतिबिम्ब समाना उदक कुम्भ बिगराना।
कहै कबीर जानि भ्रम भागा, धहि जीव समाना ।। बनारसीदास ने भी प्रात्मा-परमात्म रूप का ऐसा ही चित्रण किया है
पिय मोरे घट, मै पियमाहिं । जलतरंग ज्यों द्विविधा नाहि ॥ पिय मो करता मैं करतूति । पिय ज्ञानी मैं ज्ञान विभूति ॥ । पिय सुखसागर मैं सुख सींव । पिय शिवमंदिर में शिवनीय ।।
1. परमार्थप्रकाश, प्र. महा :
पाहुड दोहा, 2.5-31. कवीर ग्रंथावली, पृ. 243. कहै कबीर सबै सज विनस्या, रहे राम प्रविनासी रे । निज सरूप निरंजन निराकार, अपरंपार अपार । अलख निरंजन लखै न कोई निरर्भ निराकार है सोइ । कबीर पंथावर पृ. 210. 227, 230.
नाटक समयसार, पृ. 5. 6. कबीर ग्रन्थावली, परचा को भग, पृ. 111.
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पिय ब्रह्मा में सरस्वति नाम । पिय माधव भो कमला नाम ॥ for शंकर मैं afr भवानि । पिय जिनवर में केबलवानि ॥ सुन्दरदास ने प्रात्म-परमात्म तत्त्व की अद्वैतता, अखण्डता तथा निर्मुखता का वर्णन इस प्रकार किया है
ब्रह्म निरीह निरामय निर्गुन नित्य निरंजन धीर न भासे ।। ब्रह्म प्रखण्डित है प्रध करष बाहिर भीतर ब्रह्म प्रकासं । ब्रह्महि सूच्छम स्थूल जहां लगि ब्रह्महि साहिब ब्रह्महि दासं । सुंदर और कछू मत जानहू ब्रह्महि देखत ब्रह्म तमासे । 2
तुलसीदास ने राम के स्वरूप का वर्णन करते हुए उन्हें सगुण-निर्गुण रूप माना है। उन्होंने ब्रह्म को नित्य, निर्भय, सच्चिदानन्द, ज्ञानधन, विमल, व्यापक, सिद्ध प्रादि विशेषणों से प्रभिहित किया है
नित्य निर्भय, नित्य मुक्त निर्मान हरि ज्ञानधन सच्चिदानंद मूलं । सर्वरक्षक सर्वभक्षकाध्यक्ष कूटस्थ गूढ़ाचि भक्तानुकूलं ॥1
सिद्धि साधक साध्य, वाच्य वाचक रूप मंत्र जापक-जाप्य, सृष्टि सष्टा । परमकारन कंजनाभ, सगुन, निर्गुना सकल- दृश्य दृष्टा ॥
व्योम व्यापक बिरज ब्रह्म बरदेस बँकुठ वामन विमल ब्रह्मचारी । सिद्ध वृन्दास्कावृंद वंदित सदा खंडि पाखंड निर्मूलकारी ॥
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पूरनानंद संदोह प्रहरन संमोह प्रज्ञान गुनसन्निपातं ।
बचन मन कर्म गत सरन तुलसीदास, त्रास पाथोधि इव कुंभजानं ॥ ३
सूर को सगुरपवादी कहा जाता है पर उन्होंने निर्गुण रूप का भी भक्ति - वशात् व्याख्यान किया है
शोभा श्रमित अपार प्रखिण्डत प्राप प्रातमाराम । पूरन ब्रह्म प्रकट पुरुषोत्तम सब विधि पूरन काम । श्रादि सनातन एक अनुपम प्रविगत अल्प महार । प्रकार श्रादि वेद प्रसुर हन निर्गुण सगुण अपार ॥14
सूरसागर के प्रथम स्कन्ध के प्रारम्भ में सूरदास ने परब्रह्म के रूप की विस्तृत
बनारसीविलास, प्रध्यातम गीत, पृ.
1.
2. सुन्दर विलास, पृ. 129. विनयपत्रिका, 53.
3.
4. सूरसारावली, पद 993, पृ. 34 ( वेंकटेश्वर प्रेस)
161.
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arrer की है । अनेक ऐसे पद हैं जिनमें परब्रह्म कृष्ण के अन्तयामी विराट स्वरूप, तथा निर्गुण स्वरूप का वर्णन है । '
बनारसीदास ने भी परमात्मा के इन्हीं सगुण और निर्गुण स्वरूप की स्तुति की है- 'निर्गुण रूप निरंजनदेवा, सगुण स्वरूप करें विधि सेवा । " एक अन्यत्र स्थान पर कवि ने चैतन्य पदार्थ को एक रूप ही कहा है पर दर्शन गुण को निराकार चेतना और ज्ञानगुण को साकार चेतना माना है
अंजन का अर्थ माया है और माया से विमुक्त ग्रात्मा को निरंजन कहा गया है । बनारसीदास ने उपर्युक्त पद में निरंजन शब्द का प्रयोग किया है। कबीर ने भी निरंजन को निर्गुण और निराकार माना है
-
निराकार चेतना कहावे दरसन गुन साकार चेतना सुद्ध ज्ञानगुनसार है । चेतना मत दोऊ' चेतन दख मांहि समान विशेष सत्ता ही को विसतार है ॥
मो पंदे तू निरंजन तू निरंजन राया।
तेरे रूप नांही रेख नाहीं, मुद्रा नांहीं माया ॥ * सुन्दरदास ने भी इसे स्वीकार किया है-'अंजन यह
जन राइ | सुन्दर उपजत देखिए, बहुरयो जाइ विलाइ ||
में जो व्यक्ति समस्त प्राशानों को दूर कर ध्यान द्वारा अजपा जाप को अपने प्रन्तःकरण में संचित करता है वह निरंजन पद को प्राप्त करता है
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मासा मारि श्रासन घरि घट में, अजपा जाप जगावं ।
मानन्दघन चेतनमय मूरति नाथ निरंजन पावं ॥
निरंजन शब्द के इन प्रयोगों से यह स्पष्ट है कि जैन श्रौर जैनेतर कवियों
ने इसे परमात्मा के अर्थ में प्रयुक्त किया है। सिद्ध सरहपाद' और गोरखनाथ ने
8.
मामा करी, श्रापु निरंप्रानन्दघन की दृष्टि
सूर और उनका साहित्य, पृ. 211.
बनारसीविलास, शिवपच्चीसी, 7 पृ. 150.
नाटक समयसार, मोक्षद्वार, 10, पृ. 219
कबीर ग्रंथावली, 219, पृ. 162. सन्तसुधासार, पृ.648.
मानन्दघन बहोंतरी, पृ. 359.
सुया रिंगरंजन परम हउ, सुइणोमा सहाय ।
1
भावहु चित्त सहायता, जउ रासिज्जइ जाय || दोहाकोश, 139, पृ. 30.
'
उदय न ग्रस्त राति न दिन, सरने सचराचर भाव न भिन्न । सोई निरंजन डाल न मूल, सर्वव्यापिक सुषम न प्रस्थूल || हिन्दी काव्यधारा, पृ. 158.
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भी इस शब्द का प्रयोग किया है। निरंजन पात्मा की यह स्थति है वहाँ भाषा मथवा मविद्या का पूर्ण विनाश हो जाता है और मारमा की विदुरवस्था प्राप्त हो जाती है । इस अवस्था को सभी सम्प्रदायों ने लगभग इसी रूप में स्वीकार किया है । प्रतएव यह कथन सत्य नहीं लगता कि निरंजन नामक कोई पृषक सम्म दाय था। जिसका लगभग 12 वीं शताब्दी में उदय हुअा होगा। डॉ. मिलायत से निरंजन सम्प्रदाय का संस्थापक कबीरपंथी हरीदास को बताया। यह भ्रम माग है। निरंजन नाम का न तो कोई सम्प्रदाय ही था और न उसका संस्थापक हरीदास अथवा निरंजन नामक कोई सहजिया बौद्ध सिद्ध ही था। इस शब्द का प्रयोग तों मात्मा की उस परमोच्च अवस्था के लिए भागमकाल से होता रहा है जिसमें मापा मथवा प्रविद्या का पूर्ण विनाश हो जाता है। योगीन्दु ने इस शब्द का प्रयोग बहुत किया है। उनका समय लगभग 8 वीं शती है। उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि निरन्जन वह है जिसमें रागादिक विकारों में से एक भी दोष न हों
जासुण वण्णु ण गंधु रसु ज सुरण सदु ण फासु । जासु ण जम्मणु मरणु रणवि गाउ णिरंजणु तासु ॥ जासु रण कोहु ण मोहु मउ जासु ण माय स माणु । जासु ण ठाणु रण माणु जिय सो जि निरंजणु जाणु॥ भत्थि रण पुण्णु ण पाउ जसु अस्थि ण हरिसु बिसाउ । पत्थि ण एक्कु वि दोसु जसु सो जि रिपरजणु माउ ।'
1. कबीर-डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी, हिन्दी प्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई,
__ पंचम संस्करण, पृ. 52-53. 2. हिन्दी की निर्गुण काव्यधारा और उसकी दार्शनिक पृष्ठभूमि, पृ. 354. 3. हिन्दी की निर्गुण काव्यधारा और उसकी दार्शनिक पृष्ठभूमि, पृ. 35.5. 4. रंजनं रागायु:-रंजनं तस्मान्निर्गतपस्थानांगसूत्र, अभियान राजेन्द्र कोश, चतुर्थ
भाग, पृ. 2108, कल्प सुबोधिका में भी लिखा है-रजनं रामायुपरजन
तेन शून्यत्वात निरञ्जनम् । 5. परमात्म प्रकाश, 1-17, 123, 6. मध्यकालीन धर्मसाधना-डॉ. हमारीत्रसाद शिवी, प्र. संस्करण, 1952
पृ. 44. 7. परमात्म प्रकाश, पृ. 27-28.
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बनारसीदास ने भी इसी परम्परा को स्वीकार किया है । उसी निरंजन की उन्होंने वदना की है। वही परमगुरु और अपमंजक है। भगवान का यही निर्गुण स्वरूप यथार्थ स्वरूप है । तुलसी का ब्रह्म भी मूलत: निर्गुणपरक ही है । इसी को निष्फल ब्रह्म भी कहा जाता है । अल्लाह, करीम, रहीम प्रादि सूफी नामों के प्रति रिक्त पात्मा गुरु, हंस, राम प्रादि शब्दों का भी प्रयोग निर्गुणी सन्तों ने ब्रह्म के अर्थ में किया है । जैनाचार्यों ने भी इनमें से अधिकांश शब्दों को स्वीकार किया है । यह जिनसहस्रनाम से स्पष्ट है । सगुण परम्परा का भी उन्होंने प्राधार लिया है। ब्रह्मत्व निरूपण में यहां एकत्ववाद की प्रतिष्ठा की गई है जिसमें अध्यात्म का सरस निर्मल जल सिंचित हुमा है । साकार विग्रह के वर्णन में ब्रह्म के विराट स्वरूप का दर्शन होता है। प्रदतता और अखण्डता का भी प्रतिपादन किया गया है । इसी को अनिर्वचनीय और अगोचर भी कहा गया है। ये सभी तत्त्व सगुण-निर्गुण भक्त कवियों के साहित्य में हीनाधिक भाव से मिलते हैं । जैन कवियों की भक्ति भी सगुणा और निर्गुणा रही है । अतः उनका आत्मा और ब्रह्म भी उपर्युक्त विशेषणों से मुक्त नहीं हो सका।
निसानी कहा बताउ रे तेरो वचन अगोचर रूप । रूपी कह तो कछु नाही रे, कैसे बघ प्ररूप ।। रूपा रूपी जो कहूँ प्यारे, ऐसे न सिद्ध अनूप । सिद्ध सरूपी जो कहूं प्यारे, बन्धन मोक्ष विचार ॥ सिद्ध सनातन जो कह रे, उपजे विणसे कोण । उपज विरास जो कहू प्यारे, नित्य प्रवाधित गौन ॥
1. परम निरम्जन परमगुरु परमपुरुष परधान ।
बन्दहं परम समाधिगत, अपमंजन भगवान ॥ बनारसीविलास, कर्मछत्तीसी,
पछ 1, पृ. 136. 2. प्रानन्दधन बहोत्तरी, पृ. 365.
तुलनार्थ देखिए बाबा पात्म भगोचर कैसा तातै कहि समुझावों ऐसा । जो दीस सो तो है वो नाहीं, है सो कहा न जाई। मैना बैना कहि समझामो, मूगे का गुड़ भाई। दुष्टि न दीस मुष्टि न माव, विनस नाहि नियारा । ऐसा ग्यान कथा गुरु मेरे, पण्डित करो विचारा ।। कबीर, पृ. 126.
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2. प्रपत्त-भावना
डॉ. रामकुमार वर्मा ने 'कबीर का रहस्यवाद' में रहस्यवाद की भूमिका चार प्रमुख तत्वों से निर्मित बतलायी है-पास्तिकता, प्रेम और भावना, गुरु की प्रधानता और मार्ग । ये चारों तत्त्व प्राचीन भारतीय साहित्य की प्राध्यात्मिक पौर दार्शनिक परम्परा से जुड़े हुये हैं। 'मास्तिकता' का तात्पर्य है प्रात्मा और परमात्मा के मस्तित्व पर विश्वास करना । 'प्रेम और भावना' का सम्बन्ध अपने भाराध्य के प्रति व्यक्त माध्यात्मिक प्रेम से है। इस प्रेम के अन्तर्गत प्रपत्ति मूलक दाम्पत्य प्रेम की अभिव्यक्ति की जाती है। 'गुरु' परमसत्य का साक्षात्कार करने वाला होता है और 'मार्ग' मे साक्षात्कार करने का पथ निर्दिष्ट किया जाता है ।
उपयुक्त तत्त्वों में से हम प्रास्तिकता और गुरु पर पीछे विचार कर चुके हैं। प्रेम को हम दूसरे शब्दों मे भक्ति-प्रपत्ति कह सकते हैं। प्रपत्ति का तात्पर्य है अपने इष्टदेव के शरण में जाना । साधक की भक्ति उसे इस प्रपत्ति की मोर ले जाती है । अनुकूल का संकल्प अथवा व्यवहार करना, प्रातिकूल्य का छोड़ना, भगवान रक्षा करेंगे ऐसा विश्वास होना, भगद्गुणों का वर्णन, भात्म निक्षेप और दीनता इन छः अंगों के माध्यम से भक्त अपने आराध्य की शरण में जाता है। मध्यकालीन हिन्दी सन्तों में प्रपन्न भक्तों के लगभग सभी गुण उपलब्ध होते हैं।
"अनुकूल्यस्म संकल्प" का तात्पर्य है भगवान के अनुकूल माचरण करना, ऐसे सत्कार्य करना जो भगवद्भक्ति के लिए मावश्यक हों। कबीर का चिन्तन है कि प्रात्मा की विशुद्ध परिणिति हरि का दर्शन किये बिना नहीं हो सकती-'हरि न मिले बिन हिरदै सूध । उसके बिना तो वह जल में से से धूत निकालने के समान असम्भव है-'हृदय कपट मुख ग्यांनी, झूठे कहा विलोबसि पानी। तुलसी पश्चात्ताप करते हुए यह प्रतिज्ञा करते हैं कि अभी तक तो उन्होंने अपना समय व्यर्थ गंवाया पर अब चिन्तामरिण मिल गया है । उसे यों ही व्यर्थ नहीं जाने देंगे।
अब लों नसानी, अब न नसंहों। राम कृपा भाव-निसा सिरानी, जागे फिर न डस हों। पायेऊ नाम चारु चिन्तामनि, उरकर ते न ससेहों। स्याम रूप सुचि रुचिर कसौटी, चित्त कंचनहि कसैहों।
1. पांचरात्र, लक्ष्मी संहिता साधनांक, पृ. 60. 2. कबीर ग्रन्थावली, पृ. 214. 3. वही, पृ. 332.
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हसहों ।
गरबस जानि हरुको इन दिन बस है न मन मधुकर पन के तुलसी पद कमल वसैहों । 1
इस प्रकार रूपचन्द भगवान् के शरण में जाकर यह कहते हुए दिखाई देते ६- 'अभी तक उन्होंने स्वयं को नहीं पहिचाना 1 मन वासना में लीन रहा; इन्द्रियां विषयों की ओर दौड़ती रहीं । पर मब तुम्हारी शरण मिलने से एक मार्ग मिल गया है जो भव दुःख को दूर कर देगा—
प्रभु तेरे पद कमल निज न जाने || मन मधुकर रस रसि कुवसि, कुमयो अब प्रमत न रति मानं । अब लगि लीन रह्यो कुवासना, कुविसन कुसुम सुहाने । भीज्योति वासना रस यस प्रवस वर सयाहि भुलानं । श्री निवास संताप निवारन निरूपम रूप मरूप बखाने । मुनि जन सबहस जु सेवित, सुर नर सिर सरमाने ॥ भव दुख तपनि तपत जन पाए, अम-प्रग सहताने । रुपचन्ध चित भयो अनदसु नाहि ने बनतु बखाने ||
या भगवतीदास हो केतन सो मति कौन हरी मौरकुमुदचन्द "चेवन घेतत
'किस' बाबरे" कहकर यही भाव व्यक्त करते हैं। कबीर बाह्य क्रियामो को व्यर्थ
कहते हैं और तुलसीदास इद्रिय वासना की बात करते हैं पर भगवती राग धोर लोभ के प्रभाव से आयी हुई मिथ्यामत को ही दूर करने का संकल्प लिए हुए बैठे है
+3
'प्रातिकूलस्य वर्जनम्' का तात्पर्य है भगवद् भक्ति मे उपस्थित प्रतिकूल भावो का त्याग करना । 'हिरदे कपट हरि नहि सांचो, कहा भयो जे अनहद नाच्यौं' जैसे उद्धरणों मे कबीर ने माया, कपट क्रोध लोभ प्रादि दूषित भावो को त्यागने का संकेत किया है ।" मीरा भी मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरा न कोई 'कहकर भक्ति मे विघ्न डालने वाले परिवार के लोगो को त्याग देती है।" तुलसी ने भी' जाके प्रिय न राम वैदेही । सो छाड़िये कोटि बेरी सम जद्यपि परम सनेही' कहकर प्रतिकूल
1.
2.
3.
विनय पत्रिका, 105.
हिन्दी पद सग्रह, पृ. 32-33 ब्रह्मविलास, पृ. 116.
4.
कबीर ग्रन्थावली, पृ. 183.
5. मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरा न कोई ॥
जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई ।
तात मात भ्रात बन्धु अपना नहि कोई । छोड़ दई कुल की कानि क्या करिहै कोई ||
"
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स्थिति को छोड़ा है।' वक्तराम साह ने 'इन कर्मों से मेरा जी करदा हो ।' कहकर कर्मों को दूर करने के लिए कहा है और दौलतराम ने छोड़ दे या बुद्धि मोरी, वृथा तन से रति जोरी' मानकर शरीरादि से मोह नष्ट करने के लिए आवश्यक माना है ।"
।"
को नाम को नाम कल्पतरु
"रक्षिष्यतीति विश्वासः " का अर्थ है--- -- भक्त को यह पूर्ण विश्वास है कि भगवान हमारी रक्षा करेंगे। कबीर को भगवान मे दृढ़ विश्वास हैं- "अब मोही राम भरोसो तेरा, और कौन का करो निहारा तुलसी को भी पूरा विश्वास है - " भरोसो जाहि दूसरो सौ करो। मोको तो कलि कल्यान करो | "4 सूर ने भी 'को को न तरयो हरि नाम लिये' कहकर विश्वास व्यक्त किया है। मीरा को विश्वास है कि हे प्रभु, मैं तो प्रापके शरण हूँ, भाप किसी न किसी तरह तारेंगे ही। एक अन्यत्र पद में मीरा विश्वास के साथ कहती है— हरि मोरे जीवन प्रान प्रधार भौर भासिरो नाही तुम बिन तीन लोक मंझार 18
नवलराम को भी विश्वास है कि वीतराग की शरण में दूर हो जायेगे और मुक्ति प्राप्त कर लेंगे ।" द्यानतराय को भी जिनदेव समान अन्य कोई सामर्थ्यवान देव नहीं मिला । केवल जीवनि को तारने में समर्थ हैं । कबीर तुलसी के समान द्यानतराय को भगवान में पूर्ण विश्वास है- - अब हम नेमि जी की शरण और ठौर मन लगत है ब्रांड प्रभु के शरन ।
राम
1. विनय पत्रिका, 174.
2.
"गोप्तृत्व वरण" का तात्पर्य है- एकान्त मे भवसागर से पार होने के लिए भगवद्गुणों का चितन करना । कबीर ने 'निरमल राम गुण गावे, सो भगतां
हिन्दी पद संग्रह, पृ. 165, 223.
कबीर ग्रन्थावली, पृ. 124.
विनय पत्रिका, 226.
सूरसागर, पद 89.
मीरा की प्रेम साधना, पृ. 260, पद 14 वां, पृ. 262.
हिन्दी पद संग्रह. पृ. 174
3.
4.
5.
6.
7.
8.
9. हिन्दी पद संग्रह, पू. 140.
रहने से सभी पाप तीनों भवनी में जिनेन्द्र ही भव
यानतराय संग्रह, कलकत्ता, 28 वां पद, पृ. 12.
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सेरे मन भाव' के माध्यम से इसका वर्णन किया है । तुलसी ने 'कृपा सोधो कहाँ बिसारी राम । जेहि करुना मुनि श्रवन दीन दुःख धावत हो तजि धाम' लिखकर राम के गुणों का स्मरण किया है। मीरा में शरण अब तिहारी जी मोहि राखों कृपानिधान कहकर प्रभु के गुणों का वर्णन किया है ।"
इसी प्रकार वस्तराम साह अपने प्रभु के प्रतिरिक्त इस जग में दूसरों को दानी नहीं समझते हैं । उसी की कृपा से उनके हृदय मे अनन्त सुख उपजा हैतुम दरसन तें देव सकल मध मिटि है मेरे ||
कृपा तिहारी तें करुरणा निधि, उपज्यो सुख अछेव । अब लौ निहारे चरन कमल की करी न कबहू सेव ॥ प्रवहू सरनं प्रायो सब छूट गयो अहमेव ॥ तुम से दानी और न जग मे, जाचत हो तजि भेव ।
वक्तराम के हिये रहो तुम भक्ति करन की टेब 114
"मात्मनिक्षेप" का अर्थ है। भक्त स्वयं को भगवान के प्रधीन कर दे । कबीर ने 'जो पं पतिव्रता है नारी कैसे ही रहौसी पियहि प्यारी । ' तन मन जीवन सौपि सरीरा । ताटि सुहागिन कहै कबीरा' से श्रात्मनिक्षेप की शर्त मान ली । तुलसीदास ने भी 'मेरे रावरिये गति है रघुपति बलि जाउ । निलज नीच निरधन निरगुन कहूं जग दूसरो न ठाकुर लाउ' कहकर स्वयं को प्रभु के लिए समर्पित कर दिया है। 8 मीरा भी "मैं तो यारी सरण परी रे रामा ज्यू तारे त्यू तारा। मीरा दासी "राम भरोसे जम का फदा निवार' कहकर पूर्णतया भगवान के अधीन है उसे तारना हो वैसे तारो ।" जैन कवि भी स्वयं को भगवान के अधीन कर उनसे भाव विह्वल हो मुक्ति की कामना करते दृष्टिगोचर होते है । वख्तराम साह - 'तुम विन नहि तारं कोइ । दीन जानि बाबा वस्ता कँ, करो उचित है सोई' कहकर द्यानतराय" - अब हम नेमि जी की शरन । दास खानत दयानिधि प्रभु, क्यो तजेंगे मरन' श्रौर 'अब मोहे तार
1.
2.
3.
4.
5.
6.
7.
कबीर ग्रन्थावली, पृ. 127.
विनय पत्रिका, 93
मीरा की प्रेम साधना, पृ. 260-61.
हिन्दी पद संग्रह, पृ. 163.
कबीर ग्रन्थावली, पृ. 133.
विनय पत्रिका, 153,
मीरा की प्रेम साधना, पृष्ठ 259.
हिन्दी पद संग्रह, पृ. 164,
8.
9. वही, पृ. 140.
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लैहु महावीर" कहकर और दौलतराम 'जाऊ' कहां तज धरम विहारी" कहकर इसी भाव की अभिव्यंजना की है ।
कार्पण्य-भक्ति के इस रंग में साधक अपनी दीनता व्यक्त करता है । कबीर ने 'जिहि घटि राम रहे भरपूरि, ताकी मैं चरनन की पूरि' तथा 'कबीरा कूता राम का मुतिया मेरा नाऊ" जैसे उद्धरणों में अपनी दीनता और विनय का प्रदर्शन किया है। तुलसी ने 'जाऊ' कहां तजि चरन तुम्हारे । काको नाम पतित पावन ? केहि अति दीन पियारे ?' मीरा भी 'अब मैं सरण तिहारों मोहि राखो कृपानिधान' कहकर अपनी किचनता व्यक्त करती है। जैन कवियों ने भी भक्ति के इस रंग को उसी रूप में स्वीकार किया है। जगतराम को प्रभु के बिना और दूसरा कोई सहायक नहीं दिखता। और दूसरे तो स्वार्थी हैं पर प्रभु उन्हें परमार्थी लगते हैं—
प्रभु विन कोन हमारौ सहाई ॥ और सबै स्वारथ के साथी, तुम याते चरन सरन प्राये हैं, मन भूधरदास ने भी भगवान जिनेन्द्र को अरज सुनाई है कि तुम दीनदयालु हो और मैं संसारी दुखिया हूँ ।" इसी प्रकार की दीनता सूरदास के विनय के पदों में भी बिखरी दिखाई पड़ती है
1.
2.
3.
4.
5.
6.
दीनता के साथ सभी भक्तों ने अपने दोषों और पश्चात्तापों का भी वर्णन किया है | भगवान दयालु है वह अपने भक्तों को दोष देते हुए भी भव समुद्र से पार लगा देंगे | तुलसीदास ने विनय पत्रिका मे 'माधव मो समान जग नाहीं । सब विधि हीन, मलीन, दीन प्रति, लीन विषय कोउ नाही ।। कहकर अपनी दीनता व्यक्त की
7.
8.
परमारथ भाई ॥ परतीत उपाई ॥
अब लौ कहो, कौन दर जाऊ ?
तुम जगपाल, चतुर चिन्तामनि, दीनबन्धु सुनि नाउ ॥ "
वही, पृ. 101.
वही, पृ. 216.
कबीर ग्रन्थावली, पृ. 26.
विनय पत्रिका, 101.
हिन्दी पद संग्रह, पृ. 101.
ग्रहो जगत गुरु देव, सुनियो परज हमारी।
तुम हो दीनदयालु, मैं दुखिया संसारी ।। भूधरदास, जिनस्तुति, ज्ञानपीठ पूजाजली, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, छठा खण्ड, पहला पद्य, पृ. 522.
सूरसागर, प्रथम स्कन्ध, 165 वां पद, पु. 54.
विनय पत्रिका, 144 वां पद, पृ. 213.
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है। इसी प्रकार मैया भवसीदास ने चेतन के धोषों को गिनाकर, उसे भगवान का भजन करने की बात कही है।
इस प्रकार मध्यकालीन हिन्दी जैन सन्तों में प्रपत्ति भावना के सभी अंग ... उपलब्ध होते हैं। इनके अतिरिक्त श्रवण, कीर्तन, चितवन, सेवन, वन्दन, ध्यान,
समता, समता, एकता, दास्यभाव, सख्यभाव प्रादि नवधाभक्ति तत्व भी मिलते हैं। इन नत्वों की एक प्राचीन लम्बी परम्परा है । वेदों, स्मृतियों सूत्रों, पागमों और पिटकों में इनका पर्याप्त विवेचन किया गया है। मध्यकालीन हिन्दी जैन और जैनेतर काय उनसे निःसन्देह प्रभावित दिखाई देते हैं । इन तस्वों में नामस्मरण विशेष उल्लेखनीय है । संसार सागर से पार होने के लिए साधकों ने इसका विशेष प्राश्रय लिया है। सूफियों का मार्फत और वैष्णवों का आत्म निवेदन दोनों एक ही मार्ग पर चलते है । श्रवण-कीर्तन आदि प्रकार भी सूफियो से शरीयत, तरीकत, हकीकत पौर मार्फत मादि जैसे तत्वों में नामान्तरित हुए हैं। सूफियों, वैष्णवो और जैनों ने मात्मसमर्पण को समान स्तर पर स्वीकारा है, सूफी साधना में इसी को जिक्र और फिक संज्ञा से अभिहित किया गया है । जायसी का विचार है कि प्रकट में तो साधक सांसारिक कार्य करता रहे पर मन ही मन आराध्य का ध्यान करते रहना चाहिए'परगट लोक चार कह बाता, गुपुत लाउ मन जासों राता। सुर के अनुसार महान् से महान् पापी भी हरि के नामस्मरण से भवसागर को पार कर लेता है-को को न तारयो लीला हरि नाक लिये । "हरि-गुण अवए से ही शश्वित सुख मिलता है, जो यह लीला सुने सुनाई सो हरि भक्ति पाइ सुख पावे दरिया ने नाम बिना भावकर्म का नष्ट होना असंभव-सा कहा है।" तुलसी ने भी नाम स्मरण की श्रेष्ठता दिग्दशित की है।' बनारसीदास ने जिन सहस्रनाम में और द्यानतराय ने चानत पद संग्रहमे इसकी विशेषता का वर्णन किया है।
1. भगवंत भजी सु तजो परमाद, समाधि के सग में रंग रहो।
अहो चेतन त्याग पराइ सुबुद्धि, गहो निज शुद्धि ज्यों सक्ख लहो ।। तम ज्ञायक हो षट् द्रव्यन के, तिन सो हित जानि के पाप कहो।।
ब्रह्मविलास, शतक प्रष्टोत्तरी, 12 पृ. 31. 2. भक्ति काव्य में रहस्यवाद, पृ. 221-226. 3. जायसी अन्य माला 4. सूरसागर, पद 89 5. सरसागर 6. सन्तवाणी संग्रह, भाग 2, पृ. 153. 7. तुलसी रामायण, बाल काण्ड, 120.
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1
पादसेवन, बन्दन और प्रर्चन को भी इन कवियों ने अपने भावों में बा है । कबीर ने सेवा को ही हरिभक्ति मानी है जो सेवक सेवा करें तारे मुरारि सूरसागर का तो प्रथम पद ही चरण कमलों की वन्दना से प्रारम्भ किया गया है ।" मीरा ने भी भाई म्होगोविन्द गुन गास्था" कहकर 'भज मन चरण कमल प्रविनाशी' लिखा है ।' मानन्दवन प्रभु के चरणों में वैसे ही मन लगाना चाहते हैं जैसे गायों का मन सब जगह घूमते हुए भी उनके बछड़ों में लगा रहता है । अन्य कवि रूपवद, छत्रपति, बुधजन प्रादि ने अपने पदों में इन्हीं भावों को व्यक्त किया है।
इस प्रकार प्रपस भावना मध्यकालीन हिन्दी जैन मौर जैवेतर काव्य में समान रूप से प्रवाहित होती रही है। उपालम्भ, पात्ताप, लघुता समता श्रीर एकता, जैसे तत्व भावभक्ति मे यथावत् उपलब्ध होते हैं। इन कवियों के पदों को तुलनात्मक दृष्टि से देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि वे एक दूसरे से किसी सीमा तक प्रभावित रहे हैं ।
सहज योग साधना और समरसता
योग साधना प्राध्यात्मिक रहस्य की उपलब्धि के लिए एक सरपेक्ष अंग है। सिन्धु घाटी के उत्खनन में प्राप्त योगी की मूर्तिया उसकी प्राचीन परम्परा को प्रस्तुत करने के लिए पर्याप्त हैं। ऋग्वेद ( 1 10.6) भोर यजुर्वेद (.12. 18) मे योग का विवरण मिलता है । योगसूत्र में योग के बाठ अंग बताये गये हैं-यम, नियम, प्रासन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा और समाधि । चैन-बौद्ध धर्म मे भी योग का विवेचन मिलता है । साधारणतः योग का तात्पर्य है--योगचित्तवृत्तिनिरोधः प्रर्थात् मन-वचन काय को एकाग्र करना 18 उसका विशेष प्रर्थं है - पिंडस्य म्रात्मा का परमात्मा में अन्तर्भाव । उपर्युक्त भ्रष्टांग योग को स्पवहारतः
1. कबीर प्रथावली, पृ. 88
2.
3.
4.
सूर और उनका साहित्य, पृ. 240.
मीरा (काशी) पद 101.
डाकोर पद 2.
5.
मानन्दघन पद संग्रह, पद 96. पृ. 413.
6. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 33,258,195.
7.
बौद्ध संस्कृति का इतिहास, पृ. 260-301.
8. पातंजल योग शास्त्र, 1-2.
9. हठयोग प्रदीपिका की भूमिका योगी श्रीनिवास पायंगार, पृ. 6
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चार अंगों में विभक्त किया गया है-मन्त्र योग, लययोग, हठयोग भौर राजयोग । बाव में सुरति योग चोर सहजयोग की भी स्थापना हुई ।
मध्यकालीन हिन्दी जन-जनेतर काव्य में भी योगसाधना का चित्रण किया गया है । जायसी ने प्रष्टांग योग को स्वीकार किया है । यम-नियमों का पालन करना योग है । यम पांच हैं - प्रहिसा, सत्य, अस्तेय ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । जायसी को इन पर पूर्ण मास्था थी । 'निठुर होई जिउ बधसि परावा, हत्या केर न तोहि उस प्रावा' तथा 'राज' कहा सत्य कह सुप्रा, बिनु सन जस सेंबर कर भूना श्रादि जैसे उद्धरणों से यह स्पष्ट है । नियम के अन्तर्गत शौच, सन्तोष, तप स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान को रखा गया है। जायसी ने इन नियमो को भी यथास्थान स्वीकार किया है। जीव तत्व को ब्रह्मतत्व मे मिला देना प्रथवा श्रात्मा को परमात्मा से साक्षात्कार करा देना योग का मुख्य उद्देश्य है । इन दोनों तत्वों को साधकों और प्राचार्यों ने भिन्न-भिन्न नाम दिये हैं । जायसी ने सूर्य और चन्द्र को प्रतीक माना है । कुछ योगियों वे इड़ा-पिंगला को चन्द्र-सूर्य रूप में व्यजित किया है । नाड़ी साधना मे भी जायसी की धास्था रही है। प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान, नास, कूर्म, कुकर, देवदत्त और घनन्जय ये दस वायुएं नाड़ियों में होकर सूर्य तत्व को ऊर्ध्वमुखी और चन्द्रतत्व को अधोमुखी कर दोनो का मिलन कराती हैं । यही प्रजपा जाप है । जायसी अजपाजाप से सम्भवतः परिचित नहीं थे पर जप के महत्व को अवश्य जानते थे 'आसन लेइ रहा होइ तपा, पद्मावती जपा' 13 नाड़ियों में पाच नाड़ियां प्रमुख है जिनका योग साधना में अधिक महत्व महत्व हैइड़ा, पिगला, सुषुम्ना, चित्रा श्रीर ब्रह्म । कुण्डलिनी साधना के सन्दर्भ मे महामुद्रा, महार्घ निवरीत करणी भादि मुद्राये अधिक उपयोगी है । हठयोगी कुण्डलिनी का उपस्थापन करता हुआ षट्चको (मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, विशुद्ध, श्राज्ञा श्रौर सहस्रार) का भेदन करता है । कुछ ग्रन्थों मे ताल, निर्वाण और प्राकाशचन्द्र को भी जोड़ दिया गया है । जायसी ने 'भवो खण्ड नव पौरी और तहं वस्त्र किवारं ' कहकर इन चक्रों पर विश्वास व्यक्त किया है । उन्होने योगी-योगनियों के स्वरूप पर भी चर्चा की है । जायसी श्रादि सूफी कवियों ने योग की शुष्कता और जटिलता को तीन प्रकार से अभिव्यक्त किया है । डॉ. त्रिगुणायत ने 'जायसी का पद्मावत' काव्य
1.
2.
योग उपनिषद्, पृ. 367.
जायसी ग्रन्थावली, पू. 31.
3.
वही, पृ. 38.
4. बही, पू. 101.
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और दर्शन में जायसी के हठयोगिक रहस्यवाद के तीन रूपों को स्पष्ट किया है-1. भावना या प्रेमभाव के प्रावरण में प्रावृत्त 2. प्रकृति के प्रावरण में मावृत्त 3. जटिल अभिव्यक्ति के प्रावरण में प्रावृत्त । कुण्डलिनी के उबुद्ध और प्राणवायु के स्थिर हो जाने पर साधक शून्यपथ से अनहदनाद को सुनता है । इसके लिए काम, क्रोध, मद और लोभ मादि विकारों को दूर करना आवश्यक है।
कबीर ने भी योग साधना की है । उन्होंने "न मैं जोग चित्त लाया, बिन बराग न छूट सि काया" कहकर योग का मूल्यांकन किया है । कबीर ने हठयोगी साधना भी की। उन्होंने षट्कर्म आसन, मुद्रा, प्राणायाम और कुण्डलिनी उत्थापन की भी क्रियाये की । हठयोगी क्रियानों से मन उचट जाने पर कबीर ने मन को केन्द्रित करने के लिए लययोग की साधना प्रारम्भ की जिसे कबीर पंथ में 'शब्दसुरति-योग' कहा जाता है । सब्द को नित्य और व्यापक माना गया है । इसलिए शब्द-ब्रह्म की उपासना की गई है-'अनहद शब्द उठं झनकार, तहं प्रभु बैठे समरथ मार ।' इसकी सिद्धि के लिए ज्ञान के महत्व को भी स्पष्ट किया गया है। कबीर ने ध्यान के लिए अजपा जाप और नामजप को भी स्वीकार किया है। उन्होंने बहिमुंखी वृत्तियों को अन्तर्मुखी कर उलटी चाल से ब्रह्म को प्राप्त करने का प्रयत्न
1. सुरुज चांद के कथा जो कहेऊ । प्रेम कहानी लाइ चित्त बाहेऊ, जायसी पौर
उनका पद्मावत, बनिजारा खण्ड-रामचन्द्र शुक्ल
'चांद के रंग में सूरज रंग गया', वही रत्नसेन भेंट खण्ड । 2. गढ़ पर नीर खीर दुइ नदी । पनिहारी जैसे दुरपदी ॥
और कुंड एक मोती चुरू । पानी अमृत, कीच कपूरू । 3. नौ पोरी तेहि गढ़ मझियारा । प्रो तह फिरहिं पांच कोटवारा।
दसवं दुपार गुपुत एक ताका । आगम चढ़ाव, बाट सुठि बांका ॥ भेदै जाइ सोइ वह घाटी। जो लहि भेद, चढ होई चांटी। गढ़ तर कुंड, सुरंग तेहि माहां। तहं वह पंथ कहीं तोहि पाहाँ । चोर बैठ जस सैघि संवारी । जुम्रा पैंत जस लाव जुपारी ।।
जस मरजिया समुद्र धंस, हाथ पाव तब सीप । ढदि लेइ जो सरग-दुपारी चढे सौ सिंहलद्वीप ।। वही, पार्वती
महेश खंड' 4. कबीर ग्रन्थावली, पृ. 301. 5. वही, पृ. 198. 6. वही, पृ. 277.
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किया है-'चलटी चाल मिले पार ब्रह्म कौं, सौ सतगुरु हमारा।' इसी माध्यम से उन्होंने सहज साधना की है और उसे कबीर ने तलवार की धार पर चलने के समान कहा है। इसमें षट्पकों मुद्रामों प्रादि की आवश्यकता नहीं होती । वह सहज भाव के साथ की जाती है । राजयोग, उन्मनि अथवा सहजावस्था समानार्थक है । सहजावस्था वह स्थिति है जहां साधक को ब्रह्मत्मैक्य प्राप्त हो जाता है । कबीर ने यमनियमों की भी चर्चा की है। उनमें बाह्याडम्बरों का तीव्र विरोध किया गया है और मन को माया से विमुक्त रखने का निर्देश दिया गया है। उन्होंने सहज समाधि को ही सर्वोपरि स्वीकार किया है.
सन्तो सहज समाधि भली। सांई ते मिलन भयो जा दिन त, सुरतन मंत चली। मांख न मूदू कान न संधू, काया कष्ट न धारू । खुले नैन मैं हंस-हंस देखू, सुन्दर रूप निहारूं ।। कहूं सु नाम सुनु सौ सुमरन, जो कुछ करू सौ पूजा। गिरह उद्यान एक सम देखू, और मिटाउ, दूजा ॥ जहं-जहं जाऊं सोइ परिकरमा, जो कुछ करूसो सेवा । जब सोऊ तब करू दंडवत, पूंजू और न देवा ।। शब्द निरंतर मनवा राता, मलिन वचन का त्यागी। कहै कबीर यह उनमनि रहनी, सो परगट करिगाई।
सुख दुःख के इक परं परम सुख, तेहि में रहा समाई॥ सहजावस्था ऐसी अवस्था है जहां न तो वर्षा है न सागर, न प्रलय, न धूप, न छाया, न उत्पत्ति मोर न जीवन और मृत्यु है, वहां न तो दुःख का अनुभव होता है 1. कबीर ग्रन्थावली, पृ 145.
सहज-सहज सब कोऊ कहे सहज न चीन्हे कोय । जो सहजै साहब मिले सहज कहावं सोय । सहर्ज-सहज सब गया सुत चित काम निकाम । एक मेक हवं मिलि रहा दास कबीरा जान । कड़वा लागे नीम सा जामे एचातानि । सहज मिले सो दूध-सा मांगा मिले सो पानि ।
कह कबीर वह रफत सम जामै एचातानि । संत साहित्य, पृ. 222-3. 3. ब्रह्मगिनि में काया जारं, त्रिकुटर्टी संगम जाग।
कहै कबीर सोइ जागेश्वर, सहज सूनि त्यो लागे ॥ कबीर ग्रन्थावली,
पृ. 109. 4. कबीर दर्शन, पृ, 297-347. 5. प्राचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी-कबीर परिशिष्ट : कबीर बापी, प. 262.
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पोर न सुख की । वहां शून्य की जाति पौर समाधि की निद्रा नहीं है ।म तो उसे तौला जा सकता है और न छोड़ा जा सकता है। न वह हल्की है, न भारी । उसमें ऊपर नीचे की कोई भावना नहीं है । वहां रात और दिवस की स्थिति भी नहीं है । वहाँ न जल है, न पवन और न ही अग्नि । वहां सत्गुरु का साम्राज्य है । वह जगह इन्द्रियातीत है । उसको प्राप्ति गुरु की कृपा से ही हो सकती है
सहज की माप कथा है जिरारी। तुलि नहीं बैठ जाइ न मुकाती हलकु लग न माटी । प्ररष करध दोऊ नाही राति दिनसु तह नाही । जलु नही पवनु-पवकु फुनि नाही सतिगुर तहा स साही । अगम अगोचर रहै निरन्तर गुर किरपा ते लहिये।
कहु कबीर चलि जाऊ गुर अपुने संत संगति मिलि रहीये ।। सहज साधना की मोर वस्तुतः ध्यान सहजयान के प्राचार्यों ने दिया । सहजयान की स्थापना में बौद्ध धर्म का पाखण्डपूर्ण जीवन मूल कारण था । इसके प्रवर्तक सरहपाद माने जाते हैं जिन्होंने नैसर्गिक जीवन व्यतीत करने पर जोर दिया है। उसमे हठयोग का कोई स्थान नही। चित्त ही सभी कर्मों का बीज है उसी को सहज स्वभाव की स्थिति कहा गया है जिसमे चित्त और प्रचित्त दोनों का शमन हो जाता है । कण्हपा ने इसी को परम तत्त्व भी कहा है। इसमें प्रज्ञा और उपाय अद्वैत अवस्था मे मा जाते हैं। कौलमागियों में इन्ही तत्त्वों को शक्ति और शिव कहा जाता है । नाथों का यही परम तत्त्व, परम ज्ञान, परम स्वभाव और सहज समाधि रूप है।
बौद्धों के सहजयान से प्रभावित होकर एक वैष्णव सहरिया सम्प्रदाय भी खड़ा हुमा जिसमें श्रीकृष्ण को परम तत्त्व और राधा को उनकी नैसगिक पालहादिनी शक्ति माना गया है। दोनो की रहस्यमयी केलि की सहजानुभूति कर इस सम्प्रदाय के साधक प्रेम-लीलामों का उपभोग करते हैं। उनके अनुसार प्रत्येक पुरुष पोर स्त्री में एक प्राध्यात्मिक तत्त्व रहता है जिसे हम क्रमशः स्वरूप पोर रूप कहते हैं जो श्री कृष्ण और राषा के प्रतीक हैं । साधक को प्रात्म विस्मृतिपूर्वक इनको प्राप्त करना चाहिए । शुद्ध और सात्विक व्यक्ति को ही इसमें सहजिया मानुष कहा गया है। नाथ सम्प्रदाय का लक्ष्य विविध सिद्धियों को प्राप्त करना रहा है पर सहजिया सम्प्रदाय उसे मात्र चमत्कार प्रदर्शन मानकर यहित मानते हैं और सहमानंद के साथ उसका सम्बन्ध स्वीकार नहीं करते।
1. संत कबीर, रामकुमार वर्मा, पृ. 51, पद 48; 'सैत ।माहित्य, पृ. 304-3 2. दोहाकोष, पृ. 46.
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सन्तों ने सहज के स्वरूप को बिल्कुल बदल दिया । 'सन्त कवियों तक घातेमाते सहज की मिथुन परक व्याख्या का लोप होने लगता है और युग के स्वाधीनचेता कबीर सहज को समस्त मतवादों की सीमाओं से परे परम तत्व के रूप में मनुष्य की सहज स्वाभाविक अनुभूति मानते है जिसकी प्राप्ति एक सहज सन्तुलित जीवनचर्या द्वारा ही सम्भव है । इसके लिए साधक को किसी भी प्रकार का श्रम नहीं करना पड़ता, वरन् सारी साधना स्वयमेव सम्पन्न होतो चलती है -- सहजे होय सो होय ।' सहज साधक प्रथक विश्वास और एकान्तनिष्ठा के साथ सहज साधना करता है और 'सवद' को समझकर ही ग्रात्म तत्व को प्राप्त करने में ही समर्थ होता है
नानक ने सहज स्वभाव को स्वीकार कर उसे एक सहज हाट की कल्पना
दी है जिसमें मन सहजभाव से स्थिर रहता है । दादू ने यम-नियमों के माध्यम से मन की द्वैतता दूर होने पर सम स्वभाव की प्राप्ति बताई है । यही समरसता है। और इसी से पूर्ण ब्रह्म की प्राप्ति होती है । यम नियमों की साधना अन्य निर्गुणी सन्तों ने भी की है । सुन्दरदास और मलूकदास इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय हैं ।" सूर
सन्तो देखत जग बौराना ।
सच कहीं तो मारन घावं, झूठहि जग पतियाना । नेमि देखा घरमी देखा, प्रात करहि श्रमनाना । श्रतम मारि पपानहि पूर्जाह उनिमह किछउ न ज्ञाना ॥ हिन्दू कहहिं मोहि राम पियारा, तुरुक कहहि रहिमाना । प्रास में दोउ लरि मुये, मरम न कोई जाना || कहहि कबीर सुनहु हो सन्तो, ई सम भरम भुलाना | केतिक कहीं कहा नहि मानें, सहजै सहज समाना ॥
1. कबीर ग्रन्थावली, पृ. 269, मध्यकालीन हिन्दी संत- विचार भौर साधना, पृ. 531.
बीजक, पृष्ठ 116, मध्यकालीन संत विचार और साधना, पृ. 531.
सहज हाटि मन कीमा निवासु सहज सुभाव मनि कीग्रा परगासु-प्रारण
संगली, पृ. 147.
सहज रूप मन का भया, जब द्वे द्वे मिटी तरंग |
ताला सीतल सम भया, तब दादू एक प्ररंग ॥ दादूदयाल की वानी, भाग 1, T. 170.
5.
वही, भाग-2, पृ. 88.
6. सुन्दरदर्शन - डॉ. त्रिलोकी नारायण दीक्षित, पृ. 29-50.
2.
3.
4.
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मौर तुलसी जैसे सगुण भक्तों में यह परम्परा दिखाई नहीं देती। मीरा के निम्नलिखित उद्धरण से यह प्रवश्य लगता है कि उन्होंने प्रारंभ में किसी योग साधना का अवलम्बन लिया होगा । प्रेम साधना की घोर लग जाने पर उनको योग से विरक्ति हो जाना स्वाभाविक था
तेरी मरम नहि पायो रे जोगी ।
प्रसरण मारि गुफा में बैठो ध्यान करी को लगाभो ॥
गल विच संली हाथ हाजरियों भंग भभूत रमायो ।
मीरा के प्रभु हरि अविनासी भाग लिख्यो सो ही पायो ॥ *
एक अन्य स्थान पर भी मीरा के ऐसे ही भाव मिलते हैं- 'जिन करताल पखावज बार्ज अनहद की झनकार रे । "
1.
257
जैन धर्म में योग की एक लम्बी परम्परा है। वहां भी सूफी पौर सन्तों के समान मन को साधना का केन्द्र स्वीकार किया गया है। पंचेन्द्रियों के निग्रह के साथ ही 'अन्तर विजय' का विशेष महत्व है । उसे ही 'सत्यब्रह्म' का दर्शन माना गया है— 'प्रन्तर विजय सूरता सांची, सत्यब्रह्म दर्शन निरवांची ।" ऐसा ही योगी अभयपद प्राप्त करता है— 'ऐसा योगी क्यों न श्रभयपद पावं, सो फेर न भव में ur | * यही निर्विकल्प प्रवस्था है जिसे आत्मा की परमोच्च प्रवस्था कह सकते हैं । यहीं साधक समरस में रंग जाता है - 'समरस भावे रंगिया, प्रव्या देखई सोई 15 थानतराय उसे कबीर के समान गूंगे का गुड़ माना है और दौलतराम ने 'शिवपुर की डगर समरस सौं भरी' कहा है । "
2.
3.
4.
5.
6.
7.
8.
9.
प्रानन्दतिलक पर हठयोग का प्रभाव दिखाई देता है जो मन्य जंनाचार्यों पर नही है । 'प्रवधू' शब्द का प्रयोग भी उन्होंने अधिक किया है । पीताम्बर ने सहज
मीरा की प्रेम साधना, पृ. 281.
वही, पु. 204.
बनारसीविलास, प्रश्नोत्तरमाला, 12 पू. 183.
दौलत जैन पद संग्रह, 65.
मागंदा, 40, ग्रामेर शास्त्र भण्डार, जयपुर की हस्तलिखित प्रति । सेना बैना कहि समुभाम्रो, गूंगे का गुड़ || कबीर, पृ. 126.
चानतविलास, कलकत्ता,
दौलत जैन पद संग्रह, 73, पू. 40.
प्रानन्दघन बहोत्तरी,
पु. 358.
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earfust an uौर अकथ्य कहा है।' खानतराय ने 'अनहद' शब्द को भी सुना है ।" समरसता मध्यकाल की एक सामान्य विशेषता है अवश्य पर उसे नाथ सम्प्रदाय की देन नहीं कहीं जा सकती। उसे तो समान स्वर से सभी योगियों ने स्वीकारा है। हेमचन्द्राचार्य ने कहा है कि योगी समरसी होकर परमानन्द का अनुभव करता है। योगीन्दु ने भी इसी ब्रह्म क्य की बात कही है। * रामसिंह ने इस समरसता के बाद किसी भी पूजा या समाधि की प्रावश्यकता नहीं बताई है 15
इस प्रकार मध्यकाल में हिन्दी जैन-जैनेतर कवियों ने साधना का प्रवलम्बन अपने साध्य की प्राप्ति के लिए लिया है। की अनुभूति के बाद साधक समरसता के रंग में रंग जाता है। यह अन्यतम उद्देश्य है ।
3. भावमूलक रहस्य भावना
1. अनुभव :
प्राध्यात्मिक साधना किंवा रहस्य को प्राप्ति के लिए स्वानुभूति एक मपरिहार्य तत्त्व है। इसे जैन-जैनेतर साधकों ने समान रूप से स्वीकार किया है। तर्क प्रतिष्ठानात् " जैसे वाक्यों से एक तथ्य सामने आता है कि प्रात्मानुभूति में तर्क और वादविवाद का कोई स्थान नहीं है । 'न चक्षुसा गृह्यते नापि वाचा," और 'यतो वाचा निवर्तन्ते श्रप्राप्त मनसा सहं भी यही मत व्यक्त करते हैं। जैसा हम पीछे लिख चुके हैं, जैनधर्म में भेदविज्ञान, स्वपर विवेक, तत्त्वज्ञान, आत्मज्ञान, ब्रह्मज्ञान, प्रात्म-साक्षात्कार प्रादि से उत्पन्न होने वाले अनुभव को चिदानन्द चैतन्य रस.
18
1.
2. हिन्दी पद संग्रह, 119.
3.
बनासीविलास, ज्ञानवावनी, 34 पु. 84.
4.
योग और सहज ब्रह्मत्व या निरंजन रहस्य भावना का
एवं क्रमशोऽभ्यासवशाद् ध्यानं भजेत्रिरालम्बम |
समरसभावं पातः परमानन्दं ततोऽनुभवेत् ॥ योगशास्त्र, 12. 5; तुलनार्थ देखिये, ज्ञानार्णव, 30-5.
मणु मिलियउ परमेसरहं, परमेसरउ वि मरणस्सु ।
वेहिवि समरस हवाहं, पुज्ज चढावडं कस्स || परमात्मप्रकाश, 1. 123, q. 125.
पाड़ दोहा, 176, पृ. 34. वेदान्तसूत्र 1. 1. 1
5.
6.
7. मुण्डकोपनिषद्, 3. 1. 8 8. तैसरीयोपनिषद्, 1.9.
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afruit प्रानन्द प्रादि जैसे शब्दों से प्रनट किया गया है। बौद्ध साहित्य में भी इसी प्रकार के साक्षात्कार की अनेक घटनाओंों और कथनों का उल्लेख मिलता है ।
कबीर ने 'राम रतन पाया रे करम विचारा', नैना बैन प्रगनेवरी,' 'लाप fruit मापे आप जैसे उद्धरणों के माध्यम से अनुभव की प्रावश्यकता को स्पष्ट किया है। उन्होंने अद्वैतवाद का सहारा लेकर तत्व का अनुभव किया । इस प्रनुभव में तर्क का कोई उपयोग नहीं । तर्क से श्रद्वैतवाद की स्थापना भी नहीं होती बल्कि प्रनेकस्व का सृजन होता है इसलिए कबीर ने प्राध्यात्मिक क्षेत्र में तर्क को प्रतिष्ठित करने वालों के लिए 'मोही मन वाला' कहा है ।" और 'खुले नैन पहिचानी हंसिहंसि, सुन्दर रूप निहारों" की प्रेरणा दी है। दादू ने भी इसी प्रकार से 'सो हम देख्या नॅन भरि सुन्दर सहज सरूप' के रूप में अनुभव किया ।" यह श्रात्मानुभव वृत्तियों के अन्तर्मुखी होने पर ही हो पाता है ।" इससे एक अलौकिक श्रानन्द की प्राप्ति होती है-
प्रापहि आप विचारिये तव केता होय मानन्द रे ।"
बनारसीदास ने कबीर और अन्य सन्तों के समान श्रात्मानुभव को शान्ति और आनन्द का कारण बताया है । अनुभूति की दामिनी शील रूप शीतल समीर 18 के भीतर से दमकती हुई सन्तापदायक भावों को चीरकर प्रगट होती है और सहज शाश्वत प्रानन्द की प्राप्ति का सन्मार्ग प्रदर्शित करती है ।"
कबीर आदि सन्तों ने अात्मानुभव से मोहादि दूर अधिक स्पष्ट नहीं की जितनी हिन्दी जैन कवियों ने की। तो विश्वास है कि प्रात्मानुभव से सारा मोह रूप सघन
करने की बात उतनी जैन कवि रूपचन्द का अन्धेरा नष्ट हो जाता
7.
1.
2.
3.
4.
5 दादूदयाल की दानी, भाग 1, परचा को अंग,
6.
उल्टी चाल मिले परब्रह्म सो सद्गुरु हमारा - कबीर दिल में दिलदार सही अंखियां उल्टी करिताहि पृ. 156.
उलटि देखो घर में जोति पसार - सन्तवानी संग्रह, भाग 2, पृ. 188. कबीर ग्रंथावली, पृ. 89.
नाटक समयसार, 17.
बनारसीविलास, परमार्थ हिन्डोलना, पृ. 5.
8.
9.
कबीर ग्रंथावली, पृ. 241, पृ. 4 साखी, पृ. 5. वही, पृ. 318.
कहत कबीर तरक दुइ सार्धं, ताकी मति है मोही, वही, पृ. 105. शब्दावली, शब्द 30.
93, 98, 109.
ग्रंथावली, पृ. 145.
चितैये - सुन्दर विलास,
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है । अनेकान्त की चिर नूतन किरणों का स्वच्छ प्रकाश फैल अनुपम प्रद्भुत ज्ञेयाकार विकसित हो जाता है, मानन्द कन्द में मम बस जाता है तथा उस सुख के सामने अन्य सुख वासे से हैं। इसलिए वे अनादिकालीन प्रविद्या को सर्वप्रथम दूर करना चेतना का अनुभव घट-घट में अभिव्यक्त हो सके । द्यानतराय ने भी प्रात्मानुभव को
चाहते हैं ताकि
तावस्था की प्राप्ति और भववाधा दूर करने का उत्तम साधन माना है । स्व-पर विवेक तथा समता रस की प्राप्ति इसी से होती है ।" बनारसीदास प्रादि कवियों ने भेदविज्ञान की बात कही है पर सन्तों ने उसे प्रात्मसाक्षात्कार की भाषा दी है'प्राण परीचं प्रारण आपहुं भ्रापहि जाने' ।' भेदविज्ञान होने पर ही वृत्तियाँ अन्तमुखी हो जाती हैं— 'वस्तु विचारत घ्यावतं मन पाव विश्राम। दादू ने इसी को 'ब्रह्मदृष्टि परिचय भया तब दादू बैठा राखि" कहा और सुन्दरदास ने 'साक्षाकार याही साधन करने होई, सुन्दर कहत द्वैत बुद्धि कू निवारिये' माना है ।" इससे स्पष्ट है कि भवमूलक रहस्यभावना में साधक की स्वानुभूति को सभी प्राध्यात्मिक सन्तों ने स्वीकार किया है।
भावमूलक रहस्यभावना का सम्बन्ध ऐसी साधना से है जिसका मूल उद्देश्य प्राध्यात्मिक चिरन्तन सत्य और तज्जन्य अनुभूति को प्राप्त करना रहा है। इसकी प्राप्ति के लिए साधक यम-नियमों का तो पालन करता ही है पर उसका प्रमुख साधन प्रेम या उपासना रहता है। उसी के माध्यम से वह परम पुरुष, प्रियतम, परमात्मा के साथ तादात्म्य स्थापित करता है और उससे भावात्मक ऐक्यानुभुति की क्षमता पैदा करता है। इस साधना में साधक के लिए गुरु का विशेष सहारा मिलता है जो उसकी प्रसुप्त प्रेम भावना को जाग्रत करता है । प्रेम अथवा रहस्य भावना जाग्रत हो जाने पर साधक दाम्पत्यमूलक विरह से संतप्त हो उठता है और फिर उसकी प्राप्ति के लिए वह विविध प्रकार की सहज योगसाधनामों का अवलम्बन लेता है ।
1. देखिये, इसी प्रबन्ध का चतुर्थ परिवर्त, पृ. 81-86
2. अध्यात्म पदावली, पृ. 359.
3.
दादूबानी, भाग 1. पू. 63
4.
सुन्दर विलास, पृ. 159.
5. नाटक समयसार, 17.
जाता है, सत्तारूप
मन्द अमूर्त भात्मा
प्रतीत होने लगते
6. दादूवानी, भाग 1, पृ. 87.
7.
सुन्दर विलास, पृ. 101
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horerita हिन्दी साहित्य में इस प्रकार की रहस्य - भावना हम विशेष रूप से सूफी, कबीर और मीरा की साधना में पाते हैं ।
2. सफी रहस्य भावना :
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भारतीय सूफी कवियों ने सूफीमत में प्रचलित प्रायः सभी सिद्धान्तों को अन्तर्भुक्त किया है और उन पर भारतीय परम्पराम्रों का प्रावरण डाला है। उसकी परमसत्ता अलख, प्ररूप एवं प्रगोचर है, फिर भी वहा समस्त जगत के कण-करण में व्याप्त है— बलख रूप अकबर सो कर्ता । वह सबसौं, सब मोहितों भर्ता ।" वह सृष्टि का कारक धारक और हारक है ।" वह महान् शक्तिशाली, करुणाशील मौर सौन्दर्यशील है | कर्तव्य भौर करुणा उसके प्राधार स्तम्भ हैं जिस प्रकार सरोवर में पड़ा प्रतिबिम्ब समीपस्थ होते हुए भी प्रग्राह्य है उसी प्रकार सर्वव्यापक परमात्मा का भी पाना सरल नहीं है ।" उस परमात्मा के मूर्त और अमूर्त दोनों स्वरूपों का air सूफी कवियों ने किया है । मात्मा-परमात्मा की मद्वैत स्थिति को भी उन्होंने स्वीकार किया है । जो भी अन्तर है वह पारमार्थिक नहीं, व्यावहारिक है । उसका व्यावहारिक स्वरूप मायागभित होता है ।
साधक इन चारों प्रवस्थानों को पार करने में परमात्मा के गुणों का चिन्तन (जिक) करता है, राग, ग्रहंकार आदि मानसिक वृत्तियो को दूर करता है (फिक्र ) अपने धर्म ग्रंथ (कुरान शरीफ) का अभ्यास ( तिलवत) करता है और तदनुसार नामस्मरण, व्रत, उपवास, दानादिक क्रियायें करता है ।
1.
सूफी साधना में साधक की चार अवस्थाओं का वर्णन मिलता है
(1) शरीमत श्रर्थात् प्राचार या कर्मकाण्ड का पालन
(2) तरीकत अर्थात् बाह्य क्रियाकाण्ड को छोड़कर प्रान्तरिक शुद्धि पूर्वक
परमात्मा का ध्यान करना ।
(3) हकीकत अर्थात् परमात्मा के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान होना, प्रोर
(4) मार्फत् अर्थात् सम्यक् साधना द्वारा श्रात्मा को परमात्मा में विलीन हीने की क्षमता प्राप्त होना ।
सूफी सन्तों ने प्राध्यात्मिक सत्ता को प्रियतम के रूप में देखा है औौर उसके दर्शन की Fene में अपने को डुबोया है । इसी में वे समरस हुए हैं।
2.
प्रखरावट-जायसी, पृ. 305, चित्रावली- उसमान, पृ. 2. भाषा प्रेम रसशेख रहीम,
पद्मावत जायसी, पृ. 257-8 इन्द्रावती-नूरमुहम्मद, पृ. 54
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'सूफियों का प्रेम 'प्रच्छन्न' के प्रति है । सूफी अपनी प्रेम व्यंजमा साधारण नायक-नायिका के रूप में करते है । प्रसंग सामान्य प्रेम का ही रहता है किन्तु उसका संकेत 'परम प्रेम' का होता है । बीच में माने वाले रहस्यात्मक स्थल इस सारे संसार में उसी की स्थिति को सूचित करते हैं साथ ही सारी सृष्टि को उस एक से मिलने के लिए चित्रित करते हैं । लौकिक एवं प्रलौकिक प्रेम दोनों साथ-साथ चलते हैं । प्रस्तुत में प्रस्तुत की योजना होती है । वैष्णव भक्तों की भांति इनकी प्रेम व्यंजना के पात्र अलौकिक नहीं होते। लौकिक पात्रों के मध्य लौकिक प्रेम की ध्यंजना करते हुए भी अलौकिक की स्थापना करने का दुरूह प्रयास इन सूफी प्रबन्ध काव्यों में सफल हुमा है ।
प्रेम के विविध रूप मिलते है । एक प्रेम तो वह है जिसका प्रस्फुटन विवाह के बाद होता है । दूसरा प्रेम वह है जिसमे प्रेमियो का आधार एवं प्रादर्श दोनों ही विरह हैं । तीसरे प्रेम मे नारी की अपेक्षा नर मे विरहाकुलता दिखाई देती है मौर चौथे प्रेम में प्रेम का स्फुरण चित्रदर्शन, साक्षात् दर्शन प्रादि से होता है । 'प्रेम के इस अन्तिम स्वरूप, जिसका प्रारम्भ गुण श्रवण, चित्रदर्शन, साक्षात् दर्शन मादि से होता है, का परिचय सूफी प्रेमाख्यानों में मिलता है । लगभग सभी नायक नायिका का, जो परमात्मा का स्वरूप है, रूप गुरण वर्णन सुनकर अथवा स्वप्न मे या साक्षात् देखकर उसके विरह में व्याकुल हो घरबार त्यागकर योगी बन जाते है। गुणश्रवण के द्वारा प्रेम भावना जाग्रत होने वाली कथानों के अन्तर्गत 'पद्मावत' 'हसजाहर', 'अनुरागवांसुरी', 'पुहुपावती' प्रादि कथायें पाती हैं। 'छीता' प्रेमाख्यान में गुणश्रवण से पाकर्षण एवं पश्चात् साक्षात् दर्शन से प्रेम जाग्रत होता है। चित्रदर्शन से प्रेमोद्भूत होने वाली कथानों में चित्रित होने वाली कथाओं में 'चित्रावली' 'रतनावली' मादि कथायें माती हैं, । स्वप्न दर्शन के द्वारा प्रेम जाग्रत होने वाली कथायें अधिक हैं । 'कनकावती', 'कामलता' 'इन्द्रावती', 'यूसुफ जुलेखा', प्रेमदर्पण' प्रादि प्रेमाख्यान इसके अन्तर्गत पाते हैं। साक्षात् दर्शन द्वारा जागृति का वर्णन मधुमालत, मधकरमालति एवं भाषा प्रेमरस मादि में मिलता है ।
सूफी कवियो में जायसी विशेष उल्लेखनीय है। उन्होंने अन्योक्ति और समासोक्ति के माध्यम से प्रस्तुत वस्तु से अप्रस्तुत वस्तु को प्रस्तुत कर आध्यात्मिक
1. जायसी के परवर्ती हिन्दी सूफी कवि और काव्य-डॉ. सरल शुक्ल, लखनऊ,
सं. 2013, पृ. 111. 2. वही, पृ. 113.
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तथ्यों की भोर संकेत किया है । सूर्यचन्द्र साधना के प्रकाश में डॉ. त्रिगुणायत ने पद्मावत की कथा की अन्योक्तियों को इस प्रकार समझाया है--
(1) सिंहल दीप-सहस्रार कमल (2) मानसरोदक-ब्रह्मरन्ध्र (3) तोता-गुरु (4) रतनसेन-योगी साधक (5) नागमति-माया (6) पद्मावती-शुद्ध ज्योति स्वरूपी जीवात्मा जिसमें
शिव शक्ति प्रतिष्ठित रहती है । (7) सात समुद्र-~~षट्चक्र और सतवां सहस्रार (8) मंडप-ब्रह्मरन्ध्र मे जीवात्मा परमात्मा का मिलन
यहां रतनसेन एक साधक की आत्मा को व्यंजित करने वाला तत्व है जिसमें स्वयं की अनन्त शक्ति भरी हुई है। वह मन का प्रतीक है जो नागमति रूपिणी माया में प्रासक्त है । तोता रूप गुरु के मिल जाने पर उसकी शान बुद्धि जाग्रत हो जाती है और वह पद्मावत रूपी शुद्ध-बुद्ध शक्ति को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। साध्य के दर्शन में साधक के लिए भूख-प्यास की भी बाधा प्रतीत नही होती। उसका दर्शन दीपक के समान है जहां बह पंतग के समान भिखारी बन जाता है । प्रियतम का दर्शन मात्र ही साधक का अज्ञान दूर करने में पर्याप्त होता है। तोते रूपी गुरु के मुख से पद्मावती रूपी साध्य पुरुष का रूप वर्णन सुनकर रतनसेन रूपी साधक मूछित हो गया । उह उसके प्रेम से तड़पने लगा। संसार के माया जाल में फंसे रहने के कारण साधक साध्य का दर्शन नहीं कर पाता और यही उसके विरह का कारण होता है। अन्ततोगत्वा रतनसेन (साधक) 'दुनिया का धन्धा रूपिणी नागमती को छोडकर पदमावती रूपी परमात्मा को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। फिर भी उसका मन पूर्णतः परिष्कृत न होने से पतित हो जाता है और भव-सागर में डूबता उतराता रहता है । साधक को जब इस तथ्य का अनुभव होता है तब वह पश्चाताप करता है कि मैंने तो 'मोर-मोर' कहकर महंकार और माया सब कुछ गंवा दिया । पर परमात्मा (पद्मावती) का साक्षात्कार नहीं हुमा । वह
1. जायसी का पद्मावत, काव्य और दर्शन, पृ. 107. 2. जेहि के हिये प्रेम रंग जाया। का तेहि भूख नींद विसराया । जायसी ग्रंथ
माला, पृ. 58.
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परमात्मा रूप पद्मावती कहां है ? यह विरह ही रहस्यवादी साधक का प्राण है। वही उसकी जिजीविषा है । इस विरह को जायसी ने 'प्रेम-धाव' के रूप में चित्रित किया। वह सारे शरीर को कांटा बना देता है । सापक साध्य की विरहाग्नि में जलता रहता है पर दूसरे को जलने नहीं देता । प्रेम की चिनगारी से माकाश पोर पृथ्वी, दोनों भयवीत हो जाते हैं।
पद्मावती के दिव्य सौन्दर्य का वर्णन भक्त कवि ने किया है। मान-सरोबर ने पद्मावती को पाकर कैसा हर्ष व्यक्त किया यह पद्मावत में देखा जा सकता है।' उसके दिव्य रूप को जायसी ने 'देवता हाथ-हाथ पगु लेही। जहं पगु धर सीस तहं देही' के रूप में चित्रित किया है। उनका परमात्मा प्रेम भी अनुपम है। माकाश जैसा असीम है, ध्र वनक्षत्र से भी ऊंचा है। उसका दर्शन वही कर सकता है जो शिर के बल पर वहां तक पहुंचना चाहता है। परमात्मा की यह प्राप्ति सदाचार के पालन, पहं के विनाश, हृदय की शुद्धता एवं स्वयंकृत पापों का प्रतिक्रमण (तोबा) करने से होती है ।'
इस प्राध्यात्मिक विरह से प्रताडित होकर रतनसेन पद्मावती से मिलन करने के लिए प्रयत्न करता है । उसकी साधना द्विमुखी होती है- अन्तर्मुखी और बहिर्मुखी साधना में साधक अपने हृदयस्थ प्रियतम की खोज करता है पोर बहिमुंखी साधना में वह उसे सारे विश्व में खोजता है। अन्तमुखी रहस्यवाद शुद्ध भावमूलक और योगमूलक दोनों प्रकार का होता है । बहिर्मुखी रहस्यवाद में प्रकृतिमूलक, मभिव्यक्तिमूलक प्रादि भेद पाते हैं। इस प्रकार जायसी का भावमूलक रहस्यवाद अन्तर्मुखी भौर बहिर्मुखी उभय प्रकार का है ।
1. कहं रानी पद्मावती, जीउ वस जेहि पांह ।
मोर-मोर के खाएऊ, भूलि गरब अवगाह ।। वही, पृ. 179
प्रेम-धाव दुख जान न कोई, बही, पृ. 74. 3. वही, गु. 88. 4. वही, पृ. 25. 5. वही, पृ. 48 6. प्रेम प्रदिष्ट गगन ते ऊचा,
ध्रव त ऊंच प्रेम ध्र व ऊमा । सिर देइ सो पांव देइ सो छूमा। वही,
पृ. 50. 7. सूफीमतः साधना मोर साहित्य-पृ. 231-258 8. आयसी का पद्मावत : काव्य पौर दर्शन, पृ. 269-277.
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जायसी प्रन्तर्मुखी प्रक्रिया के विशेष धनी है। उन्होंने सिंहल गढ को हृदय की प्रतीक बनाकर उसमें परमात्मा का निवास बताया है । माया आदि जैसे तत्वों के कारण प्रियतम के उसे दर्शन ही नहीं हो पाते । रतनसेन दर्शन के लिए इतना तड़प उठता है कि सात पाताल खोजकर और सात स्वर्गो में दौड़कर पद्मावती को खोजने की बात करता है । साधक घनघोर तप और साधना करता है । तब कहीं प्रियतम के देश में पहुंच पाता है । जायसी ने उस देश का वर्णन किया है। जहां न दिन होता है न रात, न पवन है न पानी ।" उस देश में पहुंचकर प्रियतम से भेंट की प्रातुरता बढ़ जाती है। पर वह अपरिचित है और फिर इधर दुष्टों का घेरा है जिसे किसी तरह से साधक साध्य का साक्षात्कार करता है और उसके बाद afone विवाह की अवस्था होती है जिसका महत्व रहस्यवाद में बहुत प्रधिक है । रतनसेन और पद्मावती का विवाह ऐसे ही विवाह का प्रतीक माना गया है । इस विवाह का वर्णन यद्यपि भौतिक जैसा लगता है पर वह वस्तुत: है प्राध्यात्मिक ही है । वर-वधु की गांठ इतनी दृढ़ता से जुड़ जाती है कि वह भागे के भवों में भी नहीं छूट पाती | मंगलाचार होते हैं मन्त्र-पाठ पढ़ा जाता है और चांद-सूर्य का मिलन होता है 13
uttarfree faare के उपरान्त साधक साध्य के प्रति पूरी तरह से प्रारम समर्पण कर देता है। दोनो तन्मय हो जाते हैं। साधक-साध्य का मिलन भी प्राध्याfore मिलन है जिसे मानसरोवर खण्ड में चित्रित किया गया है। मिलन होते ही रतनसेन पद्मावती के चरण स्पर्श करता है । चरण स्पर्श करते ही वह ब्रह्म रूप हो जाता है । यही अवस्था रहस्यानुभूति की चरम अवस्था है । जायसी ने इसका वर्णन बड़ी सूक्ष्मता से किया है। रतनसेन अपने आप को पद्मावती के लिए सौंप देता है । उसका शरीर मात्र उसके साथ है। जीव पद्मावती में मिल गया । इसलिए दुःख-सुख जो भी होगा, वह शरीर को नहीं, जीव को होगा, रतनसेन के जीव को नहीं | पद्मावती ने रतनसेन को प्राश्वासन दिया कि जीवित प्रौर मरेगे तो साथ रहेंगे ।" यह तादात्म्य अवस्था का बहुत सुन्दर चित्रण है ।
रहेंगे तो साथ रहेंगे
1. जायसी ग्रन्थावली, पृ. 63.
2.
वही, रतनसेन पद्मावती विवाह
3.
13 #1
वही, 4. बही, मानसरोवर खण्ड, पृ. 252
5.
विवाह खण्ड, पृ. 126.
वही, गन्धर्वसेन- मन्त्री खण्ड पू. 112.
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तादात्म्य होने पर साधक को प्राराध्य के अतिरिक्त और कोई नहीं दिखाई देता । रतनसेन को पद्मावती के अतिरिक्त सुन्दरी मप्सरा मादि का रूप नहीं दिखाई दिया । उसी के स्मरण में उसे . परमानन्द की अनुभूति होती है। धीरेधीरे प्रदेत स्थिति पाती है और दोनों एक दूसरे में ऐसे रम जाते हैं कि उन्हें सारा विश्व प्रकाशित दिखाई देने लगता है । वे ससीमता से हटकर असीमता में पहुंच जाते हैं, रतनसेन और पद्मावती इस प्रकार से एक हुए जैसे दो वस्तुएं मौंट कर एक हो जाती हैं।
सूफी कवियों में मिलन की पांच प्रवस्थानों का वर्णन मिलता है-फना, फक्द, सुक्र, वज्द और शह । फना में साधक साध्य के व्यक्तित्व के साथ बिलकुल धुल-मिल जाता है । वह अपने महं के अस्तित्व को भूल जाता है। फक्द अवस्था में वह उसके नाम पोर रूप में रम जाता है । सुक्र अवस्था में साधक साध्य के रूप का पानकर उन्मत्त हो जाता है, मानन्द विभोर हो जाता है । वज्द अवस्था में साधक को परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है और शह में उसे पूर्ण शान्ति मिल जाती है। जायसी में पांचों अवस्थायें उपलब्ध होती हैं।
जायसी ने परमतत्त्व का साक्षात्कार करने के लिए प्रकृति को भी एक साधन बनाया है । सृष्टि का मूल तत्त्व अद्वैत था । अविद्या आदि कारणो से उसमें द्वैत तत्त्व माया जो भ्रान्ति मूलक था। भ्रान्ति के दूर होते ही साधक स्वयं में और साध्य में तादात्म्य स्थापित कर लेता है। इस सन्दर्भ मे रहस्यवादी कवि का प्रकृति वर्णन शुद्ध भौतिक न होकर काल्पनिक, दिव्य और रहस्यवादी होता है । कभी-कभी अपनी प्रणय भावना को भी वह प्रकृति के माध्यम से व्यंजित करता है।
रहस्यवाद की अभिव्यक्ति विविध प्रकार की संकेतात्मक, प्रतीकात्मक, जनापरक एवं मालंकारिक शैलियों में की जाती है। इन शैलियों में प्रन्योक्ति शैली, समासोक्तिशैली, संवृत्ति बक्रतामूलक शैली, रूपक शैली, प्रतीकशैली विशेष महत्वपूर्ण है । इन शैलियों मे जायसी ने अपने प्राध्यात्मिक सिद्धान्तों को प्रस्तुत किया है। इसे उनका माध्यात्मिक रहस्यवाद कह सकते हैं।'
1. वही, पार्वती महेश खण्ड, पृ. 91. 2. वही, गन्धर्वसेन-मंत्री खण्उ. पृ. 104. 3. वही, रतनसेन-सूलीखण्ड, पृ. 111. 4. वही, वसन्तखण्ड, पृ. 84. 5. वही, रतनसेन खण्ड, पृ. 143. 6. जायसी का पद्मावत काव्य और दर्शन, पृ. 286-288. 7. जायसी का पद्मावत : काम और दर्शन, पृ. 305-308.
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सूफी काव्यों के अध्ययन से यह स्पष्ट है कि उन्होंने प्रेम और रूप का अजस्र सम्बन्ध स्वीकार किया है । इसका कारण यह है कि वे रूप को खुदा की प्रतिच्छवि मानते हैं 12 जीवात्मा के परमात्मा के प्रति प्रेम को उन्होंने कई प्रतीकों द्वारा व्यंजित किया है जिनमें कमल और सूर्य, चन्द्रमा घोर चकोर, दीपक एवं पतंग, चुम्बक और लोहा, गुलाब धौर भ्रमर, राग और हिरण प्रमुख हैं। इन प्रतीकों से कवि स्पष्ट ही साधक और साध्य के बीच के व्यवधान की ओर संकेत करता है अवश्य पर उनमें विद्यमान श्रानन्द, एकनिष्ठता और त्याग सराहनीय है । हर सूफी साधक जगत को एक दर्पण मानता है जिसमें ब्रह्म अथवा ईश्वर प्रतिबिम्बित होता है । मानसरोवर रूपी दर्पण में पद्मावती रूपी विराट ब्रह्म के रूप से सारा संसार श्रभासित होता है | श्रद्धंतवाद को स्पष्ट करने का यह सरलतम मार्ग सूफी साधकों ने खोज निकाला । परमात्मा रूप प्रियतम के विरह ने इसमें संवेदनशीलता की नहरी अनुभूति जोड़ दी जिसे साहित्य और दर्शन के क्षेत्र में हम एक विशेष योगदान कह सकते हैं ।
1
3. निर्गुण भक्तों को रहस्य भावना :
मध्यकालीन हिन्दी सन्तों ने भी सूफी सन्तों के समान अपनी रहस्यानुभूति को अभिव्यक्त किया है। उनकी रहस्यभावना को सूफी, वैदिक, जैन और बौद्ध रहस्यभावनाओं का संमिश्रित रूप कहा जा सकता है । माया श्रादि के प्रावरण से दूर प्रेम की प्रकर्षता यहां सर्वत्र देखी जा सकती है । माया के कारण ब्रह्ममिलन न होने पर विरह की वह दशा जाग्रत होती है जो साधक को परम सत्य की खोज में लगाये रखती है।
सन्तों का ब्रह्म (राम) निर्गुण और निराकार है- निर्गुण राम जपहु रे भाई । वह अनुपम और रूपी है। उसके वियोग मे कबीर की प्रात्मा तड़पती हुई इधर-उधर भटकती है। पर उसका प्रियतम तो निगुंग है । 'अबला के पिक
1. हंस जवाहिर, कासिमशाह, पृ. 151.
2.
3.
4.
जायसी के परवर्ती हिन्दी सूफी कवि और काव्य, पृ. 223.
कबीर ग्रन्थावली, पृ. 49.
जाके मुंह माथा नहीं नाहीं रूप अरूप ।
पुहुप वास से पातरा ऐसा तत्त्व अनूप ॥ बही, पृ. 64, तुलनार्थं देखिये -- सो निर्गुन कथि कहे सनाथा, जाके हाथ पांव नहि माथां । दरियासागर, g. 26.
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पिउ' वाले मार्तस्वर से भी उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता । पिया मिलन की ग्रास लेकर माखिर वह कब तक खड़ी रहे- 'पिया मिलन की प्रास, रहीं कब लौं खरी ।' पिया के प्रेम रस में कबीर ने अपने प्रापको मुला दिया। एक म्यान में दो तलवारें भला कैसे रह सकती हैं ? उन्होंने प्रेम का प्याला खूब पिया । फलतः उनके रोम-रोम में बही प्रेम बस गया। कबीर ने गुरु-रस का भी पान किया है, छाछ भी नहीं बची। यह संसार-सागर से पार हो गया है । पके घड़े को कुम्हार के बाक पर पुनः चढ़ाने की क्या आवश्यकता ?
पीया चाहे प्रेम रस राखा चाहे मान । एक स्थान में दो खड़ग देखा सुना न कान । कबिरा प्याला प्रेम का, मंतर लिया लगाय । रोम-रोम मे रमि रहा श्रौर अमल क्या खाय । कबिरा हम गुरु रस पिया बाकी रही न छाक ।
पाका कलस कुम्हार का बहुरि न चढसि चाक 12
सन्तों ने वात्सल्य भाव से भगवान को कभी माता रूप में माना तो कभी पिता रूप में । परन्तु माधुर्य भाव के उदाहरण सर्वोपरि हैं। उन्होंने स्वयं को प्रियतम और भगवान् को प्रियतम की कल्पना कर भक्ति के सरस प्रवाह में मनचाहा अवगाहन किया है— हरि मेरा पीउ मैं हरि की बहुरिया । दादू, सहजोबाई, 14 चरनदास प्रादि सन्तों ने भी इसी कल्पना का सहारा लिया है। उनके प्रियतम ने प्रिया के लिए एक विचित्र चूनरी संवार दी है जिसे विरला ही पा सकता है। वह माठ प्रहररूपी माठ हाथो की बनी है और पंचतत्त्व रूपी रंगों से रंगी है। सूर्यचन्द्र उसके प्रांचल में लगे हैं जिनसे सारा संसार प्रकाशित होता है । इस चूनरी की विशेषता यह है कि इसे किसी ने ताने-बाने पर नहीं बुना । यह तो उसे प्रियतम ने भेंट की है
1.
चुनरिया हमरी पिया ने संवारी, कोई पहिरं पिया की प्यारी । माठ हाथ की बनी चुनरिया, पंचरंग पटिया पारी ॥
4.
मैं अबला पिउ-पिड करू निर्गुन मेरा पीव ।
शून्य सनेही राम बिन, देखूं भौर न जीव ॥ सन्त कबीर की साखीबैंकटेश्वर, पृ. 26.
कबीर वचनावली - प्रयोध्यासिंह उपाध्याय, पृ. 104.
2.
3. हरिजननी मैं बालक तौरा — कबीर ग्रन्थावली, पृ. 123; हम बालक तुम माय हमारी पलपल मांहि करो रखवारी - सहजोबाई, सन्त सुषासार,
पृ. 196.
कबीर ग्रन्थावली, पृ. 125.
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चांद सुरज जामैं प्रांचल लागे, जगमग जोति उजारी । बिनु ताने यह बनी चुनरिया, दास कबीर बलिहारी ॥ कबीर के प्रियतम की छवि विश्व व्यापिनी है। स्वयं कबीर भी उसमें तन्मय होकर 'लाल' हो जाते हैं । उसके विरह से विरहिणी क्रौंच पक्षी के समान रात भर रोती रहती है वियोग से सन्तप्त होकर वह पथिकों से पूछती है --प्रियतम का एक शब्द भी सुनने कहां मिलेगा ? उसकी व्यथा हिचकारियों के माध्यम से फूट पड़ती है
1.
2.
3.
पाइन सकों तुझ पे सकू न तुझ बुलाइ । जियरा यों ही लेगे, विरह तपाइ तपाइ || प्रेषड़िया भाई पड़ी, पन्थ निहारि निहारि । जीभड़िया छाला पड्या, राम पुकारि पुकारि ॥ इन तन के दीवा कसं, बाती मेल्यू जीव । लोही सींचो तेल ज्यू, कब मुख देखौं पीव ॥ 8 निम्न पंक्तियों में प्रियतम के विरह का
arat विधुरी रेगिकी, भाइ मिली परमाति । जे जन विछुरे राम से, ते दिन मिले न राति || बासरि सुख न रेंग सुख, नां सुख उपुनं मांहि । कबीर विछुट्या रामसू, ना सुख धूप न छांह || विरहिन कभी पंथसिरि, पंथी बुदे धाइ । एक सबद कहि पीवका, कबरें मिलेंगे भाई ||
आत्मसमर्पण के लिए कवियों ने श्राध्यात्मिक विवाह का सृजन किया है। पत्नी की तन्मयता पति में बिना विवाह के पूरी नहीं हो पाती। पीहर में रहते हुए भी उसका मन पति में लगा रहता है। पति से भेंट न होने पर भी पत्नी को उसमें सुख का अनुभव होता है । करुण क्रन्दन में ही उसके प्रिय का वास है । प्रिय का मिलन हंसी मार्ग से नहीं मिलता। उसके लिए तो प्रभु प्रवाह ही एक सरल मार्ग हैखड़ियां झांई पड़ी, पन्थ निहारि निहारि ।
जीभडियो छाला पड्या राम पुकारि पुकारि ॥22॥
4.
और भी संवेदन दृष्टव्य है
269
कबीर -डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी, पृ. 187.
लाली मेरे लाल की जित देखू तितलाल ।
लाली देखन में गई मैं भी हो गई लाल || कबीर वचनावली - प्रयोध्यासिंह,
पृ. 6.
मध्यकालीन हिन्दी सन्त विचार और साधना, पू. 216.
कबीर -डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी,
पृ. 191.
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नैना नीझर लाइया, रहट बस निस-जाम । पपीहा ज्यूपिव पिव करौं, कबस मिलहुगे राम |2411 पंखडि प्रेम कसाइयां, लोग जाणे दुःखड़ियां । साई मपणे कारण, रोई रोई रत्तड़ियां ॥25॥ हंसि हंसि कन्त न पाइये, जिनि पाया तिन रोइ।
जो हंसि हंसि ही हरि मिल, तो न दुहागिनि कोइ ॥1
प्रियतम रूप परमात्मा का प्रेम वैसा ही होता है जैसा कि मीन को नीर से, शिशु को क्षीर से, पीड़ित को औषधि से, चातक को स्वाति से, चकोर को चन्द से, सर्प को चन्दन से, निर्धन को धन से, और कामिनी को कन्त से होता है। प्रेम से व्यथित होकर प्रेमी अन्दर और बाहर सर्वत्र प्रिय का ही दर्शन करता है
कबीर रेख सिन्दूर की, काजल दिया न जाइ । नैनू रमइया रमि रहया, दूजा कहां समाई ॥ नंना अन्तरि भाव तू ज्यू हों नेन झपेउ ।
नां ही देखों और कू, ना तुझ देखन देउ ।'
प्रियतम के ध्यान से कबीर की द्विविधा का भेद खुल जाता है और मन मैल घुल जाता है--दुविधा के भेद खोल बहुरिया मनकै घोवाइ ।' उनकी चूनरी को भी साहब ने रंग दिया। उसमें पहले स्याही का रंग लगा था। उसे छुटाकर मजीठा का रंग लगा दिया जो धोने से छूटता नहीं बल्कि स्वच्छ-सा दिखता है। उस चूनरी को पहनकर कबीर की प्रिया समरस हो जाती है
1. कबीर ग्रंथावली, पृ. 9; कभीर-डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी, पृ. 193. 2. नीर बिनु मीन दुखी क्षीर बिनु शिशु जैसे ।
पीर जाके औषधि बिनु कंसे रह्यो जात हैं। चातक ज्यों स्वाति बूंद चन्द को चकोर जैसे चन्दन की चाह करि सर्प अकुलात है ।। निधन ज्यों धन चाहै कामिनी को कन्त चाहै ऐसी जाके चाह ताको कछु न सुहात है। प्रेम को प्रभाव ऐसौ प्रेम तहां नेम कैसी सुन्दर कहत यह प्रेम ही की बात है ।। सन्त सुधासागर, पृ. 59 कबीर मन्थावली, 4, 2; मध्यकालीन हिन्दी सन्त-विचार और साधना, पृ. 217.
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साहेब है रंगरेज चुनरी मेरी रंग हारी। स्याही रंग छुड़ायके रे दियो मजीठा रंग । धोय से छूटे नहीं रे दिन-दिन होत सुरंग । भाव के कुंड नेह के जल में प्रेम रंग देइ बोर । दुख देह मैल लुटाय दे रे खूब रंगी झकझोर ॥ साहिब ने चुनरी रंगी रे पीतम चतुर सुजान । सब कुछ उन पर बार दूं, रे तन मन धन और प्रान ।। कहें कबीर रंगरेज प्यारे मुझ पर हुए दयाल ।
सीतल चुनरी मोढि के रे भइ हैं मगन निहाल ॥1
प्रियतम से प्रेम स्थापित करने के लिए संसार से वैराग्य लेने की आवश्यकता होती है। संसार से विरक्त होकर प्रिया प्रियतम में अपने को रमा लेती है। और उसके विरह में मन के विकारों को जला देती है। मिलन होने पर वह प्रिय के साथ होरी खेलना चाहती थी पर प्रिय विछुड़ ही गया । मिलन अथवा विवाह रचाने का उद्देश्य परमपद की प्राप्ति थी। कबीर ने इस प्राध्यात्मिक विवाह का बड़ा सुन्दर चित्रण किया है ।
दुलहिन गावो मंगलाचार, हम घरि पाये हो राजा राम भरतार । तन रति करि मैं मन रनि करि हूं पंच तत्व वराती। रामदेव मोहि ब्याहन पाये मैं जोवन मदमाती ॥ सरीर सरोवर वेदी करि हूं ब्रह्मा वेद उचार । रामदेव संग भंवरि लेहूं धनि धनि भाग हमार ।। सुर तेतिस कोटिक पाये मुनिवर सहस अठासी । कहै कबीर हम व्याहि चते पुरुष एक अविनाशी ।'
1. कबीर-डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी, पृ. 352-3 2. पिय के रंग राती रहै जग सू होय उवास । चरन दास की वानी।
प्रीति की रीति नहिं कजु राखत जाति न पांति नहीं कुल गारो।
सुन्दरदास, सन्त सुधासार, खण्ड 1, पृ. 633. 3. पिय को खोजन में चली आपहु गई हिराय । पलटू, वही, पृ. 435. 4. विरह प्रगिन में जल गए मन के मैल विकार । दादूवानी, भाग 1, प. 43. 5. हमारी उमरिया खेलन की, पिय मोसों मिलि के विछुरि गयो हो।
धर्मदास, सन्तवानी संग्रह, भाग 2, पृ. 37. 6. गुलाब सहाब की वानी. पृ. 22. 7. कधीर ग्रंथावली, पृ. 90.
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afrat पुरुष से विवाह करने के बाद कबीर का पीतम बहुत दिनों में घर प्राता है- "बहुत दिनन में प्रीतम प्राए ।" कवि की प्रिया उसे प्रभात मानती है । बाद में तादात्म्य की सही अनुभूति मधुर मिलन और सुहागरात में होती है । वहीं कबीर की प्रिया प्रनिर्वचनीय प्रानन्द का अनुभव करती है
विगत प्रकल अनुपम देखा, कहता कही न जाई । सेन करं मन ही मन रहसं, गूंगे जानि मिठाई ॥
इस अवस्था में areक और साध्य जल में जल के समान मिलकर प्रस हो जाते हैं
जल में कुम्भ कुम्भ में जल है, भीतर बाहर पानी ।
फूटा कुम्भ जल जलहि समाना, यह तत कह्यो गियानी ॥
प्रत स्थिति में प्रिया और प्रियतम के बीच यह भावना प्रस्थापित हो जाती है-हरि मरि हैं तो हमहु मरि हैं ।
हरि न मरें तो हम काहे को मरें ॥
इस प्रकार निर्गुरिया सन्त प्राध्यात्मिकता, अद्व ेत और पवित्रता की सीमा में घिरे रहते हैं । उनकी साधना में विचार प्रौर प्रेम का सुन्दर समन्वय हुप्रा है तथा ब्रह्मजिज्ञासा से वह अनुप्राणित है । अण्डरहिल के अनुसार रहस्यवादियों का निर्गुण उपास्य प्रेम करने योग्य, प्राप्त करने योग्य सजीव और वैयक्तिक होता है । ये विशेषतायें सन्तों के रहस्यवादी प्रियतम में संनिविष्ट मिलती हैं । प्रेम, गुरु, विरह, रामरस ये रहस्यवाद के प्रमुख तत्व हैं । अण्डरहिल के अनुसार प्रेम मूलक रहस्यवाद की पांच प्रवस्थायें होती हैं— जागरण, परिष्करण, प्रशानुभूति, विघ्न और मिलन । सन्तों के रहस्यवाद में ये सभी प्रवस्थायें उपलब्ध होती हैं। उनकी रहस्यभावना की प्रमुख विशेषतायें हैं- सर्वव्यापकता, सम्पूर्ण सत्य की धनुभूति प्रवृत्यात्मकता, कथनी-करनी में एकता, कर्म-भक्ति-प्रेम-ज्ञान में समन्वयवादिता, म तानुभूति और जन्मान्तरवादिता | 2
4. सगुण भक्तों की रहस्यभावना :
सगुण साधकों में मीरा, सूर मौर तुलसी का नाम विशेष उल्लेखनीय है । मीरा का प्रेम नारी सुलभ समर्पण की कोमल भावना गर्भित 'माधुर्य भाव' का है
1.
ब्राज परभात मिले हरि लाल । दादूवानी
2. हिन्दी की निर्गुण काव्य धारा और उसकी दार्शनिक पृष्ठभूमि, पु. 580-604.
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जिसमें अपने इष्टदेव की प्रियतम के रूप में उपासना की जाती है। उनका कोई सम्प्रदाय विशेष नहीं, वे तो मात्र भक्ति की साकार भावना की प्रतीक हैं जिसमें चिरन्तन प्रियतम के पाने के लिए मधुर प्रणय का मार्मिक स्पन्दन हुमा है । 'म्हारो तो गिरधर गोपाल और दूसरा न कोई' अथवा 'गिरधर से नवल ठाकुर मीरां सी दासी' जैसे उद्धरणों से यह स्पष्ट है कि उन्होंने गिरधर कृष्ण को ही अपना परम साध्य और प्रियतम स्वीकार किया है । सूर, नन्ददास प्रादि के समान उन्हें किसी राषा की पावश्यकता नहीं हुई। वे स्वयं राधा बनकर आत्मसमर्पण करती हुई दिखाई देती हैं। इसलिए मीरा की प्रेमा भक्ति परा भक्ति है जहां सारी इच्छायें मात्र प्रियतम गिरधर में केन्द्रित हैं । सस्य भाव को छोड़कर नवधा भक्ति के सभी अंग भी उनके काव्य में मिलते हैं। एकादश प्रासक्तियों में से कान्तासक्ति, रूपासक्ति और तन्मयासक्ति विशेष दृष्टव्य है । प्रपत्त भावना उनमें कूट-कूट कर भरी हुई है । उनकी प्रात्मा दीपक की उस लौ के समान है जो अनन्त प्रकाश में मिलने के लिए जल रही है।
सूफी कवियों ने परमात्मा की उपासना प्रियतमा के रूप में की है उनके प्रत में निजी सत्ता को परमसत्ता में मिला देने की भावना गभित है। कबीर ने परमात्मा की उपासना प्रियतम के रूप में की पर उसमें वह भाव व्यंजना नहीं दिखाई देती जो मीरा के स्वर में निहित है । मीरा के रग-रग मे पिया का प्रेम भग हुआ है जबकि कबीर समाज सुधार की पोर अधिक अग्रसर हुए हैं ।
मीरा की भावुकता चीरहरण और रास की लीलायों में देखी जा सकती है जहाँ वे 'माज प्रनारी ले गयी सारी, बंटी कदम की डारी, म्हारे गेल पड्यो गिरधारी' कहती हैं । प्रियतम का मिलन हो जाने पर मीरा के मन की ताप मिट जाती है और सारा शरीर रोमांचित हो उठता है
म्हारी भोलगिया धर पाया जी ॥ तन की ताप मिटी सुख पाया, हिलमिल मंगल गाया जी। धन की धुनि सुनि मोर मगन भया, यूप्राणन्द पाया जी। मगन भई मिली प्रभु अपरणासू, भो का दरद मिटाया जी॥ चन्द को देखि कमोदरिण फूल हरिख भया मेरी काया जी। रग-रग सीतल भई मेरी सजनी, हरि मेरे महल सिधाया जी। सब भगतम का कारज कीन्हा, सोई प्रभु में पाया जी । मीरा विरहरिण सीतल होई, दुख दुन्द नसाया जी।
मीरा की तन्मयता और एकीकरण के दर्शन 'लगी मोहि राम खुमारी हो' में मिलते हैं जहां वह 'सदा लीन भानन्द में रहकर ब्रह्मरस का पान करती है।
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उनका ज्ञान और प्रज्ञान, श्रानन्द और विषाद 'एक' में ही लीन हो जाता है । इसी के लिए तो उन्होंने पचरंगी बोला पहिनकर फिरमिट में प्रांख धीर मनमोहन से सोने में सुहाग-सी प्रीति लगायी है। बड़े भाग से गिरिधर नागर मीरा पर रीके हैं।
मिचौनी खेली है मीरा के प्रभु
इसी माधुर्य भाव में मीरा की चुनरिया प्रेमरस की बूंदों से भोंगती रही प्रोर भारती मजाकर सुहागिन प्रिय को खोजने निकल पड़ी। उसे वर्षात् मीर fare भी नहीं रोक सकी। प्रिय को खोजने में उसकी नींद भी हराम हो गई, अंग-मंग व्याकुल हो गये पर प्रिय की वारणी की स्मृति से 'अन्तर-वेदन विरह की वह पीडा न जानी' गई। जैसे चातक घन के बिना और मछली पानी के बिना व्याकुल रहती है वैसे ही मीरा 'व्याकुल विरहणी सुध बुध विसरानी' बन गई । उसकी पिया सुनी सेज भयावन लगने लगी, विरह से जलने लगी । यह निर्गुण की सेज ऊंची मटारी पर लगी है, उसमें लाल किवाड़ लगे हैं, पंचरंगी झालर लगी है, मांग में सिन्दूर भरकर सुमिरण का थाल हाथ में लेकर प्रिया प्रियतम के मिलन की बाट जोह रही है
जिनका प्रियतम परदेश में रहता है उन्हें पत्रादि के माध्यम की प्रावश्यकता होती । पर मीरा का प्रिय तो उनके अन्तःकरण में ही वसता है, उसे पत्रादि लिखने की आवश्यकता ही नहीं रहती। सूर्य, चन्द्र आदि सब कुछ बिनाशीक है यदि कुछ अविनाशी है तो वह है प्रिय परमात्मा । सुरति और निरति के दीपक में मन की वाती और प्रेम-हटी के तेल से उत्पन्न होने वाली ज्योति प्रक्षुण्ण जिनका पिया परदेश वसत है लिख लिख भेजें पाती । मेरा पिया मेरे हीयवत है ना कह थाती जाती ।। चन्दा जायगा सूरज जायगा जायगा धरणि धकासी । पवन पानी दोनों हूं जायगे अटल रहे अविनाशी ||
रहेगी
1.
ॐची अटरिया, लाल किवड़िया, निर्गुन सेज बिछी । पंचरंगी झालर सुभ सोहे फूलत फूल कली ॥ बाजूबन्द कडूला सो हैं मांग सेंदूर भरी । सुमिरण थाल हाथ में लीन्हा सोभा अधिक भरी । ।
सेज सुखमणां मीरा सोवै सुभ है प्राज घडी ॥ "
2.
भी चुनरिया प्रेमरस बूंदन ।
भारत साजकी चली है सुहागिन पिय अपने को ढूढ़न ॥
मीरा की प्रेम साधना, पृ. 218.
मीरा की प्रेम साधना, पृ. 222,
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सुरत निरत का दिवला संजीले मनसा की कर ले बाती । प्रेम हटी का तेल मंगाले जग रहया दिन ते राती । सतगुरु मिलिया संसा भाग्या सेन वताई सांची ॥ ना घर तेरा ना घर मेरा गाव मीरा दासी ॥
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डॉ० प्रभात ने मीरा की रहम्य भावना के सन्दर्भ में डॉ० शर्मा और डॉ. द्विवेदी के कथनों का उल्लेख करते हुए अपना निष्कर्ष दिया है। निर्गुण भक्त बिना बाती, बिना तेल के दीप के प्रकाश में पारब्रह्म के जिस खेल की चर्चा करता है, यह मूलतः सगुण भक्तों की 'हरिलीला' से विशेष भिन्न नहीं है । डॉ. मुशीराम शर्मा ने वेद पुराण, तन्त्र और आधुनिक विज्ञान के आधार पर यही fron निकाला है कि 'हरिलीला आत्मशक्ति की विभिन्न क्रीड़ाम्रों का चित्रण है ।" राधा, कृष्ण, गोपी प्रादि सब प्रन्तः शक्तियों के प्रतीक हैं। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी के अध्ययन का निश्व है कि 'रहस्यवादी वदिता वा केन्द्रविन्दु वह वस्तु है जिसे भक्ति साहित्य में 'लीला' कहते है । यद्यपि रहस्यवादी भक्तों की भांति पद-पद पर भगवान का नाम लेकर भवन नहीं है ही । ये भगवान अगम प्रगोवर तो है ही, वारणी और मन के भी अतीत हैं, फिर भी रहस्यवादी कवि उनको प्रतिदिन प्रतिक्षण देखता रहता है- संसार में जो कुछ घट रहा है प्रोर घटना सम्भव है, वह सब उस प्रेममय की लीला है- भगवान के साथ यह निरन्तर चलनेवाली प्रेम केलि ही रहस्यवादी कविता का केन्द्र बिन्दु है । " अतः मीरा की प्रेम-भावना में 'लीला' के इस निर्गुणत्व-निराकारत्व तक और कदाचित् उससे परे भी प्रसारित सरस रूप का स्फुटन होना श्रस्वाभाविक नहीं है । प्राध्यात्मिक सता में विश्वास करने वाले की दृष्टि से यह यथार्थ है, सत्य है । पश्चिम के विद्वानों के अनुकरण पर इसे 'मिस्टिसिज्म' या रहस्यवाद कहना अनुचित है । यह केवम रहस (प्रानन्दमयी लीला) है और मीरा की भक्ति भावना मे इसी 'रहस' का स्वर है । *
4
पूर और तुलसी, दोनों सगुणोपासक हैं पर प्रन्तर यह है कि सूर की भक्ति सख्यभाव की है और तुलसी की भक्ति दास्यभाव की है। इसी तरह मीरा की भक्ति भी सूर भौर तुलसी, दोनों से पृथक् है। मीरा ने कान्ताभाव को अपनाया है । इन सभी कवियों की अपेक्षा रहम्यभावना की जो व्यापकता और प्रनुभूतिपरका जायसी
1.
मीरा पदावली, पृ. 20.
2. भारतीय साधना और सूरदास, पृ. 208.
3.
साहित्य का साथी, पु. 64. मीरांबाई, पृ. 405,
4.
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में है वह मन्यत्र नहीं मिलती। कबीर को निशपथवा समुण के घेरे में नहीं रखा जा सकता । उन्होंने यद्यपि निमुणोपासना अधिक की है पर सगुणोपासना की भोर भी उनकी दृष्टि गई है । उनका उद्देश्य परिपूर्ण ज्योतिरूप सत्पुरुष को प्राप्त करना
सूर की मधुर भक्ति के सम्बन्ध में डॉ. हरवंशलाल शर्मा के विचार दृष्टव्य है- "हम भक्त सूरदास की अन्तरात्मा का अन्तर्भाव राधा मे देखते हैं । उन्होंने स्त्रीभाव को तो प्रधानता दी है परन्तु परकीया की अपेक्षा स्वकीया भाव को अधिक प्रश्रय दिया है और उसी भाव से कृष्ण के साथ घनिष्ठता का सम्बन्ध स्थापित किया है। कृष्ण के प्रति गोपियों का आकर्षण ऐन्द्रिय है, इसलिए उनकी प्रीति को कामरूपा माना है। सूर की भक्ति का उद्देश्य भक्त को संसार के ऐन्द्रिय प्रलोभनों से बचाना है, यही कारण है कि उनकी भक्ति-भावना स्त्री-भाव से प्रोतप्रोत है, जिसका प्रतिनिधित्व गोपियां करती हैं।" वे कृष्ण में इतनी तल्लीन हैं कि उनकी कामरूपा प्रीति भी निष्काम है । इसलिए संयोग-वियोग दोनों ही प्रवस्थानों में गोपियों का प्रेम एक-रूप है। प्रात्म समर्पण और अनन्य-भाव मधुरभक्ति के लिए पावश्यक है जो सूरसागर की दानलीला चीर हरण और रासलीला में पूर्णता को प्राप्त हुए हैं।
___ सगुणोपासना में रहस्यात्मक तत्वों की अभिव्यक्ति इष्ट के साकार होने के कारण उतनी स्पष्ट नहीं हो पाती। कहीं कहीं रहस्यात्मक अनुभूति के दर्शनअवश्य मिल जाते हैं। सूर ने प्रेम की व्यंजना के लिए प्रतीक रूप में प्रकृति का वर्णन रहस्यात्मक ढंग से किया है जो उल्लेखनीय है--
चलि सखि तिहिं सरोवर जोहि । जिहिं सरोवर कमल कमला, रवि बिना विकसाहिं । हंस उज्ज्वल पंख निर्मल, अंग मलि मलि न्हाहिं ।। मुक्ति-मुक्ता अनगिने फल, तहाँ चुवि चुनि खाहि ॥
वेद कहे सरगुन के प्रागे निरगुण का बिसराम । सरगुन-निरगुन तनहु सोहागिन, देख सबहि निजधाम ।। सुख-दुख वहां कछु नहिं व्याप, दरसन पाठो जाम । नूरे प्रोढन नूरे डासन, नूरेका सिरहान । कहे कबीर सुनो भई साधो, सतगुरु नूर तमाम ॥
कबीर-डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी, पृ. 270. 2. सूर और उनका साहित्य, पृ. 245. 3. सूरसागर, ३३१,
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सूर
की अन्योक्तियों में कहीं-कहीं रहस्यात्मक अनुभूति के दर्शन होते हैंचकई री चल चरन सरोवर, जहां न मिलन विछोह ।
एक अन्यत्र स्थान पर भी सूर ने सूरसागर की भूमिका में सपने इष्टदेव के साकार होते हुए उसका निराकार ब्रह्म जैसा वर्णन किया हैविगत गति कछु कहत न भावं ।
गूंगे मीठे फल को रस अन्तरगत ही भाव । परम स्वाद सवहीं सु निरन्तर प्रमित तोष उपजावे || मन वानी को अगम अगोचर जो जाने सो पावै । रूप रेख गुन जाति जुगति बिनु निरालंब मन द्यावे । सब विधि अगम विचारहि तातें सूर सगुन पद पावे ॥ सूर के गोपाल पूर्ण ब्रह्म है। मूल रूप में वे निर्गुण हैं पर सूर ने उन्हें सगुण के रूप में ही प्रस्तुत किया यद्यपि है सग ुण और निर्गुण, मिल जाता है ।
दोनों का प्रभास
तुलसी भी सुगरणोपासक हैं पर सूर के समान उन्होंने भी निगा रूग की महत्व दिया है । उनको भी केशव का रूप प्रकथनीय लगता है— केशव ! कहि न जाइ का कहिये ।
देखत तव रचना विचित्र हरि ! समुझि मनहिं मन रहिये || सून्य भीति पर चित्र, रंग नहि, तनु बिनु लिखा चितेरे । भोये मिटइ न मरइ भीति, दुख पाइम एहि तनु हेरे ॥ रविकर-नीर बसे प्रति दारुन मकर रूप तेहि माहीं । बदन-हीन सो प्रसे चराबर, पान करन जे जाहीं ॥
कोउ कह सत्य, झूठ कह कोऊ, जुगल प्रबल कोउ माने । तुलसिदास परिहरेतीत भ्रम, सौ प्रापन पहिचानं ॥
तुलसी जैसे सगुणोपासक भक्त भी अपने प्राराध्य को किसी निर्गुणोपासक रहस्यवादी साधक से कम रहस्यमय नहीं बतलाते । रामचरितमानस में उन्होंने
लिखा है
"आदि अंत को जासु न पावा । मति अनुमानि निगम जस गावा । बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना । कर बिमु करम करइ विधि नाना ।" इस प्रकार सगुणोपासक कवियों में मीरा को
छोड़कर प्रायः ग्रन्थ कवियों
में रहस्यात्मक तत्वों की उतनी गहरी अनुभूति नहीं दिखाई देती । इसका कारण
1.
वही, स्कन्ध 1 पद 2. 2. विनयपत्रिका, 111 वां पद
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स्पष्ट है कि वाम्पत्यभाव में प्रेम की जो प्रकर्षता देखी जा सकती है वह दास्य भाव मथवा सस्य भाव में सम्भव कहां । इसके बावजूद उनमें किसी न किसी तरह साध्य की प्राप्ति में उनकी भक्ति सक्षम हुई है और उन्होंने परम ब्रह्म की अनिर्वचनीयता का अनुभव किया है। 5. सुफी भोर जैन रहस्यभावमा
मध्याकालीन सूफी हिन्दी जन साहित्य के अध्ययन से ऐसा प्रतीत होता है कि सूफी कवियों ने भारतीय साहित्य और दर्शन से जो कुछ ग्रहण किया है उसमें जैन दर्शन की भी पर्याप्त मात्रा रही है। जायसी ब्रह्म को सर्वव्यापक, शाश्वत, मलख और प्ररूपी 1 मानते हैं। जैनदर्शन में भी मात्मा को प्ररस, अरूपी और चेतना गुण से युक्त मानते हैं । सूफियों ने मूलतः प्रात्मा के दो भेद किये हैंनफस और रूह । नफस संसार में भटकनेवाला मात्मा है और रूह विवेक सम्पन्न है। जैन दर्शन में भी प्रात्मा के दो स्वरूपों का चित्रण किया गया है-पारमार्थिक पोर व्यावहारिक । पारमार्थिक दृष्टि मे प्रात्मा गाश्वत है और व्यावहारिक दृष्टि से वह ससार में भटकता रहता है । सूफी दर्शन में रूह को विवेक सम्पन्न माना गया है । जेनों ने प्रात्मा का गुण अनन्तज्ञान-दर्शन रूप माना है । सूफी दर्शन में रूह (उच्चतर) के तीन भेद माने गये हैं-कल्व (दिल), रूह (जान), सिर्र (अन्तःकरण) । जैनों ने भी प्रात्मा के तीन भेद माने हैं- बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा सफियों के मात्मा का सिर रूप जैनों का अन्तरात्मा कहा जा सकता है। यही से परमात्मा पद की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता है। संसार की सृष्टि का हर कोना सूफी दर्शन के अनुसार ब्रह्म का ही प्रश है । पर जैन दर्शन के अनुसार सृष्टि की सरचना में परमात्मा का कोई हाथ नहीं रहता। जैन दर्शन का प्रात्मा ही विशुद्ध होकर परमात्मा बनता है अर्थातू उसको आत्मा मे ही परमात्मा का वास रहता है पर प्रज्ञान के भावरण के कारण वह प्रकट नहीं हो पाता । जायसी ने भी गुरु रूपी परमात्मा को अपने हृदय में पाया है। जायसी का ब्रह्म सारे संसार में व्याप्त है मौर उसी के रूप से सारा संसार ज्योतिर्मान है। गैनो का भात्मा भी सर्वव्यापक
1. जायसी ग्रन्थावली, पृ. 3.
समयसार, 49%; नाटक समयसार, उत्थानिका, 36-47. 3. हिय के जोति दीप वह सूझा-जायसी ग्रन्थावली, पृ. 51. 4. जायसी प्रथावली, पृ. 156. 5. गुरु मोरे मोरे हिय दिये तुरंगम ठाट, वही, पृ. 105. 6. नयन जो देखा कंवलभा, निरमल नीर सरीर ।
हंसत जो देखा हंस भा, दसन जोति नग हीर ।। वही, पृ. 25.
.
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है और उसके विशुद्ध स्वरूप में संसार का हर पदार्य दर्पणवत् प्रतिभाषित होता
जायसी ने ब्रह्म के साथ प्रर्वतावस्था पाने में माया (अलाउद्दीन) और सैतान (राघवदूत) को बाषक तत्व माने हैं। बासनात्मक मासिक्त ही माया है। शंतान प्रेम-साधना की परीक्षा लेने वाला तत्व है । पद्मावत में नागमती को दुनियां अंधा, मलाउद्दीन को माया एवं राघव चेतन को शैतान के रूप में इसीलिए चित्रित किया गया है । जायसी ने लिखा है-मैंने जब तक प्रास्मा स्वरूपी गुरु को नहीं पहिचाना, तब तक करोड़ों पर्दे बीच में थे, किन्तु ज्ञानोदय हो जाने पर माया के सब प्रावरण नष्ट हो गये, प्रात्मा और जीवगत भेद नष्ट हो गया। जीव जब अपने पात्मभाव को पहिचान लेता है तो फिर यह अनुभव हो जाता है कि तन, मन, जीवन सब कुछ वही एक प्रात्मदेव है । लोग अहंकार के वशीभूत होकर दंत भाव में फंसे रहते हैं, किन्तु ज्यों ही अहंकार नष्ट हो जाता है । अद्वैत स्थिति मा जाती है। माया की अपरिमित शक्ति है । उसने रतनसेन जैसे सिद्ध साधक को पदच्युत कर दिया । अलाउद्दीन रूपी माया सदेव स्त्रियों मे प्रासक्त रहती है। छल-कपट भी उसकी अन्यतम विशेषता है । दश द्वार में स्थित प्रात्मतत्व को अन्तर्मुखी दृष्टि से ही देखा जा सकता है पर माया इस प्रात्मदर्शन में बाधा डालती है। माया को इसीलिए ठग, बटमार प्रादि जैसी उपमायें भी दी गई हैं। संसार मिथ्या-माया का प्रतीक है । यह सब प्रसार है ।
जैन दर्शन में माया-मोह अथवा कर्म को साध्य प्राप्ति में सर्वाधिक बाधक कारण माना गया है । इसमें प्रासक्त व्यक्ति ऐन्द्रिक सुख को ही यथार्थ सुख मानता है । यहां माया शैतान जैसे पृथक् दो तत्व नहीं माने गये । सारा संसार माया और मिथ्यात्व जन्य ही है । मिथ्यात्व के कारण ही इस क्षणिक संसार को जीव अपना मानता है । जायसी ने जिसे अन्तरपट अथवा अन्तरदर्शन कहा है, जैन धर्म उसे मात्मज्ञान प्रथवा भेदविज्ञान कहता है। जब तक भेदविज्ञान नहीं होता तब तक मिथ्यात्व, माया. कर्म अथवा अहंकार आदि दूर नहीं होते। जायसी के समान यहां जीव और प्रात्मा दो पृथक् तत्व नहीं है। जीव ही प्रात्मा है । उसे माया मी
1. अपचनसार, प्रथम अधिकार, बनारसी विलास, ज्ञानवावनी, 4. 2. जायसी ग्रन्थमाला, पृ. :01. 3. जब लगि गुरु हो महा न चीन्हा । कोटि अन्तरपद बीचहि दीन्हा ।।
जब चीन्हा तब और कोई । तन मन जिउ जीवन सब सोई॥ 'हो हो' करत पोख इतराही । जब भी सिद्ध कहां परवाहीं ।।
वही, पृ. 105, जायसी का पद्मावत काव्य पौर दर्शन, पृ. 219-26. 4. नाटक समयसार, जीवद्वार, 23.
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ठविली जब ठग लेती है लो वह संसार में जन्म-मरण के चक्कर लगाती रहती है। वासना को यहां भी संसार का प्रमुख कारण माना गया है। मिथ्यात्व को दुःखदायी पौर भास्मशान को मोक्ष का कारण कहा गया है ।
अन योगसाधना के समान सूफी योग साधना भी है। अष्टांगयोग और यम-नियम लगभग समान हैं। जायसी का योग प्रेम से सम्बलित है पर जेन योग नहीं । जायसी ने राजयोग माना है, हठयोग नहीं । जन भी हठयोग को मुक्ति का साधन नहीं मानते । सूफियों में जीवनमुक्ति और जीवनोत्तर मुक्ति दोनों मुफ्तियों का वर्णन मिलता है । जीवन मुक्ति दिलाने वाली वह भावना है जो फना पौर बका को एक कर देती है । फना में जीव की सारी सांसारिक माकांक्षायें, मोह, मिथ्यात्व मादि नष्ट हो जाते है । जैनधर्म मे इसी अवस्था को वीतराग अवस्था कहा गया है। इसी को पद्वतावस्था भी कह सकते हैं जहां प्रात्मा अपनी परमोच्च अवस्था मे लीन हो जाती है। यही निर्धारण है जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के परिपालन से प्राप्त होता है । जायसी ने भी गैनो के समान तोता रूप सद्गुरु को महत्व दिया है । यही पद्मावती रूपी साध्य का दर्शन करता है।
जायसी ने विरह को प्रेम से भी अधिक महत्व दिया है । इसोलिए जायसी का विरह दणन साहित्य और दर्शन के क्षेत्र मे एक अनुपम योगदान है। उत्तरकालीन जैन भक्त साधक भी इस विरह की ज्वाला में जले हैं। बनारसीदास मोर मानन्दधन को इस दृष्टि से नहीं मुलाया जा सकता। जायसी के समान ही हिन्दी गैन कवियों ने भी माध्यात्मिक विवाह और मिलन रचाये हैं । जायसी ने परमात्मा को पति रूप माना है पर वह है स्त्री-पदमावती। यद्यपि जन सायको-भक्तों ने परमात्मा का पति रूप में स्वीकार किया है पर उसका रूप स्त्री नहीं, पुरुष रहा है। बनारसीदास का नाम दाम्पत्यमूलक जैन साधको मे अग्रणीय है।
नायसी और हिन्दी जैन कवियों की वर्णन शैली में अवश्य अन्तर है। जायसी ने भारतीय लोककथा का प्राधार लेकर एक सरस रूपक बड़ा किया है और उसी के माध्यम से सूफी दर्शन को स्पष्ट किया है। परन्तु जैन साहित्य के कषियों ने लोक कथामों का पाश्रय भले ही लिया हो पर उनमें वह रहस्यानुभूति नहीं जो जायसी मे दिखाई देती है । जैनों ने अपने तीर्थकर नेमिनाथ के विवाह का खुब वर्णन किया और उनके विरह में राजुल रूप साधक की पात्मा को तड़काया भी है
1. प्रवचनसार, 64%; बनारसीविलास, ज्ञानवावनी, 16-30. 2. उत्तराध्ययम, 20:37; हिन्दी पद संग्रह, पृ. 36. 3. पंचारितकाय, 162; नाटक.समयसार, संवरद्वार, 6, पृ.125.
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परन्तु मिलन के माध्यम से प्रनिर्वचनीय मानन्द की प्राप्ति के प्रस्फुटन को भूल गये, जिस जायसी ने अपनी जादू भरी कमल से प्राप्त कराया है, वहां पद्मावती रूपी परमात्मा की रस्नसेन रूपी प्रियतम साधक के विरह से प्राकुल-व्याकुल हुई है । जैनों का परमात्मा साधक के लिए इतना तड़फता हुमा दिखाई नहीं देता वह तड़फे भी क्यों ? वह तो वेचारा वीतरागी है । रागी प्रात्मा भले ही तड़पत्ती रहे।
इस प्रकार सूफी पौर जैन रहस्यभावना के तुलनात्मक अध्ययन से यह पता चलता है कि सूकी कधि जैन साधना से बहुत कुछ प्रभावित रहे हैं । उन्होंने अपनी साहित्यिक सक्षमता से इस प्रभाव को भलीभांति अन्तभूत किया है । उनकी कथायें जहां एक तरफ लौकिक दिखाई देती हैं वहा रूपक के माध्यम से वही पारलौकिक दिखती हैं जबकि जैन कवि प्रतिभा सम्पन्न होते हुए भी इस शैली को नहीं अपना सके । उनका विशेष उद्देश्य प्राध्यात्मिक सिद्धान्तों का निरूपण करना रहा । जायसी का मारमा और ब्रह्म ये दोनों पृथक्-पृथक् तत्व हैं जो अन्तर्मुखी वृत्तियों के माध्यम से प्रदत अवस्था में पहुंचते है जब कि गैनों का परमात्मा प्रात्मा को ही विशुद्धतम स्थिति है । वहां दो पृथक्-पृयक् तत्व नहीं इसलिए मिलन या ब्रह्मसाक्षात्कार की समान तीव्रता होते हुए भी दिशा मे अलग-अलग रहीं। 6. निर्गुक रहस्यभावना और अन रहस्यभावना
निर्गुण का तात्पर्य है--पूर्णवीतराग भवस्था । कबीर प्रादि निर्गुणी सन्तों का ब्रह्म इसी प्रकार का निर्गुण और निराकार माना जाता है। कबीर ने निगुण के साथ ही सगुण ब्रह्म का भी वर्णन किया है। इसका अर्थ यह है कि कबीर का ब्रह्म निराकार पोर साकार, द्वैत और पद्धत तथा भावरूप भौर प्रभावरूप है। जैसे जनों के अनेकान्त में दो विरोषी पहलू प्रपेक्षाकृत दृष्टि से निभ सकते हैं, वैसे कबीर के ब्रह्म में भी हैं। कबीर पर जाने-अनजाने एक ऐसी परम्परा का जबरदस्त प्रभाव पड़ा था, जो अपने में पूर्ण थी और स्पष्टत: कबीरदास की सत्यान्वेषक बुद्धि ने उसे स्वीकार किया। उन्होंने अनुभूति के माध्यम से उसे पहिचाना । जैन परम्परा में भी मात्मा के दो रूप मिलते हैं-निकल और सकल । इसे ही हम क्रमशः निर्गण पौर सगुण कह सकते हैं । रामसिंह ने निर्गुण को ही निःसंग कहा है। उसे ही
1. सन्तो, षोखा कांसू कहिये
गुण में निरगुण निरगुण में गुण
बाट छाडि स्यू कहिये ?-कबीर ग्रंथावली, पद 180. 2. जैन शोष मोर समीक्षा-पृ. 62. 3. परमात्मप्रकाश, 1-25. 4. पाहाबोहा, 100.
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निरंजन भी कहा जाता है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि पंचपरमेष्ठियों में महेन्ल पोर सिद्ध कमशः सगुण पोर निर्गुण ब्रह्म है जिसे कबीर ने स्वीकार किया है। बनारसीदास ने इसी निर्गुण को शुद्ध, बुद्ध, पविनाशी और शिव संज्ञाओं से अभिहित किया है।
कबीर की माया, भ्रम, मिथ्याज्ञान, क्रोध, लोभ, मोह, वासना, प्रासक्ति प्रादि मनोविकार मन के परिधान हैं जिन्होंने त्रिलोक को अपने वश में किया है। यह माया ब्रह्म की लीला की शक्ति है । इसी के कारण मनुष्य दिग्भ्रमित होता है । इसलिए इसे ठगोरी, ठगिनी, छलनी. नागनि मादि कहा गया है । कबीर ने व्यावहारिक दृष्टि से माया के तीन भेद माने हैं- मोटी माया, झीनी माया और विद्यारूपिणी । मोटो माया को कर्म कहा गया है। इसके अन्तर्गत बन, सम्पदा, कनक कामिनी आदि पाते हैं। पूजा-पाठ आदि वाह्याडम्बर में उलझना भी ऐसे कर्म हैं जिनसे व्यक्ति परमपद की प्राप्ति नहीं कर पाता । झीनी माया के अन्तर्गत प्राशा, तृष्णा, मान प्रादि मनोविकार पाते हैं। विद्यारूपिणी माया के माध्यम से सन्त साध्य तक पहुंचने का प्रयत्न करते है । यह आत्मा का व्यावहारिक स्वरूप है ।
गैनो का मिथ्यात्व अथवा कर्म कबीर की माया के सिद्धान्त के समानार्थक है । कबीर के समान जैन कवियों ने भी माया को ठगिनी कहा है । कबीर की मोटी माया जेनों का कर्म है जिसके कारण जीव में मोहासक्ति बनी रहती है। जैसा हम देख चुके हैं, जैन कवि भी कबीर के समान बाह्याडम्बर के पक्ष में बिलकुल नहीं हैं । वे तो प्रात्मा के विशुद्ध स्वरूप को प्राप्त करने के लिए विशुद्ध साधन को ही अपनाने की बात करते है। विद्यारूपिपी माया का सम्बन्ध मुनियों के चारित्र से जोड़ा जा सकता है। कबीर और जैनों की माया में मूलभूत अन्तर यही है कि कबीर माया को ब्रह्म की लीला शक्ति मानते हैं पर जैन उसे एक मनोविकारजन्य कर्म का भेद स्वीकार करते हैं ।
माया अथवा मनोविकारों से मुक्त होना ही मुक्ति को प्राप्त करना है। उसके बिना संसार-सागर से पार नहीं हुमा जा सकता। इसलिए 'मापा पर सब
1. परमात्म प्रकाश, 1-19. 2. बनारसीविलास, शिवपच्चीसी, 1-25. 3. कबीर ग्रन्थावली, पृ. 166. 4. वही, पृ. 151. 5. वही, पृ. 116. 6. कबीर ग्रन्थावली, पृ. 145.
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एक समान, तब हम पाया पद निरवारण' कहकर कबीर ने मुक्ति-मार्ग को निर्दिष्ट कवियों ने इसे ही भेदविज्ञान कहा है और वही मोक्ष का कारण कबीर और जैन, दोनों संसार को दुःखमय, क्षणिक और श्रनित्य
किया है। जैन माना गया है मानते हैं । नरभव दुर्लभता को भी दोनों ने स्वीकार भाव को प्रन्तकर मुक्तावस्था प्राप्त करने की बात
किया है। दोनों ने ही दुविधा कही है। कबीर की जीवन्मुक्त
और विदेह श्रवस्था जैनों की केवली भोर सिद्ध अवस्था कही जा सकती है । स्वानुभूति को जैनों के समान निर्गुणी सन्नों ने भी महत्व दिया है । कबीर ने ब्रह्म को ही पारमार्थिक सत् माना है और कहा है कि ब्रह्म स्वयं ज्ञान रूप है, सर्वत्र व्यापक है और प्रकाशित है --' अविगत अपरपार ब्रह्म, ग्यान रूप सब ठाम जैनों का श्रात्मा भी चेतन गुण रूप है और ज्ञान दर्शन शक्ति से समन्वित है । इसी ज्ञान शक्ति से मिथ्याज्ञान का विनाश होता है । कबीर की 'मानमदृष्टि' जैनों का भेद विज्ञान अथवा आत्मज्ञान है । बनारसीदास, द्यानतराय श्रादि हिन्दी जैन कवियों ने सहजभाव को भी कबीर के समान अपने ढंग से लिया है । अष्टांग योगों का भी लगभग समान वर्णन हुआ है। शुष्क हठयोग को जैनो ने प्रवश्य स्वीकार नहीं किया है। कबीर के समान जैन कवि भी समरसी हुए हैं और प्रेम के खूब प्याले पिये हैं। तभी तो उनका दुविधा भाव जा सका । कबीर ने लिखा है
पाणी ही तें हिम भया, हिम है गया बिलाइ |
जो कुछ था सोई भया, अब कछु कहया नजाई ॥
इस समरसता को प्राप्त करने के लिए कबीर ने अपने को 'राम की बहुरिया ' मानकर ब्रह्म का साक्षात्कार किया है। पिया के प्रेमरस में भी कबीर ने खूब नहाया है । बनारसीदास और प्रानन्दघन ने भी इसी प्रकार दाम्पत्यमूलक प्रेम को अपनाया है। कबीर के समान ही छोहल भी अपने प्रियतम के विरह से पीड़ित है । प्रानन्दघन की आत्मा सो कबीर से भी अधिक प्रियतम के वियोग में तड़पती दिखाई देती है 18 कबीर की चुनरिया को उसके प्रितम ने संवारा' और भगवतीदास ने प्रपनी चुनरिया को इष्टदेव के रंग में रंगा 18 कबीर प्रोर बनारसीदास, दोनों का प्रेम प्रहेतुक है। दोनों की पलिया अपने प्रियतम के वियोग में जल के बिना
4.
बनारसीदास ने भी ऐसा ही कहा है
पिय मोरे घट मे पिय मांहि, जलतरंग ज्यो दुविधा नाहि ॥5
1. नाटक समयसार, निर्जरा द्वार, पृ. 210
2.
कबीर ग्रन्थावली, पृ. 241
3.
वही, पृ. 100.
कबीर गुंथावली, परचा कौ अंग, 17.
बनारसी विलास, प्रध्यात्मगीत, 16.
5.
6.
7.
8.
कबीर -डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी, पृ. 187.
खूनी, हस्तलिखित प्रति, अपभ्रंश और हिन्दी में जैन रहस्यवाद, पृ. 94. धानम्बधन बहोत्तरी, 32-41
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मछली के समान तड़फी हैं । माध्यामिक विवाह रचाकर भी वियोग की सर्जना हुई है। ब्रह्म मिलन के लिए निर्गुणी सन्तों और जैन कवियों ने खूब रंगरेलियां भी खेली हैं।
इस प्रकार निर्गुणियां सन्तों और मध्यकालीन हिन्दी जैन कवियों ने थोड़ी बहुत मसमानताभों के साथ-साथ समान रूप से गुरु की प्रेरणा पाकर ब्रह्म का साक्षात्कार किया है । इसके लिए उन्होंने भक्ति अथवा प्रपत्ति की सारी विधानों का माश्रय लिया है । जैन साधकों ने अपने इष्ट देव की वीतरागता को जानते हए भी अनावशत् उनकी साधना की है। 7. सगुण रहस्यमावना मोर जैन रहस्यभावना
जैसा हम पीछे देख चुके हैं, सगुण भक्तों ने भी ब्रह्म को प्रियतम मानकर उसकी साधना की है । जैन भक्तों ने भी सकल परमात्मा का वर्णन किया है जो सगुण ब्रह्म का समानार्थक कहा जा सकता है । मीरा में सूर पोर तुलसी की अपेक्षा रहस्यानुभूति अधिक मिलती है । इसका कारण है कि सूर और तुलसी का साध्य प्रत्यक्ष और साकार रहा। मीरा का भी, परन्तु सगुण भक्तों में कान्ताभाव मीरा में ही देखा जाता है इसलिए प्रेम की दिवानी मीरा में जो मादकता है वह न तो सूर में है और न तुलसी में और न जैन कवियों में। यह अवश्य है कि जैन कवियों ने अपने परमात्मा की निर्गुण और सगुण दोनों रूपों की विरह वेदना को सहा है । एक यह बात भी है कि मध्यकालीन जनेतर कवियों के समान हिन्दी जैन कवियों के बीच निर्गुण अथवा सगुण भक्ति शाखा की सीमा रेखा नहीं खिची। वे दोनों प्रवस्थानों के पुजारी रहे हैं क्योंकि ये दोनों अवस्थायें एक ही मात्मा की मानी गई हैं। उन्हें ही जैन पारिभाषिक शब्दों में सिद्ध और महन्त कहा गया है।
मीरा की तन्मयता और एकाकारता बनारसीदास और मानन्दघन में अच्छी तरह से देखी जाती है । रहस्य साधना के बाधक तत्वों में माया, मोह मादि को भी दोनों परम्परामों ने समान रूप से स्वीकार किया है । साधक तत्वों में इन भक्तों से भक्ति तत्त्व की प्रधानता अधिक रही है। भक्ति के द्वारा ही उन्होंने अपने माराध्य को प्रत्यक्ष करने का प्रयत्न किया है । यही उनकी मुक्ति का साधन रहा है।
साधन का पथ सुगम बनाने और सुलाने के सन्दर्भ में जैन एवं जैनेतर सभी सन्तों और भक्तों ने गुरु की महिमा का गान किया है । मीरा के हृदय में कृष्ण प्रेम की चिनगारी बचपन से ही विद्यमान थी। उसको प्रज्वलित करने का श्रेय उनके भावुक गुरु रेदास को है जो एक भावुक भक्त एवं सन्त थे। मीरा के गुरु रैदास होने में कुछ समालोचक सन्देह व्यक्त करते हैं । जो भी हो, मीरा के कुछ पदों में जोगी का उल्लेख मिलता है जिसने मीरा के हृदय में प्रेम की चिनगारी बोई।। 1. जोगिया कहां गया नेहड़ी लगाय ।
छोड़ गया बिसवास संघाती प्रेम की बाती बराय। मीरा के प्रभु कब रे मिलोगे तुम बिन रहो म जाई। मीरा की प्रेम सापना, पृ. 168,
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जैन साधकों ने भी सौरा के समान गुरु ( सदगुरु ) की महत्ता को साधना का मार्ग प्रशस्त बनाने के सन्दर्भ में अभिव्यंजित किया है । अन्तर मात्र चिनगारी प्रज्वलित करने की मात्रा का है ।" मीरा प्र ेम माधुर्यभाव का है जिसमें भगवान कृष्ण की उपासना प्रियतम के रूप में की है। इससे अधिक सुन्दर-सुन्दर सम्बन्ध की कल्पना ही भी नहीं सकती । विरह और मिलन की जो धनुभूति घोर अभिव्यक्ति इस माधुर्यभाव में खिली है वह सख्य धौर दास्यभाव में कहां ! इसलिए मीरा के समान ही जैन कवियों ने दाम्पत्यमूलक भाव को ही अपनाया है। मीरा प्रियतम के प्रेमरस में भीगी चुनरिया को प्रोढ़कर साज श्रृंगार करके प्रियतम को ढूढ़ने जाती है उसके विरह में तड़पती है। इस सन्दर्भ में बारहमासे का चित्रण भी किया है सारी सृष्टि मिलन की उत्कण्ठा में साज-सजा रही है परन्तु मीरा को प्रियतम का वियोग खल रहा है । प्राखिर प्रियतम से मिलन होता है । वह तो उसके हृदय में ही बसा हुआ है वह क्यों यहां-वहां भटके। यह दृढ़ विश्वास हो जाता है। उस प्रागम देश का भी मीरा ने मोहक वर्णन किया है ।
जैन साधकों की श्रात्मा भी मीरा के समान अपने प्रियतम के विरह में तड़पती है ।" भूधरदास की राजुल रूप श्रात्मा अपने प्रियतम नेमीश्वर के विरह में मीरा के समान ही तड़पती है। इसी सन्दर्भ में मीरा के समान बारहमासों की भी सर्जना हुई है ।" प्रियतम से मिलन होता है और उस श्रानन्दोपलब्धि की व्यंजना मीरा से कहीं अधिक सरस बन पड़ी है। सूर और तुलसी यद्यपि मूलतः रहस्यवादी कबि नहीं हैं फिर भी उनके कुछ पदों में रहस्यभावनात्मक अनुभूति झलकती है जिनका उल्लेख हम पहले कर चुके हैं।
इस प्रकार सूफी, निर्गुण और सगुण शाखाधों की रहस्यभावना जैन धर्म की रहस्य भावना से बहुत कुछ मिलती-जुलती है, जो अन्तर भी है, वह दार्शनिक पक्ष की पृष्ठभूमि पर प्राधारित है । साधारणतः मुक्ति के साधक मौर बाधक तत्वों को समान रूप से सभी ने स्वीकार किया है। संसार की प्रसारता और मानव जन्म
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S.
दिन-दिन महोत्सव प्रतिषरणा, श्री संघ भगति सुहाइ ।
मन सुद्धि श्री गुरुसेवी यह, जिरणी सेव्यइ शिव सुख पाइ || जैन ऐतिहासिक काव्य संग्रह - कुशल लाभ - 53 वां पद
मध्यात्म गीत, बनारसी विलास, पू. 159-60
भूषर विलास, 45 वां पद पू. 25.
कवि विनोदीलाल- बारहमासा संग्रह कलकत्ता, 42 वां पद्य, पृ. 24,
लक्ष्मी
बल्लभ नेमि - राजुल बारहमासा, पहला पद्य.
मानन्दवन पद संग्रह, माध्यात्मिक ज्ञान प्रसारक मण्डल बम्बई, चौथा पद,
प्र. 7.
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की दुर्लभता से भी किसी को इन्कार नहीं । प्रपत्तिभावना गर्भित दाम्पत्य मूलक प्रेम की भी सभी कवियों ने हीनाधिक रूप से अपनाया है। परन्तु जैन कवियों का दृष्टिकोण सिद्धान्तों के निरूपण के साथ ही भक्तिभाव को प्रदर्शित करता रहा है। इसलिए जन्तर कवियों की तुलना में उनमें भावुकता के दर्शन उतने अधिक नहीं हो पाते । फिर भी रहस्य भावना के सभी तस्व उनके काव्य में दिखाई देते हैं । तथ्य तो यह है कि दर्शन और अध्यात्म की रहस्य - भावना का जितना सुन्दर समन्वय मध्यकालीन हिन्दी जैन कवियों के काव्य में मिलता है उतना अन्यत्र नहीं । साहित्य क्षेत्र के लिए भी उनकी यह एक अनुपम देन मानी जानी चाहिए । 8. मध्यकालीन जैन रहस्यभावना और प्राधुनिक रहस्यवाद
मध्यकालीन हिन्दी जैन काव्य के अन्तदर्शन से यह स्पष्ट है कि उसमें निहित रहस्यभावना और प्राधुनिक काव्य में अभिव्यक्त रहस्यभावना में साम्य कम और वैषम्य अधिक दिखाई देता है ।
(1) जैन रहस्यभावना शान्ता भक्ति प्रधान है । उसमें वीतरागता, निःसंगता और निराकुलता के भावों पर साधकों की भगवद्भक्ति अवलम्बित रही है । बनारसी दास ने तो नवरसों में शान्त रम को ही प्रधान माना है-नवमो सान्त रसनिको नायक ।" बात सही भी है। जब तक कर्मों का उपशमन नहीं होगा. रहस्यभावना की चरमोत्कर्ष प्रवस्था कैसे प्राप्त की जा सकती है ? शम ही शान्त रस का स्थायीभाव माना गया है । जैन ग्रन्थों का अन्तिम मंगलाचरण प्राय: गान्ति की याचना में ही समाप्त होता है—- देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्य राज्ञः करोतु शान्ति भगवज्जिनेन्द्र: । 2 जैन मंत्र भी शान्तिपरक है । उनमें सात्विक भक्ति निहित है । राग-द्वेषादि विकार भावों से विरक्त होकर चरम शान्ति की याचना गर्भित है । इसलिए शान्त रस को बनारसीदास ने 'प्रात्मिक रस' कहा है। मैया भगवतीदास ने भी जैन मत को शान्तरस का मत माना है । वस्तुतः समूचा जैन साहित्य शान्ति रस से प्राप्लावित है 15
(1) आधुनिक साहित्य मे अभिव्यक्त रहस्यवाद प्रस्तुत रहस्यवाद से भिन्न है । उसमें कर्मोपशमनजन्य शान्ति का कोई स्थान नही । श्राधुनिक रहस्यवाद में प्राचीन जंन रहस्यवाद की अपेक्षा आध्यात्मिकता के दर्शन बहुत कम होते हैं । धार्मिक दृष्टि का लगभग प्रभाव-सा है । उसकी मुख्य प्रेरणा मानवीय र सांस्कृतिक है ।
नाटक समयसार, सर्वविशुद्धि द्वार 10, दशभक्त्यादि संग्रह, पृ. 181, श्लोक 14 वां नाटक समयसार उत्थानिका, 19 वां पद्य शान्त रसवारे कहें, मन को निवारे रहें,
बेई प्रान प्यारे रहें, और सरवारे हैं | ब्रह्मविलास, ईश्वर निर्णय पच्चीसी, 6 वां कवित्त, पृ. 253.
5.
जैन शोध और समीक्षा- डॉ. प्रेमसागर जैन, जयपुर, पृ. 169-208,
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133, पृ. 307.
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(2) मध्यकालीन हिन्दी जैन रहस्यभावना के सन्दर्भ में साधकों का प्रकृति प्रति जिज्ञासा का भाव बहुत कम हैं जब कि श्राधुनिक रहस्यवाद विराट प्रकृति की रमणीयता में ही प्रधिक पला-पुसा है। प्रसाद, निराला, पन्त और महादेवी safe afart का रहस्यवाद प्राकृतिक रहस्यानुभूति के मधुर स्वर से प्रापूरित है । रहस्यमयी सत्ता का प्राभास देने में उनकी प्रवृत्ति ही सहायक होती है । लगता है, प्राचीन जैन कवि प्रकृति को ब्रह्म साक्षात्कार में बाधक तत्व मानते रहे हैं । पर sarafts afari ने प्रकृति को बाधक न मानकर उसे साधक माना है ।
(3) शब्दों का सीमित बन्धन रहस्यवाद की अभिव्यक्ति में समर्थ नहीं । अतः उसकी गुह्यता को स्वर देने के लिए जैन साधक कवियों ने प्रतीकों का माध्यम अपनाया। प्राचीन जैन कवियों ने समुद्र सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, वन, निर्भर, हस, तुरंग, मिट्टी प्रादि उपकरणों को चुना । श्राधुनिक रहस्यवाद में भी उन उपकरणों का उपयोग किया गया है परन्तु साथ ही उसमें कुछ अभारतीय प्रतीकों का भी समावेश हो गया है ।
(4) आधुनिक रहस्यवाद धार्मिक दृष्टिकोण के अभाव में मात्र एक कल्पना प्रधान काव्य शैली बनकर सामने आया है, परन्तु प्राचीन रहस्यवाद में उसका अनुभूति पक्ष कहीं अधिक प्रबल दिखाई देता है ।
साध्य की प्राप्ति में
प्रेम से नहीं बच
।
परन्तु प्राधुनिक
(5) प्राचीन रहस्यसाधना मे दाम्पत्यमूलक प्रेम को एक विशिष्ट साधन माना गया है । निर्गुण रहस्यवादी भी इस सके। सगुणवादियों का ब्रह्म भी अविगत और गोचर हो गया afa इतने अधिक साधक नहीं बन सके । उनकी साधना सूखे फूल की मुझयी पंखुड़ियों के समान प्रतीत होती है । उसमें साधना की सुगन्धि नहीं । वह तो प्रेम और वासना की बू मे प्रतीकों की मात्र कहानी है ।
(6) प्राचीन जैन रहस्यवादियों के काव्य में दार्शनिक श्रौर श्राध्यात्मिक पक्ष की सुन्दर समन्वित भूमिका मिलती है पर प्राधुनिक रहस्यवाद में दार्शनिक पक्ष गौण हो गया है । व दाम्पत्यमूलक सूत्र के साथ रागात्मक सम्बन्ध के विशिष्ट योग में ब्रह्म मिलन की भातुरता छिपी हुई है ।
(7) मध्यकालीन जैन रहस्यवाद में संसारी श्रात्मा ही अपने विशुद्ध स्वरूप को प्राप्त करने के लिए तड़पती है और उसके वियोग में जलती है वही उसका प्रियतम ब्रह्म है। आधुनिक रहस्यवाद में भी इस वेदना के दर्शन होते हैं । पर विरह की तीव्र अनुभूति प्राचीन काव्य में अधिक अभिव्यक्ति हुई है। वहां प्रात्मसमर्पण की भावना, चिन्तन-मनन गर्भित है । भद्वतवाद की स्थिति दोनों में अवश्य है पर उसकी प्राप्ति के मार्गों में किचित् अन्तर है । एक में प्राचार की प्रधानता है तो दूसरे का सम्बन्ध भावों से अधिक है । रागात्मक भाकर्षण आधुनिक रहस्यवाद में कहीं अधिक है ।
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(8) जैन रहस्यभावना में सर्वात्मवाद का का दर्शन होता है पर वह जैन सिद्धान्तों के अनुरूप है । प्राधुनिक रहस्यवाद का सर्वात्मवादी दर्शन अखमंगुर संसार को ईश्वरीय सत्ता में अन्तर्भूत करता है । यह स्थिति उसी प्रकार अंग्रेजी रोमाण्टिक कवियों में वर्डसवर्थ व ब्लेक की है जो प्राध्यात्मिक सत्ता पर विश्वास करते हैं और शैली uttracवादी हैं । फिर भी दोनों सर्वात्मवादी तत्त्व को सहज स्वीकार करते हैं ।" जैन धर्म प्रात्मा को ज्ञान-दर्शन मय मानकर सर्वात्मवाद की कल्पना करता है ।
(9) प्राचीन रहस्यवाद में साधक संसार, शरीर मादि नश्वर पदार्थों को जन्म-मरण का कारण मानकर उसे त्याज्य मानता है । पर आधुनिक रहस्यवाद में उसके प्रति सौन्दर्यमयी दृष्टिकोण है ।
(10) प्राचीन रहस्यभावना में वैयक्तिक स्वर अधिक है पर आधुनिक रहस्य - वाद सार्वभौमिकता को लिए हुए है ।
(11) प्राचीन रहस्यवादी साधना साम्प्रदायिक द्याधार पर प्रधिक होती रही पर आधुनिक रहस्यवाद में साम्प्रदायिकता का पुट अपेक्षाकृत बहुत कम है । (12) प्राचीन जैन किंवा जनेतर रहस्यवादी साधक भारतीय साधना-प्रकार से सम्बद्ध थे पर आधुनिक रहस्यवादी कवियों पर हीगल वर्डसवर्थ, ब्लेक, बर्नार्डशा, * श्रादि का प्रभाव माना जाता है । 2
इस प्रकार प्राचीन और आधुनिक रहस्यभावना किंवा रहस्यवाद में सम्बन्ध अवश्य है पर साधकों के दृष्टिकोण निश्चित ही भिन्न-भिन्न रहे हैं। प्राचीन साधकों के समान, प्रसाद, निराला, पन्त, महादेवी वर्मा श्रादि प्राधुनिक रहस्यवादी कवियों पर भी दर्शन विशेष की छाप दिखाई देती है । पर वे प्राचीन कवियों के समान साम्प्रदायिकता के रंग में उतने अधिक रंगे नहीं। इसका मुख्य करण यह था कि दोनों युगों के साधक अपने युग की परिस्थितियों से प्रभावित रहे हैं। इसलिए रहस्य भावना को सही अर्थ मे समझने के लिए हमें उसके विकासात्मक स्वरूप को समझना पड़ेगा । इस सन्दर्भ में मध्यकालीन हिन्दी जैन काव्य में अभिव्यक्त रहस्यभावना की उपेक्षा नहीं की जा सकती और न उसे साम्प्रदायिकता अथवा धार्मिकता के घेरे में बांधकर अनावश्यक कहा जा सकता है । हमारे प्रस्तुत अध्ययन से यह स्पष्ट हो जायेगा कि रहस्यभावना के विकास में मध्यकालीन हिन्दी जैन कवियों का विशेष योगदान रहा है ।
1. प्राधुनिक हिन्दी साहित्य की विचारधारा पर पाश्चात्य प्रभाव डॉ. हरीकृष्ण पुरोहित, पृ. 251.
2.
3.
वही, पृ. 241-277
विशेष दृष्टव्य - छायावाद और वैदिक दर्शन-डॉ. प्रेम प्रकाश रस्तोगी, आदर्श साहित्य प्रकाशन, दिल्ली, 1971,
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परिशिष्ट 1
कविवर द्यानतराय
यानतराव हिन्दी जैन साहित्य के मूर्धन्य कवि माने जाते हैं । वे अध्यात्मरसिक और परमतत्व के उपासक थे । उनका जन्म वि० सं० 1733 में भागरा में हुआ था । कवि के प्रमुख ग्रन्थों में धर्मविलास सं० 1780) और श्रागमविलास उल्लेखनीय हैं । धर्मविलास में कवि की लगभग समूची रचनाओं का संकलन किया गया है । इसमें 333 पद, पूजायें तथा अन्य विषयों से सम्बद्ध रचनायें मिलती हैं । ग्राम विलास का संकलन कवि की मृत्यु के बाद पं० जगतराय ने सं० 1784 में किया। इसमें 46 रचनायें मिलती हैं। इसके अनुसार धानतराय का निधन काल सं० 1783 कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी है । धर्मविलास में कवि ने सं० 1780 तक की जीवन की घटनाओं का संक्षिप्त प्राकलन किया है। इसे हम उनका श्रात्मचरित् कह सकते हैं जो बनारसीदास के अधेकथानक का अनुकरण करता प्रतीत होता है । इनके अतिरिक्त कवि की कुछ फुटकर रचनायें और पद भी उपलब्ध होते हैं । 333 पदों के अतिरिक्त लगभग 200 पद और होंगे। ये पद जयपुर, दिल्ली आदि स्थानों के शास्त्र भण्डारों में सुरक्षित हैं ।
J
हिन्दी सन्त अध्यात्म-साधना को संजोये हुए हैं। वे सहज-साधना द्वारा परमात्मपद की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहे हैं। उनके साहित्य में भक्ति, स्वसंवेद्यज्ञान और मत्कर्म का तथा सत्यम् शिवम् सुन्दरम् का सुन्दर समन्वय मिलता है जो आत्मचिन्तन से स्फुटित हुआ है । इस पथ का पथिक संत, संसार की क्षणभंगुरता, माया-मोह, बाह्याडम्बर की निरर्थकता, पुस्तकीय ज्ञान की व्यर्थता मन की एकाग्रता, चित्त शुद्धि, स्वसंवेद्य ज्ञान पर जोर, सद्गुरु-सत्संग की महिमा प्रपत्ति भक्ति, सहज साधना प्रादि विशेषनाम्रों से मंडित विचारधाराम्रों में डुबकियाँ लगाता रहता है। इन सभी विषयों पर वह गहन चिंतन करता हुआ परम साध्य की प्राप्ति में जुट जाता है ।
कवि द्यानतराय की जीवन-साधना इन्हीं विशेषताओं को प्राप्त करने में लगी रही । और उन्होंने जो कुछ भी लिखा, वह एक ओर उनका भक्ति प्रवाह है तो दूसरी भोर संत-साधना की प्रवृत्तियों की अभिव्यक्ति है । यही कारण है कि उनके साहित्य में भक्ति और रहस्य भावना का सुन्दर समन्वय हुआ है। यहाँ हम कवि की इन्हीं प्रवृत्तियों का संक्षिप्त विश्लेषण कर रहे हैं ।
arun afa सांसारिक विषय-वासना और उसकी प्रसारता एवं क्षणभंगुरता पर विविध प्रकार से चिन्तन करता है । चिन्तन करते समय वह सहजता पूर्वक भावुक हो जाता है । उस अवस्था में वह अपने को कभी दोष देता है तो कभी तीर्थंकरों को बीच में लाता है। कभी रागादिक पदार्थों की ओर निहारता है तो
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कमी तीर्घकरों से प्रार्थना, विक्ती और उलाहने की बात करता है। कभी पश्चात्ताप करता हुमा दिखाई देता है तो कभी सत्संगति के लिए प्रयत्नशील दिखता है। धानतराय को तो यह सारा संसार बिल्कुल मिथ्या दिखाई देता है । वे अनुभव करते हैं कि जिस देह को हमने अपना माना और जिसे हम सभी प्रकार के रसपाकों से पोषते रहे, वह कभी हमारे साथ नहीं चलता, तब अन्य पदार्थों की बात क्या सोचें ? सुख के मूल स्वरूप को तो देखा समझा ही नहीं। व्यर्थ में मोह करता है । प्रात्मतत्त्व को पाये बिना प्रसत्य के माध्यम से जीव द्रव्यार्जन करता, असत्य साधना करता, यमराज से भयभीत होता मैं और मेरा की रट लगाता संसार में घूमता फिरता है । इसलिए संसार की विनाशशीलता को देखते हुए वे संसारी जीवों को सम्बोधित करते हुए कहते हैं--
मिथ्या यह संसार है रे, झूठा यह संसार है रे ॥ जो देही वह रस सौं पोष, सो नहि संग चले रे, पोरन की तोहि कौन भरोसो, नाहक मोह करे रे ।। सुख की बातें बूझे नाहीं, दुख को सुग्व लेखें रे । मूढ़ी मांही माता डोले, साधौ नाल डरै रे ॥ झूठ कमाता झूठी खाता, झूठी जाप जपे रे । सच्चा सांई सूझे नाहीं, क्यों कर पार लगे रे ।। जम सौं डरता फूला फिरता, करता मैं मैं मेरे ।
द्यानत स्याना सोई जाना, जो जन ध्यान धरे रे ॥1 कबीर दादू नानक प्रादि हिन्दी सन्तों ने भी संसार की प्रसारता और क्षणभंगुरता का द्यानतराय से मिलता जुलता चित्रण किया है । सगुण भक्त कवि भी संसार चिन्तन में पीछे नहीं रहे । उन्होंने भी निर्गुण सन्तों का अनुकरण किया है।
संसारी जीव मिथ्यात्व के कारण ही कर्मों से बंधा रहता है वह माया के फंदे में फंसकर जन्म-मरण की प्रक्रिया लम्बी करता चला जाता है । बानतराय ऐसे मिथ्यात्वी की स्थिति देखकर पूछ उठते हैं कि हे प्रात्मन् यह मिथ्यात्व तुमने 1. हिन्दी पद संग्रह, 156 पृ. 130 2. ऐसा संसार है जैसा सेमरफूल ।
दस दिन के व्यवहार में झूठे रे मन भूल ॥ कबीर साखी संग्रह, पृ. 61 3. यह संसार सेंवल के फूल ज्यों तापर तू जिनि फूलै ॥ दादूवानी भाग-2
पृ. 14 माप घड़ी कोऊ नाहिं राखत घर ते देत निकार ।। संतवाणी संग्रह, भाग-2 पृ. 46 झूठा सुपना यह संसार। दौसत है विनसत नहीं हो बार ॥ हिन्दी पद संग्रह, पृ. 133
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कहाँ से प्राप्त किया। सारा संसार स्वार्थ की भोर निहारता है, पर तुम्हें स्वकल्याण रूप स्वार्थ नहीं रुचता । इस प्रपवित्र प्रचेतन देह में तुम कैसे मोहासत हो गये । अपना परम श्रतीन्द्रिय शाश्वत सुख छोड़कर पंचेन्द्रियों की विषयवासना में तन्मय हो रहे हो। तुम्हारा चैतन्य नाम जड़ क्यों हो गया और तुमने अनंत ज्ञानादिक गुणों से युक्त अपना नाम क्यों भुला दिया ? त्रिलोक का स्वतन्त्र राज्य छोड़कर इस परतन्त्र अवस्था को स्वीकारते हुए तुम्हें लब्जा नहीं श्राती ? मिथ्यात्व को दूर करने के बाद ही तुम कर्ममल से मुक्त हो सकोगे और परमात्मा कहला सकोगे। तभी तुम अनन्त सुख को प्राप्त कर मुक्ति प्राप्त कर सकोगे ।
"जीव ! तू मूढपना कित पायो ।
सब जग स्वारथ को चाहना है, स्वारथ तोहि न भायो ।
प्रशुचि समेत दृष्टि तन मांहो, कहा ज्ञान विरमायो । परम अतिन्द्री निज सुख हरि के, विषय रोग लपटाम्रो ॥
मिथ्यात्व को ही साधकों ने मोह-माया के रूप में चित्रित किया है। सगुण निर्गुण कवियों ने भी इसको इसी रूप में माना है । भूधरदास ने इसी को 'सुनि ठगनी माया ते सब जग ठग खाया' 12 कबीर ने इसी माया को छाया के समान बताया जो प्रयत्न करने पर भी ग्रहण नहीं की जा सकती, फिर भी जीव उसके पीछे दौड़ता रहता है ।
साधक कवि नरभव की दुर्लभता समझकर मिध्यात्व को दूर करने का . प्रयत्न करता करता है । जैन धर्म में मनुष्य जन्म प्रत्यन्त दुर्लभ माना गया है। इसीलिए हर प्रकार से इस जन्म को सार्थक बनाने का प्रयत्न किया जाता है । द्यानतराय ने "नाहि ऐसो जनम बारम्बार " कहकर यही बात कही है। उनके अनुसार यदि कोई नरभव को सफल नहीं बनाता, तो तजत ताहि गंवार" वाली कहावत उसके साथ चरितार्थ हो जायेगी । इसलिए उन्हें कहना पड़ा 'जानत क्यों नहि हे नर प्रातमज्ञानी' । ग्रात्म चेतन को
"अन्ध हाथ बटेर भाई,
1. अध्यात्म पदावली, पृ. 360
2. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 124
संत वाणी संग्रह, भाग-9, पृ. 57
3.
4. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 116
5.
वही, पृ. 115
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वाग्रत करते हुए पुनः वह कह उठता है कि संसार का हर पदार्थ क्षणभंगुर है और तू अविनाशी है
'तू अविनाशी प्रात्मा, विनासीक संसार ।' परन्तु माया-मोह के चक्कर में पड़कर तू स्वयं की शक्ति को भूल गया है । तेरी हर श्वासोच्छवास के साथ सोह-सोहं के भाव उठते हैं। यही तीनों लोकों का सार है । तुम्हें तो सोहं छोड़कर अजपा जाप में लग जाना चाहिए। प्रात्मा को अविनाशी और विशुद्ध बताकर उसे अनन्तचतुष्टय का धनी बताया । प्रात्मा की इसी अवस्था को परमात्मा कहा गया है ।
___ संत कबीर ने भी जीव और ब्रह्म को पृथक् नहीं माना। अविद्या के कारण ही वह अपने आप को ब्रह्म से पृथक् मानता है। उम अविद्या और माया के दूर होने पर जीव और ब्रह्म अद्वैत हो जाते है-"सब घटि अन्तरि तू ही व्यापक, घट सरूप सोई । द्यानतराय के समान ही कबीर ने उसे आत्म ज्ञान की प्राप्ति कराने वाला माना है।
आत्मचिन्तन करने के बाद कवि ने भेदविज्ञान की बात कही । भेद विज्ञान का तात्पर्य है स्व-पर का विवेक । सम्गक्दृष्टि ही भेदविज्ञानी होता है । मंसारसागर से पार होने के लिए यह एक प्रावश्यक तथ्य है। द्यानतराय का विवेक जाग्रत हो जाता है और प्रात्मानुभूति पूर्वक चिन्तन करते हुए कह उठते हैं कि अब उन्हें चर्म-चक्षुषों की भी आवश्यकता नहीं। अब तो मात्र आत्मा की अनत गुण शक्ति की प्रोर हमारा ध्यान है। सभी वैभाविक-भाव नष्ट हो चुके हैं और प्रात्मानुभव करके संसार-दुःख से छूटे जा रहे हैं ।
"हम लागे प्रातम राम सौं। बिनासीक पुद्गल की छाया, कौन रमै धन-धाम सौं ॥ समता-सुख घट में परगाट्यो, कोन काज है काम सौ । दुविधा भाव तलांजलि दीनों, मेल भयो निज श्याम सौ।
भेद ज्ञान करि निज-पर देख्यौ, कौन विलोके चाम सौं ।' भेदविज्ञान पाने के लिए वीतरागी सद्गुरु की आवश्यकता होती है । हर धर्म में सद्गुरु का विशेष स्थान है । साधना मे सद्गुरु का वही स्थान है जो
2. धर्म विलास, पृ. 165 2. कबीर ग्रन्थावली, पृ. 105 3. वही, पृ. 89 4. अध्यात्म पदावली, 47, पृ. 358
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परिहन्त का है। जैन-साधकों ने पंच परमेष्ठियों को सद्गुरु मानकर उसकी उपासना, भक्ति और स्तुति की है। जैन दर्शन में सद्गुरु को प्राप्त मौर अवि संवादी माना है। द्यानतरराय को गुरु के समान और दूसरा कोई दाता दिखाई नहीं देता। उनके अनुसार गुरु उस अन्धकार को नष्ट कर देता है जिसे सूर्य भी नष्ट नहीं कर पाता । मेघ के समान सभी पर समान भाव से निस्वार्थ होकर वह कृपाजल बरसाता है, नरक तिर्यत्व आदि गतियों से मुक्तकर जीवों को स्वर्गमोक्ष में पहुंचाता है। अतः त्रिभुवन मे दीपक के समान प्रकाश करने वाला गुरु ही है। वह ससार संसार से पार लगाने वाला जहाज है । विशुद्ध-मन से उनके पद-पकज का स्मरण करना चाहिए।
गुरु समान दाता नही कोई । प्रादि । सत साहित्य मे भी कबीर, दादू, नानक, सुन्दर दास आदि ने सद्गुरु मौर सत्सग के महत्व को जैन कवियों की ही भाति शब्दो के कुछ हेर-फेर से स्वीकार किया है । द्यानतराय कबीर के समान उन्हे कृतकृत्य मानते हैं। जिन्हें सत्संगति प्राप्त हो गई हे-“कर कर सगत, सगत रे भाई ।
भेदविज्ञान की प्राप्ति के लिए सद्गुरु मार्गदर्शन करता है। उसकी प्राप्ति के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यगान और सम्यक्चारित्र का समन्वित रूप-रत्न त्रय माना गया है। भदविज्ञान को ही सम्यग्ज्ञान कहा गया है । अन्तरंग मौर बहिरग सभी प्रकार के परिग्रहा से दूर रहकर परिषह सहते हुए तप करने से परम-पद प्राप्त होता है। साधक कवि द्यानतराय प्रात्मानुभव करने पर कहने लगता है "हम लागे पातमराम सी। उसकी प्रात्मा में समता सुख प्रकट हो जाता है, दुविधाभाव नष्ट हो जाता है और भेद विज्ञान के द्वारा स्व-पर का विवेक जाग्रत हो जाता है इसलिए द्यानतराय कहने लगते है कि मातम अनुभव करना रे भाई ।' कवि यहा प्रात्मानुभूति प्रधान हो जाता है मौर कह उठता है "मोह कब ऐसा दिन प्राय है" जब भेदविज्ञान हो जायेगा।
संत साहित्य में भी स्वानुभूति को महत्व दिया गया है कबीर मे "राम रतन पाया रे करम विचारा. नंना नैन अगोचरी, प्राप पिछाने पाप प्राप
1. धानत पद संग्रह, पृ. 10 2. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 137 3. हिन्दी पद संग्रह, द्यानतराय, पृ० 109-141 4. हिन्दी पद संग्रह, द्यानतराय, पृ. 109-141 5. कबीर ग्रन्थावली, पृ. 241 6. वही पृ. 318
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बस चरणों के माध्यम से अनुभव की प्रावश्यकता को स्पष्ट किया है। दादू ने भी इसी प्रकार से “सो. हम देख्या नेन भरि, सुन्दर सहज स्वरूप" के रूप में अनुभव किया।
स्वानुभूति के संदर्भ में मन एकाग्र किया जाता है और इसके लिए सम नियमों का पालन करना आवश्यक है। योगी ही धर्मध्यान और शुक्लध्यान को प्राप्त कर पाता है। यहीं समभाव और समरसता की अनुभूति होती है । थागतराय ने इस अनुभूति को गूगे का गुड़ माना है । इस सहज साधम में. मजपा जाप, नाम स्मरण को भी महत्व दिया गया है। व्यवहार नय की दृष्टि से जाप करना अनुचित नहीं है, निश्चय नय की दृष्टि से उसे बाह्म किया माचा है। तभी धानतराय ऐसे सुमरन को महत्व देते है जिससे
ऐसौ सुमरन करिये रे भाई।
पवन धंमै मन कितहु न जाइ ।। परमेसुर सौं साची रहो।
लोक रंचगा भय तजि दीजै। यम अरु नियम दोउ विधि धारी।
प्रासन प्राणायाम समारो ।। प्रत्याहार धारना की
ध्यान समाधि महारस पीज ॥ उसी प्रकार अनहद नाद के विषय में लिखते हैं
अनहद सबद सदा सुन रे ।।
आप ही जाने और न जाने, कान बिना सुनिये धनु रे ॥
___ भमर गुज सम होत निरन्तर, ता अंतर गति चितवन रे ।।
इसीलिए धानतराय ने सोहं को तीन लोक का सार कहा है । जिन साधकों के श्वासोच्छवास के साथ सदैव ही "सोहं सोहं की ध्वनि होती रहती है और जो सोहं के अर्थ को समझकर, भजपा जाप की साधना करते हैं, श्रेष्ठ है--
1. दादूदयाल की बानी, भाग-1 परचा को मंग, 97,98,109 2. चानतबिलास, कलकत्ता 3. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 119 4. बही, -118 पृ. 119-20
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सोहं सोहं नित, सांस उसास मझार । ताको प्ररथ विचारिये, तीन लोक में सार ............
जसो तसो पार, पाप निह तजि सोहं । अजपा जाप संभार, सार सुख सोहं सोहं ॥
आनन्दघन का भी यही मत है कि जो साधक माशाओं को मारकर अपने मन्तः करण में अजपा जाप को जपते हैं वे चेतनमूर्ति निरंजन का साक्षात्कार करते हैं। कबीर मादि सतों ने भी सहज-साधना, शब्द सुरति और शब्द ब्रह्म की उपासना की। ध्यान के लिए अजपा जाप और नाम जप को भी स्वीकार किया है। सहज समाधि को ही सर्वोपरि स्वीकार किया है।
साधक कवि को परमात्मपद पाने के लिए योग साधना का मार्ग जब दुर्गम प्रतीत होता है तो वह प्रपत्ति (भक्ति) का सहारा लेता है । रहस्य साधकों के लिए यह मार्ग अधिक सुगम है इसलिए सर्व प्रथम वह इसी मार्ग का भवलम्बन लेकर क्रमशः रहस्य भावना की चरम सीमा पर पहुंचता है। रहस्य भावना की भूमिका चार प्रमुख तत्वो से निर्मित होती है-मास्तिकता, प्रेम और भावना, गुरु की प्रधानता और सहज मार्ग । जन साधको की मास्तिकता पर सन्देह की आवश्यकता नहीं। उन्होने तीर्थकरो के सगुण और निर्गुण दोनों रूपों के प्रति अपनी अनन्य भक्ति भावना प्रदर्शित की है। द्यानतराय की भगवद् प्रेम भावना उन्हे प्रपत्त भक्त बनाकर प्रपत्ति के मार्ग को प्रशस्त करती है।
प्रपत्ति का अर्थ है अनन्य शरणागत होने अथवा प्रात्मसर्पण करने की
भावना। नवधाभक्ति का मूल उत्स भी प्रपत्ति है। भागवत पुराण में नवधा. भक्ति के 9 लक्षण है-श्रवण, कीर्तन, स्मरण , पादसेवन (शरण), अर्चना, वंदना, दास्यभाव. सख्यभाव और आत्म निवेदन । कविवर बनारसीदास ने इनमें कुछ मन्तर किया है। पाचरात्र लक्ष्मी संहिता में प्रपति की षडविधायें दी गई है
1. धर्मविलास, पृ. 65 2. आनन्दधन बहोत्तरी, पृ. 359 3. अनहद शब्द उठ झनकार, तहं प्रभु बैठे समरथ सार । कबीर प्रन्थावली
पृ.301 4. संतो सहज समाधि भली । कबीर वाणी, पृ. 262 5. श्रवन, कीरतन, चितवन, सेवन वन्दन ध्यान । लघुता समता एकता नीषा भक्ति प्रमान ।।
नाटक समयसार, मोक्षवार, 8, 1.218 -
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अनुकूल सकलन, प्रातिकूल्य का विसर्जन, संरक्षण, एतद्रूप विश्वास, गोप्तृत्वं रूप में वरण, भात्म निक्षेप और कार्पण्यभाव 12 प्रपत्ति भाव से प्रेरित होकर भक्त के मन में प्राराध्य के प्रति श्रद्धा धौर प्रेम भावना का अतिरेक होता है । यानतराय अपने अंगों की सार्थकता को तभी स्वीकार करते हैं जबकि वे धाराष्य की मोर झुके रहें
रेजिय जनम लाहो लेह ।
चरन ते जिन भवन पहुंचे, दान दें तर जेह ॥ उर सोई जा में दया है, मरू रूधिर को गेह ।
जीभ सो जिन नाम गावं, सांच सौ करे नेह || भांख ते जिनराज देखे और प्रांख खेह |
श्रवन ते जिन वचन सुनि शुभ तप तपं सो देह ॥
कविवर द्यानतराय मे प्रपत्ति की लगभग सभी विशेषताये मिलती हैं । भक्त कवि ने अपने आराध्य का गुण कीर्तन करके अपनी भक्ति प्रकट की है। वह प्राराध्य में असीम गुणो को देखता है पर उन्हे अभिव्यक्त करने में असमर्थ होने के कारण कह उठता है
कवि को पार्श्वनाथ दुःखहर्ता और सुखकर्ता दिखाई देते हैं । वे उन्हें विघ्नविनाशक, निर्धनो के लिए द्रव्यदाता, पुत्रहीनो को पुत्रदाता मोर महासकटों के निवारक बताते हैं । कवि की भक्ति से भरा पार्श्वनाथ की महिमा का गान दृष्टव्य है
1.
प्रभु मैं किहि विधि श्रुति करौ तेरी ।
गणधर कहत पार नह पाये, कहा बुद्धि है मेरी ॥
शक जनम भरि सहस जीभ र्धारि तुम जस होत न पूरा । एक जीभ कैसे गुण गावे उलू कहे किमि सूरा || चमर छत्र सिंहासन बरनों, ये गुरण तुम ते न्यारे ।
तुम गुरण कहन वचन बल नाहि, नैन गिनै किमि तारे ॥3
2.
3.
दुखी दुःखहर्ता सुखी सुक्खकर्ता । सदा सेवको को महानन्द भर्ता ॥
प्रानुकूलस्य संकल्पः प्रातिकूलस्य वर्जनम् । रक्षिष्यतीति विश्वासो, गोप्तृत्व वरणं तथा । ग्रात्मनिक्षेपकार्पण्ये षड्विधा शरणागतिः ॥
खानतपद संग्रह, 9 पृ. 4, कलकत्ता
ग्रानत पद संग्रह. पु. 45
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हरे यक्ष राक्षस भूतं पिशाचं । विष डांकिनी विघ्न के मय प्रवाचं ।। दरिद्रीन को द्रव्य के दान दाने । मपुत्रीन कों तू भले पुत्र कीने ॥ महासंकटों से निकार विधाता । सबै संपदा सर्व को देहि दाता ।।
नामस्मरण प्रपत्ति का एक अन्यतम अंग है जिसके माध्यम से भक्त अपने इष्ट के गुणों का अनुकरण करना चाहता है । द्यानतराय प्रभु के नामस्मरण के लिए मन को सचेत करते हैं जो अपजाल को नष्ट करने में कारण होता है
रे मन भज भज दीनदयाल । जाके नाम लेत इक खिन में, कटं कोटि प्रघजाल ।। पार ब्रह्म परमेश्वर स्वामी, देखत होत निकाल ॥ सुमरन करत परम सुख पावत, सेवत भाजै काल ।। इन्द्र फरिणन्द्र चक्रधर गाव, जाको नाम रसाल । जाके नाम ज्ञान प्रकास, नारी मिथ्याजाल । सोई नाम जपो नित द्यानत, छांडि विष विकराल ॥2
प्रमु का नामस्मरण भक्त तब तक करता रहता है, जब तक वह तन्मय नहीं हो जाता । जैनाचार्यों ने स्मरण और ध्यान को पर्यायवाची कहा है। स्मरण पहले तो रुक-रुक कर चलता है, फिर शनैः शनैः एकांतता प्राती जाती है और वह ध्यान का रूप धारण कर लेता है । स्मरण में जितनी अधिक तल्लीनता बढ़ती जायेगी वह उतना ही तद्रप होता जायेगा। इससे सांसारिक विभूतियों की प्राप्ति होनी आवश्यक है किन्तु हिन्दी के जैन कवियों ने प्राध्यात्मिक सुख के लिए ही बल दिया है। विशेषरूप से ध्यानवाची स्मरण जैन कवियों की अपनी विशेषता है । द्यानतराय अरहन्तदेव का स्मरण करने के लिए प्रेरित करते हैं। वे ख्यातिलाभ पूजादि छोड़कर प्रभु के निकटतर पहुंचना चाहते हैं
भरहंत सुमरि मन वावरे ॥ ख्याति लाभ पूजा तजि भाई । अन्तर प्रभु ली जाव रे ॥
1. वृहज्जिनवाणी संग्रह, कलकत्ता से प्रकाशित 2. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 125-26 3. वही, पृ. 139
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।
कवि भाराध्य का का पश्चात्ताप करता है afe लीन हो जाता है निज घर आये || पर घर ताप के साथ भक्ति के वश है और कह देते हैं कि आप संसार में भटक रहा हूँ । तुम्हारा नाम मिलता नही । और कुछ नही तो कम से कम राग द्वेष
दर्शन कर भक्तिवशात् उनके समक्ष अपने पूर्वकृत कर्मों जिससे उसका मन हल्का होकर भक्तिभाव में और वे पश्चात्ताप करते हुए कह उठते हैं- 'हम तो कबहू न फिरत बहुत दिन बीते नांव अनेक घराये' । पश्चाउपालम्भ
को
स्वयं तो
मुक्ति में जाकर बैठ
हमेशा मै जपता हूं
दीजिए-
आराध्य
1.
2.
3.
देते हुए कुछ
मुखर हो उठते
गये पर मैं अभी भी
तुम प्रभु कहियत दीन दवाल ।
श्रापन जाय मुकति में बैठे, हम जु रुलत जग जाल ।।
तुमरी नाम जपं हम नीके, तुम तो हमको कछु देत नहि,
बुरे भले हम भगत और कछु नहि यह हम सौ चूक परो सौ द्यानत एक बार प्रभु एक अन्यत्र स्थान पर कवि का गये व्यक्तियों का नाम गिनाता है और मेरे लिए प्राप इतना बिलम्ब क्यों कर रहे हैं
पर मुझे उससे कुछ को तो दूर कर ही
वही, पृ. 109
हिन्दी पद संग्रह, पृ. 114-15
धर्मविलास, 54 वा पच
इस प्रकार प्रपत्त भावना के सहारे साधक अपने श्राराध्य परमात्मा के सानिध्य में पहुंचकर तत्तद्गुणों को स्वात्मा में उतारने का प्रयत्न करता है । इसमें श्रद्धा और प्रेम की भावना का प्रतिरेक होने के फलस्वरूप साधक अपने
मनवच तीनो काल । हमरो कौन हवाल ॥ तिहारे जानत हो हम चाल । चाहत हैं, राग द्वेष को टाल ॥ वस्सो, तुम तो कृपा विशाल । जगते, हमको लेहु निकाल || 2 उपालम्भ देखिये जिसमें वह उद्धार किये फिर अपने इष्ट को उलाहना देता है कि
मेरी बेर कहा ढील करी जी ।
सूली सौ सिहासन कीना, सेठ सुदर्शन विपति हरी जी ॥ सीता सती प्रगति मे बैठी पावक नीर करी सगरी जी । वारिषेण पे खडग चलायो, फूल माल कीनी सुथरी री । द्यात मे कछु जांचत नाहीं, कर वैराग्य दशा हमरी जी ॥ ३
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प्राराध्य के रंग में रंगने लगता है। तद्प हो जाने पर उसका दुविधाभाव समाप्त हो जाता है और समरस भाव का प्रादुर्भाव हो जाता है । यहीं सांसारिक दुःखों से अस्त-जीव शाश्वत की प्राप्ति कर लेता है।
निर्गुण सन्तों ने भी प्रपत्ति का प्रांचाल नहीं छोड़ा । वे भी 'हरि न मिल बिन हिरदै सूध जैसा अनुभव करते हैं और दृढ़ विश्वास के साथ कहते हैं'अब मोही राम भरोसों-तेरा, और कौन का करौ निहोरा' 12 कबीर और तुलसी आदि सगुण भक्तों के समान द्यानतराय को भगवान मे पूर्ण विश्वास है'अब हम नेमि जी को शरण पोर ठौर न मन लगता है, छाडि प्रभ के शरन' इस प्रकार प्रपत्त भावना मध्यकालीन हिन्दी जैन और जेनेतर काव्य मे समान रूप से प्रवाहित होती रही है । उपालम्भ, पश्चात्ताप, लघुता, समता और एकता जैसे तत्व उनकी भाव भक्ति ये यथावत् उपलब्ध होते है।
मध्यकाल मे सहज योगसाधना की प्रवृत्ति सतो मे देखने को मिलती है। इस प्रवृत्ति को सूत्र मानकर द्यानतराय न भी आत्मज्ञान को प्रमुखता दी। उनको उज्जवल दर्पण के समान निरजन आत्मा का उद्योग दिखाई देता है। वही निविकल्प शुद्धात्मा चिदानन्दरूप परमात्मा है जो सहज-साधना के द्वारा प्राप्त हुमा है इसीलिए कवि कह उठता हे "देखो भाई प्रातमराम बिराजै ।। साधक अवस्था के प्राप्त करने के बाद साधक मे मन में दृढ़ता मा जाती हे और वह कह उठता है
प्रब हम अमर भय न मरेगे। माध्यात्मिक साधना करने वाले जैन जनेतर सतो एवं कवियों ने दाम्पत्यमूलक रति भाव का अवलम्बन परमात्मा का साक्षात्कार करने के लिए लिया है। इसी सदर्भ में माध्यात्मिक विवाहो और होलियो की भी सर्जना हुई है। द्यानतराय ने भी ऐसी ही प्राध्यात्मिक होलियों का सरस चित्रण प्रस्तुत किया है । वे सहज बसन्त आने पर होली खेलने का आह्वान करते हैं। दो दल एक दूसरे के सामने खड़े है । एक दल में बुद्धि, दया, भमारूप नारी वर्ग खड़ा हुमा है और दूसरे दल मे रत्नत्रयादि गुणों से सजा प्रात्मा पुरुष वर्ग है । ज्ञान, ध्यान
1. कबीर ग्रन्थावली, पृ. 214 2. वही, पृ. 124 3. हिन्दी पद संग्रह, 140 4. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 114 5. वही, पृ. 114
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सपहफ साल मादि वाद्य बजते हैं, धनघोर अनहद नाद होता है, धर्म रूपी लाल वर्ण का गुलाल उड़ता है, समता का रंग घोल लिया जाता हैं, प्रश्नोसर की तरह पिचकारियां चलती हैं। एक अोर से प्रश्न होता है कि तुम किसकी नारी हो, तो नसरी मोर से प्रश्न होता है, तुम किसके लड़के हो । बाद में होली के रूप में अष्टकर्मरूप ईधन को अनुभवरूप अग्नि में जला देते हैं और फलतः पारों मोर शान्ति हो जाती है । इसी शिवानन्द को प्राप्त करने के लिए कवि ने प्रेरित किया है
प्रायो सहज बसन्त, खेलै सब होरी होरा ॥ इत बुद्धि दया छिपा बहुगढी, इत जिय रतन सजै गुन जौरा ।। ज्ञान ध्यान डफ ताल बजत हैं, अनहद शब्द होत घन धोरा ॥ धरम सुराग गुलाल उड़त है,
समता रग दुह मे घोरा ॥....... इसी प्रकार चेतन से समतारूप प्राणप्रिया के साथ “छिमा बसन्त" में होली खेलने का आग्रह करते है। प्रेम के पानी में करुणा की केसर घोलकर ज्ञान
शान की पिचकारी से होली खेलते है। उस समय गुरु के वचन की मृदंग है, निश्चय व्यवहार नय ही ताल है, सयम ही इत्र है, विमल व्रत ही चोला है, भाव ही गुलाल है जिसे अपनी झोरी में भर लेते हैं, धरम ही मिठाई है, तप ही मेवा है. समरस से मानन्दित होकर दोनो होली खेलते हैं। ऐसे ही चेतन और समता की जोड़ी चिरकाल तक बनी रहे, यह भावना सुमति प्रपनी सखियो से अभिव्यक्त करती है
चेतन खेलौ होरी ।। सत्ता भूमि छिपा बसन्त में, समता-पान प्रिया सग गौरी ॥ मन को मार प्रेम को पानी, तामें करूना केसर घोरी। ज्ञान ध्यान पिचकारी भरि भरि, आप मे छार होरा होरी ।। गुरु के वचन मृदंग बजत हैं, नय दोनों डफ ताल ठकोरी ।। संजय प्रतर विमल व्रत चौला भाव गुलाल भर भर झोरी ।। घरम मिठाई तप बहुमेवा, समरस मानन्द अमल कटौरी ।।
धानत सुमति सह सखियन सों, चिरजीवो यह जुग जुग जोरी ।।
सन्तों ने परमात्मा के साथ भावनात्मक मिलन करने के लिए माध्यात्मिक विवाह किया, मंगलाचार भी हुए और उसके वियोग से सन्तप्त भी हुए। बनारसीदास ने भी परमात्मा की स्थिति में पहुंचाने के लिए आध्यात्मिक विवाह, वियोग
1. बही, पृ. 119 2. हिन्दी पदसंग्रह, पृ. 121
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और समरस होकर परमात्मा के रंग में रंग जाने के लिए होली खेली। संत कवि कबीर प्रादि अपनी चुनरियों को साहब से रंगवाते रहे और उसे मोड़कर परमात्मा के रंग में समरस हो गये । ये निर्गुणियां संत प्राध्यात्मिकता, भद्वैतवाद और पवित्रता की सीमा में घिरे हैं। उनकी साधना में विचार और प्रेम का सुन्दर समन्वय हुआ है तथा ब्रह्म जिज्ञासा से वह अनुप्राणित है । कवि द्यानतराय ने भी इसी परम्परा का अवलम्बन लिया है। निर्गुण और सगुण दोनों परम्पराम्रों को उन्होंने स्वीकारा है ।
समूचा हिन्दी जैन साहित्य शान्ता भक्ति से परिपूरित है उसका हर कवि एक ओर परमात्मा का भक्त है तो दूसरी ओर प्रात्मकल्याण करने के लिए तत्पर भी दिखाई देता है, इस दौर में वे अपनी पूर्व परम्परा का अनुकरण करते हुए संतों की श्रेणी में बैठ जाते हैं कविवर द्यानतराय एक उच्च कोटि के साधक भक्त कवि थे । उनका साहित्य संत कवियों की विचारधारा से मेल खाता है । यह बात अवश्य है कि यानतराय के साहित्य में जैनदर्शन के तत्त्व घुले हुए हैं जबकि सन्त भ्रपरोक्षरूप से उन तत्त्वों को स्वीकारते हुए नजर आते हैं । द्यानतराय, योगीन्दु, मुनि रामसिंह बनारसीदास, श्रानन्दघन, भैया भगवतीदास प्रादि जैसे जैन कवियों की परम्परा लिए हैं । सन्त कवि भी परम्परा से प्रभावित रहे हैं। इस प्रकार जैन और जैनेतर सन्त अपने-अपने दर्शनों की बात करते हुए प्रथक्-प्रथक् दिखाई देते हैं । परन्तु वस्तुतः उनकी विचारधारा के मूल तत्त्व उतने भिन्न नहीं । यानतराय जैसे जैन कवि ने ऐसी ही परम्परा मे घुल-मिलकर अपनी प्रतिज्ञा और साहित्य से सन्त साहित्य को प्रशंसनीय योगदान दिया है ।
आश्चर्य की बात है कि ऐसे प्रतिभा सम्पन्न कवि का उल्लेख मात्र इसलिए नहीं किया गया कि वह जैन था । अन्यथा श्राज उसे अन्य नेतर कवियों जैसा स्थान मिल गया होता। रीतिकाल के भोग-विलास और श्रृंगार भरे वातावरण में अपनी कलम को अध्यात्मनिरूपण और अहेतुक भक्ति की प्रोर मोड़ना साधारण प्रतिभा का कार्य नही था । भौतिकता की चकाचौंध में व्यक्ति मन्धा हो गया था अतः उसे सुमार्ग पर लाने के लिए उन्होंने संसार की प्रसारता सिद्ध करते हुए संसारी जीव को अपना कल्याण करने के लिए प्रेरित किया। उनका साहित्य भवसागर से पार उतरने के लिए प्रेरणा स्रोत है । सन्तों ने भी दूषित बाह्य क्रियाकांडों के faरुद्ध आवाज उठाकर संसारी जीव को श्रात्मकल्याण करने की सीख दी थी। इस प्रकार दोनों की वैचारिक विशेषतायें परम्परा से मेल खाती हैं । अतः हिन्दी साहित्य में द्यानतराय जैसे जैन कवियों के योगदान का यथोचित मूल्यांकन करना नितान्त मावश्यक है। इसके बिना हिन्दी साहित्य का इतिहास प्रधूरा ही कहलायेगा 1
1. कबीर, पृ. 352-3, धर्मदास, सन्तवाणी संग्रह, भाग 2, पृ. 37, गुलाबसाहब की बानी, पृ. 22.
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पूसरे महा अवसागर भट्टारक महीचन्द्र के शिष्य थे। उनका काल लगभग 17 'वी शती का पूर्षि निश्चित किया जा सकता है । उनके सीता हरण; चतुविशति बिनस्तवन, जिनकृशल सूरि चौपई प्रादि अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हैं। सीताहरण अन्य को पायोपांत पड़ने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि कवि ने यही विमल सूरि की परम्परा का अनुसरण किया है। काव्य को शायद मनोरंजन बनाने की दृष्टि से इधर-उधर के छोटे पाख्यानों को भी सम्मिलित कर दिया है। ढाल, दोहा, त्रोटक, चौपाई प्रादि छन्दों का प्रयोग किया है । हर अधिकार में छन्दों की विविधता है काव्यात्मक दृष्टि से इसमें लगभग सभी रसों का प्राचुर्य है । कवि की काव्य कुशलता शृंगार, वीर, शांत, प्रभुत, करुण आदि रसों के माध्यम से अभिव्यञ्जित हुई है । बीच-बीच में कवि ने अनेक प्रचलित संस्कृत श्लोकों को भी उद्धृत किया है। भाषाविज्ञान की दृष्टि से इस अन्य का अधिक महत्व है 'फोकट' जैसे शब्दों का प्रयोग आकर्षक है । भाषा में जहां राजस्थानी, मराठी, और गुजराती का प्रभाव है वही बुन्देलखण्डी बोली से भी कवि प्रभावित जान पडता है । मराठी और गुजराती की विभक्तियों का तो कवि ने अत्यन्त प्रयोग किया है । ऐसा लगता है कि ब्रह्म जयसागर ने यह कृति ऐसे स्थान पर लिखी है जहा पर उन्हें चारों भाषाओं से मिश्रित भाषा का रूप मिला हो। भाषाविज्ञान की दृष्टि से इसका प्रकाशन उपयोगी जान पड़ता है । भाषा विज्ञान के अतिरिक्त मूल-कथा के पोषण के लिए प्रयुक्त विभिन्न पाख्यानों कायालेखन भी इसकी एक अन्यतम विशेषता है ।
परिशष्ट 2
-
अध्ययनगत मध्यकालीन कतिपय हिन्वी जैन कवि 1. मचलकीति
2. अजराज पाटणी अभयचन्द्र
4. अभयकुशल 5. अभयनन्दि
6. प्रानन्दधन महात्मा 7. ईश्वरसूरि
8. उदयराज जती १. कनककीर्ति
10. कनककुशल 11. कल्याणकीर्ति
12. काशीराम 13. किशनसिंह
14. कुसुचन्द्र 15. कुंवरसिंह
16. कुखलजाभ 17. कुष्णपास
18. केशव 19. शांतिरंग गणि
20. खड्मसेन 21. खुशालचन्द्र काला 22. खेत 23. गणि महानन्द
24. गुण सागर
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.
25. गुख कीति 27. मानकीति 29. चतरूमल 31. चन्द्रकीति 33. जगतकीर्ति 35. जगजीवन 37. जयकीर्ति 39. जयलाल मुनि 41. जिनचन्द्र 43. जिनरंगसूरि 45. जिनसेन 47. जीवंधर 49. टीकम 51. त्रिभुवन कीति 53. दामो 55. दिलाराम 57. देवकुशल 59. देवब्रह्म 61. दौलतराय 63. धर्मरुचि 65. नन्दलाल 67. नवलराम 69 निहालचन्द 71. पलिल्ल 73. ब्रह्ममजित 75. ब्रह्म गणेश 77, ब्रह्म गुलाल 79. ब्रह्म जिनदास 81. ब्रह्मरायमल्ल 83. बस्तराम शाह 85. बालबन्द 87. दूबराज 89. चन्द्रसेन 91. भाऊ 93. भूधरदास
26. मान कीति 28. शानभूषण 30. चरित्रसेन मुनि 32. छील 34. जगतराम 36. पं. जयचन्द 38. जयधर्म 40. जयसागर उपाध्याय 42. जिनदास पांडे 44. जिनसमुद्रसूरि 46. जिन हर्ष 48. जोधराज गोदीका 50. ठकुरसी 52. त्रिभुवनचन्द्र 54. दामोदर 56. दीपचन्द 58. देवचन्द्र 60. देवीदास 62. धानतराय 64. धर्मवर्धन 66. नरेन्द्र कीति 68. नाहर जटमल 70. पद्मनन्दि 72. प्रभाचन्द्र 74. ब्रह्म कपूरचन्द 76. ब्रह्म जयराज 78. ब्रह्म जयसागर 80. ब्रह्मधर्मसार 82. ब्रह्मयशोषर 84. बनारसीदास 86. बुलाकीदास 88. भगवतीदास 90. भवानीदास 92. भुवनकीति 94. भैया भगवतीबाट
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विद्धरण
,95. माराम 97. मतिशेखर 99. महीचन्द्र भट्टारक 101, मानसिंह मान 103. मेरु नन्दन उपाध्याय 105. मंगतराय 107. यशोविजय 109. रत्नकीति 111. राजचन्द्र 113. राजशेखर सूरि 115. रायचन्द्र 117. रूपचन्द्र पांडे 119. लालचन्द 121. लावण्य समय 123. वादिचन्द 125.
विश्वभूषण 127. 129. विनयप्रभ उपाध्याय 131.
विनय समुद्र 133.
विनोदीलाल 135. विद्यासागर 137. वीरचन्द्र 139. संवेगसुन्दर 141. सकलकीति (द्वितीय) 143. सधारू 145 साधुकीर्ति 147. सुन्दरसूरि 349. सुमतिसागर 151. सोमकीति 153. शंकरदास
सुभचन्द्र (द्वितीय) 157. शिरोमरिणदास 159. हर्षकीति 161. हीरानन्द मुकीम 163. हीरानन्दसरि 165. 167. हेमसागर 159. श्री पद्मतिलक
98. महनदि 100. मानकवि 102. मेवराज 104. मोहनवास और 106. यशोधर 108. रलचन्द (प्रथम) 110. रत्नचन्द (द्वितीय) 112. राजमल पांडे 114. रामचन्द्र 116. रूपचन्द 118. लक्ष्मीबल्लभ 120. लालचन्दलब्धोदय 122. लोहट J24. विजयकीति 126. विजयकीर्ति 178. विनयचन्द मुनि 130. विनय विजय 132. विनय सागर 134. विद्याभूषण 136. विहारीदास 138. संयमसागर 140. सकलकीर्ति (प्रथम) 112. सकलभूषण 144. समयसुन्दर 146. सुन्दरदास 148. सुमतिकीर्ति 150. सुरेन्द्रकीति 152. सोमसुन्दर सूरि 154. शुभचन्द्र (प्रथम 156. शालिवाहन 158. सुभचन्द्र 160. हीरकलश 162. हीराचन्द पं. 14. हेमविजय 166. हेमराज गोदीका 168. हरिचन्द
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परिशिष्ट 3
.
-
ANDRAwwam
सहायक पन्यों की सूची (क) संस्कृत :
1. अध्यात्म रहस्य-पं. माशाधर 2. ऋग्वेद-श्रीपाद सातवलेकर, प्रौन्धनगर, 1940 3. कठोपनिषद्-गीता प्रेस, गोरखपुर 4. छान्दोग्योपनिषद्-गीता प्रेस, गोरखपुर 5. तत्वार्थ सूत्र-मथुरा, वी. नि. सं. 2477 6. पुरुषार्थ सिद्धयुपाय-अमृतचन्द्रसूरि 7. भगवत् गीता-गीता प्रेस, गोरखपुर 8. पाणिनिसूत्र-वाराणसी १. समाधितन्त्र-श्री पूज्यपाव, वीर सेवा मंदिर, सरसावा, सहारनपुर
प्रथम संस्करण, वि. सं. 1996. 18. योगशास्त्र- एशियाटिक सोसाइटी, गंगाल ' 11. श्वेताश्वतरोपनिषद्-गीता प्रेस, गोरखपुर
12. श्रीमद्भागवत गीता प्रेस, गोरखपुर (ब) पालि-प्राकृत अपभ्रंश :
1. अष्टपार-सं. पं. पन्नालाल जैन, महावीरी . . 2. थेरी बाबा-सं. जगदीश काश्यप, 1956
3. सम्बयन सूत्र-सकता IP, . . :
गाल कलामा विद्या प्रभावा परिषद, पटना-3
प्रथम संस्करण, लि , 2014 ..... 5. परिन्दु-रिसरि, सार्वजनिक पुस्तकालय सद, 1951 6. ठाणांगलाहमवाबाद, 1931.. :. :
Page #331
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306
7.
8.
9. पाहुड़ दोहा - ( मुनि रामसिंह) - डॉ. हीरालाल जैन, कारंजा, 1933 10. प्रणयसार - बम्बई, 1935
11. योगसार ( योगीन्दु सुनि) - परमभूत प्रभावक मंडल, बम्बई, 1937
12. समवायांग -- राजकोट, 1962
13. सावयवम्मदोहा (देवसेन) - सं. डॉ. हीरालाल जैन, कारंजा, 1932
14. समयसार (कुन्दकुन्दाचार्य) - पाटनी दि. जैन ग्रन्थमाला, भरोठ,
मारवाड़
पंचास्तिकाय कुन्दकुन्दाचार्य रामचन्द्र जैन शास्त्रमाला, वी. नि. सं. 2441 परमात्म प्रकाश-योगीन्दु मुनिसं. डॉ. ए. एन. उपाध्ये - परमभूत प्रभावक मंडल, बम्बई, 1937
15. सन्मति तर्क प्रकररण -- अहमदाबाद
16. विशेषावश्यक भाष्य-अहमदाबाद, 1937
(ग) हिन्दी :
1. अध्यात्म पदावली - सं. राजकुमार जैन, भारतीय ज्ञानपीठ, प्रथम संस्करण, 1954
riceras (बनारसीदास ) नाथूराम प्रेमी, हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई, 1943
2.
3.
ura श मोर हिन्दी में जैन रहस्यवाद - डॉ. वासुदेव सिंह, समकालीन प्रकाशन, वाराणसी, स. 2022
M
4. प्रपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी - डॉ. प्रेमचन्द्र जैन, सोहनलाल जैन धर्म प्रेमाख्यानक प्रचारक समिति, अमृतसर, प्र. संस्करण,
(a) प्रादिकाल के अज्ञात हिन्दी रासकाव्य-डॉ. हरीश मंगल प्रकाशन जयपुर
1974
(b) भादिकाल की प्रामाणिक रचनाएँ- डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त नई दिल्ली,
1976
6.
5. प्राधुनिक हिन्दी साहित्य की विचारधारा
पर पाश्चात्य प्रभाव. हरिकृष्ण पुरोहित, जयपुर, 1974 मानवचन पद संग्रह-मध्यात्म ज्ञान प्रसारक मण्डल, बम्बई
7.
. मानन्दघन बहोत्तरी - परमश्रुत प्रभावक मण्डल, बम्बई उत्तरी भारत की सन्त परम्परा - परशुराम चतुर्वेदी
8.
Page #332
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________________
9.
उपदेश दोहासतक नई दिल्ली
10, ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह- कलकत्ता, वि. सं. 1994
11. कबीर कॉ. रामजीलाल 'सहायक', लखनऊ विश्वविद्यालय, प्र.
拜
संस्करण, 1962.
12. काव्य में रहस्यवाद डॉ. बच्चूलाल अवस्थी, कानपुर, 1965 13. कविता रत्न - बम्बई, 1967
14. कबीर -डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी, हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर, बम्बई, पंचम संस्करण, 1954
15. कबीर का रहस्यवाद - डॉ. रामकुमार वर्मा, सन् 1921
16. कबीर की विचारधारा - डॉ. गोविन्द त्रिगुणायत, साहित्य निकेतन, कानपुर, द्वितीय संस्करण, सं. 2014
17. कबीर ग्रन्थावली सं. श्याम सुन्दरदास, नागरी प्रचारिणी सभा, काशी, छठा संस्करण, सं. 2013
18. कबीर वचनावली - प्रयोध्यासिंह
19. कबीर बीजक - वाराणसी
20. कबीर साहित्य का अध्ययन - पुरुषोराम लाल, साहित्य रत्नमाला कार्यालय, बनारस, प्र. संस्करण,
सं. 2018
21. काव्य कला तथा अन्य निबन्ध-जयशंकर प्रसाद भारती भण्डार, लीडर प्रेस, इलाहाबाद, तृतीय संस्करण, सं. 2005
22. ज्ञानदर्पण - जैन मित्र कार्यालय, बम्बई, सन् 1911
23. गुरु ग्रन्थ साहेब -
24. मोरखबानी संग्रह - बड़थ्वाल, हि. संस्कर
25. गुलाल साहब की वानी - वेलबेडियर प्रेस
26. घनानन्द और प्रानन्दधन - भाचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, प्रसाद परिषद्, काशी, प्रथमा वृति, सं. 2002
27. छहढाला - ( दौलतराम ) - सोनगढ़, वी. नि. सं. 2489
28. छहढाला (बुचजन) -- वसन, सन् 1898
29. फर्म चरित्र भाषा (कंवा भगवतीदास)
30. जस विलास यशोविजय उपाध्याय
31 जामी का पद्मावत: डॉ. गोविन्दाय संस्करण, प्रशोक प्रकाशन: दिल्ली 6, सन् 1963
Page #333
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________________
32. जिनेश्वर पद संग्रह-जिनवारणी प्रचारक कार्यालय, कलकत्ता 33. छायापाद और वैदिक दर्शन-डॉ. प्रेमप्रकाश रस्तोगी, दिल्ली, 1971 34. वापसी अन्थावली-स. रामचन्द्र शुक्ल, नागरी प्रचारिणी सभा, काशी,
पंचम संस्करण, शं. 2008 35. मे कवियों का इतिहास-मूलचंद वत्सल, साहित्य प्रचारक समिति,
जयपुर 36. जैन गुर्जर कवियो-मोहनलाल दुलीचन्द देसाई, बम्बई, वि. सं. 1982 37. जैन धर्म सार-सं. जिनेन्द्र वर्णी, सर्वसेवा संघ प्रकाशन, वाराणसी,
। सन् 1974 38. जैन भक्ति काव्य की पृष्ठभूमि-डॉ. प्रेमसागर जैन, भारतीय ज्ञानपीठ,
काशी, 1964 39. जैन क्रिया कोष-(दौलतराम)-जिनवाणी प्रचारक कार्यालय, कलकत्ता 40. जैन स्तोत्र संग्रह प्रगम भाग-अहमदाबाद, 1932 41. जैनशतक (भूधरदास)-जिनवाणी प्रचारक कार्यालय, कलकत्ता द्वि.
प्रावृत्ति, 1935 42. जैन शोध और समीक्षा-~-डॉ. प्रेमसागर जैन, महावीर पति. क्षेत्र, जयपुर
प्रथम संस्करण, बी. नि. सं 2496 43. तुलसी के भक्त्यामक गीत-डॉ. वचनदेव कुमार, हिन्दी साहित्य संसार,
दिल्ली, प्र. संस्करण, 1964 44. तुलसी प्रन्थावली-नागरी प्रचारिणी सभा, वारणसी 45. दादूदयाल की बानी-बेलवेडियर प्रेस, प्रयाग 46. दौलत जैन पद संग्रह-जिनवाणी प्रचारक कार्यालय, कलकत्ता-7 47. दोहाकोश-स. राहुल सांकृत्यायन, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना
3, प्र. संस्करण, सं. 2014 48. दोहा परमार्थ (रूपचन्द)-कलकत्ता 49. बानत पद संग्रह (यानसराय)-जिनवाणी प्रचारक कार्यालय,
कलकत्ता-7 50. धर्मरत्नोद्योत (जगमोहनदास) बम्बई, सन् 1912 51. धर्मविलास चामत विलास)-न अन्य रस्माकर कार्यालय, बम्बई,प्र.
संस्करण, 1914 52. नाथ सम्प्रदायका. हजारी प्रसाद द्विवेदी, हिन्दुस्तान एकेडेमी, इलाहा
बाब,1950
Page #334
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________________
$3. नाईक समयसार (बनारसीदास) वि.न स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट,
सोनगड़ी . संस्करण कि. २०
2019 . 54. पन्थी गीत (बीहल)55. प्रवचनसार-परमागम (वृन्दावन)-बम्बई, सन् 1908 56. परमार्थ जकड़ी संग्रह -कलकत्ता 57. पार्श्व पुराण (भूधरदास)-ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई, जि. संस्क
रण सं. 1975 58. प्राचीन काव्यो की रूप-रेखा-अमरचन्द नाहटा, भा. वि. मं. शोष. प्र.
बीकानेर, 1962 59. बनारसीविलास (बनारसीदास)-नानूलाल स्मारक ग्रन्थमाला, जयपुर,
सं. 2011 60. बारहमासा संग्रह-जैन पुस्तक भवन, कलकत्ता 61. बारह भावना संग्रह-जिनवाणी प्रचारक कार्यालय, कलकता 62. बुधजन सतसई-जैन पुस्तक भवन, कलकत्ता, बी. नि. स. 2477 63. बुधजन विलास-जिनवाणी प्रचारक कार्यालय, कलकता . 64. बौद्ध सांस्कृति का इतिहास-डॉ. भागचन्द्र जैन भास्कर, मालोक प्रका
शन, नागपुर, 1972 65. ब्रह्मविलास (मैया भगवीदास)-जन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई,
वि. संस्करण, 1926 66. भक्तिकाव्य मे रहस्यवाद-डॉ. रामनारायण पाडे, नेशनल पब्लिशिंग
हाउस, बिल्ली-7, प्र. संस्करण सन् 1966 67. भारत की अन्तरात्मा-अनु. विश्वम्भरनाथ त्रिपाठी 68. भीखा साहब की वानी-वेलवेडियर प्रेस 69. भूषरविलास (भूधरवास)-जिनवाणी प्रचारक कार्यालय, कलकक्षा मध्यकालीन धर्मसाधना---डॉ. हमारी प्रसाद द्विवेदी, साहित्य भवन
लिमिटेड इलाहाबाद, प्र. संस्करण, 1952 70. संत कबीर की साखी-बैंकटेश्वर 71. सुन्दर दर्शन-डॉ. त्रिलोकी नारायण दीक्षित, किताब महल, इलाहा
बाद, प्र. संस्करण, 1933 12. परनवास की बानी-1
1
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iro
73. संतकाम्य-परशुराम चतुर्वेदी, किसान महल, इलाहाबाद प्र. संस्करण,
1952 74. संतसुषासार-सं. पियोगी हरि, सस्ता साहित्य मण्डल प्रकाशन, नई
दिल्ली, 1953 15. साहित्यिक निका-सं.डा. त्रिभुवन सिंह, वाराणसी, प्र. संस्करण,
सन् 1970 16. मार सिखामन रास-संवेग सुन्दर उपाध्याय17. संत साहित्य-डॉ. सुवर्शन सिंह मजीठिया, रूप कमल प्रकाशन, दिल्ली,
प्र. सांस्करण, सन् 1962 78. सूर पर उनका साहित्य-डॉ. हरवंशलाल शर्मा, भारत प्रकाशन
मन्दिर, अलीगढ़, तृतीय संस्करण 79. सूर साहित्य-डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी, मध्यभारत हिन्दी साहित्य
समिति, सं. 1993 80. सूर की काव्यसाधना-डॉ. मोविन्दराम शर्मा नेशनल पब्लिशिंग हाउस,
दिल्ली, 1970 81. संत वाणी संग्रह82. तिर साहित्य-डॉ. धर्मवीर भारत, 1955 ४३. सीमंधर स्वामी स्तवन (विनयप्रभ उपाध्याय)84. मध्यकालीन हिन्दी संत विचार--डॉ. केशनी प्रसाद चौरसिया, हिन्दु
पौर साधना स्तान एकेडेमी, इलाहाबाद, प्र. सं.
1952 15. मध्यकालीन प्रेम साधना--परशुराम चतुर्वेदी-साहित्य भवन लिमिटेड,
इलाहाबाद, प्र. सं. 1965 86. मममोवन पंचशती (छत्रपति)--बडवानी, से. 2443 37. मनराम विलास (मनराम)88. भट्टारक सम्प्रदाय-डॉ. विद्याधर जोहरापुरकर, जीवराज ग्रन्थमाला,
सोलापुर, 1958 89. मित्र बन्धु विनोद-भाग-1-2, गंगा पुस्तक माला, कार्यालय, लखनक,
'हि. संस्करण, से 1984 90. मोह विवेक युद्ध (बनारसीदास)--वीर पुस्तक भण्डार, वी. नि. सं.
2481
Page #336
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________________
91. मीरा की प्रेम साधना- भुवनेश्वरमा मिचे 'माधव', राजकमल प्रकाशन, चतुर्थ संस्करण
92. मीरा पदावली - विष्णुकुमार मंजु
93. मीरांबाई- डॉ. प्रभात, हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर, बम्बई, प्र. संस्करण, सन्
1965
9 मोहन बहुतरी -- वरैया स्मृति ग्रन्थ-डॉ. कुन्दमलाल जैन वरेया स्मृति
ग्रन्थ
95. रहस्यवाद - - परशुराम चतुर्वेदी
96. राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व- डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल, जयपुर प्रोर कृतिस्व
•
97. राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों--डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल, भाग की ग्रन्थ सूची 1-5 महावीर महेष संस्थान,
जयपुर
98. राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित--सं. मोतीलाल मेनारिया, हिन्दी ग्रन्थो की खोज, प्रथम भाग विद्यापीठ, उदयपुर, सन् 1942 99. राजस्थान मे हिन्दी के हस्तलिखित- स. भगरचन्द नाहटा, साहित्य ग्रन्थों की सूची - चतुर्थ भाग संस्थान, राजस्थान विश्वविद्यालय, सन् 1964 100. रामचरित मानस --सं. माताप्रसाद गुप्त, हिन्दुस्तानी एकेडेमी, इलाहाबाद
101 सूफी मत: साधना और रामपूजन तिवारी, ज्ञान मण्डल लिमिटेड, साहित्य वाराणसी, प्र. संस्करण, सं. 2013 102. राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित-सं. उदयसिंह भटनागर, साहित्य ग्रन्थों की खोज, तृतीय भाग संस्थान, राजस्थान विश्वविद्यालय,
104. रैदास जी की वानी बेलवेडियर प्रेस
105. बृहज्जनवाणी संग्रह -- जैन भवन, कलकत्ता 106. विनती संग्रह - बम्बई, सन् 1934
107. विनय पत्रिका पीता प्रेस, गोरखपुर
108 हस्तलिखित हिन्दी ग्रन्थों का पन्द्रहवां वार्षिक नारी वारिणी, विवरण (लोग रिपोर्ट सन् 1932-34 )
सभा काशी
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________________
• 199- हिबा कायारामल मात्यायनकिताब महल साहाकार, प्र.
संस्करण, 1945 110. हिन्दी काव्य में निर्गुण सम्प्रदाय-ॉ. पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल, मवष
पब्लिशिंग हाउस, पानदरीबा, लस
नऊ, प्र. संस्करण, सं. 2007 111. हिन्दी की निर्गुण काव्यधारा-डॉ. गोविन्द त्रिगुणायत, साहित्य और उसकी दार्शनिक पृष्ठभूमि निकेतन, कानपुर, प्र. संस्करण
सन् 1961 112. हिन्दी बन साहित्य का इतिहास-नायूराम प्रेमी, जैन अन्य रत्नाकर ।
कार्यालय, बम्बई, सं. 1973 113. हिन्दी जन भक्तिकान्य पौर कवि-. प्रेमसागर जैन, भारतीय
भानपीठ'काशी, 1964 114. हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन-डॉ. नेमिचन्द शास्त्री, भारतीय
ज्ञानपीठ, काशी 115. हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त-डॉ. कामता प्रसाद जैन, भारतीय
इतिहास ज्ञानपीठ काशी, 1947 116. हिन्दी पद संग्रह-ॉ. कस्तुरबन्द कासलीवाल, महावीर अतिशय क्षेत्र,
अयपुर, प्र. संस्करण, 1965 117. हिन्दी साहित्य, द्वितीय सण-सं. डॉ. धीरेन्द्र वर्मा, भारतीय हिन्दी
परिषद प्र. भाग, प्रथम संस्करण, सं.
2015 118. हिन्दी साहित्य; एक परिहत्त-डॉ. शिवनन्दन प्रसाद शिवेदी, 1969 119. हिन्दी साहित्य-ॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी, देहली. 1952 120. हिन्दी साहित्य का बतीत-विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, बासी वितान प्रका.
बन, ब्राह्मनाला, वाराणसी, पृ. संस्करण
ई.. 2015 121. हिन्दी साहित्य का उदभव और विकास-कॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी 122. हिन्दी साहित्य का प्राविकाल-डा. हमारी प्रसाद द्विवेदी, बिहार,
राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना-3, द्वि.
संस्करण, सं. 2013 19. हिन्दी साहित्य का इतिहास-रामचन्द्र सुवा, नायरी प्रचारिणी सभा,
भाषी, 2009 ..
Page #338
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________________
far
224. हिन्दी साहित्य का बृहत् इतिहास भाग- 1 -सं. डॉ. राजबली पाण्डेय, काशी नागरी प्रचारिणी सभा, सं. 2014
A
225. हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तियां --- डॉ. जयकिशन प्रसाद खण्डेलवाल, विनोद पुस्तक मन्दिर, आगरा, अष्टम संस्करण,
सन्
1971
226. जायसी के परवर्ती हिन्दी सूफीकवि और काव्य
(घ) निबन्ध
1. मोहनदास ठोर ( 1643-1750 जैन सिद्धांत भास्कर, किरण 2, कुन्दनलाल जैन
अंक - 25,1968
2.
313
हिन्दी का जजैन साहित्य-गदावरसिंह - भारतीय जैन साहित्य संसद, भाग आदिकाल और संतकाव्य की पृष्ठभूमि 1, पृ. 49
3. कविवर बनारसीदास प्रौर उनकी रस-भारतीय जैन सा. संसद, भाग 1
परम्परा-जमनालाल जैन
4.
देवीदास --- परमानंद शास्त्री - अनेकान्त वर्ष 11, किरण 7-8 अक्टूबर, 1952, q. 273
कविवर पं. दौलतराम - परमानंद शास्त्री - मनेकान्त, वर्ष 11, किरण 3, मई 1952, पृ. 252 6. ब्रह्मजिनदास - - अगरचन्द नाहटा - प्रनेकान्त, वर्ष 11, किरण 19, नवम्बर, 1952
7. हेमराज गोदीका परमानन्द शास्त्री - प्रनेकान्त, वर्ष 11, किरस 10, प्रवचनसार हिन्दी अनुवाद पृ. 348
थानतरराय --- परमानन्द शास्त्री - प्रनेकान्त वर्षे 11 कि. 4-5 जूनजुलाई, 1952
5.
- डॉ. सरला शुक्ल, लखनऊ विश्वविद्यालय, सं. 2013
8.
9.
वजन और उनकी रचनायें - प्रनेकान्त वर्ष 11 कि. 6, अगस्त, परमानन्द शास्त्री
1952
10. कवि भूरदास मौर उनकी विचारधारा -अनेकान्त वर्ष 12 कि. 10, परमान्द शास्त्री मार्च 54
↓
11. कवि ग्रहम-परमानन्द शास्त्री-मनेकान्त वर्ष 21 कि. 3, प्रगस्त 68 12. राजस्थान के जैन कवि और उनकी अनेकान्त, वर्ष 25, क्रि. 4-5 दिसं. रचनायें गजानन मिश्र
1972
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________________
4
13. बहामी कवि ब्रह्म की रचनायें-मंगतराम-अनेकान्त वर्ष 23, कि.. चिलकाना वासी
भंक1979 14. ब्रह्म यशोधर-परमानन्द शास्त्री-अनेकान्त, मगस्त, 1970 15. कवि विनोदीलाल-परमान्द शास्त्री-भनेकान्त, अक्टूबर 1972
16. हिन्दी के कुछ प्रमात जैन कवि मोर-अनेकान्त, वर्ष 24, कि 4 अक्टू. । उनकी अप्रकाशित रचनायें परमानन्द शास्त्री 1971 17. जैन भक्तिकाव्य में प्रपति-अनेकान्त वर्ष 24, कि. 4, प्रदू. 1974
डॉ. मंमाराम गर्ग 18. पं. जयचन्द और उनकी साहित्य सेवा-अनेकान्त,वर्ष 13, कि. 7, परमानन्द शास्त्री
जनवरी 55 19. विदर्भ के दो हिन्दी काव्य-अनेकान्त, वर्ष 19, कि 12, पप्रेल 1966
विद्याधर जोहरापुरकर 20. भाचार्य सकलकीति और उनकी-अनेकान्त 19, कि. 1-2. अप्रेल,
हिन्दी सेवा-कुन्दनलाल जैन 1966 21. राजस्थान के जैन मुनि पद्मनन्दी-अनेकान्त, वर्ष 22, कि. 6. फर. परमानन्द शास्त्री
1970 22. भैया भगवतीदास-परमानन्द शास्त्री-अनेकान्त, वर्ष 14, कि. 8, मार्च,
____1957 23. कवि ठाकुरसी और उनकी कृतियां-अनेकान्त, वर्ष 14, कि. 1, अगस्त परमानन्द शास्त्री
1956 24. पं. भागचन्द्र जी-परमानन्द शास्त्री-अनेकान्त, वर्ष 14, कि, 1, प्रगस्त,
1956 25. हिन्दी भाषा के कुछ ग्रन्थों की अनेकान्त, वर्ष 13, कि. 4-5 अक्टूबर
नई खोज-परमानन्द शास्त्री नवम्बर, 9154 26. पं. दीपचन्द्र जी शाह और उनकी-प्रनेकान्त वर्ष 13, कि. 4-5अक्टूबर
रचनायें-परमानन्द शास्त्री नवम्बर, 1954 27. ब्रह्मजिनदास-परमानन्द शास्त्री-अनेकान्त, वर्ष 24, कि. 5, दिसं. 28. जैन सन्त दानकीति जीवन एवं--अनेकान्त, वर्ष 15, कि 1, अप्रेल
साहित्य-डॉ. कस्त्रचन्द कासलीवाल 1962 29. दौलतराम कृत जीवघर चरित्रः -अनेकान्त वर्ष 15, कि. 1, मल,
एक परिचय-अनूपचन्द 1962 30. टेकचन्द और उनकी रचनायें-अनेकान्त, वर्ष 15, कि. 2. जून, 1962
अमरचन्द नाहटा
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31. तत्वोपदेश कहताला : एक समालोचन भनेकान्त, वर्ष 15 कि. 2, जून दीपचंद पांड्या
1962 32. बैन अपभ्रश का मध्यकालीन हिन्दी-अनेकान्त वर्ष 16, कि. 2-3,
के मक्तिकाव्य पर प्रभाव जुलाई-अगस्त, 1962
डॉ. प्रेम सागर जन 33. कविवर बनारसीदास की सांस्कृतिक-अनेकान्त वर्ष 15, कि. 4, अक्टू. देन-रवीन्द्रकुमार जैन
1962 34. मादिकालीन 'चर्चरी' रचनाओं की अनेकान्त, वर्ष 15, कि. 4, अक्टूबर
परम्परा का उद्भव और विकास 1962 35. राजस्थानी जैन वेलि साहित्य:-अनेकान्त वर्ष 15, कि. 4, अक्टू. 62
एक परिचय-डॉ. नरेन्द्र भानावत 36 मध्यकालीन जैन हिन्दी काव्य में-अनेकान्त, वर्ष 15 कि. 6, फर. 63
प्रेमभाव-डॉ. प्रेमसागर जैन 37. अलभ्य अन्यों की खोज-अनेकान्त, वर्ष 16, कि. I, अप्रैल 1963
-सुकाशेलदास चउपइ 38. झात कवियों की कतिपय प्रज्ञात-अनेकान्त, वर्ष 23 कि. 5-6 दिसंबर
रचनायें-गंगाराम गर्ग 70-71 39. कवि देविदास का परमानंद विलास-अनेकान्त वर्ष 20, कि. 4, मक्ट्र. डॉ. भामचन्द जैन
1967 40. भगवतीदास का वैद्यविनोद-अनेकान्त वर्ष 21 कि. 2, जून 1967
डॉ. जोहरापुरकर 41. राजस्थान के जैन कवि और उनकी अनेकान्त 26, कि. 2. मई-जून रचनायें-गजानन मिश्र
1973 41. प्राचार्य सोमकीर्ति-अनेकान्त वर्ष 16 कि. 2, जून 63
अ.कस्तूरचंदकासलीवाल बनारसीदास के काव्य में भक्तिरसअनेकान्त वर्ष 16 कि. 3, अक्ट्र. डॉ. प्रेमसागर
63 पला ग्रन्थों की खोज -अनेकान्त वर्ष 16 कि. 4, प्रक्ट्र. 63
डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल 45. दिगम्बर कवियों के रचित फागु-मनेकान्त वर्ष 16. कि. 5, नवम्बर 63
काव्य-अमरचंद नाहटा 46. ठकुरसीकृत पंचेन्द्रिय वेलि-भनेकान्त वर्ष 16, कि. 6, दिसं. 1963
नरेन्द्र भानावत
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47. कवि वल्हया वृधिराज-प्रनेकान्त वर्ष 16 कि. 6, फर. 1964
परमानन्द शास्त्री 48. हिन्दी के मलभ्य ग्रन्थों की खोज-अनेकान्त वर्ष 16 कि. 6, कर. 64
डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल 49. कविवर देवीदास-परमानन्द शास्त्री-अनेकान्त वर्ष 11, कि.
7-8 सितम्बर अक्टू. 52 50. माली रासो (जिनदासका)-अनेकान्त वर्ष 23, कि. 2. जून, 1970
परमानन्द शास्त्री 51. हिन्दी भाषा के कुछ अप्रकाशित ग्रन्थ-अनेकान्त वर्ष 23 कि. 2, जून पन्नालाल अग्रवाल
1970 52. सूरदास और हिन्दी का जैन पद काव्य-अनेकान्त वर्ष 19, कि. 2, डॉ. प्रेमसागर जैन
प्रग. 1966 53. अग्रवालों का जैन संस्कृति में योगदान-अनेकांत वर्ष 20 कि. 4, परमानन्द शास्त्री
भक्टू. 1967 54. हिन्दी के जैन कवि और काव्य-अनेकान्त वर्ष 19, कि. 6, 1967 55. भट्टारक विजयक्रीति -अनेकान्त वर्ष 17, कि. 2, जून 1964
डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल 56. दिगम्बर कवियों के रचित -अनेकांत वर्ष 17, कि. 2, जून 1964
वेलि साहित्य-अमरचद नाहटा 57. प्रद्युम्न चरित्र का रचनाकाल व-अनेकांत वर्ष 14 ,कि. 6, जून 1957
रचयिता-अगरचंद नाहटा 58. पुराने साहित्य की खोज-अनेकांत वर्ष 14, कि. 6, जून, 1957 29. हिन्दी के नये साहित्य की खोज-अनेकांत वर्ष 14, कि. 12, जुलाई
डॉ. कस्तूरचंव कासलीवाल 1957 69. शान्तिनाथ फागु (भ. सकलकीति-अनेकान्त वर्ष 19. कि. 4, प्रदू. कुन्दनलाल जैन
1966 61. समयसार के टीकाकार -अनेकान्त वर्ष 12, कि. 7, दिसं. 1953
रूपचन्द जी-प्रगरचन्द नाहटा 62. पं. शिरोमणिदास विरचित धर्मसार-अनेकान्त वर्ष 22, कि. 1, मल
डॉ. भागचन्न जन भाकर 1968 63. जैन काव्य में विरहानुभूति भनेकान्त वर्ष 22, कि. 1, अप्रैल, 1969
डॉ. गंगाराम गर्म
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64. साध्यातम बत्तीसी (राजमहस)-अनेकान्त वर्ष 21, कि. 4, अक्टू • अमरचंद नाहटा
1938 65. ज्ञानसागर की स्फुट रचनायें-अनेकान्त वर्ष 21, कि. 4, भक्टू. 1968
विद्याधर जोहरापुरकर 66. भट्टारक विजयकीर्ति -अनेकान्त वर्ष 20, कि. 3, अग. 1967
कस्तूरचन्द कासलीवाल 67. महाकवि समयसुदर और उनका दानशील-प्रनेकान्त वर्ष 20, कि. 3,
तप भावना संवाद-सत्यनारायण स्वामी अगस्त 1967 68. अग्रवालों का जैन संस्कृति में योगदान--अनेकान्त वर्ष 20, कि. 3, परमानन्द शास्त्री
अगस्त 1967 69. पाण्डे लालचन्द का वरांगचरित-प्रनेकांत वर्ष 22, कि. 3-4 अग.
डॉ. भागचंद भास्कर अक्टूबर 1939 70. रूपक काव्य परम्परा -अनेकांत वर्ष 14, कि. 9, अप्रैल 1957
डॉ. परमानन्द शास्त्री 71. कवि विनोदी लाल-परमानन्द शास्त्री-अनेकान्त वर्ष 25, कि. 4-5
___ अक्टूबर 1972, 72 अज्ञात जैन कवि और उनकी रचनाये -अनेकान्त वर्ष 24, कि. ! . डॉ. गंगाराम गर्ग
1971 73. हिन्दी के कुछ अज्ञात जैन कवि और उनकी-अनेकांत वर्ष 24, कि 1,
अप्रकाशित रचनायें-परमानन्द शास्त्री अप्रैल 1971 74. हिन्दी के अज्ञात गैन कवि-अनेकांत वर्ष 24, कि. 2, जून 1971
परमानंद शास्त्री 75. संत कबीर और बानतराय-अनेकांत वर्ष 24, कि. 2, जून 1971
गंगाराम गर्ग 76. पांडे जीवनदास का बारहमासा-अनेकान्त वर्ष, 34, कि. 2, जून गिन्नीलाल
1971 77. भव्यानंद पंचाशिका-अनेकांत 78. अम्विका कथा-अगरचंद, नाहटा-अनेकांत 79. गुणकोति कृत विवेक विलास-अनेकांत
विद्याधर जोहरापुरकर 80. हि.अ. सा. के कुछ प्रज्ञात जैन कवि-अनेकांत
म. ज्योतिप्रसाद 81. ब्रह्मज्ञान सागर और उनकी रचना-अनेकांत
कुन्दनलाल
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82. बुडेलखंड के कविवर देवीदास अनेकांत
83. मुनि केशवदास की रचनायें जैन संदेश शोधांक, 23 wwe, 1956 अगरचंद नाहटा, सं. 1753
arunanीसी
84. पं. देवीदास जी और उनका परमानन्द जैन सन्देश शोधांक 27 विलास - हीरालाल सि. शास्त्री
85. after पंचाशत का प्राचीन पद्यानुवाद -- जैन सन्देश शोधांक 26-27 शीतल सागर
86. अज्ञात कवि कृत शीलस-- डॉ. सनत कुमार रंगारिया श्रमरण, मई 1969 87. जैन पदों में रागों का प्रयोग -- श्रमण, मई, 9172
प्यारेलाल
88. बनारसीदांस का रसदर्शन - श्रमण, श्रप्रैल, 1972 89. जैन मिस्टिसिज्म- - श्रमण, अप्रैल, 1973 श्रमण, मई, 1973
90. स्वयंभू श्रीर तुलसीदास -- भ्रमण, जुलाई 67 प्रेम सुमन
91. अध्यात्मवाद - देवेन्द्रमुनि शास्त्री -- श्रमण नबं. दिसं. 1967 92 दि. जैन कर्ता और उनके ग्रन्थ-- जैन हितैषी
"
(च) हस्तलिखित प्रतियों का खोज विवरण
1.
5.
6.
2. प्रादीश्वर फागु प्रमेर शास्त्र भंडार, जयपुर
3. भारदा प्रानंद तिलक-प्रामेर शास्त्र भंडार, जयपुर
4.
कर्मघटावलि - कनककीर्ति-त्रधीचन्द दिगम्बर जैन मंदिर, जयपुर चेतन पुद्गल हमाल - दिगम्बर जैन मंदिर, नागदा बूंदि
चौबीस स्तुति पाठ - दि. जैन पंचाबती मंदिर, बड़ौत धनपालरास --- प्रमेर शास्त्र भडार, जयपुर
8. पंचसहेली गीत-लूणकरण जी पाण्ड्या मंदिर, जयपुर
9. प्रद्युम्न चरित्र -- प्रमेर शास्त्र भंडार, जयपुर
10. पार्श्वजिन स्तवन --- खैराबाद के गुटके में सिद्ध
11. मनरामविलास - - ठाठियों का दि. जैन मंदिर जयपुर, बेष्ट नं. 395
12. मिथ्या दुक्कड़-आमेर शास्त्र भंडार. जयपुर
13.
समाधि-जैन पंचायती मंदिर, दिल्ली
7.
नस्तमितव्रत संधि हरिचन्द-- दिगम्बर जैन बड़ा मंदिर, जयपुर, गुटका नं. 171
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14. शिवरमा विवाह --वीचन्द नंदिर जयपुर, मुटका 158
अजयराज पाटस्सी 15. बी चूनरी भीतीवास-मंगोरा (मथुरा) निवासी पं. पलभरामजी
के पास 16. खटोलना गीत-रूपचंद-मामेर शास्त्र मंडार, जयपुर 17, अध्यातम सर्वया-रूपचन्द--बधीचन्द मन्दिर, जयपुर 18. फुटकल पद-बह्मदीप-मामेर शास्त्र भंडार, जयपुर के गुटका .
में प्रकाशित 19. उपदेश दोहाशतक-पांडे हेमराज ठोलियों का मन्दिर, जयपुर 20. फुटकल पद-धानतराय-बधीचन्द जैन मन्दिर, जयपुर 21. मनकरहारास-ब्रह्मदीप--मामेर शास्त्र भन्डार, जयपुर 22. मांझा-बनारसीदास-बधीचन्द जैन मन्दिर, जयपुर । 23. परमानन्द विलास और पद पंकन--परवार पुरा जैन मन्दिर, नागपुर
देवीदास (छ) पत्र पत्रिकाएं
1. अनेकांत-वीर सेवा मन्दिर, दरियागंज, दिल्ली-6 2. काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिका--वारणासी 3. जैन सन्देश (शोघांक)-चौरासी, मथुरा 4. जैन हितेषी-जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई 5. भारतीय साहित्य--मागरा विश्व विद्यालय 6. वीरवाणी--मनिहारों का रास्ता, जयपुर 7. मरू भारती-राजस्थान 8. श्रमण-वाराणसी 9. परिषद् पत्रिका-पटना 10. हिन्दुस्तानी-इलाहाबाद
11. हिन्दी अनुशीलन-प्रयाग (१) कोष
1. हिन्दी शब्द कोष---मनन्देल 2. अमरकोश-वाराणसी 3. अभिषान चिन्तामणि कोम-रतलाम 4. नाममाला (बनारसीदास)-बीर सेवा मन्दिर, दिल्ली ३. पालिकोससंगहो-सं. डॉ. भागवद जैन-मालोक प्रकाशन, नागपुर प्र.
संस्करण, 1974
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6. Concise Oxford Dictionary-Oxford, 1961. * * *, gerard, want, ** ATTE
1980 to & **frater *TR-*. *- ford af, are opinie, forrett. 8. English 1. Comperatne Religion--A. C. Bonbuet, Petican Series,
19532. Eastem Religion and Western Thought-Dr. S. S. Radh.
akrashan. 3. Mysticism in Bhagwadgita--Mahendran atha Sarkar. Cl
lcutta, 1944. 4. Mysticism Theory and Art---Radhakamal Mukurji, 5. Studies in Vedanta--V. j. Kirtikar, Bombay. 6. Mysticism in Maharashtra---Prof. Ranade, 7. Mysticism in Religion--Dr, W. R. Inge, Newyark., 8. Myatical Phenomena--M. G. R. Alliert Forges, Lond
on, 1926, 9. The Teachings of the ----Walter T. Stace, Newyark, 1960
Mystices. 10. The Varieties of Religious--Wiliam James, Longmans,
Experience : A Study in 1929.
Human Nature Il Mysticism in Newyark--Ku, Under Hill, 12. Practical Mysticism--Ku. Under Hill. 13. Mysticism-Ku. Under Hill. 14. Mysticism Dictionaries-Frank Gaynor. 15. New Haven--W. E. Hocking. 26. Mysticism and Logic--Page.
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