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________________ 186 परम्परा हठयोग की प्रस्थापना में मूलकारण रही। इसमें सूर्य और चन्द्र के योग से श्वासोच्छवास का निरोध किया जाता है अथवा सूर्य ( इडा नाड़ी) और चन्द्र (पिंगला) को रोककर सुषुम्णा मार्ग से प्राणवायु का संचार किया जाता है । उत्तर कालीन वैदिक और बौद्ध सम्प्रदाय में हठयोग साधना का बहुत प्रचार हुआ । जैन साधना में मुनि योगीन्दु, मुनि' रामसिंह और आनंदघन में इसके प्रारंभिक तस्व अवश्य मिलते हैं । पर उसका वह वीभत्स रूप नहीं मिलता जो उत्तरकालीन after meet बौद्ध सम्प्रदाय में मिलता रहा है। जैन साधना का हठयोग जैन धर्म के मूल भाव से पतित नहीं हो सका । उसे जैनाचार्यों ने अपने रंग में रंगकर अन्तभूत कर लिया। योग-साधना सम्बन्धी प्रचुर साहित्य भी जैन साधकों ने लिखा है । उसमें योगदृष्टिसमुच्चय, योगविन्दु, योगविंशति, योगशास्त्र श्रादि ग्रन्थ विशेष उल्लेखनीय हैं । योग का तात्पर्य है यम-नियम का पालन करना । यम का अर्थ है इन्द्रियों का निग्रह और नियम का अर्थ है महाव्रतों का पालन । पचेन्द्रियों के निग्रह के साथ ही 'अन्तर विजय' का विशेष महत्व है । उसे ही सत्य ब्रह्म का दर्शन माना जाता है - 'अन्तर विजय सूरता सांची सत्य ब्रह्म दर्शन निरवाची ।" इसी से योगी के मन की परख की जाती है। ऐसा ही योगी धर्मध्यान श्रौर शुक्लध्यान को पाता है । दौलतराम ने ऐसे ही योगी के लिए कहा है 'ऐसा योगी क्यों न अभयपद पाव, सो फेर न भव में भावं । बनारसीदास का चिन्तामणि योगी आत्मा सत्य रूप है जो त्रिलोक का शोक हरण करने वाला है और सूर्य के समान उद्योतकारी है ।" कवि द्यानतराय को उज्जवल दर्पण के समान निरजन ग्रात्मा का उद्योत दिखाई देता है । वही निर्विकल्प शुद्धात्मा चिदानन्द रूप परमात्मा है जो सहज साधना के द्वारा प्राप्त हुना है इसीलिए कवि कह उठता है- 'देखो भाई प्रातमरामविराजे । साधक अवस्था के प्राप्त करने के बाद साधक के मन में दृढ़ता प्रा जाती है और वह कह उठता है 1. पाड़ दोहा, 168. 2. योगसार, पृ. 384. 3. पाहुड़ वोहा, पृ. 6. 4. 5. बनारसी विलास, प्रश्नोत्तर माला, 12, पृ. 183. मन रामविलास, 72-73 ठोलियों का दि जैन मंदिर, जयपुर, बैष्टन नं. 395. 6. दौलत जैन पद संग्रह, 65, जिनवाणी प्रचारक कार्यालय, कलकत्ता. बनारसीविलास, अध्यात्मपद पंक्ति, 21, पृ. 236. 7. 8. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 114.
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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