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वाग्रत करते हुए पुनः वह कह उठता है कि संसार का हर पदार्थ क्षणभंगुर है और तू अविनाशी है
'तू अविनाशी प्रात्मा, विनासीक संसार ।' परन्तु माया-मोह के चक्कर में पड़कर तू स्वयं की शक्ति को भूल गया है । तेरी हर श्वासोच्छवास के साथ सोह-सोहं के भाव उठते हैं। यही तीनों लोकों का सार है । तुम्हें तो सोहं छोड़कर अजपा जाप में लग जाना चाहिए। प्रात्मा को अविनाशी और विशुद्ध बताकर उसे अनन्तचतुष्टय का धनी बताया । प्रात्मा की इसी अवस्था को परमात्मा कहा गया है ।
___ संत कबीर ने भी जीव और ब्रह्म को पृथक् नहीं माना। अविद्या के कारण ही वह अपने आप को ब्रह्म से पृथक् मानता है। उम अविद्या और माया के दूर होने पर जीव और ब्रह्म अद्वैत हो जाते है-"सब घटि अन्तरि तू ही व्यापक, घट सरूप सोई । द्यानतराय के समान ही कबीर ने उसे आत्म ज्ञान की प्राप्ति कराने वाला माना है।
आत्मचिन्तन करने के बाद कवि ने भेदविज्ञान की बात कही । भेद विज्ञान का तात्पर्य है स्व-पर का विवेक । सम्गक्दृष्टि ही भेदविज्ञानी होता है । मंसारसागर से पार होने के लिए यह एक प्रावश्यक तथ्य है। द्यानतराय का विवेक जाग्रत हो जाता है और प्रात्मानुभूति पूर्वक चिन्तन करते हुए कह उठते हैं कि अब उन्हें चर्म-चक्षुषों की भी आवश्यकता नहीं। अब तो मात्र आत्मा की अनत गुण शक्ति की प्रोर हमारा ध्यान है। सभी वैभाविक-भाव नष्ट हो चुके हैं और प्रात्मानुभव करके संसार-दुःख से छूटे जा रहे हैं ।
"हम लागे प्रातम राम सौं। बिनासीक पुद्गल की छाया, कौन रमै धन-धाम सौं ॥ समता-सुख घट में परगाट्यो, कोन काज है काम सौ । दुविधा भाव तलांजलि दीनों, मेल भयो निज श्याम सौ।
भेद ज्ञान करि निज-पर देख्यौ, कौन विलोके चाम सौं ।' भेदविज्ञान पाने के लिए वीतरागी सद्गुरु की आवश्यकता होती है । हर धर्म में सद्गुरु का विशेष स्थान है । साधना मे सद्गुरु का वही स्थान है जो
2. धर्म विलास, पृ. 165 2. कबीर ग्रन्थावली, पृ. 105 3. वही, पृ. 89 4. अध्यात्म पदावली, 47, पृ. 358