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श्रात्मा का यही मूल रूप है --मोह कर्म मम नाहीं नाहि भ्रमकूप है, शुद्ध चेतना सिंधु हमारी रूप है।
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जिस प्रकार कोई नटी वस्त्राभूषणों से सजकर नाट्यशाला में परदे की नोट में झाकर जब बड़ी होती है तो किसी को दिखाई नहीं देती पर जब उसके दोनों घर के परदे अलग कर दिये जाते हैं तो दर्शक उसे स्पष्ट रूप से देखने में सक्षम हो जाते हैं। वैसे ही यह ज्ञान का समुद्ररूप प्रारमा मिध्यात्व के प्रावरण से ढंका था । उसके दूर होते ही प्रात्मा ने अपनी मूल ज्ञायक शक्ति प्राप्त कर ली :जैसे कोऊ पातुर बनाय वस्त्र ग्रामरन, प्रावति प्रखारे निसि माड़ी पट करिकै । दुहं कर दीबटि संवारि पट दूरि कीज, सकल सभा के लोग देखें दृष्टि धरिकै ॥ तैसें ग्यान सागर मिध्याति ग्रंथि भेदि करि, उमग्यो प्रकट रह्यो तिहूं लोक भरिकै ॥ ऐसो उपदेस सुनि चाहिए जगत जीव,
शुद्धता संभारे जग जालसो निसरिके ॥ 2
मिथ्यात्व कर्म के उदय से जीव अध्यात्म और रहस्य साधना की ओर उन्मुख नहीं हो पाता । वह देह मौर जीव को अभिन्न मानकर सारी भौतिक साधना करता है। मोह, ममता, परिग्रह, विषय भोग श्रादि संसार के कारणों को दूर कर श्रात्मज्ञानी कर्म-निर्जरा में जुट जाता है । संसारी का मन तृष्णा के कारण धर्म-रूप अंकुश को उसी तरह नहीं स्वीकार करता जैसे महामत्त गजराज प्रकुश से भी वश में नहीं हो पाता । इस मन को वश में करने के लिए ध्यान-समाधि प्रौर सद्गुरु का उपदेश उपयोगी होते हैं। कंचन जिस प्रकार किसी परिस्थिति में अपना स्वभाव नहीं छोड़ता
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नाटक समयसार, जीवद्वार, 13.
नाटक समयसार, जीवद्वार, 35 g. 52.
देह मौर जीव के सम्बन्ध की प्रशानता ही मिथ्यात्व है दीघनिकाय के ब्रह्म जाल सुरत में इस प्रकार की 62 मिध्यादृष्टियो का उल्लेख है - 18 प्रादि सम्बन्धी और 44 भन्त सम्बन्धी । इनमें शाश्वतवाद, भ्रमरविक्षेपवाद, उच्छेदवाद, तज्जीवतच्छरीरवाद, संज्ञीवाद, प्रसंज्ञीवाद जैसे वाद अधिक प्रसिद्ध थे । सूभकृतांग में सप्ततत्त्व या नव पदार्थों के प्राधार पर बही संख्या 363 बतायी गई है । क्रियावाद 180, प्रक्रियावाद 84, अज्ञानवाद 67 और daforare 32 | जैन बौद्ध साहित्य में यह परम्परा लगभग समान है । बिशेष देखिए - डॉ. भागचन्द्र भास्कर की पुस्तक बौद्ध संस्कृति का इतिहास, प्रथम अध्याय ।