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सुनि ठगनी माया, तैं सबै जग ठगे खांया | टुक विश्वास किया जिन तेरा, सो मूरख पछताया || ग्रामा तनक दिखाय बिज्जु, ज्यों मूढमती ललचाया । करि मद अंध धर्म हर लीनों, प्रन्त नरक पहुंचाया ॥ केते कंथ किये तें कुलटा, तो भीं मन न प्रधाया । किस ही सौं नहि प्रीति निभाई, वह तजि धौर लुभाया ॥ भूधर चलत फिरत यह सबकों, भौंदू करि जय पाया । जो इस ठगनी को ठग बैठे, मैं तिनको शिर नाया ||
अन्यत्र पदों में कबीर ने माया को सारे संसार को नागपाश में बाधने वाली चण्डालिनि, डोमिनि और सापिन भादि कहा है। संत प्रानन्दघन भी माया को ऐसे ही रूप में मानते हैं और उससे सावधान रहने का उपदेश देते हैं। कबीर का भी इसी प्राशय से युक्त पद है
भवधू ऐसो ज्ञान विचारी, तार्थं नांहू पत्नीं नांहू क्वारी, काली मूण्ड की एक न छोडयो बाम्हन के बम्हनेटी कहियो, कलमा पढि पढि भई
भाई पुरिष थे नारी ॥ पूत जन्यू घो हारी । प्रजहू अकन कुवारी ॥ जोगी के घर चेली । तुरकनी, प्रजहू फिरी अकेली ॥
1. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 154.
2.
वधू ऐसो ज्ञान विचारी, वामें कोण पुरुष कोण नारी । बाम्हन के घर न्हाती धोती, बाम्हन के घर वेली । कलमा पढ़ पढ़ भई रे तुरकड़ी, तो भाप ही प्राप अकेली ॥ ससरो हमारी बालो भोलो, सासू बाल कुंवारी ।
पियजू हमारे होढ़े पारणिय, तो मैं हूं भुलावनहारी ॥ नहीं हूं पटणी, नहीं हूं कुंवारी, पुत्र जरगावन हारी ।
काली दाढ़ी को मैं कोई नही छोड्यो, तो हजुए हूं बाल कुंवारी ॥ द्वीप में खाट खटूली, गगन उशीकु तलाई ।
धरती को छेड़ो, श्राम की पिछोड़ी, तोमन सोड भराई ॥
गगन मंडल में गाय बिभारणी, वसुधा दूध जमाई |
सउ रे सुनो माइ बलोणू बलोवे, तो तत्व प्रमृत कोई पाई ||
नहीं जाऊं सासरिये ने नहीं जाऊं पीहरिये, पियजू की सेज बिछाई ।
धानन्दधन कहे सुना भाई साधु, तो ज्योत से ज्योत मिलाई । मानन्दधन बहोसरी, पु. 403 - 405.