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सम्भव संसारा । जाव चराचर विविध प्रकारा' तथा 'परु मोर तोर खै माया । जहि बस कीन्हें जीव निकाया।' कवि के एक अन्य दोहे से भी यह स्पष्ट है
माया जीव सुभाव गुन काल करम महदादि ।
ईस अंक ते बढ़त सब ईस अंक बिनु बादि । जैन साधकों और कबीर के माया सम्बन्धी विचार मिलते-जुलते से हैं। कबीर ने माया को छाया के समान माना है जो प्रयत्न करने पर भी ग्रहण नहीं की जा सकती। फिर भी जीव उसके पीछे दौड़ता है। बनारसीदास ने भी उसे छाया' कहकर सुन्दर शय्या कहा है जिस पर मोही मोह-निद्रा से प्रस्त हो जाता है । कबीर और भूधरदास दोनों ने माया को ठगिनी कहा है । कबीर ने इस माया के विभिन्न रूप पोर नाम बताये हैं और उसे कथनीय कहा है
माया महा ठगिनी हम जानी।। निरगुन फांस लिये कर डोले, बोले मधुरी वानी, केशव के कमला हवे बैठी, शिव के भवन शिवानी । पंडा के मूरति हवै बैठी तीरथ में भई पानी, जोगी के जोगिन हवं बैठी राजा के घर रानी॥ काहू के हीरा हवं बैठी, काहू के कोड़ी कानी, भगतन के भगतिन हवै बैठी ब्रह्मा के ब्रह्मानी। कहत कबीर सुनो हो संतो, यह सब अकथ कहानी।
कबीर के समान ही भूधरदास ने माया को 'ठगनी' शब्द से सम्बोधित किया है और उसे बिजली की प्रात्मा के समान माना है जो अज्ञानी प्राणियों को ललचाती रहती है । इसका जरा भी विश्वास करने पर पछताना ही हाथ लगता है । मागे भूधरदास जी केते कंथ किये ते कुलटा, तो भी मन न मधाया' कहकर उसके रहस्य को स्पष्ट कर देते हैं परन्तु कबीर उसे कथनीय कहकर ही रह जाते हैं।
1. तुलसी ग्रन्थावली, पृ. 100. 2. माया छाया एक सी विरला जाने कोय ।
माता के पीछे फिरे सनमुख भाग सोय । संत वाणी संग्रह, भाग 1, पृ. 57. माया छाया एक है घट बढ़े छिन माहि । इनकी संगति जे लग तिनहिं कटी सुख नाहिं ॥बनारसीविलास, प 75. माया की संवारी सेज चादरि कलपना....."नाटक समयसार, निर्जराद्वार 14, पृ. 138.
माया तो ठगिनी भई ठगत फिर सब देस, संतवाणी संग्रह, भाग 1, पृ. 57. 6. कबीर-को. हजारीप्रसाद द्विवेदी, पड़ 134, पृ. 311.