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उसके साथ जाता कोई नहीं।' जगजीवन ने इसलिए संसार को 'पन की छाया बताकर पुत्र, कलत्र, मित्र प्रादि को 'उदय पुद्गल बुरि माया' कहा है । कबीर ने उसे सेमर के फूल-सा और दादू ने उसे सेमर के फूल तथा बकरी की भांति कहकर खणा-खण्ड वाटी जाने वाली पांखरी बताया है। जायसी ने संसार को स्वप्नवद, मिथ्या और मायामय बतलाया है। सूर ने इसी तथ्य को निम्नांकित रूप में व्यक्त किया है :
जा दिन मन पंछी उडि जैहै। जिन लोगन सौं नेह करत हैं तेई देखि घिन हैं।
घर के कहत सकारे काठी भूत होई धरि खैहैं।' नानक ने भी 'प्राध घड़ी को नहिं राखत घर ते देत निकार' कहकर इसी भाव को व्यक्त किया है। जैन कवियों ने तो भनित्य भावना के माध्यम से इसे मौर भी अधिक तीव्र स्वर दिया है। पं. दौलतराम ने इन भौतिक पदार्थों के स्वभाव को 'सुरधनु चपला चपलाई कहा है ।10'
तुलसीदास ने भी संसार की प्रसारता को निम्न शब्दों में चित्रित किया है
1. संत वाणी संग्रह, भाग-2, पृ. 4. 2. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 77. 3. 'ऐसा यह संसार है जैसा सेमर फूल ।
दिन दस के व्यवहार में झूठे रे मन भूल ।।' कबीर साखी संग्रह, पृ. 61. __ यह संसार सेंवल के फूल ज्यों तापर तू जिनि फूल, दादूवानी, भाग-2,
पृ. 14. सब जग छली काल कसाई, कर्द लिए कंठ काटे। पच तत्त्व की पंच पंखरी खण्ड-खण्ड करि वाट ॥ दादूवानी, भाग-1, पृ. 229. जायसी का पदमावत : काव्य और दर्शन डॉ. गोविन्द त्रिगुणायत, पृ.
213-214. 7. सूरसागर,
सन्त वाणी संग्रह, भाग-2, पृ. 46. देखिये, इसी प्रबन्ध का द्वितीय-पंचम परिवर्त, वृहद् जिनवाणी संग्रह, बारह
भावना भूधरदास, बुधजन, प्रादि कवियों की। 10. जोवन गृह गो धन नारी, हय गयजन माशाकारी ।
इन्द्रीय भोग छिन थाई, सुरपनु चपला चपलाई । छहढाला, 5-3