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में तोहि अब जान्यो, मंसार । बांधि न सकहि मोहिं हरि के बल प्रगट कपट-धागार ।। देखत ही कमनीय, कछु नाहिंन पुनि किए विचार । ज्यों बदली तरु मध्य निहारत कबहू न निकसत सार । तेरे लिए जन्म अनेक में फिरत न पायों पार ।
महा मोह-मृग जल सरिता मह बोरयो हो बारहिं बार ।।
इसी प्रकार सूर ने भी संसार को सेंमल के समान निस्सार पोर जीव को उस पर मुग्ध होने वाले सुप्रा के समान कहा है -
रे मन मूरख जनम गंवायो। करि प्रभिमान विषय रस गोध्यो, स्याम सरन नहि प्रायो। यह संसार सुभा सेमर ज्यों, सुन्दर देखि लुभायो।
चाखन लाग्यो कई गई उड़ि, हाथ कछु नहिं प्रायो॥
द्यानतराय ने उसे 'झूठा सुपना यह संसार । दीसत है विनसत नहीं हो बार"3 कहा और भूधरदास ने उसे 'रेन का सपना' तथा 'वारि-बबूल' माना । जगजीवन ने धन 'धन की छाया' के साथ ही राग-द्वेष को 'वगु पंकति दीरघ' कहा । बनारसी. दास ने तो संसार के स्वभाव को नदी-नाव का संयोग जैसा चित्रित किया है
चेतन तू तिहुकाल अकेला । नदी नाव संयोग मिले ज्यों त्यों कुट्रम्ब का मेला। यह संसार प्रसार रूप सब ज्यों पटखेलन खेला।
सुख सम्पत्ति शारीर जल बुद बुद विनसत नाही बेला ॥ इसी भाव से मिलता-जुलता सूर का पद भी दृष्टव्य है :
हरि विन अपनी को संसार । माया लोभ मोह हैं छांडे काल नदी की धार । ज्यों जन संगति होत नाव में रहिति न परल पार । तस धन-दारा-सुख सम्पति, विठुरत लग न बार। मानुष-जनम नाम नरहरि को, मिले न बारम्बार ॥
1. विनय पत्रिका, 188. वो पद, 2. सूरसागर, 335. 3. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 133. 4. वही, पृ. 157. 5. वही, पृ. 70. 6. कविता रत्न, पृ. 24.